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८६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
और प्राकृत भाषा नहीं समझते थे, उन्हीं लोगों के लिए यह बालावबोध लिखा गया है। इसमें संसारी जीवों के बत्तीस भेदों का कथन किया गया है।
"संसारी जीवों के बत्तीस भेद भी होते हैं। जैसे कि पाँच सूक्ष्म स्थावर और पाँच बादर स्थावर । दोनों मिलकर दस भेद होते हैं। प्रत्येक वनस्पति का एक भेद । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का एक भेद । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय का एक भेद । विकलेन्द्रिय के तीन भेद। ये सब मिलकर सोलह भेद होते हैं । फिर सोलह के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से जीवों के बत्तीस भेद हो जाते हैं।"
'बालावबोध' में कहा गया है, कि समस्त संसारी जीवों के पाँचसौ त्रेसठ भेद हो जाते हैं। मनुष्यों के तीन सौ तीन भेद । देवों के एक-सौ अठानवें भेद । नारकों के सात भेद । तिर्यञ्चों के अड़तालीस भेद । तत्त्वार्थ-सूत्र
वाचक उमास्वाति रचित तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र में अथवा तत्त्वार्थ सूत्र में, जीवों के दो भेद हैं । संसारी और मुक्त । संसारी का अर्थ है-कर्म सहित जीव और मुक्त का अर्थ है-कर्म रहित जीव । संसारी जीव के दो भेद हैं-समनस्क और अमनस्क । समनस्क का अर्थ है-मनसहित जीव और अमनस्क का अर्थ है-मनरहित जीव । इन्हीं को संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव कहा गया है। वाचक उमास्वाति ने मन शब्द का प्रयोग करके विषय को अधिक स्पष्ट और सुगम कर दिया है। संज्ञा की अपेक्षा मन को समझना सरल है।
संसारी जीवों के अन्य प्रकार से भी भेद हैं। संसारी के दो भेद हैंत्रस और स्थावर । जिन जीवों को बस नामकर्म का उदय हो, वे त्रस जीव कहे जाते हैं। जो घूमते-फिरते हों, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आजा सकते हों, वे त्रस जीव होते हैं। जिन जीवों को स्थावर नामकर्म का उदय हो, वे स्थावर जीव होते हैं । जो एक ही स्थान पर स्थिर होते हैं । जो कहीं पर भी घूम-फिर नहीं सकते, वे जीव स्थावर होते हैं। जैसे कि पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीव स्थावर जीव कहे जाते हैं। त्रस जीवों के भेद इस प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव । कृमि नामक जीव द्वीन्द्रिय है।
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