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________________ प्रमाण उपयोग, जीव का लक्षण है, यह कहा जा चुका है। किसी भी वस्तु को विशेष रूप से तथा सामान्य रूप से जानना-उपयोग है। उसके दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन । जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों का, जाति, गुण एवं क्रिया आदि का ग्रहण करता है, वह ज्ञान है। ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं। जो उपयोग पदार्थों के सामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता का ग्रहण करता है, उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन को निराकार उपयोग कहते हैं। ज्ञान के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान हो, वह परोक्ष प्रमाण है। जैसे मतिज्ञान और श्रतज्ञान । जो ज्ञान अस्पष्ट हो, स्पष्ट न हो, उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं। जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। जैन-दर्शन में प्रमाण का वर्णन दो प्रकार से किया गया है-आगम पद्धति से और तर्कशास्त्र की शैली से। पहली को ज्ञान-मीमांसा कहते हैं, और दूसरी को प्रमाण-मीमांसा कहते हैं । ___ प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि होती है । प्रमाण के बिना किसी भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता है । अतः प्रमाण का बोध आवश्यक है। प्रमाण के भेद प्रमाण से प्रमेय का परिज्ञान होता है। प्रमाण का बोध आवश्यक है। प्रमाण के चार भेद हैं ( १५८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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