Book Title: Harit Kyadi Nighant
Author(s): Rangilal Pandit, Jagannath Shastri
Publisher: Hariprasad Bhagirath Gaudvanshiya
Catalog link: https://jainqq.org/explore/020370/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir LONG हरीतल्यादिनिघंट, भाषायांनुवादसहित. For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ श्रीः ॥ हरीतक्यादिनिघंट भाषाटीकासहित. श्रीमथुरा निवासी पंडित रंगीलाल तथा श्रीयुतजगन्नाथ शास्त्री इन्होंसें यह भाषांतर करवायके, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह ग्रंथ गौडवंशीय श्रीयुतभगीरथात्मज हरिप्रसादजी इन्होंनें विद्वानोंसें शुद्ध करवायके बंबे में, “निर्णयसागर " छापखानेमें छापके प्रसिद्ध किया. शक १८१३, संवत् १९४८. इसके सबप्रकारके हक्क प्रसिद्धकर्तानें अपने स्वाधीन रक्खे हैं. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विज्ञप्ति. प्रकट होकी, यह हरीतक्यादिनिघंट नामवाला ग्रंथ अखिल निघंटोंमें उत्तम है. सब चिकित्सा करनेवाले वैद्यलोग अनेक प्रकारके औषध आदि उपचार करते हैं, परंतु तिनोंकों अनेकविध औषधि, वनस्पति, धातु, रस इत्यादिकोंका भाषामें यथार्थ ज्ञान होनेकू अत्यंत प्रयास पडताहै. इस आपत्ति दूर करनेवाला यह ग्रंथ है. इसमें सब विषयोंका अच्छे प्रकारसे विवरण किया है. इस लिये प्रायकरिके बहुतसे बडे बडे विद्वज्जनोंकों इस ग्रंथके संग्रह करनेकी अत्यंत अभिलाषा है. उसका दूसरा कारण यह है की, इस ग्रंथमें बहुत औषधोंकी जाति, वर्ण, देश, उत्पत्ति इत्यादि बहुत प्रयत्नसें शोधकरके विशेषतः लिखी हैं. इससे हरवख्त कोईसेभी प्रसंगमें जब कोईसे औषधीके ज्ञानकी आवश्यकता पडेगी, तब जैसा इस ग्रंथसें औषधि, वनस्पति आदियोंका यथार्थ स्वरूप मालूम पडेगा वैसा अन्य ग्रंथोंसे नहीं पडता है, यह बात सत्य है. परंतु ऐसा सर्वोपयुक्त ग्रंथ अबतक छापके प्रसिद्ध हुआनहीं, सो प्रसिद्ध करनेकी अत्यंत जरूरी है. ऐसी अनेक वैद्यवरोंकी संमति लेकर इस सर्वसुखदाई ग्रंथकी श्रीयुत पंडित वैजनाथ बुकसेलर मथुरानिवासीने पंडित रंगीलाल तथा श्रीजगन्नाथ शास्त्रीजीसें व्रजभाषामें टीका करायी थी. वह ऊपर लिखित टीकासहित ग्रंथ पंडितोंकों साद्यंत दिखाय उसपर उनोंकी अच्छीप्रकार संमति लेकर मैने टीकाकारसें हक्कसहित यह ग्रंथ लेकर विद्वानोंसे उसका शोधन करवायके “निर्णयसागर" छापखानेमें सुंदर बडे अक्षरोंसें जिल्द कागजपर छापके प्रसिद्ध किया है. अब सबोंकों विज्ञापना यह है की, इस नवीन टीकामें जो यदि अशुद्ध आदि दोष क्वचित् स्थलविशेघमें रहगया होवै, तो उसपरकी दोषदृष्टिकों त्यागकर गुणदृष्टिवाले, ग्रंथ करनेके परिश्रम और शोधनके प्रयास जाननेवाले, सारग्राही, विद्वान् कृपादृष्टिसें उसमेसें दोष निकाल करके पूर्व जैसा श्रीकृष्ण भगवानजीनें दरिद्री सुदामदेव ब्राह्मणके छालसहित पृथुक केवल उसकी भावना देखकर तुषोंकों निकाल शुद्ध पृथुकोंका स्वीकार किया वैसा अपने उदार आश्रयके दानसे मेरा परिश्रम सफल करके ग्रंथका आदर करना यही प्रार्थना है. हरिप्रसाद भगीरथ. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटानुक्रमणिका. विषय. विषय. हरीतक्यादिवर्ग षडूषणके गुण और लक्षण हरीतकीविषे दक्षकों प्रश्न.... .... १ यवानीके नाम और गुण .... .... १४ हरीतकीके उत्पत्तिप्रकार .... .... अजमोदके गुण लक्षण .... .... उसके नाम .... .... ,, खुरासानी अजमायन .... .... १५ उसके सात भेद .... .... २ सफेत जीरा, काला जीरा, कलौंजीलक्षण , दूसरे रेखाक्रमसें भेद .... सके गुण हरीतकीके प्रयोग करनेके प्रकार .... धान्यकके गुण .... .... .... हरीतकीके अनेकविध भेद.... .... शतपुष्पाके नाम और गुण .... हरीतकीके स्वभाव .... .... ४ मेथिकाके नामगुण .... .... उसके अवयवसें भेद .... ५ चंद्रसूरस्वभाव .... .... चर्वण आदिके गुण ... .... ,, हिंगुके नामगुण .... लवणादियोगसें गुणविशेष.... ६ वचके नामगुण .... हरीतकीके सेवनका निषेध.... ..... खुरासानी वचका लक्षण बहेडेके नाम और गुण .... कुलीजनका लक्षण आमलकीके नाम और गुण ७ सुगंधाके लक्षण .... .... त्रिफलाका लक्षण और गुण .... चोवचीनीलक्षण .... सोंठके नाम और गुण .... ८ हपुषालक्षण .... अदरखके नामगुण .... ,, वायविडंगके गुण.... पिप्पलीके नामगुण .... ९ तुंबुरुफलके लक्षण मरिचके नामगुण १० वंशलोचनके लक्षण त्रिकटुके नाम लक्षण गुण .... ११ दूसरा लक्षण .... .... .... पिप्पलीमूलके नामगुण .... , समुद्रफेनका लक्षण .... चतुरूषणका लक्षण १२ अष्टवर्गका स्वरूप.... .... चव्यके गुण .... .... ,, जीवक औ ऋषभककी उत्पत्ति .... गजपिप्पलीके नामगुण .... ,, मेदा और महामेदालक्षण .... चित्रकके नामगुण ...... .... ,, शुक्लकंदके लक्षण .... .... पंचकोलका लक्षणगुण ..... ....... १३ दूसरा लक्षण .... .... : For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "" "" .... .... ३८ ३९ ' विषय. काकोली क्षीरकाकोलीगुण.... .... उसका लक्षण काकोलीलक्षण .... .... ऋद्धिवृद्धिके नामगुण .... उसका प्रतिनिधि मधुयष्टीके नामगुण कंपिल्लके नामगुण अमलतासके नामगुण कुटकीके स्वभाव .... किराततिक्तके गुण इंद्रयवलक्षण .... मयनफलके गुण .... रास्नाके गुण .... .... .... नाकुलीके लक्षण .... काकमाची (किमाघ ) .... पृष्ठ. विषय. २५ वनहलदी २६ दारुहलदी , रसांजन (रसोत) , बाकुची .... .... २७ चक्रमर्द ( चकोर) २८ अतिविषा नामगुण ..... ,, लोध्र (लोध ) .... .... .... , २९ लशुन ( ल्हसन )के उत्पत्तिप्रकार स्वभाव , गुण लक्षण .... .... .... ४२ ३० पलांडु (प्याज ).... .... , भल्लातक (भिलाव) ३१ भंगा ( भांग )के गुण , खसफल (पोस्त) .... .... ३२ आफूक ( अफीम) ,, खसखसके गुण .... ३३ सैंधवके गुण .... ,, सांभरनमकका गुण ,, पांगानमकके गुण.... .... ३४ बिडनमकके गुण .... .... ,, सौवर्चल (सौंचर ) नमकके गुण .... ,, कचलोन नमकके गुण .... .... ३५ चणक्षारनमकके गुण .... .... ,, जव बारके गुण .... .... ३६ सौभाग्य ( सुहागा )के गुण सज्जीखार और जवाखार .... क्षाराष्टकके स्वभाव .... .... ३७ चुक्र (चोक )के गुण .... .... " जवतीगण .... कटभी ( मालकांगनी ) .... कुष्ट (कूट )के गुण .... पुष्करमूल कूटका भेद हेमाह्वा ( चोक).... शृंगी (कांकडाशिंगी) .... कटफल (कायफळ) भांगीके नामगुण .... .... पाषाणभेद .... धातकी (धावयी) मंजिष्ठा (मजीठ) कुसुंभके गुण .... .... लाक्षा (लाही ) .... हरिद्रा ( हलदी) कर्पूरहलदी .... .... .... । कर्पूरादिवर्ग , कपूरके गुण और लक्षण.... .... ५० For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३ ) विषय. विषय. चीनी कपूरके गुण .... ५० गोरोचन नामादि .... .... कस्तूरीके लक्षण .... .... ५१ व्याघ्रनखी गुण .... .... मुख्यदानाके गुण.... सुगंधवाला नाम .... गंधमार्जारवीर्यस्वभाव ५२ वीरणका नामगुण चंदनके नाम और गुण ५२ खशका स्वभाव .... पीतचंदनके गुण .... जटामांसीगुण .... रक्तचंदनके गुण .... ५३ शैलेय (भूरछरील) पतंगके नामआदि .... .... ,, नागरमोथागुण .... अगरुके नामगुण .... कचूरका गुण .... .... देवदारुके गुण .... ५४ एकागी नामगुण .... धूपसरलके नामादि ,, गंधपलाशीका गुण तगरके स्वभाव .... .... ५५ प्रियंगु गंधप्रियंगु.... .... पद्माकके नामगुण रेणुका मरिचसदृशी गुग्गुलुके गुण .... .... .... , ग्रंथिपर्ण (ठीवन) । उसके अन्य स्वभाव .... .... ५७ स्थौणेय (थनेर) .... .... ६९ सरल निर्यास गुग्गुलु ,, ग्रंथिपर्णका दूसरा भेद रालके नामआदि .... .... ५८ दूसरा भेदसै भटेउर कुंदुरु सुगंधिद्रव्य शल्लकी निर्यास , तालीसपत्रगुण .... शिलारसके गुण .... .... .... , कोलगुण .... जायफलके गुण .... .... .... ५९ गंधकोकिला .... .... .... जावित्रीके स्वभाव लामज्जकका गुण .... लवंगके नामगुण .... एलवालु कंकोल एला बडी इलायची .... जलमोथाका गुण .... गुजराती इलाची .... ,, स्पृक्का सुगंधद्रव्य त्वपत्र (तज )के गुण ६१ पर्पटी (पद्मावती) दालचिनीके गुण .... , नलिका (यवादी) तमालपत्रके गुण ,, प्रपौंडरीक नामगुण .... नागकेशरका गुण विजात चतुर्जात .... | गुडूच्यादिवर्ग कुंकुम .... .... .... .... , गुडूची आदिका गुण .... .... ७४ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय. नागरपानका गुण .... .... .... बेलफलका गुण .... .... गंभारी कुंभेर .... .... पाण्डरीकंठपांडरीगुण स्योनाक (सोनापाठा) बृहत्पञ्चमूललक्षण शालिपर्णीका गुण.... .... पृश्निपर्णी (पिठवन ) .... वार्ताकी (बडी कटेरी) .... कंटकारी ( भटकटैया) बृहती ( कटेलीगुणा) .... गोक्षुर (गोखरु) .... लघुपंचमूललक्षण .... .... दशमूललक्षण .... जीवंतीनामगुण .... मुद्गपर्णी (वनमूंग) माषपर्णी .... .... जीवनीयगण .... शुक्ल और लाल एरंड शुक्ल अलर्क नामगुण सेहुंडनामगुण सेहुंडका भेद शातला शुक्लपुष्पी ( कलिहारी ) .... शुभ्र और लाल कनेर धत्तूरका नामगुण.... .... वासक ( अरूसा) पित्तपापडा .... निंबका गुण .... बकायनका नामगुण जलनी गुण ( ४ ) विषय. ७५ कचनारका स्वभाव .... .... ९१ सहोजनाका गुण .... .... अपराजिताका