________________
१४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व ही वस्तु नहीं है, फिर भी दोनों के प्रदेश पृथक-पृथक नहीं हैं। इसके विपरीत दण्ड और दण्डी में पृथक्त्व है, इन दोनों को अलग भी किया जा सकता है, परन्तु द्रव्य, गुण और पर्याय में इस प्रकार का पृथक्त्व नहीं है। क्योंकि द्रव्य के बिना गुण और पर्यायों के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए जिन-जिन पर्यायों को धारण करता है, उन-उन पर्यायों के रूप में वह स्वयं उत्पन्न होता है, जैसे, स्वर्ण स्वयं ही कुण्डल बनता है, स्वयं ही कड़ों के रूप में परिवर्तित होता है और स्वयं ही अंगूठी के रूप में बदल जाता है। यदि पर्याय की दृष्टि से विचार करें, तो नये-नये पर्याय उत्पन्न हुए, परन्तु द्रव्य की दृष्टि से देखें, तो वह स्वर्ण के रूप में ज्यों का त्यों विद्यमान है। इसी प्रकार संसार अवस्था में जीव देव होता है, मनुष्य होता है, पशु होता है और नारक होता है, परन्तु इन सब पर्यायों में उसका अपना जीवत्व नहीं बदलता। जीव-द्रव्य के रूप में वह ज्यों का त्यों है । परन्तु यह भी सत्य है कि जव जीव देव-पर्याय को प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य नहीं रहता और जब वह मनुष्य-पर्याय को धारण करता है, तब वह सिद्ध-पर्याय को प्रकट नहीं करता । इस प्रकार द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक अथवा द्रव्य एवं पर्याय की दृष्टि से वस्तु तत्व का एवं वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निर्णय किया जा सकता है। इस लोक में छह द्रव्य हैं अथवा यह लोक या जगत षड द्रव्यात्मक है-धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य, जीव-द्रव्य और पुद्गल-द्रव्य । इनमें से काल के अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अस्तिकाय रूप हैं, क्योंकि पाँचों द्रव्यों के प्रदेश समूह रूप से हैं । द्रव्यों का मूर्त और अमूर्त-इस प्रकार से भी वर्गीकरण किया जा सकता है, मूर्त को रूपी या साकार और अमूर्त को अरूपी या निराकार भी कहते हैं । पुद्गल के अतिरिक्त शेष पाँचों द्रव्य अमूर्त हैं ।
___ इस प्रकार जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि इन पड - द्रव्यों में सम्पूर्ण सृष्टि आ जाती है, जीव, जगत एवं ईश्वर अथवा ब्रह्म एवं ब्रह्माण्ड सब कुछ समाविष्ट हो जाता है, इसलिए आत्मा, परमात्मा एवं जगत के स्वरूप को समझने के लिए तथा संसार एवं मोक्ष के स्वरूप को एवं उसके कारणों को समझने के लिए द्रव्य का यथार्थ परिज्ञान करना आवश्यक है। उसे समझे बिना व्यक्ति जीवन का अथवा आत्मा का विकास नहीं कर सकता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org