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पुद्गल द्रव्य | ५३ पंचास्तिकायसार ग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि से पुद्गल के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। दोनों आचार्यों के चिन्तन में गांभीर्य है और वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करने की उनकी शैली भी गजब की है ।
पुद्गल का स्वरूप पुद्गल शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है - पुद् + गल | पुद् का अर्थ है - पूरण और गल का तात्पर्य है— गलन को प्राप्त होना । जो द्रव्य स्कन्ध अवस्था में - पूरण अथवा अन्य अनेक परमाणुओं के मिलन से और गलन अर्थात् कुछ परमाणुओं के उनसे अलग होने से युक्त है, वह पुद्गल है । इस तरह जो द्रव्य उपचय और अपचय को प्राप्त होता है, जिसमें विकास और ह्रास होता रहता है - वह पुद्गल है । इसलिए आगमों में और तत्त्वार्थसूत्र में पुद्गल का लक्षण सामान्य रूप से यह किया है - जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त है, वह पुद्गल है । वास्तव में पुद्गल का शुद्ध रूप परमाणु है । वह भी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त है । उसमें कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत- इन पाँच वर्णों में से एक वर्ण, खट्टा, मधुर, तीखा, कटु और कषायला - इन पाँच रसों में से एक रस, सुगन्ध और दुर्गन्ध - इन दो गंधों में से एक गंध और शीत-उष्ण, स्निग्ध- रूक्ष - इन दोनों युगलों में से एक-एक स्पर्श - इस प्रकार परमाणु में एक वर्ण, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श पाये जाते हैं । अनन्त परमाणुओं के मिलन से स्कन्ध बनता है, वही इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है- उसमें पाँच वर्ण, ढो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाये जाते हैं । पुद्गल स्कन्ध की अपेक्षा पूर्ण है, परन्तु उसमें से पहले के परमाणुओं का ह्रास होता रहता है और नये-नये 'परमाणु उसमें मिलते रहते हैं । इस प्रकार स्कन्ध का रूप बदलता रहता है । वस्तुतः पुद्गल का स्वभाव सड़न - गलन और जीर्णता को प्राप्त होना है । काल के माध्यम को पाकर वह नये से पुरातन होता है, और जीर्ण होने पर अपने एक आकार से नष्ट होकर नये आकार में परिणत होता है ।
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पुद्गल और जीवन
संसार क्या है ? राग-द्वेष आदि विभावों तथा विकारी भावों में आत्मा की परिणति के कारण आत्मा के साथ पुद्गलों का वियोग होना यही संसार है । संसार में परिभ्रमण कर रही
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संयोग और आत्मा या
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