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प्राक्कथन
प्रत्येक कार्य के सम्पन्न होने का समय निश्चित होता है। कभी प्रयास करने पर भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। कभी अल्प प्रयत्न से पूरा हो जाता है। कभी बाधा और विघ्न के उपस्थित हो जाने पर कार्य प्रारम्भ ही नहीं हो पाता। मनुष्य के जीवन में इस प्रकार के अनुभव घटित होते रहते हैं। मुझे भी इस प्रकार के प्रत्यक्ष अनुभव, अनेक बार हो चुके हैं।
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध नगर पूना में, मेरा सन् १९७० में, वर्षावास था। वहाँ के लोगों में अपार उत्साह था। कार्यकर्ता बुद्धिमान एवं अनुकूल थे । पूना के प्रसिद्ध विद्वान तथा जैन समाज के नेता श्री कनकमलजी मुणोत की प्रेरणा से वहाँ पर तीन दिन का अध्यात्म शिविर लगा, जिसकी पूरी व्यवस्था एवं संचालन मुणोत जी के हाथ में था।
तीन दिनों के कार्यक्रम में, उन्होंने मेरे छह प्रवचन कराये थे । प्रथम प्रवचन का विषय मुणोत जी ने अपनी पसन्द का रखा था-"जैन-दर्शन
और आधुनिक विज्ञान ।" षड्द्रव्यों में से पाँच की तुलनात्मक व्याख्या मैंने की थी। पांच द्रव्य हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । प्रवचनों का आधार था-तत्त्वार्थसूत्र का पञ्चम अध्याय और द्रव्य संग्रह का प्रथम अधिकार।
मेरे स्नेही साथी मुनिप्रवर समदर्शी जी प्रभाकर ने प्रवचनों को लिपि-बद्ध किया था। उनका सम्पादन एवं पल्लवन भी उन्होंने किया था। लम्बे विहारों के कारण, और किसी एक स्थान पर स्थिर न रह सकने के कारण तथा कुछ मेरी स्वस्थता न होने से प्रकाशन नहीं हो सका। इधर
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