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स्व-पर-चतुष्टय
आस्रव और संवर तथा जीव और अजीव-किसी भी प्रकार का तत्त्व क्यों न हो ? उसमें एक साथ परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म रह सकते हैं। क्योंकि जैन-दर्शन, अनेकान्त दर्शन है । इसके अनुसार वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं । अपेक्षाभेद से परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का भी एक ही वस्तु में सामंजस्य होता है । जैसे अस्तित्व और नास्तित्व । ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध हैं, परन्तु अपेक्षाभेद से दोनों एक वस्तु में रह सकते हैं ।
घट एक पदार्थ है । वह स्व-चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति धर्म वाला है, और पर-चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति धर्म वाला भी है।
स्व-द्रव्य, स्व-क्षत्र, स्व-काल, और स्व-भाव--स्व-चतुष्टय होता है । पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव-पर-चतुष्टय होता है ।
(१) द्रव्य-गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । जैसे जड़ता आदि घट के गुणों के समूह रूप से घट है । परन्तु चैतन्य आदि जीव के गुणों के समूह रूप से वह नहीं है। इस प्रकार घट स्व-द्रव्य की अपेक्षा से अस्ति धर्म वाला है । पर-द्रव्य अर्थात् जीव द्रव्य की अपेक्षा से वह नास्ति धर्म वाला भी है।
(२) क्षेत्र-निश्चय से द्रव्य के प्रदेशों को क्षेत्र कहते हैं। जैसे घट के प्रदेश घट का क्षेत्र है । जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र है । अपने क्षेत्र में रहना ही स्व-क्षेत्र है, पर-क्षेत्र में रहना सम्भव नहीं है। लेकिन अपेक्षाभेद से यह कथन है।
(३) काल-वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं। जैसे घट स्वकाल से बसन्त ऋतु का है । वह शिशिर ऋतु का नहीं है।
(४) भाव-वस्तु के गुण या स्वभाव को भाव कहते हैं । जैसे घट स्वभाव की अपेक्षा से जल धारण स्वभाव वाला है। परन्तु वस्त्र की भाँति आवरण स्वभाव वाला नहीं है । अथवा घटत्व की अपेक्षा सद्प और पटत्व की अपेक्षा असत् रूप है।
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