गुण .... सिंदुवार ( संभालु) कुटज (कुरैया).... करंजगुण .... .... अरारिनामादि .... श्वेतरक्तगुंजा .... किमाच नामगुण .... ,, रोहिणीस्वभाव ८१ चिह्नकका नामगुण .... .... " टंकारीका गुण .... (२ वेतसका गुण .... .... .... " जलवेतसका गुण .... .... समुद्रफलका गुण.... .... अङ्कोट ( हिंगोट ) .... वरिआरी, सहदेवी, काकहिया, गुलछकडी बलाचतुष्टय .... लक्ष्मणानामगुण .... .... ८५ स्वर्णवल्लीनामगुण .... ८६ कपासका गुण .... ८७ वंशनामगुण .... .... .... , नलके नामगुण .... ८८ भद्रमुंज (शरपत) काशका नामगुण .... ८९ गंधपटेरका नामगुण ,, कुशाका स्वभाव .... .... , रोहिससोधिया .... ९० भूतृण .... .... .... ९१ नीलदूर्वानामादि .... For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ट. विषय. विषय. श्वेतदूर्वादि १०४ चूर्णहारका नामगुण गांडरदूर्वा ,, कवैयाका नामआदि विदारीकंदसंबंधी कौआढोढीगुण .... मुसलीकंद १०५ काकजंघा (मसी) शतावरी महाशतावरी नागपुष्पीगुण .... असगंध .... १०६ मेढाशिंगी पाठाका नामगुण .... ___, हंसपादीका गुण .... श्वेतनिसोत १०७ सोमवल्ली आकाशगंगा श्यामनिसोत __, पातालगरुडी (वंदा) लघुदंतीगुण १०८ वटपत्रीका गुण .... .... बृहदंतीका गुण .... __, वंशपत्री मत्स्याक्षी लघुदंतीफल .... .... .... , सरहटी गंडिनी .... .... बडी इंद्रकला .... .... .... १०९ शंखपुष्पीका गुण.... .... नीलिका नामगुण.... अर्कपुष्पी, तक्ष, लज्जालु .... शरफोक नामगुण अलंबुषा, दूधी .... .... दुरालभा (जवासा) .... भुइआंवरी (वरंभी) मुंडीका नामगुण .... द्रोणपुष्पी ( गूमा) अपामार्ग (चिरचिरा) १११ हुरहुर दूसरा हुरहुर .... लाल चिरचिरा .... .... .... , वंध्या (वांजखकसा) .... तालमखाना .... देवदाली (सोनैया ) .... हडसंघारी .... जलपिप्पली (पनिसगा).... कुमारी (घीकुवार) ११३ गोजिव्हा (गोभी) श्वेतपुनर्नवा .... नागदमनीका गुण .... रक्तपुष्पका पुनर्नवा ११४ वीरतरु ( वरवेल) .... गंधप्रसारणी .... .... .... , छिक्कनी कुकुंदर .... .... .... करिआवांस .... सुदर्शन तथा आखुपर्णी .... .... गौरी (आसाऊं).... .... .... ११५ मयूरशिखा .... .... .... १२८ भुंगराजका गुण .... शणपुष्पी (हुली) पुष्पादिवर्ग त्रायमाण , गुडूचीकी उत्पत्ति नामगुण .... १२९ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्मिनीनामगुण नवपत्रादि स्थलकमलपद्मिनी जलकुंभी ( सेवाद ) सेवंती गुलाब वासंती (नेवारी) जाती ( चंबेली )..... जुही (सुवर्णजुही ) बकुल (मौलसरी ) कदंबका गुण मल्लिका (माधवी ) सुवर्णकेतकी किंकिरात ( कर्णिकार ) अशोक ( असोगी ) बाणपुष्प ( कटसरैया ) कुंदके गुण मुचुकुंद तिलकनाम बंधूक ऊर्ध्वपुष्पा सेंदूरी अगस्ति तुलसी शुक्ल मरुता ( मरुआ ) और विषय. .... .... **** .... .... दमनक ( वदना ) वर्वरीके गुण .... ash नाम और गुण पीपलके गुण नंदिवृक्ष उदुंबर कटुंभरी लक्ष पाकारी 0000 .... .... कृष्ण.. .... **** 0400 .... .... .... **** .... .... वादिवर्ग **** **** .... .... .... **** 9240 **** 30.8 ... .... .... **** 2008 .... **** .... .... 1000 .... .... .... .... 18.0 .... .... www.kobatirth.org ( ६ ) "" पृष्ठ. १३० क्षीरवृक्षादि पंचवल्कल शाल और उसके भेद "" १३१ | शलकी ( शालई ) १३२ शिंशिपा ( शीसम ) "" १३३ |खैरके नामगुण 77 99 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | कुकुभ ( कोह ) . .... बीजक ( विजयसार ) 12 १३४ | रोहितक तथा बब्बूल "" विषय. १४० श्वेत खैर इरिमेद.... .... .... 97 सहोरा ( वरुण ) ..... १३८ कटभीके नाम और गुण मोक्षवृक्ष शिरीषिका ( शमी ) "" १३९ सप्तपर्णी तथा तिनिश | भूमीसह (भुइसइ ) 11 पुत्रीजीव इंगुदी १३५ जिंगिनी गुण तूणी तथा भूर्जपत्र 39 १३६ | पलाशके नाम शाल्मली ( सेवर ) मोचरस ( कूटशाल्मली )..... " १३७ धव, धामार्गव, करीर For Private and Personal Use Only DEDI **** 9000 .... .... .... **** **** .... **** .... **** **** .... **** .... 03.0 6330 .... 2300 १४१ उसका बीज और नवपल्लव राजा तथा कोशाम्र "1 १४२ फनसका नाम और गुण ,, क्षुद्र फनसका नाम और गुण १४३ कुलीका गुण .... .... .... .... .... .... ... .... www. .... .... **** .... **** .... .... आम्रादिफलवर्ग आंबा के नाम और गुण .... .... .... .... .... *** .... 0000 .... .... .... ..... पृष्ठ. १४३ १४४ 19 १४५ 99 19 १४६ "" १४७ " १४८ 19 १४९ "7 १५० "" १५१ "2 १९२ "" १९३ 19 १५४ १९६ १९७ १९८ "7 १९९ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७) विषय. विषय. पृष्ठ. चिर्भटके नामआदि .... .... १५९ धातुरसरत्नविषवर्ग नारियलका गुण .... .... .... १६० धातुवोंका लक्षणगुण .... .... १७९ कालिंद ( तरबूज) .... .... , सुवर्णकी उत्पत्ति आदि लक्षण .... , खरबूज (त्रपुस, कर्कटी) १६१ रौप्यकी उत्पत्ति आदि .... .... पूगफल (सुपारी) ___, तांबाकी उत्पत्ति आदि .... तालके गुणलक्षण .... .... १६२ वंगके नामलक्षण .... .... कपित्थ (कैथी) १६३ सीसकी उत्पत्ति आदि नारंगी ( तेंदुक) १६४ लोहकी उत्पत्ति आदि कपीलु .... .... सारलोहका लक्षण फलेंद्रा, जामुनी .... १६५ कांतलोहलक्षण .... आमलक (आंवली) १६६ अधातुवोंका लक्षण करमर्द ( करोंदा) .... .... , तारमाक्षिक लक्षण प्रियाल ( चिरोंजी) .... .... १६७ तुत्थ (तूतिया) राजादन .... .... .... .... , कांसाका नामगुण विकंकत, वप्रबीज माषान्न , पित्तल ( कांचीपितरी ) .... सिंघाडा, पद्मबीज, मधुक .... १६८ सिंदूरके गुण .... .... परूषक तथा लूता १६९ शिलाजतुकी उत्पत्ति .... दाडिम (अनार) .... ,, रस और पारदकी उत्पत्ति । बहुवार तथा कतक उपरसोंका लक्षण द्राक्षा (दाख).... हिंगुलके नामआदि .... गोस्तनी ( मनुका) ,, गंधककी उत्पत्ति आदि .... .... भूमिखर्जूरिका .... १७२ अभ्रककी उत्पत्ति आदि.... बादामसेव अमृतफल ... .... १७३ हरितालकी उत्पत्ति आदि .... १९८ पीलूके गुण .... .... .... १७४ मनशिलके गुण.... .... .... १९९ बीजपूर (विजोरा) .... .... , सुरमा (सौवीर ) गुण .... .... २०० जंबीरके भेद .... .... सुहागा नामगुण .... .... निंबू मीठा निंबू कर्मरंग .... .... १७५ राजावत, चुंबक, सुवर्णगेरु । अंबीली ( अम्लवेतस ) .... .... १७६ खटी, गौरखटी तथा वालु वृक्षाम्लका नामगुण .... १७७ खर्परी, कासीस, सौराष्ट्री.... .... कर्दम तथा बोलका गुण .... .... ०. २०३ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमा विषय. विषय. कंकुष्ठोत्पत्तिलक्षण .... .... २०३ क्षुद्रधान्यका लक्षण रत्ननिरुक्ति और निरूपण.... .... २०४ | कंगुका लक्षण .... .... .... , हीरकका नाम, लक्षण और गुण .... , चीनाक और श्यामाक .... मारित हीरक आदिकोंका लक्षण.... २०६ कोद्रवका गुण .... .... वैडूर्य, मौक्तिक, प्रवाल आदि रत्नों- रुचकका लक्षण .... का गुण .... .... .... ,, वंशभव और कुसुंभबीज .... .... , ग्रहप्रियरत्न, उपरत्न .... .... २०७ गवेधुकाका गुण .... .... वत्सनाभ, हारिद्र, सक्तुक प्रदीपन- प्रसाधिकाका गुण का गुण .... .... .... , पवनका नामगुण .... .... .... , सौराष्ट्रिक, शृंगी, कालकूटहालाह__लोंका लक्षण .... .... २०८ शाकवर्ग ब्रह्मपुत्रका स्वरूप .... .... २०९ शाकोका निरूपण .... .... पोतकीका नामगुण .... धान्यवर्गः। तंडलीय तथा पलक्या ...... धान्योंका भेद .... .... .... २११ नाडीका और पट्टशाक ...... उनोंका गुण .... .... .... २१२ कलंबी और लोणिका .... केदार और स्थलन धान्य.... ,, चांगेरी और चुक्रका गुण । त्रीहि धान्यका लक्षण .... .... २१३ मूलक तथा मवानी .... .... २३१ पष्टिकाओंका लक्षण .... २१४ चवक और सेहुंड गेहूंका नामआदि.... .... .... २१५ पर्पट और गोजिव्ह .... .... २३२ मूंगकी निरुक्ति .... .... .... २१७ पटोलगुण .... .... .... माष और राजमाष .... .... गुडूची और कासमर्द निष्पाव, मकुष्ठ, मसूर, तुवरी इत्या- चणक, कलाप, सर्षप .... दिका गुण .... .... २१८ अगस्तिपुषा, कदलीपुष्प .... .... चणक, कलाय, त्रिपुट, इनोंके ना- शिग्रुपुष्प और शाल्मलीपुष्प मगुण .... ... .... २१९ कूष्मांड, अलाबुका गुण .... .... कुलित्थ और तिलोंका गुण .... २२० कटुतुंबी तथा कर्कटी .... .... अतसीका गुण .... .... .... २२१ चिचिंडा और कारवेल .... .... २३५ तुवरीका गुण .... .... .... , महाकोशातकी, धामार्गव .... .... , शिरसमका गुण .... .... .... , पटोल तथा बिंबीका गुण .... .... ६ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : .V (९) विषय. विषय. शिबीके, सौभांजनके गुण.... २३७ पक्षियोंकी अंडी तथा छाग वृंताकका गुण ... .... .... ,, मेढा और दुभाका गुण .... .... २५७ डिंडीश और पिंडार .... .... २३८ बैल, अश्व, महिषनामगुण .... , कर्कोटकी, विषमुष्टि मंडूक और कच्छप .... .... कंटकारीका गुण ..... .... .... , अनेकप्रकारकी अंडी .... .... २६० सूरणका गुण .... सिलन्ध, मोचक, शृंगी, हिल्लस ... २६१ आलुककंदका नामगुण .... .... , सौरीआदि अनेक मत्स्योंका गुण .... , मूलक और गुंजन मत्स्यांडादि मत्स्योंका गुण .... २६३ कदली तथा वाराही हस्तिकर्णका नामगुण .... .... २४२ कृतान्नवर्ग केमुक, कसेरुका गुण .... .... . अन्नसाधनका प्रकार .... .... २६५ पद्मादि कंदोंका नामगुण.... .... २४३ खिचडीका गुण .... .... .... २६६ पायस, सेवयी, मंडगुण .... .... ___ मांसवर्ग पपडी, लप्सी, रोटीका गुण .... मांसों के नाम और गुण .... .... २४९ अंगार और कर्कटी .... .... अनेकविध मत्स्यमांस .... .... , माष, चणकआदि पोलिका गुण .... बिलेशयोंके और गुहाशयोंके मांस- पापड, पूरी, वटकगुण .... .... २७१ गुण .... .... .... २४७ अम्लिका, मुद्ग, माष, कूष्मांड वटप्रतुद और प्रसहोंका गुण .... २४८ कगुण .... .... .... ग्राममें, और तीरमें चरनेवालेका गुण २४९ वटक और कढीका गुण .... .... प्लव औ कोशस्थोंका गुण.... .... , अब दूसरे वडेका प्रकार .... .... पादि तथा मत्स्य.... .... .... २५० शुद्धमांसप्रकार .... .... .... जंघालोंका गुण .... .... .... , सेहुंडक और अखनी .... .... , कुरंग तथा तित्तिर .... .... २५१ तलाहुआ मांसका गुण .... .... २७८ वाराह और सांबर .... .... ,शाकोंका प्रकार .... .... .... २७९ सेधाका नामगुण .... ..... , कर्पूर और नारिकेली ..... पक्षियोंका नामगुण २५३ शष्कुली, सेविका, और मोदक .... वालीक और तित्तिरिका गुण .... २५४ सेवन, मोदक, तथा जिलेबी चटक तथा कुक्कुटके गुण.... .... ,, शिखरिणीका गुण .... .... हारीत, मयूर, पारावतगुण .... २५५ सरबतका गुण ..... .... .... ol . २८५ . २ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) विषय. विषय. पृष्ठ. कांजिक, जाली और तक .... २८६ दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्ग सक्तुओंका प्रकार तथा गुण .... २८८ दुग्धका नाम और गुण .... .... ३०५ चिपिटका गुण .... .... २८९ वछडारहित गौके दुग्धका गुण .... ३०६ उचीके गुण .... .... ___, भैंस और छागआदिके गुण ...... , कुल्माषका गुण .... .... ___, अश्व, ऊंट, हाली, और नारीदुग्ध गुण .... .... .... ३०८ वारिवर्ग | धारोष्ण दुग्धके गुण .... .... " पानीका नाम और गुण .... .... २९१ पीयूष, किलाट और क्षीरशाक धारजलका लक्षण.... .... २९२ तक्रपिंड और मोरटके गुण गंगा और सामुद्रका लक्षण __, शर्करामिश्रित दुग्धके गुण अनार्तवका लक्षण .... .... २९३ दहीविषे विचार .... .... .... ३१२ तुषार जलका लक्षण २९४ गौ, भैस आदि दहीके गुण हिमजलका लक्षण .... .... , छक्करयुक्त दहीके गुण .... .... ३१४ भौमजलका लक्षण २९५ रात्रिमें दहीका निषेध .... नादेयजलका लक्षण २९६ तक्रके नाम और गुण .... औद्भिदजलका लक्षण ,, सामान्यतः तक्रके भेद .... नैझरजलका लक्षण २९७ कच्चा और पक्क तक्रके गुण सारसजलका लक्षण ___, उसके सेवनका प्रकार .... ताडागजलका लक्षण .... .... ,, नवनीतके गुण .... .... .... ., वाप्यजलका लक्षण २९८ घीके नाम और गुण .... .... कौपजलका लक्षण , भैस छाग औ उंटका घृत.... .... चौंजजलका लक्षण .... .... , नारी, अश्वका दूधके सद्यः किये दही कैदारजलका लक्षण .... .... २९९ और घी.... .... .... ३२१ वार्षिक, और हैमंतजलका गुण ... , मूत्रवर्गमें गोमूत्रके गुण .... ..... ३२२ जलोंका भेद जलग्रहणकाल जलपानविधि .... .... .... ३०० ३०० तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्ग तलसघानमधमथुइक्षु जलका निषेध और आवश्यकता .... ३०१ तैलस्वरूपका निरूपण .... .... ३.२४ प्रशस्तनिदितजलविचार निन्दितज- बृंहण और लेखनका सामानाधिकरण्य ३२५ लका शुद्धीकरण .... ३०२ अतसी, वरा, खसका तेल.... .... ३२६ एरंड, रालके तेल.... .... .... ३२७ ९r - V For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विषय. पृष्ठ. ( ११ ) विषय. कांजिकका लक्षणगुण .... .... ३२८ नानाविध इक्षुके गुण .... .... ३३८ शंडाकी, शुक्र, संधान, मद्य .... ३२९ दांत, यंत्र आदिपीडित इक्षुरसका गुण ३३९ अरिष्ट और सुराके गुण .... .... ३३१ इक्षुविकारोंके गुण.... .... .... ३४० आसवके गुण .... .... ३३२ नवीन गुडके गुण.... .... .... ३४१ नया और पुराना मद्यके गुण .... , मधुवर्गमें मधके नामगुण ..... ..... ३३३ अनेकार्थवर्ग माक्षिक, भ्रामर, क्षौद्रके गुण उसमें ग्रंथोक्त एकार्थ, व्यर्थ और पौतिक, छात्र, अय॑के गुण.... .... तीनअर्थवाले नामोंका संग्रह दलके लक्षण और गुण .... .... किया है सो ग्रंथसें यथाइक्षुवर्गमें उसके नामगुण .... .... ३३७ वत् देखलेना. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kailassagarsuri Gyan श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे हरीतक्यादिवर्गः। दक्ष प्रजापति स्वस्थमश्विनौ वाक्यमूचतुः । कुतो हरीतकी जाता तस्यास्तु कति जातयः ॥ १॥ रसाः कति समारख्याताः कति चोपरसाः स्मृताः। नामानि कति चोक्तानि किंवा तासां च लक्षणम् ॥२॥ के च वर्णा गुणाः के च का च कुत्र प्रयुज्यते । केन द्रव्येण संयुक्ता कांश्च रोगान् व्यपोहति ॥ ३॥ टीका-स्वस्थ प्रजापतिको अश्विनीकुमारोंने पूछा की, हरीतकीकी अर्थात् हरडेकी उत्पत्ति कहांसें है और उनकी कितनी जात हैं ॥१॥ तथा उसमें रस कितने हैं और उपरस कितने होते हैं और इसके नाम कितने हैं और उनका लक्षण क्या है ॥२॥ और उनके वर्ण तथा गुण कितने हैं और कोनकों कहांपर देनी चाहिये और कोनसे द्रव्यके साथ देनेसें कोनसे रोगोंका नाश करती है ॥ ३ ॥ प्रश्नमेतद्यथा पृष्टं भगवन् वक्तुमर्हसि । अश्विनोर्वचनं श्रुत्वा दक्षो वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥ टीका-हे भगवन् , जैसे यह प्रश्न हमने पूछा है ताळू आप कहिवेकू समर्थ हो. ऐसा अश्विनीकुमारोंका वचन सुनकर दक्षप्रजापति कहत भये ॥ ४ ॥ पपात बिन्दुर्मेदिन्यां शकस्य पिबतोऽमृतम् । ततो दिव्यात्समुत्पन्ना सप्तजातिहरीतकी ॥५॥ टीका-जिससमय इन्द्रने अमृत पीया उससमय उसमेसें एक बूंद पृथ्वीमें गिरा. फिर उस अमृतकी बूंदसें सात जातकी हरीतकी उत्पन्न होत भई ॥ ५॥ हरीतक्यभया पथ्या कायस्था पूतनाऽमृता । For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे हेमवत्यव्यथा चापि चेतकी श्रेयसी शिवा ॥ ६ ॥ वयस्था विजया चापि जीवन्ती रोहिणीति च । टीका-हरीतकी १, अभया २, कायस्था ३, पूतना ४, अमृता ५, हेमवती ६, अव्यथा ७, चेतकी ८, श्रेयसी ९, शिवा १०, ॥ ६ ॥ वयस्था ११, विजया १२, जीवंती १३, और रोहिणी १४ ये चौदाह हर्डके नाम हैं. विजया रोहिणी चैव पूतना चामृताऽअया ॥ ७ ॥ जीवंती चेतकी चेति विज्ञेयाः सप्त जातयः। टीका-अब हरडोंकी जाति कहते हैं. विजया १, रोहिणी २, पूतना ३, अमृता ४, अभया ५, ॥७॥ जीवन्ती ६, चेतकी ७ ये सात प्रकारकी हरड होती हैं. और इन्ही सातोंकों मिलाके बहुतसे निघंटोंमें हर्डके २१ एकवीस नाम कहे हैं. अलाबुरत्ता विजया वृत्ता सा रोहिणी स्मृता ॥८॥ पूतनास्थिमती सूक्ष्मा कथिता मांसलाऽमृता । पंचरेखाभया प्रोक्ता जीवन्ती स्वर्णवर्णिनी ॥ ९॥ टीका-अब हर्डकी पहिचान लिखते हैं. जो हर्ड तूंबीके समान गोल होय उसकों विजया कहते हैं, और जो गोल होय उसको रोहिणी कहते हैं, ॥८॥ और जिसमें छोटी गुठली होय उसको पूतना, और जो गूदेदार होय उसकों अमृता कहते हैं. और जिस हर्डमें पांच लकीर होय उसकों अभया, और जिसका सोनेकासा रंग होय उसको जीवन्ती कहते हैं ॥ ९॥ त्रिरेखा चेतकी ज्ञेया सप्तानामियमाकतिः। विजया सर्वरोगेषु रोहिणी व्रणरोहिणी ॥ १० ॥ टीका-और जिसमें तीन रेखा हों उसको चेतकी कहते हैं, यामकार सातोंप्रकारके हौँके स्वरूप कहे हैं. और विजया समस्त रोगोंमें देनी चाहिये, और घावोंके भरनमें रोहिणी श्रेष्ठ है ॥ १०॥ प्रलेपे पूतना योज्या शोधनार्थेऽमृता हिता। अक्षिरोगेऽभया शस्ता जीवन्ती सर्वरोगहृत् ॥ ११ ॥ . टीका-लेपमें पूतना श्रेष्ठ है, और शोधनके अर्थ पूतना श्रेष्ठ कही है, और नेत्ररोगमें अभया देनी अच्छी है, और जीवन्ती सर्वरोगोंकों हरनेवाली कही है ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। चूर्णार्थे चेतकी शस्ता यथायुक्तं प्रयोजयेत् । चेतकी दिविधा प्रोक्ता श्वेता कृष्णा च वर्णतः ॥ १२॥ टीका-और चूर्ण बनानेमें चेतकी श्रेष्ठ होती है. उसकी योगके अनुसार योजना करनी. और चेतकी रंगमें दोपकारकी होती है, एक सफेद दूसरी काली॥१२॥ षडङ्गुलायता शुक्ला कृष्णा वेकामुला स्मृता। काचिदास्वादमात्रेण काचिद्गन्धेन भेदयेत् ॥ १३॥ टीका-सफेद छअंगुल लंबी और काली एकअंगुल लंबी होती है; कोई खानेमात्रसें दस्त लाती है और कोई सूंघनेमात्रसेंही दस्त लाती है ॥ १३ ॥ काचित्स्पर्शेन दृष्ट्यान्या चतुर्धा भेदयेच्छिवा । चेतकीपादपछायामुपसर्पन्ति ये नराः ॥ १४ ॥ भिद्यन्ते तत्क्षणादेव पशुपक्षिमृगादयः । चेतकी तु धृता हस्ते यावत्तिष्ठति देहिनः ॥ १५॥ तावद्भिद्येत वेगैस्तु प्रभावान्नात्र संशयः। न धार्ये सुकुमाराणां कशानां भेषजद्विषाम् ॥ १६ ॥ टीका-और कोई स्पर्श करनेसें और कोई देखनेसेंही दस्त लाती है. ऐसी चार प्रकारकी हर्ड होती है. जो मनुष्य चेतकीके वृक्षकी छायामें जाते हैं ॥ १४ ॥ उनकों उसी क्षण दस्त लगजाता है, और मनुष्यके शिवाय पशुपक्षीमृगादिकोंकोभी दस्त लगजाता है, और मनुष्य चेतकीकों जबतक धारण करते हैं ॥ १५॥ तबतक उसके प्रभावसे दस्त लगता है इसमें कुछ संदेह नहीं है. सुकुमारअवस्थावाले और कुश और औषधिके शत्रु इनकों धारण करने योग्य नहीं ॥ १६ ॥ चेतकी परमा शस्ता हिता सुखविरेचनी। सप्तानामपि जातीनां प्रधानं विजया स्मृता ॥ १७ ॥ टीका-चेतकी सुषवी रेचनमें बहुत अच्छी होती है और इन सातो जातकी होंमें विजयानामकी हर्ड सबमें प्रधान कही है ॥ १७ ॥ सुखप्रयोगा सुलभा सर्वरोगेषु शस्यते। हरीतकी पंचरसा लवणा तुवरा परम् ॥ १८॥ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे ____टीका-मुखपूर्वक योगमें देनेयोग्य होती है और सुलभ सबरोगोंमें प्रशस्त होती है. हरीतकी पांच रसोंसे युक्त और लवणसे रहित तथा बहुत कसेली होती है ॥१८॥ रूक्षोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाका रसायनी । चक्षुष्या लघुराशिष्या बृहणी चानुलोमनी ॥ १९॥ श्वासकाशप्रमेहार्श कुष्ठशोथोदरकृमीन् । वैस्वर्यग्रहणीरोगविबन्धविषमज्वरान् ॥ २०॥ टीका-रूखी, गरम, अग्निको दीपनकरनेवाली, पवित्र, मधुरपाकवाली, रसायनी होती है, नेत्रोंकों हित करनेवाली और हलकी तथा आयुको हितकारक बृंहणी तथा वायु और मलकों नीचे करनेवाली होती है ॥ १९ ॥ स्वास, कास, प्रमेह, ववासीर, कोढ, सूजन, उदररोग, कृमि, स्वरभंग, ग्रहणी, विबंध अर्थात् कवजियत और विषमज्वर ॥ २०॥ गुल्माध्मानतृषाच्छर्दिहिकाकंडूहदामयान् । कामलां शूलमानाहं प्लीहानं च यत्तथा ॥ २१ ॥ अश्मरी मूत्रकृच्छंच मूत्राघातं च नाशयेत् । स्वादुतिक्तकषायत्वात्पित्तहत्कफहत्तु सा ॥ २२ ॥ टीका–चायुगोला, आध्मान, तृषा, वमन, हुचकी, खाज, हृदयरोग, कामला, शूल, अफरा, तापतिल्ली, ॥२१॥ पथरी, मूत्रकृच्छ्र, और मूत्राघात इतने रोगोंकों हरीतकी नाश करती है. मीठापनसें और तीखापनसें तथा कसेलेपनसे ये पित्तका नाश करती है और कफकाभी नाश करती है ॥ २२॥ । कटुतिक्तकषायत्वादम्लत्वादातहच्छिवा । पित्तकृत्कटुकाम्लत्वाहातकन्न कथं शिवा ॥ २३ ॥ प्रभावाद्दोषहन्तृत्वं सिद्धं यत्तत्प्रकाश्यते । हेतुभिः शिष्यबोधार्थं न पूर्वं कथ्यतेऽधुना ॥ २४ ॥ कर्मान्यत्वं गुणैः साम्यं दृष्टमाश्रयभेदतः। यतस्ततो नेति चिन्त्यं धात्रीलकुचयोर्यथा ॥ २५॥ टीका-कटुपनेसें और तिक्तपनेसें तथा कसेलेपनेसें और खट्टेपनेसें हरीतकी वातका नाश करती है. कडवे और खट्टेपनसें हरीतकी पित्तकों करनेवाली है. तब वा For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। तको करनेवाली क्यों नहीं है ॥ २३ ॥ प्रभावसे जो दोषकी नाशकता सिद्ध है उसको कहते हैं शिष्यबोधके अर्थ प्रथमहेतुओंसें नहीं कहा ॥ २४ ॥ अब आश्रयके भेदसें गुणोंकी समता और कर्मान्यता देखी जिसें चिंतवन करनेके योग्य नहीं है जैसें आवले वढहलोंकी ॥२५॥ पथ्याया मजनि स्वादुः स्नाय्वावम्लो व्यवस्थितः। वृते तिक्तस्त्वचि कटुरास्थितस्तुवरो रसः॥ २६ ॥ नवा स्निग्धा घना वृत्ता गुर्वी क्षिप्ता च याम्भसि । निमजेत्सा प्रशस्ता च कथिता सा गुणप्रदा ॥२७॥ नवादिगुणयुक्ता च तथैकत्र विकर्षता। हरीतक्याः फले यत्र द्वयं तच्छ्रेष्ठमुच्यते ॥ २८॥ टीका-हर्डकी मज्जामें मधुर और स्नायुमें अम्ल रहता है, परदेमें तिक्तता और छिलके कडवापन और अस्थिमें कसेला रस होता है ॥ २६ ॥ नवीन स्निग्ध घन गोल भारी और पानीमें डालनेसें डूब जाय वो हरीतकी अच्छी और समस्तगुणोंके देनेवाली होती है ॥२७॥ नवादिगुणकरिके युक्त और तैसेही एकजगह दो तोलेकी श्रेष्ठ है और जो हरीतकीके दो फल एकसाथ जुडेहुए हों वोभी श्रेष्ठ हैं ॥२८॥ चर्विता वर्धयत्यग्निं पेषिता मलशोधिनी। स्विन्ना संग्रहिणी पथ्या भ्रष्टा प्रोक्ता त्रिदोषनुत् ॥ २९ ॥ उन्मीलिनी बुद्धिबलेन्द्रियाणां निर्मूलनी पित्तकफानिलानाम्। वित्रंसिनी मूत्रशन्मलानां हरीतकी स्यात्सह भोजनेन॥३०॥ अन्नपानकतान्दोषान्वातपित्तकफोद्भवान् । हरीतकी हरत्याशु भुक्तस्योपरि योजिता ॥ ३१ ॥ टीका-चर्वण अर्थात् चवाईहुई हर्ड अग्निकों बढाती है, पीसीहुई मलकों शोधन करती है, और तलीहुई संग्रहणीको नाश करती है, तथा भुनीहुई हरीतकी त्रिदोषनाशक है ॥२९॥ बुद्धि, बल, इन्द्रियोंकों प्रकाश करनेवाली और पित्त, कफ, वायु इनकों नाश करनेवाली तथा मूत्र मल दोषोंको निकालनेवाली हरीतकी होती है. भोजनके साथ ॥ ३० ॥ वात, पित, कफसे उत्पन्न हुए दोष और अन्नपानसें हुए दोषोंकों भोजनके उपरांत सेवन की हुई हरीतकी शीघ्रही नाश करती है ॥ ३१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ हरीतक्यादिनिघंटे लवणेन कर्फ हन्ति पित्तं हन्ति सशर्करा । घृतेन वातजान् रोगान् सर्वरोगान् गुडान्विता ॥ ३२ ॥ टीका-हरीतकीकों लवणके साथ खानेसे कफकों नाश करती है और शर्कराके साथ खानेसे पित्तकों शांति करती है तथा घृतके साथ सेवन करनेसे वातरोगोंको और गुडके साथ सेवन करनेसें समस्तरोगोंकों हरीतकी नाश करती है ॥ ३२ ॥ सिंधूत्थशर्करा शुण्ठी कणा मधुगुडैः क्रमात् । वर्षादिष्वभया प्राश्या रसायनगुणैषिणा ॥ ३३ ॥ टीका-सेंधानोन, शर्करा, सोंठि, पीपल, मधु, और गुड क्रमसें हरीतकीकों इनके साथ वर्षादि ऋतुओंमें रसायनके गुण चाहनेवालोंकों सेवन करनी चाहिये ॥ ३३ ॥ अध्वातिखिन्नो बलवर्जितश्च रूक्षः कशो लंघनकर्षितश्च । पित्ताधिको गर्भवती च नारी विमुक्तरक्तस्त्वभयां न खादेत्३४ टीका:-मार्गसें अतिखिन्न हुआ बलसे रहित, रूखा, कृश, लंघन करनेसें दुर्बल हुआ पित्त अधिकवाला, गर्भवती स्त्री, और फस्त लिया हुआ इत्यादि मनुप्योंकों हरीतकी खानी नहीं चाहिये ॥ ३४ ॥ __ अथ बिभीतकस्य नामानि गुणाश्च. बिभीतकस्त्रीलिङ्गः स्यानाक्षः कर्षफलस्तु सः। कलिट्ठमो भूतावासस्तथा कलियुगालयः॥ ३५ ॥ टीकाः-अब बहेडेके नाम तथा गुण लिखते हैं. बिभीतक, त्रिलिंग, अक्ष, कर्षफल, कलिद्रुम, भूतावास, कलियुगालय, ये सात नाम बहेडेके हैं ॥ ३५॥ बिभीतकं स्वादुपाकं कषायं कफपित्तनुत् । उष्णवीर्य हिमस्पर्श भेदनं कासनाशनम् ॥ ३६ ॥ रूक्षं नेत्रहितं केश्यं कृमिवैस्वर्यनाशनम् । विभीतमजा तृच्छर्दिकफवातहरो लघुः॥ ३७॥ कषायो मदकच्चाथ धात्रीमजापि तद्गुणः । टीका-बहेडा पाकमें मधुर कसेला कफ पित्तका नाशक है उणवीर्यवाला For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । स्पर्शमें शीतल भेदन कासका नाशक है || ३६ || रूपानेत्रके हित करेनेवाला है और केशोंके हित करेनवाला है और कृमि तथा स्वरभंगका नाश करता है और बहेडेकी गिरी, तृषा, वमन, कफ, वात इनकों नाश करनेवाली और हलकी होती है ॥ ३७ ॥ तथा कसेली और नाश करनेवाली होती है और आमलेकी गिरी - भी इसीके समान गुणोंकों करती है. अथामलक्या नामानि गुणाश्र. त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री त्रिष्वफलामृता ॥ ३८ ॥ हरीतकी समं धात्रीफलं किन्तु विशेषतः । रक्तपित्तप्रमेहनं परं वृष्यं रसायनम् ॥ ३९ ॥ हन्ति वातं तदम्लत्वात् पित्तं माधुर्यशैत्यतः । कफं रूक्षकषायत्वात् फलं धात्र्यास्त्रिदोषजित् ॥ ४० ॥ यस्य यस्य फलस्येह वीर्यं भवति यादृशम् । तस्य तस्यैव वीर्येण मज्जानमपि निर्दिशेत् ॥ ४१ ॥ टीका - अब आमलेके नाम और गुण कहते हैं. तीनों आमलोंमें धात्रीआमलक प्रसिद्ध है और तीनों में बेफलवाली अमृता प्रसिद्ध है ॥ ३८ ॥ और हरीतकी के समानही धात्रीफलकेभी गुण जानों किंतु विशेष करिके रक्त पित्त और प्रमेहकों नाशक और अत्यन्त वृष्य तथा रसायन होती है ॥ ३९ ॥ वो खट्टेपनसे वायुका नाश करता है, मधुरता और शीतलतासें पित्तको नाश करता है रूपे और कसेलेपन सें कफकों करता है. ऐसे आवला त्रिदोषकों जितनेवाला है ॥ ४० ॥ यहांपर जिसजिसके फलका वीर्य जैसे होता है उसउसके मज्जाकोभी जानलेवे ॥ ४१ ॥ अथ त्रिफलाया लक्षणनामगुणाः पथ्याबिभीतधात्रीणां फलैः स्यात् त्रिफला समैः । फलत्रिकं च त्रिफला सा वरा च प्रकीर्तिता ॥ ४२ ॥ त्रिफला कफपित्तघ्नी मेहकुष्ठहरा सरा । चक्षुष्या दीपनी रुच्या विषमज्वरनाशनी ॥ ४३ ॥ टीका - इसके अनंतर त्रिफलाके नाम और लक्षण तथा गुण लिखते हैं. हर्ड For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे वहेडा और आमला इन तीनों फलोंकों समान लेकर मिलानेसें त्रिफल होती है. फलत्रिक त्रिफला और वोह वराभी कही गई है ॥ ४२ ॥ त्रिफला कफ और पितकी नाशक होती है. तथा प्रमेह और कुष्ठकाभी नाश करती है और दस्ताव रहै और नेत्रोंकों हित करनेवालीहै अग्निकी दीपन करनेवाली है तथा रुचिकों करती है और विषमज्वरका नाश करती है ॥ ४३ ॥ अथ शुंठ्या नामानि गुणाश्च. शुण्ठी विश्वा च विश्वं च नागरं विष्वभेषजम् । ऊषणं कटु भद्रं च शृंगबेरं महौषधम् ॥ ४४ ॥ शुण्ठी रुच्यामवातघ्नी पाचनी कटुका लघुः। स्निग्धोष्णा मधुरा पाके कफवातविबन्धनुत् ॥ ४५॥ वृष्या सर्या वमिश्वाशशुलकासहृदामयान । हन्ति श्लीपदशोथार्शआनाहोदरमारुतान् ॥ ४६॥ आग्नेयगुणभूयिष्ठं तोयांशं परिशोषि यंत् । संगृह्णाति मलं तत्तु ग्राहि शुंठ्यादयो यथा ॥४७॥ विबन्धभेदनी या तु सा कथं ग्राहिणी भवेत् । शक्तिर्विबंधोदे स्यात् यतो न मलपातने ॥४८॥ टीका-सोंठके नाम तथा गुण लिखते हैं. शुंठी, विश्वा, विश्वनागर, विश्वभेषज, ऊपण, कटु, भद्र, श्रृंगवेर, महौषध, ये सोंठके नाम हैं ॥४४॥ ये सोंठ रुचिकों करनेवाली और आमवातकी नाश करनेवाली है, और पाचन है, कडवी है, हलकी है, चिकना गरम पाकमें मधुर कफ, वात और विबंध इनको नाश करनेवाली है ॥