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१०८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व सुकरात का नैतिक सिद्धान्त
सकरात का विचार, नैतिकता के सम्बन्ध में, उग्रवाद और रूढिवाद दोनों से भिन्न था। उग्रवादी नैतिक नियमों में, किसी प्रकार की तात्त्विक अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करते । रूढ़िवादी लोग नैतिकता के नियमों को निरपेक्ष तथा आदर्श रूप मानते हैं। उनके अनुसार नैतिक नियमों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अतः सुकरात का कथन था, कि नैतिकता के नियमों को शुद्ध बौद्धिक सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए।
सूकरात की नैतिकता का सम्बन्ध यथार्थ जीवन एवं वास्तविक जगत् से है। अनुचित एवं उचित का निर्णय करना, बुद्धि का काम है। उसके अनुसार मानव-जीवन का लक्ष्य परम शुभ को प्राप्त करना है । परम शुभ को प्राप्त करने के लिए बौद्धिक, नैतिक नियमों की व्यवस्था की जाती है।
ग्रीक नीति-शास्त्र में, चार गुणों का वर्णन किया जाता था-बुद्धिमत्ता, साहस, मिताचार और न्याय । लेकिन सुकरात इस बात को स्वीकार नहीं करता। वह केवल सद्गुण अर्थात् नैतिकता को ही मान्यता देता था। सुकरात का तर्क यह था, कि यथार्थ ज्ञान तो एक ही होता है, और ज्ञान ही सद्गुण है । अतः सद्गुण भी एक ही है।
सुकरात सद्गुण को ही आनन्द मानता था। जहाँ सद्गुण होगा, वहीं पर आनन्द होगा। पाश्चात्य दर्शन में, सुकरात द्वारा प्रतिपादित नैतिक नियमों का सम्बन्ध वास्तविक जीवन से है। वह व्यावहारिकता में विश्वास करता था, कोरे उपदेश में उसकी अभिरुचि नहीं थी । यूनान के इतिहास में सुकरात सदा अमर रहेगा। प्लेटो का सिद्धान्त
प्लेटो के जगत की सत्ता सम्बन्धी सिद्धान्त को विज्ञानवाद कहते हैं। उसने जगत को दो भागों में बाँटा है-व्यावहारिक जगत और पारमार्थिक जगत । व्यावहारिक सत्ता के विषय में प्लेटो के विचार हेराक्लाइटस के समान हैं, और पारमार्थिक सत्ता के विषय में वह पार्मेनाइडीज के विचारों
से सहमत है। प्लेटो का विज्ञानवाद इन्हीं दोनों के विचारों का समन्वित . रूप है। यह विज्ञानवाद यथार्थवाद पर आधारित है। वह मानता था,
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