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जैन दर्शन में तत्त्व वर्गीकरण | १२३
कुछ विद्वानों का मत है, कि व्यवहारनय से पुण्य भी श्रावकों के लिए उपादेय है, अवश्य ग्रहण करने योग्य है। परन्तु निश्चयनय से पुण्य, श्रावकों के लिए हेय है, अवश्य त्यागने योग्य है। अब रहा, साधु-जीवन का प्रश्न । साधु क्या करे ? समाधान में कहा गया है, कि उत्सर्ग मार्ग में, साधु के लिए पुण्य हेय है, त्यागने योग्य है । किन्तु अपवाद मार्ग में, साधु के लिये पुण्य उपादेय है, ग्रहण करने योग्य भी है। अतः पुण्य हेय एवं उपादेय दोनों है।
पाप, आस्रव और बन्ध-ये तीनों तत्व सदा हेय हैं, सदा त्यागने के योग्य हैं। मोक्ष की साधना करने वाले को इनका कभी आचरण नहीं करना चाहिये । ये तीनों संसार के साधनभूत हैं । दुःख रूप संसार की अभिवृद्धि करने वाले हैं। संक्षेप और विस्तार
शास्त्र में वस्तु का कथन दो प्रकार से किया जाता है-संक्षेप से और कहीं पर विस्तार से । गुरु शिष्य की योग्यता तथा शक्ति की जाँच करके ही तत्व का कथन करता है। संक्षेप में दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । स्थानांग सूत्र में एवं द्रव्यसंग्रह आदि में दो तत्त्वों का ही कथन किया गया है।
पुण्य और पाप जीव के ही होते हैं, अजीव के कभी नहीं होते । कर्म बन्ध भी जीव को ही होता है, अजीव को कभी नहीं । कर्म क्या है ? पुद्गल परिणाम । आत्म-सम्बद्ध पुद्गल की कर्म संज्ञा होती है। अतः दगल अजीव है। क्योंकि वह उपयोग-शून्य है। आस्रव क्या है ? मिथ्यादर्शन आदि रूप उपाधि के कारण जीव का मलिन स्वभाव । यह आस्रव, आत्मा के प्रदेश और पुदगल का संयोगी भाव है। सवर क्या है ? आस्रव निरोध रूप है । आत्म-प्रदेश और पुद्गल का वियोगी भाव है। आत्मा का निवत्ति रूप शुद्ध परिणाम है । आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला है। निर्जरा क्या है ? आत्म-प्रदेशों से पुद्गल परमाणुओं का धीरे-धीरे अलग हो जाना । निर्जरा भी आत्मा और पुद्गल का वियोगी भाव है । मोक्ष क्या है ? आत्म-प्रदेशों से पुदगल का सर्वथा क्षय हो जाना। मोक्ष भी आत्मा और पूदगल का वियोगी भाव है। पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध-ये चार संयोगी भाव हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये तीन वियोगी भाव हैं। संयोग और वियोग,
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