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पुण्य-तत्व
नव तत्त्वों में पुण्य भी एक तत्त्व है । पुण्य का फल सुख होता है, पुण्य का फल प्रिय होता, पुण्य का फल मधुर होता है। पूण्य को सभी धर्मों ने स्वीकार किया है । पुण्य की परिभाषा अलग-अलग हो सकती हैं। पुराणों में पूण्य को स्वर्ग का द्वार कहा गया है। कहा गया है कि पण्य आत्मा को पवित्र करता है। पूण्य मलिन आत्मा को उज्ज्वल बनाता है। जैसे मलिन वस्त्र को साबुन उजाला कर देता है, वैसे पाप मल से मलिन आत्मा को पुण्य धो डालता है, उसे पाप रहित कर देता है ।
जैन दर्शन में तीन योग माने गए हैं- मनोयोग, वचनयोग और काययोग । मन का व्यापार, वाग्व्यापार और कायव्यापार । तीनों मिल कर योग कहलाते हैं । यह योग शुभ भी हैं, और अशुभ भी हैं। योग की शुभता तथा अशुभता का अधार, भावना है । शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग, शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग, अशुभ होता है। अशुभ योग पाप है और शुभ योग पुण्य होता है । जीव के मन की भावना ही उसके विचार को, उसकी वाणी को और उसके व्यवहार को शुभता-अशुभता प्रदान करती है।
हिंसा, चोरी और व्यभिचार आदि काय व्यापार-अशुभ काययोग है । दया, दान और ब्रह्मचर्य आदि काय व्यापार- शुभ काय योग है।
सावध भाषण, मिथ्या भाषण और कठोर-कटु भाषण आदि अशुभ वाग्योग है । निरवद्य भाषण, सत्य भाषण और मधुर मृदु भाषण आदि शुभ वाग्योग है।
दूसरों की निन्दा, दूसरों का वध और दूसरों का अहित चिन्तन आदि अशुभ मनोयोग है। दूसरों का उत्कर्ष देखकर प्रसन्न होना और हित चिन्तन करना आदि शुभ मनोयोग है।
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