________________
१२४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व
किसके हैं ? जीव और पुद्गल के । अतः मुख्य तत्त्व दो हैं--- जीव और पुद्गल । सप्त तत्त्व
कुछ ग्रन्थों में सप्त तत्त्व का कथन किया गया है। पुण्य और पापइन दोनों का कथन इस प्रकार से किया है, कि दोनों का अन्तर्भाव, बन्ध में अथवा आस्रव में हो जाता है। शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । शुभ आस्रव अथवा अशुभ आस्रव । इस विषय का अधिक विस्तार--- तत्त्वार्थसूत्र में, विशेषावश्यक भाष्य में और लोक-प्रकाश आदि ग्रन्थों में किया गया है। सप्त तत्त्वों के क्रम का कारण
संसार और मोक्ष जीव के होते हैं, अजीव के नहीं। अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व कहा है। अजीव के निमित्त से ही जीव संसार या मोक्ष पर्याय को प्राप्त होता है । इसलिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । जीव
और अजीव के निमित्त से ही आस्रव होता है। अतः दोनों के बाद आस्रव कहा गया है। आस्रव के बाद बन्ध होता है । बन्ध को रोकने वाला संवर है । जो जीव आगामी कर्मों का संवर कर लेता है, उसी के संचित कर्मों की निर्जरा होती है । निजरा के बाद ही मोक्ष होता है । अतः सबके अन्त में, मोक्ष होता है। नव पदार्थ
आगमों में और विशेषतः दशन ग्रन्थों में तत्त्व के अर्थ में, पदार्थ शब्द का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। तत्त्व का अर्थ है- तस्य भावः तत्त्वम् अर्थात् उसका भाव । पदार्थ का अर्थ है-पदस्य अर्थः, पदार्थः । पदार्थ अर्थात् पद का अर्थ, पद का वाच्य । शब्द होता है, वाचक और अर्थ होता है, वाच्य । शब्द के वाच्य को पदार्थ कहते हैं । तत्त्वों में पुण्य और पाप की स्वतन्त्र गणना करने से नव तत्त्व हो जाते हैं। इन्हीं को नव पदार्थ भी कह सकते हैं । अतः तत्त्व दो भी हैं, सप्त भी है, और नव भी हैं।
तत्त्व, दर्शन-शास्त्र का मूल आधार होता है। प्रत्येक सम्प्रदाय को तत्त्व स्वीकार करना होता है । जैन दर्शन में मूलभूत तत्त्व नव माने गये हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org