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________________ १५२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व २. स्थिति बन्ध - ज्ञानावरण आदि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत न होना । ३. अनुभाग बन्ध - ज्ञानावरण आदि कर्मों में तीव्र अथवा मन्द फल देने की शक्ति । ४. प्रदेश बन्ध- - ज्ञानावरण आदि कर्म-रूप हुए पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेश बन्ध कहते हैं । प्रकृति का अर्थ है -- स्वभाव । स्थिति का अर्थ है - काल मर्यादा | अनुभाग का अर्थ है - तीव्र एवं मंद फल । अनुभाग, अनुभाव और अनुभव - तीनों का एक ही अर्थ है । प्रदेश का अर्थ है -- कर्म स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या का कम और अधिक होना । प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध, योग के निमित्त से होते हैं । स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध, कषाय के कारण से होते हैं । कर्मों का बन्ध दो प्रकार का होता है - निधत्त बन्ध और निकाचित बन्ध | दोनों की व्याख्या इस प्रकार से की जाती है १. निधत्त बन्ध -- उद्वर्तना और अपवर्तना करण के सिवाय विशेष करणों के अयोग्य कर्मों को रखना निधत्त कहा जाता है । निधत्त अवस्था में उदीरणा एवं संक्रमण आदि नहीं होते हैं । तपा कर निकाली हुई लोह शलाका के सम्बन्ध के समान पूर्व बद्ध कर्मों को परस्पर मिलाकर धारण करना निधत्त है । इसके भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार भेद हैं । २. निकाचित बन्ध - जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चय ही भोगा जाता है । जिन्हें बिना भोगे छुटकारा नहीं होता । उन कर्मों को निकाचित कहते हैं । निकाचित कर्म में कोई भी करण नहीं होता । तपा कर निकाली हुई लोह शलाकायें घन से कूटने पर जिस प्रकार एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इन कर्मों का भी आत्मा के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध हो जाता है । निकाचित कर्म के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद हो जाते हैं । बन्ध किन कारणों से होता है ? बन्ध इन कारणों से होता हैमिथ्यादर्शन से, अव्रत से, प्रमाद से, कषाय से और योग से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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