________________
1
१.
तत्त्व की परिभाषा
नव तत्त्व पर भगवती, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में विशेष रूप से विचार चर्चा की गई है । आगम युग के अनन्तर आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के ३५७ छोटे-छोटे सूत्रों में नव-तत्त्व पर इतना सुन्दर और विस्तृत विवेचन किया है कि उसमें एकादश अंग - साहित्य का ही नहीं, चतुर्दश पूर्व का सार भी आ गया है । आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित समयसार में भी क्या है ? नव-तत्त्व का विवेचन ही तो है । सिद्धान्तवादी आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्य-संग्रह में नव-तत्त्वों का ही विश्लेषण किया है । इस प्रकार आगम युग एवं आगम के उत्तरकालीन आचार्य युग में रचित ग्रन्थों में नव-तत्त्वों का वर्णन विशेष रूप से मिलता है ।
जीवन में तत्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन और तत्त्व एकदूसरे से सम्बद्ध हैं, अलग-अलग नहीं । जीवन में तत्त्व समाविष्ट है, और तत्त्व में जीवन आ ही जाता है। जीवन में से तत्त्व को, और तत्त्व में से जीवन को निकाल कर अलग फेंक देने का अर्थ है - व्यक्ति एवं आत्मा के अस्तित्व से इन्कार कर देना । इससे स्पष्ट है कि तत्त्व के बिना जीवन गतिशील नहीं हो सकता, और जोवन के अभाव में तत्त्व भी नहीं रह
सकता ।
हमारे सामने तीन व्यक्ति हैं - एक वैज्ञानिक, दूसरा दार्शनिक और तीसरा कवि । तीनों दृष्टियों से युक्त व्यक्ति मानव समाज में रहते हैं, और ये समाज में से ही उत्पन्न हुए हैं। याद रखिए, उनका उद्भव समाज में से होता है, उनका विकास भी समाज में होता है और उनके विचारों एवं प्रयोगों का लाभ भो समाज को मिलता है । तीनों विचारधाराएँ और तीनों दृष्टियाँ तीन तत्त्व की होते हुए भी एक दूसरी से सर्वथा भिन्न नहीं
११५ )
Jain Education International
(
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org