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________________ ७६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व पुद्गल को चार अवस्थाएँ आगम में पुद्गल के अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद किए हैं। उसकी चार अवस्थाओं का वर्णन भी आगम में मिलता है। वे चार अवस्थाएँ हैंस्थूल, सूक्ष्म, संस्थान और बन्ध । इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य समस्त पदार्थ स्थूल हैं । इन्द्रिय एवं शरीर भी स्थूल पदार्थ हैं, परन्तु मन को सूक्ष्म माना है। क्योंकि वह दिखाई नहीं देता। आगम में मन Mind को दो प्रकार का माना है-द्रव्य-मन और भाव-मन । मनोविज्ञान Psychology में मन की तीन अवस्थाओं का वर्णन है-चेतन-मन Conscious-mind और अचेतनमन Unconscious mind तथा इन दोनों के मध्य की जो कड़ी है,उसे अर्ध चेतन-मन Pre-Conscious mind कहा है। कुछ ऐसे विचार होते हैं कि बड़ों के दबाव के कारण, सामाजिक प्रतिबन्धों के कारण या परिस्थिति वश चाहते हुए भी व्यक्ति उन विचारों को, इच्छाओं को कार्यरूप में परिणत नहीं कर पाता। वे दमित इच्छाएँ बाहर में समाप्त हो गई ऐसा दिखाई देता है, परन्तु वे मरती या नष्ट नहीं होतीं, बल्कि Unconscious mind की तह में छिप जाती हैं, जो प्रसंग पर निमित्त पाकर पुनः उभर आती हैं। Conscious-mind वह है, जिसमें इच्छाएँ उठती हैं और कार्य रूप में परिणत हो जाती है । Pre-conscious-mind का कार्य यह है, कि कुछ इच्छाएँ जो दमित कर दी गई हैं या की जाने योग्य हैं, उन्हें व्यक्ति योग्य रूप में परिवर्तित करके कार्य रूप में परिणत करता है। परन्तु मन के ये तीनों प्रकार द्रव्य और भाव मन में समाविष्ट हो जाते हैं । द्रव्य-मन परमाणुओं से बना हुआ है। वह स्वतः न अच्छा विचार करता है और न बुरा विचार । द्रव्य-मन जड़ है, अतः उसमें सोचने की शक्ति नहीं है। वह तो भाव-मन द्वारा जो शुभाशुभ संकल्प-विकल्प किए जाते हैं, उनको प्रकट करने का माध्यम है। भाव-मन चेतना-युक्त है। अतः वह राग-द्वेषात्मक भी है। इच्छा, वासना एवं कामना उसी में जागृत होती हैं। जिन इच्छा-आकांक्षाओं को वह कारणवश या परिस्थितिवश कार्य रूप में परिणत नहीं कर पाता, वे स्मृति के कोष में संग्रहीत रहती हैं, सत्ता में बनी रहती हैं। वासना एवं इच्छा का उदय में आकर कार्य रूप में परिणत नहीं होना, प्रत्युत अन्तर्मन की तह में प्रच्छन्न रहना, स्मृति या सत्ता में बने रहना है, जो समय पाकर उदय में आ सकती है । इसी को मनोविज्ञान में Unconscious mind कहा है । यह भाव-मन ज्ञाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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