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आकाश द्रव्य | ३५
सांख्य और वेदान्त-दर्शन में आकाश वेदान्त और सांख्य दर्शनों के अनुसार भी आकाश द्रव्य है । वैदिक विचारकों द्वारा सर्वशक्ति-सम्पन्न ईश्वर को स्वीकार कर लेने के कारण उन्हें अन्य द्रव्य की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं रही। फिर भी वेदान्त और सांख्य ने आकाश द्रव्य स्वीकार किया है। परन्तु उसकी स्वरूपविषयक मान्यता जैन-दर्शन से भिन्न है। वेदान्तसार में कहा गया है-ब्रह्म ही सत्य है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी पदार्थ सत् नहीं है। इसलिए वेदान्त-दर्शन आकाश को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, प्रत्युत ब्रह्म का विवर्त मानता है, और सांख्य-दर्शन उसे प्रकृति का विकार मानता है । वेदान्तदर्शन की मान्यता के अनुसार सत् एक है-ब्रह्म। उसके अतिरिक्त जो कुछ भासित होता है, वह भ्रम एवं अविद्या के कारण होता है, और वह सब ब्रह्म का विवर्त है। सांख्य-दर्शन के अनुसार विश्व में मूलतत्त्व दो हैंप्रकृति और पुरुष । प्रकृति एक है, और यह सम्पूर्ण सृष्टि उसका विकार
है
परन्तु यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है । प्रकृति जड़ है, मूर्त है, और आकाश अमूर्त है । अमूर्त एवं स्वतन्त्र द्रव्य होने के कारण वह मूर्त द्रव्य का विकार हो ही नहीं सकता। यदि उसे प्रकृति का विकार मान लें, तो वह न तो स्वतन्त्र द्रव्य ही रहेगा और न अमूर्त द्रव्य । इसी प्रकार ब्रह्म का विवर्त मानने पर भी उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। आँखों से दिखाई नहीं देने पर भी उसका अनुभव हमें प्रतिक्षण होता है, और उसका आधार पाकर ही हम इस विश्व में रह रहे हैं। इसलिए आकाश न तो ब्रह्म का विवर्त है, और न प्रकृति का विकार, वह एक स्वतन्त्र द्रव्य है।
बौद्ध-दर्शन में आकाश बौद्ध दर्शन आकाश को असंस्कृत मानता है, और उसे अनावृत अर्थात् आवरणरूप मानता है ।1 असंस्कृत का अर्थ है-जिसमें उत्पाद-व्यय आदि न होते हों। बौद्ध-दर्शन, जो कि समस्त पदार्थों को क्षणिक मानता है, आकाश को उत्पाद-व्यय से रहित माने, यह समझ में नहीं आता। अभिधर्मकोश में भले ही आकाश का वर्णन अनावत के रूप में किया गया
१. अभिधर्मकोश ।
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