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सम्पादकीय
एक प्राचीनतम आर्ष वचन है- "सच्चं खु भयवं" सत्य, स्वयं भगवान् है ।
संसार में जो कुछ भी सार है, सत्य है । पृथ्वी और आकाश के बीच संतुलन रखने वाली शक्ति, सत्य है । सत्य ही सृष्टि का आधारभूत तत्त्व है । सत्य ही जीवन का परम रहस्य है, परम साध्य है, और यही परम पन्थ है ।
सत्य को जीवन का लक्ष्य मानकर चलने वाले सत्पुरुष ही संत और महात्मा कहलाते हैं । सत्य के लिए सर्वस्व समर्पित कर देने वाले ही इस संसार में पूज्य, उपास्य और श्रद्ध ेय बनते हैं ।
सत्य के दो अंग हैं - एक तत्त्वदर्शन और दूसरा आचारधर्म । जैनदर्शन ने इसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र कहा है ।
सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र का आधार है, अतः "पढमं नाणं" का उद्घोष कर यह स्पष्ट किया गया है कि सत्य का आचरण भी तभी किया जा सकता है, जब "सत्य" का सम्यग्परिज्ञान हो ।
सत्य को जीवन धर्म मानकर निरपेक्ष भाव से सत्य की साधना में जीवन समर्पित करने वाले सत्पुरुषों में आज राष्ट्रसंत उपाध्याय श्री अमर मुनि का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है । आपकी सत्योन्मुखी जीवन दृष्टि ने धर्म, आचार और तत्वज्ञान को मानव-सत्ता के साथ जोड़ दिया है । उपाध्याय श्री अमरमुनि जी के विद्वान शिष्यरत्न श्री विजयमुनि जी शास्त्री सत्य की साधना में समर्पित ऐसे साधक हैं, जिनका जीवन कमल-सा निर्लेप, और नन्दादीपसा ज्योतिर्मय है । वे सम्यक्ज्ञान और
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