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अजीव-तत्त्व | १३३
सांख्य-योग दर्शन भी दो तत्व मानता है-- पुरुष और प्रकृति । पुरुष का धर्म है-चैतन्य । प्रकृति का धर्म है-कर्तृत्व । दोनों का संयोग, संसार है, दोनों का वियोग, मोक्ष है । चैतन्य भाव जिसमें हो, वह पुरुष । जिसमें न हो, वह प्रकृति होती है। जैन-दर्शन के उपयोग का ही शब्दान्तर तथा अर्थान्तर है-सांख्य दर्शन का चैतन्य शब्द ।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा का असाधारण धर्म है-ज्ञान । जिसमें ज्ञान हो, वह आत्मा ! जिसमें ज्ञान न हो, वह पंचभूत अथवा जड़ है । जीव और जड़ का संयोग, संसार है।
बौद्ध दर्शन में भी जीव और अजीव का भेद किया है। दोनों की भेद-रेखा ज्ञान ही है । चार्वाक दर्शन एकमात्र जड़ को ही मानता है। उसके मत में चेतना और चेतन भ्रमात्मक शब्द हैं । वेदान्त दर्शन एकमात्र चेतन को ही तत्व मानता है। जैनदर्शन जीव और अजीव दोनों की सत्ता मानता है । अतः जैन-दर्शन एकत्ववादी नहीं, द्वैतवादी दर्शन है ।
अजीव के भेद
अजीव
रूपी १. पुद्गल
अरूपी १. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. काल
अजीव काय
१. धर्म ३. आकाश
२. अधर्म ४. पुद्गल
अथवा
१. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. पुद्गल ५. काल
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