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सन् ७७ एवं ७८ में, समदर्शी जी ने क्रमशः इनका प्रकाशन अमर भारती में, किया था। तब से इन प्रवचनों के प्रकाशन की माँग निरन्तर होती रही । लेकिन 'कुछ कारणों से इनके प्रकाशन का कार्य फिर रुक गया ।
रुक जाने का मुख्य कारण यह था कि मुझे जीव द्रव्य पर एक नया ही लेख लिखना था । फिर साथ में नव तत्त्वों पर भी लिखना आवश्यक था । क्योंकि प्रवचन तो केवल पाँच ही द्रव्यों पर थे । उसमें जीव द्रव्य जोड़ दिया है, जिससे कि जैन दर्शन मान्य षड्द्रव्यों का पूरा वर्णन आ जाये। साथ ही पुस्तक के द्वितीय खण्ड में नव तत्त्वों का संक्षेप में परिचय एवं परिभाषाएँ जोड़ दी हैं । प्रस्तुत पुस्तक जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व के नाम से प्रकाशित हो रही है । इसमें षड्द्रव्य तथा नव तत्त्वों का पूरा वर्णन आ गया है । जैन दर्शन के तत्त्वों का सरल भाषा में प्रकाशन हो रहा है । पुस्तक के अन्त में परिभाषिक शब्दों की सरल भाषा में व्याख्या कर दी गई है । प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा एवं उसे सुन्दर बनाने का कार्य, जैन समाज के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीचन्द जी सुराना ने किया है । उन्होंने दिवाकर प्रकाशन से इसका प्रकाशन किया है। प्रकाशन और मुद्रण दोनों ही रमणीय हैं ।
आगरा के प्रसिद्ध व्यवसायी श्रीमान् सेठ कुंवरलाल जी सुराना तथा उनकी धर्मपत्नी तपस्विनी श्रीमती विमला सुराना के उदार अनुदान तथा पूर्ण सहयोग से पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है । श्री कुंवरलाल जी एवं श्रीमती विमला जी धार्मिक कार्यों में सदा अग्रेसर रहे हैं । तप, जप, दया और दान आदि कार्य प्रसन्नता से तथा उन्मुक्त भाव से करते हैं । यह इन दोनों की धर्मरुचि और धर्मप्रियता का प्रबल प्रमाण कहा जा सकता है ।
पति एवं पत्नी, दोनों की शुभ भावना थी, कि जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व - षड्द्रव्य एवं नवतत्त्वों पर नयी भाषा, नयी शैली और सरल पद्धति पर पुस्तक का प्रकाशन हो, जिससे जैन धर्म को समझने में, सुगमता हो सके । उनकी इस भावना की संपूर्ति प्रस्तुत पुस्तक से भली-भांति हो जाती है । उनके परिवार एवं परिजनों का भी इस शुभ कार्य में पूरा-पूरा सहयोग है ।
श्रीमती विमला सुराना ने अपने जीवन में तप, जप एवं धर्म साधना खूब की है, और आज भी निरन्तर करती रहती हैं । धर्म के ये शुभ संस्कार विमलाजी को अपनी माताजी से विरासत में मिले हैं। उनकी माताजी
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