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१६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
प्रवाह चलता रहता है, फिर भी द्रव्य की दृष्टि से उनके मूलस्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इस अपेक्षा से दोनों द्रव्य नित्य भी हैं। धर्म-द्रव्य का स्वरूप
विश्व में मुख्य रूप से दो द्रव्य हैं--जीव (Soul) और पुद्गल (Matter)। दोनों गति-शील हैं, और स्थिति-शील भी हैं। जीव और पुद्गल में जो गति है, वह स्वाभाविक है। कोई भी अन्य द्रव्य उनमें गति पैदा नहीं करता, केवल उनकी गति में सहायक होता है, निमित्त बनता है। दर्शन-शास्त्र में दो कारण माने हैं-एक उपादान-कारण और दूसरा निमित्त-कारण । द्रव्य का अपना स्वरूप एवं स्वभाव उसका उपादानकारण है । और, अपने से भिन्न पर-द्रव्य उसका निमित्त-कारण है। वह सहायक तो हो सकता है, परन्तु उसे प्रेरित नहीं कर सकता। जैसे मछली के तैरने में पानी निमित्त-कारण है। उपादान-कारण, तो मछली में स्वयं तैरने की जो शक्ति है, वही है, अन्य नहीं। पानी उसको तैरने के लिए प्रेरित नहीं करता, और न उस पर दबाव डालकर तैराता ही है। जब मछली अपनी शक्ति का उपयोग करके तैरने का प्रयत्न करती है, तब पानी उसमें सहायक होता है। उसी प्रकार जीव और पुद्गल-द्रव्यों में जो गति है, उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए निमित्त एवं सहायक द्रव्य की आवश्यकता रहती है। उस शक्ति को जैन-आगमों में धर्म-द्रव्य कहा है । भगवतीसूत्र में गणधर गौतम स्वामी के एक प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा है- "जीव और पुद्गल के गमन और स्थिति में जो सहायक द्रव्य है, वह धर्मास्तिकाय है। द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, अखण्ड है । क्षेत्र से वह लोक-प्रमाण है । काल से वह त्रिकालवर्ती है, अतः नित्य है। भाव से वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है। वह असंख्यात प्रदेशी है, निष्क्रिय है तथा जीव और पुद्गल की गति में सहायक गुण से युक्त है।" भगवान महावीर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार में लिखा है-"धर्मास्तिकाय न स्वयं गति-शील है और न किसी को गति करने या चलने के लिए प्रेरित करता है । वह तो केवल गति-शील जीव और पुद्गल की गति में निमित्त मात्र है । जैसे जल मछलियों के लिए गति में अनुग्रहशील है, वैसे ही धर्म-द्रव्य जीव और पुद्गलों के लिए गति में सहायक है ।" आचार्य नेमिचन्द्र सूरि ने द्रव्य-संग्रह में लिखा है ..
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