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________________ पुद्गल का स्वरूप | ७७ स्मक है और प्रथम गुणस्थान से लेकर द्वादश गुणस्थान तक रहता है। त्रयोदश गुणस्थान में भाव-मन नहीं रहता, क्योंकि वहाँ केवलज्ञान रहता है। इसलिए क्षायोपशमिक भाव-मन स्वतः ही समाप्त हो जाता है । नाम कर्म के उदय के कारण द्रव्य-मन रहता है। परन्तु राग-द्वेष एवं संकल्पविकल्पात्मक भाव-मन का अभाव होने के कारण तेरहवें गुणस्थान में पुण्यपाप का बन्धन नहीं होता। परन्तु जहाँ भाव-मन है, वहाँ बन्ध होता है । आचार्य कुन्दकुन्द बन्ध को पुद्गल की अवस्था मानते हैं, चेतन की नहीं । यदि चेतन को बन्ध हो तो फिर वह मुक्त कैसे होगा ? गाय बाहर से चर्वण करके जब शाम को घर लौटती है, तब गृहस्वामी उसे रस्सी से खूटे पर बाँधता है। व्यवहार में कहा जाता है कि गाय को रस्सी से बांधा गया। परन्तु वास्तव में गाय को नहीं बांधा गया। क्योंकि रस्सी की गाँठ गाय में नहीं, प्रत्युत रस्सी में ही लगाई गई है। इसी प्रकार निश्चय दृष्टि से भाव-मन के संकल्प-विकल्प के कारण कर्मों का बन्ध कार्मण वर्गणा के या कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के साथ होता है, जीव के प्रदेशों के साथ नहीं । जीव का परिणमन जीव की चेतन पर्यायों में ही होता है, कर्म की जड़-पर्यायों में नहीं। अतः निश्चय-दष्टि से न तो अतीत में चेतन का बन्ध हआ है, न वर्तमान में होता है, और न अनन्त अनागत में होगा। व्यवहार नय की अपेक्षा से व्यवहार-भाषा में कह सकते हैं कि शुभाशुभ भावों के अनुरूप आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है। इस प्रकार आगम-साहित्य में भगवान् महावीर ने और उनके बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में एवं आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकायसार, नियमसार एवं प्रवचनसार में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक शैली में पुद्गल द्रव्य की व्याख्या की है। भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी द्रव्य को बदल नहीं सकता, परन्तु उसके स्वरूप को समझ सकता है । अतः वस्तु का जो स्वरूप है, उसे उसी रूप में देखना एवं समझना तथा उसमें राग-द्वेष न करके द्रष्टा बनकर रहना ही सम्यकज्ञान है, और यह दृष्टि ही आत्म-विकास का कारण है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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