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धर्म और अधर्म-द्रव्य | १७
"गति-शील जीव और पुद्गल के लिए धर्म-द्रव्य गमन में सहकारी है, जैसे मछली के लिए जल । स्थिर पदार्थों को वह गति करने के लिए प्रेरित नहीं करता।" इस सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने लिखा है"धर्म-द्रव्य क्रियाशील पदार्थों को उनकी गति के समय स्वयमेव सहायता देता है, वह उनकी गति में साधारण आश्रय है, जिस प्रकार मत्स्य के लिए जल ।" यदि वर्तमान-युग की व्यवहार्य सामग्री में हम धर्म-द्रव्य की गति में सहायक गुण को स्पष्टतः समझना चाहें, तो इसके लिए रेल (Train) और पटरी (Railway) का उदाहरण उपयुक्त रहेगा। ट्रेन को गति करने के लिए पटरी की अनिवार्यतः अपेक्षा है, पटरी के अभाव में ट्रन गति ही नहीं कर सकती, उसी प्रकार धर्म-द्रव्य के अभाव में गति-शील पदार्थ भी गति नहीं कर पायेंगे । अतः उनकी गति के लिए धर्म-द्रव्य अनिवार्य रूप से अपेक्षित है । यह तो हमारे रात-दिन के अनुभव की बात है कि पटरी ट्रेन को न तो चलाती है और न उसे गति करने के लिए प्रेरित ही करती है, फिर भी ट्रेन की गति-शीलता में उसकी उदासीन सहायता रहती ही है, यही सम्बन्ध जीव और पृद्गल की गति में धर्म-द्रव्य का है ।
धर्म-द्रव्य और ईथर (Ether) जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भारतीय दर्शन में गतिशील एवं स्थित होने वाले पदार्थों की गति और स्थिति में सहायक धर्म और अधर्म द्रव्य को स्वीकार नहीं किया गया है। भारतीय दार्शनिक जीव और पदार्थों की गति एवं स्थिति में आकाश को ही निमित्त-कारण या सहायक मानते रहे हैं। आकाश का अस्तित्व होने के कारण ही उसमें जीव एवं पदार्थ गति भी करते हैं और ठहरते भी हैं। यह मान्यता युक्ति-संगत है या नहीं, इसकी समीक्षा करने के पहले, यह विचार कर लेना उपयुक्त रहेगा, कि आज का विज्ञान इस सम्बन्ध में क्या मानता है ? वैज्ञानिकों ने जब भौतिक पदार्थों का गहराई से अन्वेषण किया, तब वे सोचने लगे, कि सूर्य, चन्द्र, ग्रहों एवं ताराओं के मध्य में जो बहुत लम्बा-चौड़ा शून्य क्षेत्र खाली पड़ा है, उसमें से होकर प्रकाश किरणें (Rays of light) एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी को किस माध्यम (Medium) से पूरा करती हैं। क्योंकि प्रकाश (Light) भारवान पदार्थ है । अतः यह कथमपि सम्भव नहीं हो सकता, कि बिना किसी माध्यम के वह स्वतः ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाए। इस समस्या के उत्पन्न होने पर माध्यम
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