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५२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व जन्म-घूटी के साथ मिले हैं। भारत के राजा-महाराजा एवं सम्राट भी आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते रहे हैं। महाराज जनक की राजसभा में भी अध्यात्मवाद का स्वर मुखरित होता रहता था। ऋषि-मुनियों का तो मुख्य रूप से काम ही यही था, कि वे रात-दिन अध्यात्म के सम्बन्ध में चिन्तन करते थे। वे जब प्रवचन देते, विचार-चर्चा करते, तब भी आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में ही बोलते थे। इतना ही नहीं, हमारे यहाँ और तो क्या सड़क पर झाड लगाने वाला व्यक्ति भी अध्यात्म अथवा जीव और ब्रह्म से नीचे स्तर पर बात करना पसन्द नहीं करता।
शताब्दियों और सहस्राब्दियों से हम जीद और ब्रह्म की बातें करते आ रहे हैं, परन्तु हमारी आँखों के सामने जो विराट् विश्व, विशाल जगत फैला हुआ है, उसके स्वरूप को जानने का और समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया । परन्तु वीतराग ने कभी यह भूल नहीं की। उनका कहना हैजब तक साधक अपनी दृष्टि व्यापक नहीं बनाएगा, और 'स्व' के साथ 'पर' को समझने का प्रयास नहीं करेगा, तब तक वह स्व के यथार्थ स्वरूप को समझ ही नहीं पाएगा। जो विचारक अपने स्वरूप को स्व-चतुष्टयस्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव और पर-चतुष्टय-पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से जानने का प्रयत्न करता है, और आत्म-द्रव्य के साथ-साथ उसके अनन्त गुणों एव एक-एक गुण की अनन्त पर्यायों को जानने का प्रयत्न करता है, वही प्रबुद्ध साधक स्व का अथवा अपने स्वरूप का परिपूर्ण ज्ञान कर सकता है । जो चिन्तनशील विचारक अपने को पूर्ण रूप से जान लेता है, वह सम्पूर्ण विश्व को सम्यक् प्रकार से जान लेता है। वीतराग कहते हैं-तुम जो कुछ हो वह तो हो ही, उसे समझो, परन्तु उसको समझने के साथ तुम उस द्रव्य को, तत्त्व को या पदार्थ को भी समझने का, जानने का प्रयास करो जो तुम नहीं हो । शास्त्र में उस तत्त्व को-जो मैं नहीं हैं या जो मेरे से सर्वथा भिन्न स्वरूप वाला है, पुद्गल कहा है । भगवान् महावीर ने पुद्गल के सम्बन्ध में विभिन्न अपेक्षाओं से विस्तारपूर्वक चर्चा की है और उसके भेद-प्रभेदों को बताकर उसके स्वरूप को विस्तार से समझाने का प्रयत्न किया है। महावीर के बाद पुद्गल पर विस्तार से और गहराई से विचार करने वालों में दो आचार्यों का नाम विशेष रूप से हमारे सामने आता है-आचार्य उमास्वाति और आचार्य कुन्दकुन्द । आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में दार्शनिक शैली में पुद्गल पर विचार किया है और आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार और
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