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________________ पुण्य-तत्त्व | १३७ शुभ योग का कार्य पुण्य प्रकृति का बन्ध और अशुभ योग का कार्य पाप प्रकृति का बन्ध है । पुण्य और पाप, दोनों बन्ध के कारण हैं । अतः आस्रव रूप हैं। शुभ और अशुभ भावों से युक्त जीव पुण्य और पाप रूप होते हैं । सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नामकर्म और उच्च गोत्रकर्म-ये पुण्य रूप हैं और शेष कर्म पाप रूप हैं। पुण्य क्रिया का फल सुख है । अतः जीव को पुण्य करना चाहिए। पुण्य के भेद १. पदार्थ पुण्य के भेद१. अन्न २. जल ३. स्थान ४. शयन ५. वसन २. योग पुण्य के भेद१. मत २. वचन ३. काय ३. विनय पुण्य का भेद १. नमस्कार पदार्थ पुण्य का अर्थ है-पुण्य की उत्पत्ति में पदार्थ निमित्त होता है। संसार का सबसे ऊंचा पदार्थ अन्न है। अन्न को प्राण कहा गया है। क्योंकि वह प्राणीमात्र के प्राणों का आधार होता है। जठर में अन्न है, तो सब कुछ है, अन्यथा कुछ भी नहीं। भूखे को भोजन कराना, पूण्य है, सत्कर्म है। भोजन करने वाले की तृप्ति होती है, वह सन्तुष्ट होता है । अतः अन्न का दान देना, अर्थात् किसी को भोजन कराने को पुण्य कहा गया है। भारत में प्राचीन काल से ही अन्न दान का बड़ा महत्व है। ___ अन्न जैसा ही महत्व जल का भी है। जल तो जीवन ही है । बिना जल के जीवन टिक नहीं सकता। प्यासे को पानी पिलाना पुण्य है । अन्न दान के समान जल दान का भी बड़ा महत्व माना गया है । भारत में जल दान करने के लिए प्याऊ लगती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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