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३६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व हो, परन्तु वैशेषिकों ने उसे भावात्मक पदार्थ ही माना है । कोई भी भावात्मक पदार्थ बौद्ध-दर्शन के अनुसार उत्पादादि से शून्य कैसे हो सकता है ? यह तो हो सकता है, कि उसमें होने वाले उत्पादादि को हम देख न सकें, परन्तु आकाश के स्वरूपभूत उत्पादादि से इन्कार नहीं किया जा सकता। इप्ती प्रकार आकाश आवरणरूप भी नहीं है । न वह किसी भी पदार्थ को आवृत करता है. और न अन्य किसी द्रव्य या पदार्थ के द्वारा आवृत होता है। वास्तव में आकाश एक भावात्मक द्रव्य है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, और अर्थ-क्रियाकारी संस्कृत द्रब्य है। आकाश अनन्त है
विज्ञान के अनुसार स्पेस एक शुद्ध द्रव्य है। उसमें न तो वर्ण है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। जैन दर्शन ने आकाश को दो भागों में विभक्त किया है-लोक-आकाश और अलोक-आकाश । लोक-आकाश सीमित है, सान्त है, और अलोक-आकाश असीम एवं अनन्त है । गणितविज्ञान में निष्णात एच. वार्ड भी इस विचार को स्वीकार करते हुए लिखते हैं-- सम्पूर्ण पदार्थ सम्पूर्ण आकाश की एक सीमा में रहते हैं, इसलिए विश्व सान्त है । इससे यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जिस सीमा में पदार्थ रहते हैं, उसके आगे आकाश नहीं है। लेकिन यह सम्पूर्ण आकाश इस प्रकार घुमावदार (कर्ड) है, कि प्रकाश की एक किरण आकाश की एक सीधी रेखा में लम्बे समय तक यात्रा करने के बाद पुनः अपने बिन्दु पर आ जाएगी । गणितज्ञों का अनुमान है कि प्रकाश की एक किरण को आकाश के इस चक्कर को पूरा करने में दश ट्रिलियन वर्ष से कम नहीं लगते। इससे यह प्रमाणित होता है, कि आकाश ससीम है, सान्त है।
इसी पुस्तक में वार्ड ने आगे लिखा है, कि यह पूर्णतः अकथनीय, अचिन्तनीय inconceivable है, कि कोई भी खगोल विद्या में निपूण व्यक्ति आकाश की सीमा boundary of space को लांघकर कूद सके और देख सके, कि वहाँ आकाश नहीं है। इसलिए गणितज्ञ यह निश्चय नहीं कर पाए कि आकाश सान्त है, या अनन्त । H. ward का कहना है, कि जब हम यह कहते हैं कि space is finite तो इसका यह अर्थ नहीं है, कि इस विश्व में जिस सीमित आकाश का हम अनुभव करते हैं, उसके आगे वह
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Exploring the Universe, by H. Ward, p. 16.
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