________________
३४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व चित्त से अध्ययन करता, खेलने के समय खेलता, और सेवा के समय गुरु की सेवा-शुश्रूषा भी करता। एक दिन वह घूमने निकला और टहलताटहलता एक पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया। पहाड़ पर चढ़ने के बाद वहाँ उसे कोई भी व्यक्ति नजर नहीं आया। चारों ओर जंगल ही जंगल दिखाई पड़ रहा था। वहाँ का वातावरण उसे भयावह-सा लगने लगा। उसने सोचा, कि यदि वहाँ कोई भूत आ गया, तो क्या होगा? उसके मुंह से जोर की आवाज निकली, कि भूत है। उसी तरह की डरावनी प्रतिध्वनि उसे सुनाई दी, कि भूत है। राजकुमार ने उसके उत्तर में कहा-मैं तुमको पकड़ लूँगा, तो उसे तुरन्त प्रत्युत्तर मिला, कि मैं तुमको पकड़ लूंगा। अब तो राजकुमार घबड़ा गया, उसने सोचा कि भूत उससे ताकतवर है, और वह उसे अवश्य पकड़ लेगा। उसने भागने का विचार किया, और भागतेभागते कहा-मैं तुम्हें मारूंगा। अब तो राजकुमार का भय बहुत बढ़ गया, और वह दौड़ता-दौड़ता घबराई हालत में आश्रम पहुँचा। उसकी इस दशा को देखकर गुरु ने कारण जानना चाहा । कुछ शान्त होने के बाद धीरे-धीरे बातों ही बातों में गुरु को ज्ञात हो गया, कि पहाड़ पर अपनी ही प्रतिध्वनि सुनकर वह भयभीत हो गया है। दूसरे दिन गुरु राजकुमार एवं अन्य कुछ शिष्यों को लेकर उसी पहाड़ पर पहुँचे। गुरु ने राजकूमार से कहा, कि तुम कहो, कि 'यहाँ देव रहते हैं।' राजकुमार ने ज्यों हो यह ध्वनि की, तो उसे प्रतिध्वनि में यही सुनाई दिया। फिर गुरु के कहे अनुसार उसने कहा-'तुम मेरे मित्र हो, आओ हम प्रेम करें और मिल-जुलकर प्रेम से रहें।' यही प्रतिध्वनि सुनकर राजकुमार को आश्चर्य हुआ। उसने कहा 'गुरुदेव, आपकी कृपा से भूत यहाँ से भाग गया, और अब वह देव के रूप में मेरा मित्र हो गया।' गुरु ने कहा- 'वत्स ! बात यह है, कि तुम इस संसार में जैसी भाषा का प्रयोग करते हो, जैसा व्यवहार करते हो, वैसा ही उपहार तुम्हें मिलता है । जैसी तुम्हारी ध्वनि होगी, प्रतिध्वनि भी वैसी हो मिलेगी। यदि तुम भी दूसरों से, अपने साथियों से स्नेह, सद्भाव एवं मित्रता चाहते हो, तो तुम्हारी ध्वनि उसी रूप में ध्वनित होनी चाहिए, और व्यवहार भी तद्रूप होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि ध्वनिप्रतिध्वनि आकाश का नहीं, पुद्गल का गुण है। लोक के बाहर आकाश तो है, पर वहाँ शब्द का अभाव है। यदि शब्द आकाश का गुण है, तो वह वहाँ भी होना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि मूर्त शब्द अमूर्त आकाश में रहता है, फैलता भी है, स्थान भी पाता है, परन्तु वह उसका गुण नहीं है । वह तो मूर्त पुद्गल का ही गुण है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org