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________________ आकाश द्रव्य | ३७ है ही नहीं । हम इतना ही कह सकते हैं, कि विश्व को जो सीमा हमें ज्ञात है, उसके आगे आकाश का जो भाग है, वह अज्ञात है ।। इस सम्बन्ध में आइन्स्टीन के सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले महान वैज्ञानिक प्रो० एडिंगटन ने अपनी पुस्तक the Nature of the Physical World के पृष्ठ ८० पर लिखा है, कि मैं सोचता है, कि विचारक दो प्रश्नों के साथ आकाश के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं-~-is there an end to space ? क्या आकाश का एक अन्त है ? if space comes to an end, what is beyond the end ? यदि आकाश का एक अन्त है, तो क्या वह अन्त सीमा में आबद्ध है ? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों की एक मान्यता यह है, कि- there is no cnd, but space beyond space for ever आकाश का कोई अन्त नहीं है, आकाश सदा आकाश की सीमा में आबद्ध है। सापेक्षवाद-सिद्धान्त के पूर्व यह मान्यता थी, कि आकाश अनन्त है । लेकिन कोई भी व्यक्ति अनन्त आकाश को प्राप्त नहीं कर पाता। इस भौतिक जगत में हमारा सम्बन्ध सीमित आकाश से ही होता है, अनन्त से नहीं । इस सम्बन्ध में आइन्स्टीन का सिद्धान्त यह है कि--is space infinite or does it come to an end ? क्या आकाश अनन्त है, या क्या यह अन्त को प्राप्त होता है ? इसका उत्तर उसने जैन-दर्शन की तरह सापेक्ष दृष्टि से दिया है । उसने कहा, कि वह न एकान्त रूप से अनन्त है, और न सान्त है। आकाश ससीम है, लेकिन उसका कोई अन्त भी नहीं है। आकाश ससीम है, लेकिन सीमा से आबद्ध नहीं है। विज्ञान का यह सिद्धान्त जैनदर्शन द्वारा मान्य लोक-आकाश और अलोक-आकाश के निकट है। क्योंकि लोक-आकाश एक सीमा में आबद्ध है, उसका अन्त भी है, परन्तु अलोकआकाश की कोई सीमा नहीं है-वह अन्त रहित है, अनन्त है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है, कि विश्व में, लोक में, व्याप्त सभी द्रव्यों में आकाश द्रव्य सबसे अधिक विराट, विस्तृत और व्यापक है । वह विश्व में तो सर्वत्र है ही, पर उसके बाहर-जिसे जैनदर्शन अलोक कहता है, शुद्ध आकाश ही है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है, कि जैन-दर्शन की मान्यता है, कि आकाश का गुण अवकाश देना है। परन्तु लोक के बाहर जब अन्य कोई द्रव्य है ही नहीं, तब वहाँ उसका वह 1 Exploring the Universe by H. Ward, p. 266. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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