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१२२ / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
निर्जरा है । यह शब्द जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है। पूर्वकृत कर्मों का क्षय जिससे होता है, उसे निर्जरा कहा गया है। तप के द्वारा कर्म आत्मा से पृथक् हो जाता है । अतएव तप को निर्जरा का हेतु कहा गया है । तप में बड़ी शक्ति है। ६. मोक्ष
मोक्ष आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कहते हैं। जब तक आत्मा कर्मों से बद्ध है, तब तक वह संसारी है । कर्म-मल से शुन्य हो जाने पर वह मुक्त हो जाता है । कर्म के तीन रूप होते हैं-संचित कर्म, क्रियमाण कर्म और प्रारब्ध कर्म । तीनों का क्षय हो जाने पर ही मोक्ष होता है। आत्म-प्रदेशों से कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना ही जिनशासन में मोक्ष है। अतः वह आत्मा का शुद्ध स्वरूप है।
___ जैन दर्शन में नव ही तत्त्व हैं, न कम और न अधिक । सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वों पर जो श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दर्शन है। तत्त्वों का जो ज्ञान करता है, वह सम्यग्ज्ञान है । हेयों को छोड़ने का और उपादेयों को ग्रहण करने का जो प्रयास करता है, वह सम्यकचारित्र है। वस्तुतः नव तत्त्व ही जैन दर्शन का मूल आधार है । जय, हेय तथा उपादेय
नव तत्त्वों में से दो तत्व-जीव और अजीव ज्ञेय हैं। ज्ञेय का अर्थ है, ज्ञान का विषय । ज्ञेय, प्रमेय और अभिधेय-ये तीनों पर्यायवाची हैं । प्रमा के विषय को प्रमेय कहते हैं । अभिधा शब्द में रहने वाली एक वृत्ति है । अभिधा का विषय, अभिधेय कहा जाता है। यहाँ पर जीव और अजीव-ये दोनों ज्ञान के विषय होने से ज्ञ य कहे जाते हैं।
पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये चार तत्व उपादेय हैं, ग्रहण करने के योग्य हैं । जीव इन्हें ग्रहण करके अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है । संवर और निर्जरा-दोनों मोक्ष के साधनभुत हैं। संवर से आस्रव का निरोध होता है। तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय हो जाता है। अतः ये दोनों ही उपादेय हैं । साधना में आचरण करने योग्य हैं। लेकिन पुण्य के सम्बन्ध में, मतभेद है । पुण्य या तो शुभ आस्रव रूप है, या शुभ बन्ध रूप । दोनों स्थिति में, वह मोक्ष का हेतु कैसे हो सकता है ? अतः
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