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जीव-द्रव्य | १०३
आत्मा का लक्षण
तर्कसंग्रह में अन्नभट्ट ने आत्मा का लक्षण इस प्रकार किया है"ज्ञानाधिकरणमात्मा ।" आत्मा को ज्ञान का अधिकरण अर्थात् आश्रय कहा है। आत्मा को दो प्रकार का माना गया है-परमात्मा और जीवात्मा । परमात्मा सर्वज्ञ हैं, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ है । आत्मा नित्य है, विभु है और प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न है। क्योंकि सबका सुख-दुःख अलग है।
तर्कसंग्रह में शरीर का लक्षण दिया है- "आत्मनो भोगायतनं शरीरम् ।" जो आत्मा के सुख एवं दुःखरूप भोग का आयतन अर्थात् आश्रय हो, वह शरीर है । शरीर के दो भेद हैं। जैसे कि योनिज और अयोनिज । शुक्र एवं शोणित के संयोग से जो उत्पन्न होता है, वह योनिज शरीर है । जैसे कि मनुष्य, पशु और पक्षी का, स्वेद से उत्पन्न होने वाले कीटाणुओं का, वृक्षों का और मनु आदि सिद्ध पुरुषों का शरीर अयोनिज है । क्योंकि वह स्वयंभू होता है।
तर्कसंग्रह में पाँच इन्द्रियाँ मानी हैं, जो ज्ञानेन्द्रिय हैं। उनके विषय भी पाँच ही हैं । इन्द्रियाँ एक ओर बाह्य विषयों से सम्बद्ध हैं, और दूसरी ओर मन से, जो कि आत्मा से सम्बद्ध होता है । अतः मन आत्मा और इन्द्रिय दोनों से सम्बन्ध रखता है, और ये दोनों ही सम्बन्ध ज्ञान के कारण होते हैं । इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । मन तो आभ्यन्तर है, शेष इन्द्रिय बाह्य हैं । पाँचों ज्ञानेन्द्रिय ही हैं । वैशेषिक दर्शन में कर्मेन्द्रियों को स्वीकार नहीं किया गया है।
सुख और दुःख की उपलब्धि का साधन मन ही है । मन को अन्तरिन्द्रिय माना है । मन अणु रूप है, और प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है । सब का सुख-दुःख भिन्न-भिन्न ही है । आन्तरिक प्रत्यक्ष का करण होने के कारण मन इन्द्रिय है।
वेदान्त इस बात को नहीं मानता। वेदान्त का तर्क यह है, कि श्रु ति में मन को इन्द्रियों से पृथक माना है। मन को इन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म भी माना है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि मन की स्थिति पाँच इन्द्रियों से पृथक माननी होगी। फिर चाहे उसे मन कहो, या अन्तःकरण की वृत्ति कहो । वेदान्त-दर्शन उसे अन्तःकरण वृत्ति ही कहता है, मन नहीं ।
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