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धर्म और अधर्म-द्रव्य
भगवान महावीर ने आगमों में षड़-द्रव्य का वर्णन किया है। लोक क्या है ? इसका समाधान भगवान महावीर ने अनेक प्रकार से, विभिन्न दृष्टियों से किया है। उनमें से एक व्याख्या यह भी है, कि लोक षड्द्रव्यात्मक है। जहाँ षड्-द्रव्य हैं, वहीं तक लोक है, विश्व है, संसार (Universe) है। भगवान महावीर के पश्चात् आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में दार्शनिक-शैली में षड्-द्रव्य का वर्णन किया है, और आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार एवं पञ्चास्तिकायसार ग्रन्थों में षड्द्रव्य पर आध्यात्मिक-दृष्टि से विचार प्रस्तुत किये हैं। इन षड्-द्रव्योंधर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पद्गल में से धर्म और अधर्म-द्रव्य के अतिरिक्त शेष चारों द्रव्यों को सभी भारतीय दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग तो मिलता है, परन्तु वह शुभ और अशुभ या प्रशस्त और अप्रशस्त कर्म या कार्य के अर्थ में मिलता है, द्रव्य के अर्थ में नहीं। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन में धर्म और अधर्म को द्रव्य रूप से स्वीकार नहीं किया है । जैन-दर्शन में अन्य द्रव्यों की तरह धर्म और अधर्म का भी द्रव्य रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व माना है। धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य-दोनों अमूर्त हैं, आकार-प्रकार से रहित हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं, एकएक द्रव्य हैं, अखण्ड हैं, सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं, असंख्यात प्रदेशों से युक्त हैं, और निष्क्रिय हैं, फिर भी वे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हैं । दोनों ही द्रव्यों में गति का अभाव है, फिर भी उनकी पर्यायों में प्रतिक्षण, प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है, उनकी पुरातन पर्यायें नष्ट होती हैं, और नयी-नयी पर्यायें उत्पन्न होती हैं। उत्पन्न होने एवं विनाश होने का
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