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१३० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
२. जिस कर्म के उदय से जीव को दो इन्द्रियाँ, स्पर्शन और रसना प्राप्त हों, वह द्वीन्द्रिय जाति नाम कर्म कहा जाता है।
३. जिस नाम कर्म के उदय से तीन इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन और घ्राण प्राप्त हों, वह त्रीन्द्रिय जाति नाम कर्म कहा जाता है ।
४. जिस कर्म के उदय से जीव को चार इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन घ्राण और नेत्र प्राप्त हों, वह चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म होता है ।
५. जिस कर्म के उदय से जीव को पाँच इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र प्राप्त हों, वह पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म होता है।
इन्द्रियों के आधार जीव के तीन भेद हैं-एक इन्द्रिय वाले जीव । दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव तथा पाँच इन्द्रिय वाले जीव । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा सकलेन्द्रिय अर्थात् पञ्चेन्द्रिय जीव । इन्द्रियों के आधार पर ये भेद हैं।
सूक्ष्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर इतना सूक्ष्म हो, कि छद्मस्थ जीव जिसको देख नहीं सकता।
बादर-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्थूल हो, फिर भी वह शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता, अनेक शरीरों का संघात ही नजर आता है।
पर्याप्त एवं अपर्याप्त-जिस कर्म के उदय से जोव, स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करता है, वह पर्याप्त और जो पूर्ण किए बिना ही मर जाता है, वह अपर्याप्त कहा जाता है।
__ संज्ञी-असंज्ञी-जिसके संज्ञा हो, वह संज्ञो होता है, और जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञी होता है। संज्ञा का अर्थ है-संज्ञान, ज्ञान और परिबोध । एक विशिष्ट प्रकार के ज्ञान को संज्ञा कहते हैं । जिससे अतीत, वर्तमान एवं अनागत का स्पष्ट विचार हो, वह संज्ञा है ।
जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञो कहलाता है। स्पष्ट चिन्तन का अभाव होता है, उसमें । संज्ञी से विपरीत असंज्ञो होता है।
संज्ञी और असंज्ञी के स्थान पर कुछ आचार्यों ने समनस्क तथा अमनस्क शब्दों का भी प्रयोग किया है। जिसके मन हो, उसे समनस्क
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