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१०४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
पाश्चात्य दर्शन में पदार्थ विचार
यूनान के महान् दार्शनिक अरस्तू ने भी अपने ढंग से पदार्थ-विचार किया है । वस्तुतः अरस्तू का तो दर्शन पदार्थ प्रधान रहा है । उसने अपने तर्क-शास्त्र में दश पदार्थ माने हैं-वस्तु, परिमाण, गुण, सम्बन्ध, स्थान, काल, स्थिति, विशिष्टता, गति और निष्क्रियता। इन दश में अन्तिम नव विधेय हैं, और वस्तु उद्देश्य है । यहाँ पर यह बात ध्यान रखने योग्य है; कि अरस्तू का विभाजन तर्कसंगत है, जबकि कणाद का तात्त्विक है। वैशेषिक दर्शन अभिमत सप्त पदार्थ और अरस्तू द्वारा कथित दश पदार्थों की तुलना की जा सकती है । द्रव्य और गुण तो वस्तु और गुण हैं ही, संयोग और समवाय दोनों सम्बन्ध हैं, जिनमें प्रथम गुण है, और दूसरा विशेष प्रकार का पदार्थ । समय और स्थान की गणना द्रव्यों में की जाती है। गति कर्म है, और निष्क्रियता उसका निषेध है। अरस्तु ने अभाव का उल्लेख नहीं किया। क्योंकि वह सत्तावान् पदार्थों की गणना तक ही सीमित रहा । प्रारम्भ में वैशेषिक दर्शन में भी अभाव को स्वीकार नहीं किया गया था।
यूनानी परमाणुवाद
भारतीय परमाणवाद और यूनानी परमाण वाद कुछ अंतर से मिलता-जुलता है । ल्यूकियस ने यह सिद्ध किया कि हर पदार्थ के कुछ
अत्यन्त सूक्ष्म परमाण होते हैं, जिनकी प्रकृति और आकृति एक-दूसरे से भिन्न होती है । एपीक्यूरस ने उन्हें एटम नाम दिया । परमाणुओं में गति होती है, वे एक-दूसरे मिलते भी हैं और बिछ्ड भी जाते हैं। परमाण नित्य हैं, और अविनाशी हैं । परमाणुओं से ही मन और आत्मा को भी उत्पन्न माना।
ल्यू कि यस और डेमोक्रिटस दोनों ही मन और आत्मा को परमाणओं से बना हुआ नहीं मानते थे। भारत में, जैनदर्शन में तथा कणाद दर्शन में परमाणवाद पर विचार किया गया है।
पाश्चात्य दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
पाश्चात्य दर्शन की अपनी एक अलग पद्धति है । विचार करने का
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