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________________ ४. अजीव-तत्त्व जीव शब्द का विपरीत अजीव है । किन्तु अजीव का अभाव अर्थ नहीं है । 'क्योंकि जैन दर्शन में जिस प्रकार जीव अनादि और अनन्त है, उसी प्रकार अजीव भी अनादि और अनन्त है । दोनों की त्रिकाल सत्ता है । जीव और अजीव का संयोग ही संसार है, और वियोग ही मोक्ष है । जीव और अजीव के मध्य में, संयोगी भंग दो हैं- आस्रव तथा बन्ध । ये दोनों जीव की दिशा बदलकर संसार की ओर कर देते हैं । पुण्य और पाप, आस्रव रूप हैं, अथवा तो बन्ध रूप हैं । अतः पुण्य एवं पाप भी संयोगी भंग हैं, जो जीव को संसार की ओर ही खींचते हैं । वियोगी भंग भी दो हैं- संवर और निर्जरा । जीव को मोक्ष की ओर ले जाने वाले । मूल में दो ही तत्त्व हैं -- जीव और अजीव, शेष तो दोनों के संयोग तथा वियोग पर्याय | जैन दर्शन दोनों को आदि-हीन और अन्त-हीन मानता है । लेकिन दोनों में अन्तर है । जीव तो उपयोगवान् है, तथा अजीव अनुपयोगवान् है । उसमें उपयोग नहीं है, बोध रूप व्यापार नहीं है, चेतना नहीं है, प्राण नहीं है, उपयोगशून्य है, चेतनारहित है, उसमें बोध क्रिया नहीं है । उसमें हित और अहित का ज्ञान नहीं है । जीवन रूप पर्याय उसमें नहीं है । अतः वह अजीव कहा जाता है । जीव और अजीव की भेद - रेखा क्या है ? वह उपयोग ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं । अजीव का लक्षण है- उपयोग को अनुपलब्धि । अ + जीव, जो जीव नहीं है वह अजोव' । उपयोग का अभाव ही अजीव का लक्षण बन गया है । जैन दर्शन के अनुसार अजीव, यह जीव का विरोधो भावात्मक तत्व है, वह केवल अभावात्मक नहीं है । ( १३२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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