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जीव-द्रव्य | १०७
स्थापित ही करना चाहता था । सुकरात का उद्देश्य लोगों को ज्ञान देना नहीं था । वह लोगों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करना चाहता था । सुकरात की इस पद्धति को द्वन्द्वात्मक पद्धति कहा जाता है ।
वाद विवाद और संवाद से ज्ञान की अभिवृद्धि की जाती है । भारत में गुरु-शिष्य के मध्य में होने वाले वार्तालाप को संवाद कहा गया है । इस पद्धति से शिष्य को ज्ञान की प्राप्ति और अभिवृद्धि होती है ।
ज्ञान का सिद्धान्त
सुकरात का कथन था, कि ज्ञान जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी है । उसके अनुसार मनुष्य का परम उद्देश्य नैतिक एवं गुण सम्पन्न जीवन व्यतीत करना है । नैतिक व्यक्ति बनने के लिए ज्ञान प्राप्त करना अति आवश्यक है ।
सुकरात ज्ञान को मनुष्य का सद्गुण मानता था । ज्ञानी व्यक्ति का जीवन ही श्रेष्ठ जीवन होता है । सुकरात के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति ही उचित कार्य कर सकता है । जिस व्यक्ति को उचित तथा अनुचित का ज्ञान ही न हो, वह उचित एवं नैतिक कार्य कैसे कर सकता है । सुकरात के कथनानुसार अनुचित कार्यों का कारण एकमात्र अज्ञान ही होता है । प्रत्येक व्यक्ति सुख और आनन्द चाहता है । आनन्द शुभ कार्यों द्वारा प्राप्त होता है । परन्तु शुभकर्मों को करने से पहले शुभज्ञान का होना आवश्यक है | अतः सुकरात के अनुसार ज्ञान और नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध है |
अरस्तू ने सुकरात के ज्ञानवाद की आलोचना की है । अरस्तू का कहना है, कि सुकरात ने मनुष्य के बौद्धिक पक्ष के अतिरिक्त, जीवन के अन्य पक्षों की अवहेलना की है । वास्तव में, मनुष्य में बुद्धि के अतिरिक्त-संवेग एवं भावना भो होती है । अतः बुद्धि किंवा ज्ञान को ही मनुष्य का समग्र रूप समझ लेना एकांगी दृष्टिकोण होगा । मनुष्य के अधिकांश कार्य उसकी भावनाओं और संवेगों द्वारा भी परिचालित होते हैं । ज्ञान ही सब कुछ नहीं हो सकता । जीवन में भावना तथा क्रिया का भी महत्व कम नहीं हैं । अकेले ज्ञान की ओर झुके रहना, एकान्तवाद है । एकान्तवाद कभी सुखद एवं सुन्दर नहीं होता ।
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