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निर्जरा-तत्त्व
निर्जरा शब्द भी जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । निर्जर शब्द का संस्कृतभाषा में देव अर्थ होता है । क्योंकि स्वर्गवासी देव कभी वृद्ध नहीं होते । जरा से पार पा चुके हैं । अतः निर्जर शब्द देववाचक होता है ।
यहाँ पर निर्जरा शब्द है, जिसका अर्थ होता है-झड़ जाना, दूर हो जाना, निकल जाना । नव तत्त्वों में एक तत्त्व निर्जरा है। यह मोक्ष से पूर्व होता है । अतः आत्म-संबद्ध कर्मों का अंश रूप में धीरे-धीरे क्षय होना निर्जरा कहा जाता है । कर्मों का अंशेन क्षय निर्जरा और सर्वात्मना क्षय मोक्ष होता है । निर्जरा भी एक प्रकार से मोक्ष है। पूर्व मोक्ष और उत्तर मोक्ष । यही दोनों में अन्तर है ।
निर्जरा का अन्तरंग कारण है - तप । बिना तप के कभी निर्जरा नहीं होती। तप के दो भेद हैं- आभ्यन्तर तप और बाह्य तप । शरीर और कर्मों का तपाना तप है । जैसे आग में तपा सोना निर्मल होकर शुद्ध होता है, वैसे तप रूप आग में तपा आत्मा कर्ममल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है । बाह्य तप का शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ने से बाह्य तप कहा जाता है । तप की साधना करने वाला तपस्वी अथवा तापस होता है। जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। आभ्यन्तर तप मोक्ष की प्राप्ति में अंतरंग कारण कहा जाता है।
निर्जरा के भेद
१. बाह्य तप के छह भेद :
१. अनाहार २. अवमौदर्य ३. वृत्ति संक्षेप ४. रस परित्याग ५. कायक्लेश ६. प्रतिसंलीनता
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