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पुद्गल-द्रव्य
स्व-पर का भेद विज्ञान मैंने आपके सामने दो वाक्य बोले थे-"मैं हूँ । मेरा शरीर है।" इन दो वाक्यों में सम्पूर्ण विश्व एवं अखिल ब्रह्माण्ड समाविष्ट हो जाता है। विश्व का कोई भी तत्त्व, कोई भी द्रव्य और कोई भी पदार्थ शेष नहीं रहता, जो इन दो वाक्यों में न समा सका हो । 'मैं है'-- इस वाक्य में अपने आत्मस्वरूप का बोध होता है, अपने स्वभाव का परिज्ञान होता है। 'मेरा शरीर है'-इस वाक्य में यह स्पष्ट रूप से परिज्ञान होता है, कि विश्व में मैं हैं, मेरी सत्ता है, इतना ही नहीं, प्रत्युत मेरे से भिन्न एक और तत्त्व है। मेरा शरीर है-कहने का अभिप्राय यह है, कि मैं और मेरा शरीर-दो भिन्न तत्त्व हैं । मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर 'मैं' रूप नहीं है। मैं अर्थात् आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है, शरीर से सम्बद्ध होने पर एवं संसार अवस्था में शरीर के साथ रहने पर भी उसका (आत्मा का) स्वरूप एवं स्वभाव शरीर से सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार शरीर का स्वरूप आत्मा से सर्वथा भिन्न है । संसार अवस्था में साथ-साथ रहने पर भी एक-दूसरे का परस्पर एकदूसरे के स्वरूप, स्वभाव, गुण एवं पर्यायों में मिलन नहीं होता। आत्मा शरीर के रूप में परिणत नहीं होता और शरीर आत्मा के रूप में परिवर्तित नहीं होता।
मैं और मेरे से भिन्न-दो पदार्थ इस विश्व में हैं। मेरे से भिन्न, जो द्रव्य है, उसे आगम में पुद्गल कहा है, और मैं को आत्मा या जीव कहा है। इस प्रकार विश्व में दो ही द्रव्य मूख्य हैं-जीव और पुद्गल । भारतीय-परम्परा में आत्मा, परमात्मा, जीव और ब्रह्म पर युग-युग से चर्चा होती रही है। आत्मा-परमात्मा पर विचार करने के संस्कार हमें
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