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१२६ / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व हैं-साकार और अनाकार । ज्ञान और दर्शन । विशेष बोध और सामान्य बोध । सविकल्प ज्ञान और निर्विकल्प दर्शन ।
निर्विकल्प, सामान्य को ग्रहण करने वाला उपयोग, अनाकार है। सविकल्प, विशेष को ग्रहण करने वाला उपयोग, साकार है । आकार सहित, साकार और आकार रहित, अनाकार । आकार का अर्थ है ? वस्तूगत नाम, जाति, गुण और क्रिया रूप धर्मों को विशेष रूप से जानना । यह विशेषता ज्ञान में होती है । अनाकार का अर्थ क्या है ? वस्तुगत विशेष धर्मों को ग्रहण न करने वाला । सामान्य को ग्रहण करने वाला । यह दर्शन होता है । अतः विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान सविकल्प है। सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन निर्विकल्प होता है। जिसमें विकल्प हो, वह सविकल्प । जिसमें विकल्प न हो, वह निर्विकल्प । नाम, जाति, गूण और क्रिया रूप धर्मों को विकल्प कहा जाता है । ज्ञान, पदार्थगत विशेष धर्म को ग्रहण करता है । दर्शन, पदार्थगत सामान्य धर्म को ग्रहण करता है। ज्ञान एवं दर्शन दोनों उपयोग हैं।
ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं—पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान । ज्ञान और अज्ञान में अन्तर क्या है ? मिथ्यात्वसहचरित अज्ञान और सम्यक्त्वसहचरित ज्ञान । यही दोनों में अन्तर है ।
दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।
उपयोग, जीव का आत्मभूत लक्षण है।
जीव के भेदों को जानने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि उपयोग की चर्चा का सार क्या है ? उपयोग की विचारणा का निष्कर्ष यह है, कि चेतना आत्मा का गुण है। उसके पर्याय को उपयोग कहते हैं। उपयोग के दो भेद हैं-दर्शन और ज्ञान । ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और दर्शन को निराकार उपयोग । जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों काजाति, गुण, क्रिया तथा नाम आदि का ग्राहक है, वह ज्ञान कहा जाता है, और जो उपयोग पदार्थों के सामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता का ग्राहक है, उसको दर्शन कहते हैं । यही दोनों में भेद है।
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