४५॥ वृष्य मलकी अनुलोमन करनेवाली तथा वमन, श्वास, शूल, खांसी, हृदयरोग, श्लीपद, सूजन, बवासीर, अफरा, उदररोग, और वातरोग इनका नाश करती है ॥ ४६॥ बहुत गरम जलके अंशकों शोषण करनेवाली औ वो मलकों बांधती है जैसें ग्राही शुंठ्यादिक ॥ ४७ ॥ विबंधको भेदन करनेवाली जो है वोह कैसे ग्राहिणी होती है, विबंधभेदमें शक्ति है क्योंकी मलपातनमें नहीं ॥ ४८ ॥ अथाकनामगुणाः. आर्द्र शृगबेरं स्यात्कटु भद्रं तथार्द्रिका । For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हरीतक्यादिवर्गः । आद्रिका भेदनी गुर्वी तीक्ष्णोष्णा दीपनी मता ॥ ४९ ॥ कटुका मधुरा पाके रूक्षा वातकफापहा । ये Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणाः कथिताः शुव्यास्तेऽपि संत्यार्द्रकेऽखिलाः ॥५०॥ भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणार्द्रकभक्षणम् । निसंदीपनं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम् ॥ ५१ ॥ कुष्ठ पाण्ड्रामये कृच्छ्रे रक्तपित्ते व्रणे ज्वरे । दा निदाघशरदोर्नैव पूजितमार्द्रकम् ॥ ५२ ॥ टीका - अब अदरक के नाम और गुण कहते हैं. अदरक १, शृंगबेर २, कभद्र ३, आर्दिका ४ ये अदरक के चार नाम हैं. ये अदरक भेदन करनेवाला और भारी, तीखा, गरम, दीपन, कहा गया है ॥ ४९ ॥ कडवा, पाकमें मधुर, रूखा, वात और कफका नाशक है. जितने गुण सोंठमें कहिआये हैं उतनेही सब अदरकभी जानों ॥ ५० ॥ भोजनकरनेसें पहिले अदरक और नमकका सेवन करना पथ्य है, अग्निका दीपन करनेवाला, तथा रुचि करनेवाला है, जीभ और कंट इनका विशोधन है ॥ ५१ ॥ कुष्ठ, पांडुरोग और मूत्रकृच्छ्र, तथा रक्तपित्त, घाव और ज्वर इनमेंभी पथ्य है. दाहमें और ग्रीष्ममें तथा सरदमें अदरक अच्छा नहीं होता ॥ ५२ ॥ अथ पिप्पल्या नामानि गुणाश्च. पिप्पली मागधी कृष्णा वैदेही चपला कणा । उपकुल्योषणा शौंडी कोला स्यात्तीक्ष्णतंडुला ॥ ५३ ॥ २ टीका- अब पिप्पलीके नाम और गुण कहते हैं. पिप्पली १, मागधी २, कृष्णा ३, वैदेही ४, चपला ५, कणा ६, उपकुल्या ७, उष्णा ८, शौंडी ९, कोला १०, तीक्ष्णा ११, तंडुला १२, ये पीपलके बारह नाम हैं ॥ ५३ ॥ पिप्पली दीपनी वृष्या स्वादुपाका रसायनी । अनुष्णा कटुका स्निग्धा वातश्लेष्महरी लघुः ॥ ५४ ॥ पिप्पली रेचनी हन्ति श्वासकासोदरज्वरान् । कुष्ठप्रमेहगुल्मार्शः लीहशूलाममारुतान् ॥ ५५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे आर्द्रा कफप्रदा स्निग्धा शीतला मधुरा गुरुः। पित्तप्रशमनी सा तु शुष्का पित्तप्रकोपिनी ॥ ५६ ॥ पिप्पली मधुसंयुक्ता मेदःकफविनाशिनी । श्वासकासज्वरहरा वृष्या मेध्याग्निवर्धिनी ॥ ५७ ॥ जीर्णज्वरेऽग्निमान्ये च शस्यते गुडपिप्पली। कासाजीर्णारुचिश्वासहृत्पांडुकृमिरोगनुत् ॥ ५८ ॥ द्विगुणः पिप्पलीचूर्णागुडोऽत्र भिषजां मतः। टीका-अब पिप्पलीके गुण कहते हैं. पीपली दीपनी और पुष्ट, पाकमें मधुर, रसायनी, कुछेक गरम, कटु, चिकनी, और वातकफकों दूर करनेवाली, तथा हलकी है ॥५४॥ और दस्तावर, तथा श्वास, कास, उदररोग, और ज्वर इनकों नाश करनेवाली है. कोठ, प्रमेह, वायगोला, बवासीर, शूल, आमवात, इनकों नाश करती है ॥५५॥ और गीली पीपली कफकों पैदा करती है. चिकनी शीतल, मधुर, भारी, पित्तकी शमनी होतीहै, और ये पीपली, बहुत मूखी हुई पित्तका प्रकोप करनेवाली होती है ॥५६॥ पीपलीकों सहतकेसाथ खानेसे मेद, कफ, इनका नाश करती है, तथा श्वास, कास, ज्वर, इनका नाश करती है, पुष्ट है बुद्धिको बढानेवाली है, अग्निकों दीपन करनेवाली है ॥ ५७॥ जीर्णज्वरमें और मंदाग्निमें पीपली गुडके संग सेवन करनी अच्छी होती है, कास, अजीर्ण, अरुचि, तथा श्वास, इन रोगोंकों नाश करनेवाली है. पांडुरोग, कृमिरोग, इनको नाश करती है ॥ ५८ ॥ पीपलके चूर्णसें दुगुना गुड लेना वैद्योंने कहा है. अथ मरिचस्य नामानि गुणाश्च. मरिचं वेल्लजं कृष्णमूषणं धर्मपत्तनम् ॥ ५९॥ मरिचं कटुकं तीक्ष्णं दीपनं कफवातजित् । उष्णं पित्तकरं रूक्षं श्वासशूलकमीन हरेत् ॥ ६० ॥ तदामधुरं पाके नात्युष्णं कटुकं गुरु । किञ्चित्तीक्ष्णगुणश्लेष्मप्रसेकि स्यादपित्तलम् ॥ ६१॥ टीका-अब मरिचके नाम और गुण कहते हैं. मरिच, वेल्लज, कृष्ण, उषण, For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । ११ धर्मपत्तन यह, मरिचके नाम हैं ॥ ५९ ॥ मिरच कडवी, तीखी, दीपन, कफवातकी नाशक होती है. उष्ण पित्तकों करनेवाली, रूखी, श्वास, शूल, कृमि, इनकों नाश करती है ॥ ६० ॥ वोह गोली पाकमें मधुर होती है, और न बहुत गरम, कडवी, भारी, होती है. कुछ तीखी गुणवाली, कफकों निकालनेवाली, पित्तकों करनेवाली होती है ॥ ६१ ॥ अथ त्रिकटुकनामलक्षणगुणाः. विश्वोपकुल्या मरिचं त्रयं त्रिकटु कथ्यते । कटुत्रिकं तु त्रिकटु त्र्यूषणं व्योष उच्यते ॥ ६२ ॥ त्र्यूषणं दीपनं हन्ति श्वासकासत्वगामयान् । गुल्म मेहकफ स्थौल्य मेदश्लीपदपीनसान् ॥ ६३॥ टीका - अब त्रिकटुके नाम और लक्षण तथा गुण कहते हैं. सोंठ, पीपल, मिरच, इन तीनोंकों त्रिकटु कहते हैं. कटुत्रिक, त्रिकटु, त्र्यूषण, व्योप, यह त्रिकदुके नाम हैं ॥ ६२ ॥ त्रिकटु दीपन है, श्वास, कास, त्वचाके रोग इनकों नाश करता है. गुल्म, प्रमेह, कफ, स्थूलता, मेद, श्लीपद, पीनस, इनकोंभी नाश करता है ॥ ६३ ॥ अथ पिप्पलीमूलस्य नामानि गुणाश्च. ग्रन्थिकं पिप्पलीमूलमूषणं चटकाशिरः । दीपनं पिप्पलीमूलं कदुष्णं पाचनं लघु ॥ ६४ ॥ रूक्षं पित्तकरं भेदि कफवातोदरापहम् । आनाहली हगुल्मन्नं कमिश्वासक्षयापहम् ॥ ६५ ॥ टीका- अब पीपलामूलके नाम और गुण कहते हैं. ग्रंथिक, पीपलीमूल, ऊपण, चटकाशिर, यह पीपलीमूलके नाम हैं. पीपलामूल दीपन, कडुवा, उष्ण, पाचन, हलका होता है ॥ ६४ ॥ रूखा, पित्तकों करनेवाला, भेदन करनेवाला, कफ, बात, उदररोग, इनका नाशक. अफरा, प्लीह, वायगोला, इनका नाशक तथा कृमि, श्वास, क्षय इनका नाशक है ॥ ६५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ चतुरूषणस्य लक्षणगुणाः. त्र्यूषणं सकणामूलं कथितं चतुरूषणम् । व्योषस्यैव गुणाः प्रोक्ता अधिकाश्चतुरूषणैः ॥६६॥ टीका-अब चतरूषणके लक्षण और गुण कहते हैं. त्र्यूषण अर्थात् त्रिकटु पीपलीमूलके सहित चतुरूषण कहा गया है. त्रिकटुसेंही अधिक गुण चतुरूषणमें होते हैं ॥६६॥ चव्यगुणाः. भवेचव्यं तु चविका कथिता सा तथागुणा। कणामूलगुणं चव्यं विशेषाद्गुदजापहम् ॥ ६७॥ टीका-अब चव्यके गुण लिखते हैं. चव्य, चविक तथा उषण है. और जो गुण पीपलमें हैं वही चव्यमेंभी जानों. और विशेषकरिके चच्य ववासीरकों शांति करता हैं ॥ ६७॥ गजपिपल्या नामानि गुणाश्च. चविकाया फलं प्राज्ञैः कथिता गजपिप्पली। कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसी वशिरश्च सा ॥ ६८ ॥ गजकृष्णा कटुतश्लेष्मद्वह्निवर्धनी। उष्णा निहंत्यतीसारं श्वासकण्ठामयामीन् ॥ ६९॥ टीका-अब गजपीपलके नाम तथा गुण लिखते हैं । चविकाके फलकों शास्त्रमें गजपीपल कहतेहैं. फिर ये कपिवल्ली, कोलवल्ली, श्रेयसी, वशिर, इन चार नामोसे प्रसिद्ध है ॥ ६८ ॥ और ये गजपीपल स्वादमें कडवी और वातकफके रोगोंकों नाश करनेवाली तथा अग्निकों दीप्त करनेवाली और उष्ण यानी गरम होती है, और अतीसार यानी दस्तोकी वामारी, श्वासरोग, और कंठरोग कृमिरोग इन सबरोगोंकों हरती है ॥ ६९॥ अथ चित्रकनामगुणाः. चित्रकोऽनलनामा च पीठो व्यालस्तथोषणः। For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। चित्रकः कटुकः पाके वह्निरूत्पाचनो लघुः॥ ७० ॥ रूक्षोष्णा ग्राहिणी कुष्ठशोथार्श कमिकासनुत् । वातश्लेष्महरो ग्राही वातार्शःश्लेष्मपित्तहृत् ॥७१॥ टीका-चित्रक, और अग्निके नामोंवाला अर्थात् जो नाम अग्निके है वोही इसकेभी जानों. पीठ, व्याल, ऊषण, ये चित्रकके नाम हैं. और ये चित्रक पाकमें कडवा है, अग्निकी दीप्ति करनेवाला है, तथा पाचन और हलका होता है ॥७॥ रूखा है, उण यानी गरम है. संग्रहणी, कोष्ठ, सूजन, तथा ववासीर, कृमि, और कास इनको हरनेवाला है, तथा वात, कफ इनका नाश करनेवाला है, और ग्राही है, ववासीरको तथा कफपितका नाशक है ॥ ७१ ॥ अथ पंचकोललक्षणगुणाः. पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरैः। पंचभिः कोलमात्रं यत्पंचकोलं तदुच्यते ॥ ७२ ॥ पंचकोलं रसे पाके कटुदं रुचिकन्मतम् । तीक्ष्णोष्णं पाचनं श्रेष्ठं दीपनं कफवातनुत् ॥ ७३ ॥ गुल्मलीहोदरानाहशुलनं पित्तकोपनम् । टीका-अव पंचकोलके लक्षण और गुण लिखते हैं. पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, इन पांचों औषधोंकों एकएक कोल यानी आठ मासेकों पंचकोल कहा है ॥ ७२ ॥ फिर ये पंचकोल रसमें और पाकमें कडवा है, तथा रुचिकों करनेवाला है, और रूखा है, उष्ण अर्थात् गरम है, पाचन है, बहुत अच्छा दीपन है, कफ तथा वातरोगोंका हरनेवाला है ॥ ७३ ॥ गुल्म, वायगोला, प्लीहा, तथा उदरके रोग, अफरा, और शूल इन सब रोगोंका नाशक है, और पित्तकों कुपित करनेवाला होता है. अथ षड्षणस्य लक्षणगुणाः. पंचकोलं समरिचं षडूषणमुदाहृतम् ॥ ७४ ॥ पंचकोलगुणं तत्तु रूक्षमुष्णं विषापहम् । टीका-अब षडूषणके गुण और लक्षण लिखतेहैं. पंचकोलमें मिरच मिला For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे नेसे षडूषण कहाता है ॥ ७४ ॥ और इसमें पंचकोलकेही समान गुण होते हैं, तथा रूखा, उष्ण, अर्थात् गरम और विषका नाशकभी होता है. अथ यवान्या नामानि गुणाश्च. यवानिकोग्रगंधा च वहादर्भाऽजमोदिका ॥ ७५ ॥ सैवोक्ता दीप्यका दीप्या तथा स्याद्यवसाह्वया। यवानी पाचनी रुच्या तीक्ष्णोष्णा कटुका लघुः ॥ ७६ ॥ दीपनी च तथा तिक्ता पित्तला शुक्रशूलहृत् । वातश्लेष्मोदरानाहगुल्मप्लीहकमिप्रणुत् ॥ ७७ ॥ टीका-यवानिका, उग्रगंधा, ब्रह्मदर्भा, अजमोदिका ॥७॥ दीपिका, दीप्या, तथा यवसाव्हया, ये अजमायनके नाम हैं. फिर ये अजमायन पाचन करनेवाली, और रुचिको हित करनेवाली, और तीखी, तथा उण, कडवी और हलकी है ॥ ७६ ॥ तथा अग्निकों दीपन करनेवाली और पित्तकों करनेवाली तथा शुक्र और शूलकी नाशक होती है. और वातरोग, कफरोग, अफरा, तथा वायगोला; तापतिल्ली, और कृमि इनकोंभी हरनेवाली होती है ॥ ७७ ॥ अथ अजमोदनामानि गुणाश्च. अजमोदा खराश्वा च मयूरो दीप्यकस्तथा । तथा ब्रह्मकुशा प्रोक्ता काकोली च समस्तका ॥ ७८ ॥ अजमोदा कटुस्तीक्ष्णा दीपनी कफवातनुत् । उष्णा विदाहिनी हृद्या वृष्या बलकरी लघुः ॥ ७९ ॥ नेत्रामयकफच्छर्दिहिक्काबस्तिरुजो हरेत् । टीका-अब अजमोदके नाम और गुण लिखते हैं. अजमोदा, खराधा, मयूर, दीप्यक, ब्रह्मकुशा, काकोली, समस्तका, ये आठ नाम अजमोदके हैं ॥७८॥ और ये अजमोदा, कडवी है, तीखी है, दीपन है, और कफवातकों हरनेवाली है, और गरम तथा विदाहकों करनेवाली है, हृद्य, वृष्य, और बलदायक है, हलकी है ॥ ७९ ॥ नेत्ररोग, कफ, वमन, हिचकी तथा पेडूके दर्द इतने रोगोंकों हरनेवाली है. For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। अथ (पारसीक) खुरासानीगुणाः. पारसीकयवानी तु यवानीसदशी गुणैः ॥ ८०॥ विशेषात्पाचनी रुच्या ग्राहिणी मादिनी गुरुः। टीका-ये खुरासानी अजमायन अजमायनकेही सदृश गुणवाली होती है, अर्थात् जो गुण अजमायनके हैं वोही खुरासानी अजमायनके जानो ॥८०॥ विशेपकरिके पाचन करनेवाली, और रुचिकों करनेवाली, और ग्राहणी, तथा मद करनेवाली, और भारी होती है. शुक्लजीरा कालाजीरा कलोंजीनामगुणाः. जीरको जरणोऽजाजी कणा स्यादीर्घजीरकः ॥ ८१ ॥ कृष्णजीरं सुगंधश्च तथैवोद्गारशोधनः । कालाऽजाजी तु सुषवी कालिका चोपकालिका ॥ ८२ ॥ पृथ्वीका कारवी पृथ्वी पृथुः कृष्णोपकुंचिका। उपकुंची च कुंची च बृहजीरक इत्यपि ॥ ८३ ॥ टीका-अब सफेद जीरा और काला जीरा तथा कलोंजी इनके नाम गुण लिखते हैं. जीरक, जरण, अजाजी, कणा, दीर्घजीरक, ये पांच सफेदजीरेके नाम हैं ॥८१॥ कृष्णजीरक, सुगंध, उद्गार, शोधन, कालाजानी, सुषवी, कालिका, उपकालिका, ॥८२॥ पृथ्वीका, कारवी, पृथ्वी, पृथु, कृष्णा, उपकुंचिका, ये चवदह कृष्णजीरेके नाम है. उपकुंची, कुंची, बृहज्जीरक, येभी जीरेके नाम हैं ॥ ८३ ॥ जीरकत्रितयं रूक्षं कटूष्णं दीपनं लघुः। संग्राही पित्तलं मेध्यं गर्भाशयविशुद्धिकत् ॥ ८४ ॥ ज्वरघ्नं पाचनं वृष्यं बल्यं रुच्यं कफापहम् । चक्षुष्यं पवनाध्मानगुल्मछतिसारहृत् ॥ ८५ ॥ टीका-फिर ये तीनों जीरे रूखे, कडवे, तथा गरम, दीपन, और हलके होते हैं, और ग्राही हैं, तथा पित्तकारक हैं, बुद्धिको बढानेवाले और गर्भाशयकी शुद्धि करनेवाले हैं ॥ ८४ ॥ और ज्वरके नाश करनेवाले पाचन तथा पुष्टीकों करनेवाले तथा बलकों देनेवाले और रुचिकों करनेवाले होते हैं. कफको नाश करनेवाले हैं For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे और नेत्रोंकों हितकारक, वायुरोग अफरा, वायगोला, तथा वमन और अतीसार इनकेभी हरनेवाले होते हैं ॥ ८५ ॥ अथ धान्यकस्य नाम गुणाश्च. धान्यकं धानकं धान्यं धाना धनियकं तथा । कुनटी धेनुका छत्रा कुस्तुम्बुरु वितुन्नकम् ॥ ८६ ॥ धान्यकं तुवरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रलं लघु। तिक्तं कटूष्णवीर्यं च दीपनं पाचनं स्मृतम् ॥ ८७॥ ज्वरघ्नं रोचकं ग्राही स्वादुपाकी विदोषनुत् । तृष्णादाहवमिश्वासकासकार्यकमिप्रणुत् ॥ ८८॥ आई तु तद्गुणं स्वादु विशेषात्पित्तनाशि तत् । टीका-धान्यक, धानक, धान्य, धाना, धानेयक, कुनटी, धेनुका, छत्रा, कुस्तुम्बरु, वितुन्नक, ये धनियेके दस नाम हैं ॥ ८६ ॥ "फिर ये धनियां कसैला है, चिकना है, पुरुषलकों नाश करनेवाला है, मूत्रकों लानेवाला है, और हलका है, तिक्त है, कडवा है, गरम है, वीर्यवाला है, दीपन और पाचन है ॥ ८७॥ ज्वरका नाश करनेवाला है, रुचिकों उपजानेवाला है, दस्तोंकों बंद करता है, पाकमें मधुर है, त्रिदोषका नाशक है, और तृषा, दाह, वमन, तथा श्वास, कास, दुर्बलता और कृमि इन रोगोंका हरनेवाला है ॥ ८८ ॥ और हरा धनियाभी यहीगुणवाला जानों, मधुर है, विशेषकरिके पित्तका नाश करनेवाला है . अथ शतपुष्पानामगुणाः. शतपुष्पा शताह्वा च मधुरा कारवी मिसिः ॥ ८९ ॥ अतिलम्बी सितछत्रा संहिता छत्रिकापि च । छत्रा शालेयशालीनौ मिश्रेया मधुरा मिसिः॥९० ॥ शतपुष्पा लघुस्तीक्ष्णा पित्तकद्दीपनी कटुः । उष्णा ज्वरानिलश्लेष्मव्रणशूलाक्षिरोगहृत् ॥ ९१ ॥ मिश्रेया तद्गुणा प्रोक्ता विशेषाद्योनिशुलनुत् । For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । १७ टीका - अब सोंफ और सोया दोनोंके नाम और गुण क्रमसें लिखते हैं. शतपुष्पा, शताहा, मधुरा, कारवी, मिसि ॥ ८९ ॥ अतिलम्बी, सितछत्रा, संहिता, छत्रिका, यह सोंफ के नव नाम हैं. अब सोआके नाम कहे हैं. छत्रा, शालेय, शालीन, मिश्रेया, मधुरा, मिसि, ये छ नाम सेआके हैं ॥ ९० ॥ सौंफ है सो हलकी है, तीखी है, पित्तकों करनेवाली है, और दीपन तथा कडवी है. उष्णज्वर, वात, कफ, व्रण, शूल, और नेत्ररोग इनकों हरनेवाली है ॥ ९१ ॥ और सोआमेंभी ऐसेही गुण जानों. विशेषकरिके योनिशूलके नाश करनेवाला है. अग्निमान्धहरी या बद्धविट् रुमिशुक्रहृत् ॥ ९२ ॥ रूक्षोष्णा पाचनी कासवमिश्लेष्मानिलान् हरेत् । टीका - मंदाग्निकों नाश करनेवाली, तथा हृदयके रोगोंकों हरनेवाली, कविजियतकों हरनेवाली, तथा कृमि और शुक्र इनकों हरनेवाली है रूखी है ॥ ९२ ॥ उष्ण है, पाचन है, कासरोगकों, कमनकों, तथा कफवातकों, हरनेवाली है. मेथीवनमेथी नामगुणाः. मेथिका मिथिनी मेथिर्दीपनी बहुपत्रिका ॥ ९३ ॥ बोधनी बहुवीजा च जातिगन्धफला तथा । वल्लरी कामथा मिश्रा मिश्रपुष्पा च कैरवी ॥ ९४॥ कुंचिका बहुपर्णी च पित्तजित् वायुनुत् द्विधा । मेथिका वातशमनी श्लेष्मनी ज्वरनाशिनी ॥ ९५ ॥ ततः स्वल्पगुणा बल्या वाजिनां सा तु पूजिता । टीका - मेथिका, मिथिनी, मेथी, दीपनी, बहुपत्रिका ॥ ९३ ॥ बोधनी, बहुबीजा, जातिगन्धफला, विल्लरी, कामथा, यह ११ मेथीके नाम हैं. अब इसके उपरांत वनमेथीके नाम लिखे हैं. मिश्रपुष्पा, कैरवी ॥ ९४ ॥ कुंचिका, बहुपणीं, पित्तजित, वायु ये दोप्रकारकी वनमेथी होती है. फिर ये मेथी बातके रोगोंकों हरनेवाली, कफरोगोंका नाश करनेवाली, तथा ज्वरकों हरनेवाली, होती है ॥ ९५ ॥ और थोडे गुणवाली, बलकों देनेवाली, तथा घोडोंकोंभी वोह अच्छी होती है. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे चंद्रशूरनामगुणाः. चन्द्रिका चर्महन्त्री च पशुमेहनकारिका ॥ ९६ ॥ नन्दिनी कारवी भद्रा वासपुष्पा सुवासरा । चंद्रशूरं हितं हिक्कावात श्लेष्मातिसारिणाम् ॥ ९७ ॥ असृग्वातगदद्वेषी बलपुष्टिविवर्धनम् । टीका - अब चंद्रशूरके नाम तथा गुण लिखते हैं. चंद्रिका, चर्महंत्री, पशुमेहनकारिका ॥ ९६ ॥ नन्दनी, कारवी, भद्रा, वासपुष्पा, सुवासरा, ये ८ चंद्रशुरके नाम हैं. फिर ये चंद्रशूर हिचकीरोगकी, वातकफजनितरोगोंकी, तथा अतीसाररोगोंकी हित करनेवाली है ॥ ९७ ॥ रक्तरोगोंकों, वातरोगोंकों हरनेवाली तथा रक्तवातकों हरनेवाली, और बल तथा पुष्टिकों बढानेवाली है. मेथिकादिचतुष्टयगुणाः. मेथिका चंद्रशूरश्च कालाजाजी यवानिका ॥ ९८ ॥ एतच्चतुष्टयं युक्तं चतुर्बीजमिति स्मृतम् । तच्चूर्णं भक्षितं नित्यं निहन्ति पवनामयम् ॥ ९९ ॥ अजीर्ण शूलमाध्मानं पार्श्वशूलं कटिव्यथाम् । टीका - अब चार दानेके लक्षण और गुण लिखते हैं. मेथी, और चंद्रशूर, कालाजिरा, तथा अजमायन ॥ ९८ ॥ इन चारोंकों समान लेकर मिलानेसें चारदाना तथा चतुर्बीज कहते हैं. फिर इसके चूर्णकों नित्य सेवनकरनेसें बातके रोगोकों ॥ ९९ ॥ और अजीर्णकों, तथा शूलकों, अफराकों, तथा पसलीके दर्दकों और कमरकी पीडाको इत्यादि रोगोंकों हरता है. अथ हिंगुनामगुणाः. सहस्रवेधि जतुकं बाल्हीकं हिंगु रामठम् ॥ १०० ॥ हिंगुष्णं पाचनं रुच्यं तीक्ष्णं वातवलासहृत् । शूलगुल्मोदरानाहरूमिघ्नः पित्तवर्धनः ॥ १०१ ॥ टीका -- अब हिंगके नाम तथा गुण लिखते हैं. सहस्रवेधि, जतुक, बाल्हीक, For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। हिंगु, रामठ, ये हिंगके नाम कहे हैं ॥१०॥ फिर ये हिंग गरम है, पाचन है, और रुचिकों करनेवाला, तीखा, वातरोगोंकों तथा कफरोगोंकों हरनेवाला, और शूलरोग, गुल्मरोग, वायगोला, उदररोग, अफरा, और कृमिरोग इनके हरनेवाला है तथा पित्तको बढानेवाला है ॥ १०१ ॥ अथ वचानामगुणाः. वचोग्रगन्धा षड्यन्था गोलोमी शतपर्विका । क्षुद्रपत्री च मंगल्या जटिलोग्रा च लोमशा ॥ १०२॥ वचोग्रगंधा कटुका तिक्तोष्णा वान्तिवह्निरुत् । विबन्धाध्मानशूलनी शकन्मूत्रविशोधिनी ॥ १०३ ॥ अपस्मारकफोन्मादभूतजन्वनिलान् हरेत् । टीका-अब वचके नाम तथा गुण कहे हैं. वच, उग्रगन्धा, षड्ग्रन्था, गोलोमी, शतपर्विका, क्षुद्रपत्री, मंगल्या, जटिला, उग्रा, ये वचके नव नाम हैं ॥ १०२॥ फिर ये वच कडवी है, तिक्त है, और उष्ण है, और वमन तथा अमिकों करनेवाली है, कवज है, अफरा और शूल इनको हरनेवाली है, तथा मल और मूत्रका शोधन करनेवाली है ॥ १०३ ॥ मिरगी, कफरोग, उन्माद, मूत्र, कृमी, और वातजनितरोग इनकोंभी हरती है. अथ खुरासानी वचानामगुणाः. पारसीकवचा शुक्ला प्रोक्ता हेमवतीति सा। हैमवत्युदिता तददातं हन्ति विशेषतः ॥ १०४ ॥ टीका-अब खुरासानी वचके नाम तथा गुण लिखते हैं. पारमी, कवचा, शुक्ला, हैमवती, हेमवती, ये पांच नाम हैं. ये विशेषकरिके वातजनितरोगोंको हरनेवाली कही है ॥ १०४॥ अथ (कुलीजन)नामगुणाः. सुगन्धाप्युग्रगन्धा च विशेषात्कफकासनुत् । सुस्वरत्वकरी रुच्या हृत्कण्ठमुखशोधिनी ॥ १०५॥ टीका-सुगंधा, उग्रगंधा, ये दो नाम कुलीजनके हैं, और ये विशेषकरिके क For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे फरोग और कासरोगको हरनेवाला है और स्वरकों अच्छा करनेवाला है, तथा लचाकोंभी अच्छी करनेवाला कहा है, और रुचिकों करनेवाला, हृदय, कंठ, और मुख इनका शोधन करनेवाला होता है ॥ १०५ ॥ अपरासुगंधानामगुणाः. स्थूलग्रंथिः सुगन्धा स्यात् ततोहीनगुणा स्मृता। टीका-मोठीगांठवाली वच सुगंध होती है और उस्से हीनगुणवाली होती है. अथ वचा(चोवचीनी)नामगुणाः. द्वीपान्तरवचा किञ्चितिक्तोष्णा वह्निदीप्तिकत् ॥ १०६॥ विबंधाध्मानशूलनी शकन्मूत्रविशोधिनी। वातव्याधिमपस्मारमुन्मादं तनुवेदनाम् ॥ १०७ ॥ व्यपोहति विशेषेण फिरङ्गामयनाशिनी । टीका-अब चोवचीनीके नाम तथा गुण लिखते हैं. अन्य द्वीपकी वचकों इसदेशमें चोवचीनी कहते हैं. ये चोवचीनी किंचित् तिक्त और उष्ण होती है, और अग्निकों दीपन करती है ॥ १०६॥ कविजियत अफरा और शूल इनको हरनेवाली है, तथा मल और मूत्रका शोधन करनेवाली है. और वातरोगोंकों, मृगीकों, उन्मादरोगकों, समस्त शरीरकी पीडाकों शमन करती है ॥ १०७ ॥ और अधिककरके फिरंगरोगका नाश करनेवाली है.. अथ हपुषानामगुणाः. तन्मध्ये प्रथमं फलं मत्स्यसदृशं विस्त्रगन्धं द्वितीयमश्वत्थफलदृशं मत्स्यगंधं तयोर्नामानि गुणाश्च. हपुषा पुष्पवत्सा च पराश्वत्थफला मता ॥ १०८॥ मत्स्यगंधा प्लीहहन्त्री विषघ्नी ध्वांक्षनाशिनी। .. हपुषा दीपनी तिक्ता मृदूष्णा तुवरा गुरुः ॥ १०९ ॥ पित्तोदरसमीरार्थीग्रहणीगुल्मशूलहृत् । पराप्येतद्गुणा प्रोक्ता रूपभेदी द्वयोरपि ॥ ११०॥ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। टीका-अब दोनोंप्रकारके हाऊवेरों के नाम तथा गुण लिखते हैं. जिस्में पहिलेका फल मीनयानी मछलीके सदृश कच्चे मांसके समान गंधवाला होता है, और दूसरा पीपलके फलके सहस आकारवाला मछलीके गंधके समान गंधवाला होता है. हपुषा, पुष्पवत्सा, और दूसरा अश्वत्थफला कहा है ॥ १०८ ॥ मत्स्यगंधा, प्लीहहंत्री, विषघ्नी, ध्वाक्षनाशनी, ये हाऊरके नाम हैं. और ये हाऊवेर तिक्त, मृदु, उष्ण, तथा कसेला और भारी होता है ॥ १०९ ॥ पित्तोदर और वातजनित ववासीर तथा संग्रहणी वायगोला और शूलरोग इन समस्तरोगोंका हरनेवाला है, और दूसरा हाऊवेरभी इसीके समान गुणवाला होता है, और इनदोनोंके रूप तथा भेदभी कहै हैं ॥ ११० ॥ अथ विडंगनामगुणाः. पुंसि क्लीबे विडङ्गं स्यात्कृमिघ्नं जन्तुनाशनम् । तंडुलश्च तथा वेल्लममोघा चित्रतंडुला ॥ १११ ॥ विडंगं कटु तीक्ष्णोष्णं रूक्षं वह्निकरं लघु । शूलाध्मानोदरश्लेष्मकमिवातविबन्धनुत् ॥ ११२॥ टीका-अब वायविडंगके नाम तथा गुण लिखते हैं, पुल्लिंग और नपुंसकलिंगमें वायविडंग होता है. कृमिघ्नः जन्तुनाशक, तण्डुल, वेल्ल, अमोघ, चित्रतण्डुल, ये छ वायविडंगके नाम हैं ॥ १११ ॥ फिर ये वायविडंग कडवा, तीखा, उष्ण, और रूखा है, अग्निकों करनेवाला है, तथा हलका है, और शूलरोग, आध्मानरोग, उदररोग, कफरोग, कृमिरोग, वातरोग, कविजियत, इतने रोगोंको हरनेवाला है, और बहुतसे ग्रंथों में क्षुद्र, भूतन्दुला, घोषा, कराल, मृगगामिनी, विडंग येभी नाम वायविडंगके लिखे हैं ॥ ११२ ॥ अथ तुंबरुफलनामगुणाः. तुंबरुः सौरभः सौरो वनजः सानुजोऽन्धकः । तुम्बरु प्रथितं तिक्तं कटु पाकेऽपि तत्कटु ॥ ११३ ॥ रूक्षोष्णं दीपनं तीक्ष्णं रुच्यं लघु विदाहि च । वातश्लेष्माक्षिकर्णोष्ठशिरोरुक्गुरुताऊमीन् ॥ ११४ ॥ कुष्ठशूलारुचिश्वासलीहरुच्छ्राणि नाशयेत् । For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-तुम्बरु, सौरभ, सौरवनज, सानुज, अंधक, ये पांच नाम तुंबरूफलके हैं. फिर ये तिक्त है, और कटु है, तथा पाकमेंभी कटु है ॥ ११३ ॥ और रूखा, उष्ण, दीपन, तीखा, और रुचिको उत्पन्न करनेवाला, हलका, तथा विदाही है, वातजनित रोगोंकों और कफजनित रोगोंकों और नेत्ररोगोंकों कर्णरोगोंकों मस्तकके रोगोंकों ओष्ठनके रोगोंकों और कमीकों ॥ ११४ ॥ कुष्ठरोगकों, शूलकों, अरुचिकों, श्वासकों, प्लीहोंकों तथा मूत्रकृच्छ्रकों इनते रोगोंकों नाश करनेवाला है. अथ वंशलोचननामगुणाः. स्याबंशरोचना वांशी तुगाक्षीरा तुगाया ॥ ११५॥ त्वक्षीरी वंशजा शुभ्रा वंशक्षीरी च वैणवी। वंशजा बृंहणी वृष्या बल्या स्वाही च शीतला ॥ ११६॥ तृष्णाकासज्वरश्वासक्षयपित्तास्त्रकामलाः। हरेत्कुष्ठं व्रणं पांडुकषायं वातकच्छ्रजित् ॥ ११७॥ टीका-वंशरोचनानाम तथा गुण वंशरोचन, वंशी, तुगाक्षीरी, तुगा शुभा ॥११॥ त्वक्षीरी, शुभ्रा, वंशक्षीरी, वैणवी, ये ९ वंशलोचनके नाम है. वंशलोचन वीर्यकों बढानेवाला है, पुष्ट है, मलको देनेवाला है, मधुर है, शीतल है ॥ ११६ ॥ तृषारोगकों, कामरोगकों, ज्वरकों, श्वासरोगकों, क्षयरोगकों, रक्तपित्तरोगकों, कामलारोगकों, इनसमस्तनको हरनेवाला होता है. तथा कुष्ठ, व्रण, पांडुरोग, और वातसे उत्पन्न भये मूत्रकृच्छ्रको नाश करता है ॥ ११७ ॥ अन्यच्च. वंशजा वेणुवाक्षरी त्वक्क्षीरी वंशरोचना । तुगाक्षीरी तुगावंशी वंशक्षीरी शुभा सिता ॥ ११८॥ टीका-और ग्रंथोंके मतसें वंशलोचनके येभी नाम हैं, सो लिखते हैं. वशजा १, वेणुवा २, क्षीरी ३, त्वक्षीरी ४, वंशरोचना ५, तुगाक्षीरी ६, तु. गावंशी ७, वंशक्षीरी ८, शुभासिता ॥ ११८ ॥ अथ समुद्रफेननामगुणाः. समुद्रफेनः फेनश्च डिण्डीरोऽब्धिकफस्तथा । For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरितक्यादिवर्गः । समुद्रफेनश्चक्षुष्यो लेखनः शीतलश्च सः ॥ ११९ ॥ कषायो विषपित्तघ्नः कर्णरुक्कफहल्लघुः । टीका - समुद्रफेन १, फेन २, डिण्डीर २, अब्धिकफ ४, ये चार समुद्रफेनके नाम हैं, समुद्रफेन नेत्रनकों हित करनेवाला है, लेखन और शीतल होता है ॥ ११९ ॥ और कसेला है, विषका तथा पित्तका नाश करनेवाला है, और हलका है. अथ अष्टवर्गस्य लक्षणगुणाः. taarat मेदे काकोल्यो ऋद्धिवृद्धिके ॥ १२० ॥ अष्टवर्गोऽष्टभिर्द्रव्यैः कथितश्वरकादिभिः । अष्टवर्गों हिमः स्वादुबृंहणः शुक्रलो गुरुः ॥ १२१ ॥ भग्नसंधानकृत् कामबलासबलवर्धनः । वातपित्तास्रतृदाहज्वरमेहक्षयापहः ॥ १२२ ॥ टीका - जीवक १, ऋषभक २, मेदा ३, महामेदा ४, काकोली ५, क्षीरकाकोली ६, ऋद्धि ७, वृद्धि ८, ॥ १२० ॥ इन आठोंके मिलानेकों अष्टवर्ग कहते हैं, ये चरकादिमुनियोंका वाक्य है. अष्टवर्ग शीतल है, मधुर है, और धातुओंकी वृद्धि करनेवाला है, और वीर्यकों पैदा करनेवाला है, और भारी है ॥ १२१ ॥ टूटेहुए हाडको जोड़नेवाला है, कामदेवको बढानेवाला है, कफ और बल इनकी वृद्धि करनेवाला है. वात, पित्त, रक्त, प्यास, दाह, और ज्वर, प्रमेह तथा क्षय इaar हरनेवाला है ॥ १२२ ॥ अथ जीवकर्षभकोत्पत्तिलक्षणनामगुणाः. जीवकर्षभक ज्ञेयो हिमाद्रिशिखरोद्भवौ । रसोनकन्दवत्कन्दौ निःसारौ सूक्ष्मपत्रकौ ॥ १२३ ॥ जीवकः कूर्चकाकारो ऋषभो वृषशृंगवत् । जीवको मधुरः शृङ्गो ह्रस्वाङ्गः कूर्चशीर्षकः ॥ १२४ ॥ ऋषभो वृषभो धीरो विषाणी द्राक्ष इत्यपि । For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ हरीतक्यादिनिघंटे जीवकर्षभको बल्यो शीतौ शुक्रकफप्रदौ ॥ १२५॥ मधुरौ पित्तदाहाकार्यवातक्षयापही। टीका-अब जीवक और ऋषभक दोनोंके उत्पत्ति, लक्षण, और नाम तथा गुण सब लिखते हैं. जीवक और ऋषभक दोनों हिमाचलपर्वतके ऊपर होते हैं, जैसा लहसुनका कंद होता है इसीके समान होते हैं, तथा साररहित छोटेछोटे पतेवाले होते हैं ॥ १२३ ॥ और ये कूचीके आकारवाला तौ जीवक होता है, और वृषभके सींगके समान ऋषभक होता है. अब क्रमसे इनके नाम कहते हैं. जीवक १, मधुर २, शृंग ३, इखांग ४, कूर्चशीर्षक ५, ये पांच जीवकके नाम हैं ॥१२४ ॥ और ऋषभ १, वृषभ २, धीर ३, विषाणी ४, द्राक्ष ५, ये पांच नाम ऋषभकके हैं, जीवक और ऋषभक ये दोनों बलकों बढानेवाले हैं, शांत तथा शुक्र और कफ इनकों करनेवाले हैं ॥ १२५ ॥ और मधुरता, पित्त, दाह, तथा रक्त, कृशता, और वातक्षय इनकोंभी हरनेवाले हैं. अथ मेदामहामेदाया उत्पत्तिलक्षणनामगुणाः. महामेदाभिधः कन्दो मोरङ्गादौ प्रजायते ॥ १२६ ॥ महामेदा तथा मेदा स्यादित्युक्तं मुनीश्वरैः । शुक्लाईकनिभः कन्दो लताजातः सुपाण्डुरः॥ १२७ ॥ महामेदाभिधो ज्ञेयो मेदालक्षणमुच्यते। टीका:-महामेदा नाम जो है सो कन्द मोरंगमें उत्पन्न होता है ॥ १२६ ।। महामेदा तथा मेदा ये दोनों खानमें पैदा होते हैं. ऐसे मुनियोंने कहा है. सफेद और गीलासा कन्द लतामेंसें होता है. और बहुत शुभ्र होता है ॥ १२७ ॥ ऐसे कन्दको महामेदा जानो, और अव मेदाके लक्षणभी कहते हैं. शुक्लकन्दो नखच्छेद्यो मेदोधातुमिव स्त्रवेत् ॥ १२८ ॥ यः स मेदेति विज्ञेयो जिज्ञासातत्परैर्जनैः। शल्यपर्णी मणिच्छिद्रा मेदा मेदोभवाऽध्वरा ॥ १२९॥ महामेदा वसुच्छिद्रा त्रिदन्ती देवतामणिः । टीका-सफेद कन्द और जिस्में नखके छेदनेसें धातुके सदृश स्राव हो उस्कों मेदा कहते हैं ॥ १२८ ॥ जाननेकी इच्छा करते जो मनुष्य हैं. अब इनके नाम For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । कहते हैं, शाल्यपर्णी १, मणिछिद्रा २, मेदा ३, मेदोभवा ४, नाम मेदाके हैं ॥ १२९ ॥ और महामेदा १, वसुछिद्रा २, मणि ४, ये चार नाम महामेदाके हैं. अन्यच्च. मेदा ज्ञेया शाल्यपर्णी विज्ञामेदा भवान्धरा ॥ १३० ॥ महामेदा वसुछिद्रा त्रिदन्ता देवतामणिः । २५ अध्वरा ५, ये पांच त्रिदन्ती ३, देवता टीका- अब और ग्रंथके मतसें मेदा महामेदाके नाम लिखते हैं. मेदा १, शाल्यपर्णी २, विज्ञामेदा ३, भवान्धरा ४, ॥ १३० ॥ महामेदा ५, वसुछिद्रा ६, त्रिदन्ता ७, देवतामणि ८, अथ गुणाः. मेदयुगं गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यं कफावहम् ॥ १३१ ॥ बृंहणं शीतलं पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत् । टीका- अब मेदामहामेदोंके गुण कहते हैं. ये दोनों मेदा भारी, मधुर, पुष्ट, और दूधकों पैदा करनेवाली हैं. तथा कफकों पैदा करनेवाली हैं ।। १३१ ॥ बृंहण, शीतल है, तथा पित्तरक्त, वातज्वर, इनकों हरनेवाली हैं. अथ काकोल्याः क्षीरकाकोल्याश्वोत्पत्तिः. जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले ॥ १३२ ॥ यत्र स्यात्क्षीरकाकोली काकोली तत्र जायते । पीवरीसदृशः कन्दः क्षीरं स्रवति गन्धवत् ॥ १३३ ॥ स प्रोक्तः क्षीरकाकोली काकोलीलिङ्ग उच्यते । For Private and Personal Use Only टीका - अब प्रथम काकोली क्षीरकाकोलीकी उत्पत्ति लिखते हैं. जहां महा• मेदा उत्पन्न होती है ।। १३२ ।। वहां क्षीरकाकोलीभी उत्पन्न होती है. और जहांपर क्षीरकाकोली उत्पन्न होती है उसी जगेपर काकोलीभी उत्पन्न होती है. और इसका शतावरिके सदृश कंद होता है, और उसमेंसें सुगंधयुक्त दूध निकलता है ॥ १३३ ॥ उसकों क्षीरकाकोली कहते हैं. ४ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ लक्षणम्. यथा स्यात् क्षीरकाकोली काकोल्यपि तथा भवेत् ॥१३४॥ एषा किञ्चिद्भवेत्कृष्णा भेदोऽयमुभयोरपि । टीका-अब काकोली क्षीरकाकोलीके लक्षण लिखते हैं. जैसी क्षीरकाकोली होती है वैसीही काकोलीभी होती है ॥ १३४ ॥ काकोली किंचित् काली होती है इतनाही भेद जानो. अथ नामगुणाः. काकोली वायसोली च वीरा कायस्थिका तथा ॥ १३५॥ सा शुक्ला क्षीरकाकोली वयस्था क्षीरवल्लिका। कथिता क्षीरिणी धारा क्षीरशुक्ला पयस्विनी ॥ १३६ ॥ काकोलीयुगलं शीतं शुक्रलं मधुरं गुरु । बृंहणं वातदाहास्त्रपित्तशोषज्वरापहम् । १३७ ॥ टीका-अब काकोली क्षीरकाकोलीके नाम और गुण लिखते हैं. काकोली १, वायसोली २, वीरा ३, कायस्थिका ४, ये चार काकोलीके नाम हैं ॥ १३५ ॥ और ये सफेद होती है. और वयस्था १, क्षीरवल्लिका २, क्षीरकाकोली ३, क्षीरिणी ४, धारा ५, क्षीरशुक्ला ६, पयस्विनी ७, ये सात नाम क्षीरकाकोलीके हैं ॥ १३६ ॥ ये दोनों काकोली शीतल हैं, और शुक्रको बढानेवाली हैं, तथा मधुर और भारी हैं, और धातुओंको बढानेवाली हैं, वात, दाह, रक्त, पित्त, सूजन, ज्वर, इनको हरनेवाली हैं ॥ १३७ ॥ अन्यच्च दूसरे ग्रंथकारोंने इसके १२ बारह नाम लिखे हैं. काकोली १, मधुरा २, वीरा ३, कायस्था ४, क्षीरशक्तिका ५, ध्वांक्षोली ६, वायसोली ७, खादुमांसी ८, पयस्विनी ९, दूसरी क्षीरकाकोली १०, सुराहा ११, क्षीरिणी १२, . अथ ऋद्विद्धिनामगुणाः. ऋद्धिद्धिश्च कन्दौ द्वौ भवतः कोशयामले । शीतलोमान्वितः कन्दो लताजातः सुरंध्रकः ॥ १३८ ॥ स एव ऋद्धिवृद्धी च भेदमप्येतयोर्बुवे । For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । स्थूलग्रन्थिसमा ऋद्धिर्वामावर्तफला च सा ॥ १३९॥ वृद्धिस्तु दक्षिणावर्तफला प्रोक्ता महर्षिभिः । ऋद्धिर्युग्मं सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धेरप्याह्वया इमे ॥ १४० ॥ ऋद्धिर्मत्स्या त्रिदोषघ्नी शुक्रला मधुरा गुरुः । प्राणैश्वर्यकरी मूर्छारक्तपित्तविनाशिनी ॥ १४१ ॥ वृद्धिर्भप्रदा शीता बृंहणी मधुरा स्मृता । वृष्या पित्तास्त्रशमनी क्षतकासक्षयापहा ॥ १४२ ॥ राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः । २७ तस्मादस्य प्रतिनिधिगृह्णीयात्तगुणं भिषक् ॥ १४३ ॥ टीका- अब ऋद्धिवृद्धिकी उत्पत्ति और नाम तथा गुण कहते हैं. ऋद्धि और वृद्धि ये दोनों कंद हैं, और यामलदशेमें पैदा होते हैं. सफेद लोमकरिके युक्त क न्द छिद्रसहित लतानमें उत्पन्न होता है ॥ १३८ ॥ उसीकों वैद्यलोग ऋद्धिवृद्धी क हते हैं. अब उनके भेद लिखते हैं. जैसी सेमरकी गांठ होती है, तैसी वामावर्तफलवालीकों ऋद्धि कहते हैं ॥ १३९ ॥ और महर्षियोंनें दक्षिणावर्त फलवालीकों वृद्धि नाम करके कही हैं. दोनोंवृद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी ये ऋद्धीके नाम हैं ॥१४०॥ अब इनके गुण कहते हैं. ऋद्धि त्रिदोषकों नाश करनेवाली है, और वीर्यकों पैदा करनेवाली मधुर तथा भारी होती है, और प्राण तथा ऐश्वर्यकी करनेवाली है, और मूर्छा, रक्तपित्त, इनको हरनेवाली है ॥ १४१ ॥ और वृद्धि गर्भकों धारण करनेवाली है, शीतल तथा पुष्टि करनेवाली, और मधुर हैं. पुरुषोंकी शक्तीकों बढानेवाली है. रक्तपित्तको नाश करनेवाली है. क्षत, कास, और क्षय, इनकों हरनेवाली है ॥ १४२ ॥ यह अष्टवर्ग राजाओंकोंभी दुर्लभ हैं, तिसकारणसें इनकी प्रतिनिधि आर्थात इन्ही समान गुणवाली औषधोंकों वैद्य ग्रहण करे || १४३ ॥ एतस्य प्रतिनिधिमाह. For Private and Personal Use Only मेदा जीव काकोली ऋद्धिवृद्धयपि चासती । वरी विदार्यश्वगन्धा वाराही च क्रमात्क्षिपेत् ॥ १४४ ॥ मेदामहामेदास्थाने शतावरीमूलं, जीवकर्षभकस्थाने विदारीमूलं, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे काकोलीक्षीरकाकोलीस्थाने अश्वगन्धामूलं, ऋद्धिवृद्धिस्थाने वाराहीकंदं तत्तुल्यं क्षिपेत्, मुख्यसदृशः प्रतिनिधिः. टीका-अब जो औषधि इस अष्टवर्गके अभावमें लेनेयोग्य हैं तिनकों लि. खते हैं. मेदा, जीवक, काकोली, ऋद्धि, ये औषधि अप्राप्ति होनेसें शतावरी, विदारीकंद, असगंध, वाराहीकंद, इनको क्रमसें डाले ॥ १४४ ॥ अर्थात् जैसे मेदा महामेदाकी जगह शतावरकी जड लेना और जीवक ऋषभककी जगह विदारी लेना. तथा काकोली क्षीरकाकोलीकी जगह असगंध डाले, और ऋद्धिद्धिके अभावमें वाराहीकंदकों डाले. इन चारों औषधियोंमें अष्टवर्गकेही समानगुण हैं. अथ मधुयष्टीनामगुणाः. यष्टीमधु तथा यष्टी मधुकं क्लीतकं तथा। अन्यत् क्लीतनकं तत्तु भवेत्तोये मधूलिका ॥ १४५॥ यष्टी हिमा गुरुः स्वाही चक्षुष्या बलवर्णकृत् । सुस्निग्धा शुक्रला केश्या स्वर्या पित्तानिलास्त्रजित् ॥१४६॥ व्रणशोथविषच्छर्दितृष्णाग्लानिक्षयापहा । टीका-यष्टी १, मधुक २, क्लीतक ३, क्लीतनक, दूसरा जलमें होता है. उस्कों मधूलिका कहते हैं ॥ १४५ ॥ मुलेठी शीतल है, भारी है, मधुर है, और नेत्रोंकों हित करनेवाली है, तथा बल और वर्णको बढानेवाली है, अच्छी स्निग्ध शुक्रकों करनेवाली है. बालोंकों हितकारक है, तथा स्वरकों हित है, पित्त, वात, तथा रक्त इनको हरनेवाली है ॥ १४६ ॥ व्रण अर्थात् घाव और सूजन, विष, वमन, तथा तृषा, ग्लानि, और क्षय इनकोंभी हरनेवाली है. __ अथ कंपिल्लनामानि गुणाश्च. काम्पिल्लः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताङ्गो रोचनोऽपि च ॥ १४७॥ काम्पिल्लः कफपित्तास्त्ररूमिगुल्मोदरव्रणान् । हन्ति रेची कदूष्णश्च मेहानाहविषाश्मनुत् ॥ १४८ ॥ टीका-कांपिल्ल १, कर्कश, २, चन्द्र ३, रक्तांग ४, रोचन ५, ये कम्पीलाके For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । २९ नाम हैं ॥ १४७॥ लौकिकमें इसे खूवकला कहते हैं. खूबकला कफ रक्तपित्त, कृमि, वायगोला, उदररोग, तथा घाव इनको हरनेवाली है. और दस्तावर, कडवी तथा गरम होती है. और प्रमेह, अफरा, तथा विष, पथरी, इनकोंभी हरनेवाली खूब - कला कही है ॥ १४८ ॥ अथ आरग्वधनामगुणाः. आरग्वधो राजवृक्षः शम्याकश्चतुरङ्गुलः । आरेवतो व्याधिघातः कृतमालः सुवर्णकः ॥ १४९॥ कर्णिकारो दीर्घफलः स्वर्णाङ्गः स्वर्णभूषणः । आरग्वधो गुरुः स्वादुः शीतलः स्रंसनो मृदुः ॥ १५० ॥ ज्वरहृद्रोगपित्तास्त्रवातोदावर्तशूलनुत् । तत्फलं स्रंसनं रुच्यं कुष्ठपित्तकफापहम् ॥ १५१ ॥ ज्वरे तु सततं पथ्यं कोष्ठशुद्धिकरं परम् । टीका - आरग्वध १, राजवृक्ष २, संपाक ३, चतुरंगुल ४, आरेवत ५, व्याधिघात ६, कृतमाल ७, सुवर्णक ८, ॥ १४९ ॥ कर्णिकार ९, दीर्घफल १०, सुवर्णांग ११, वर्णभूषण १२, ये अमलतासके नाम कहे. अमलतास भारी, मधुर, शीतल, दस्तावर, और मृदु है ॥ १५० ॥ ज्वर, हृदयरोग, तथा रक्तपित्त, और वातरोग, तथा उदावर्त, और शूलकों हरनेवाला है, और उस्का फल दस्तावर है, रुचिकों पैदा करनेवाला है, और कुष्ठ, पित्त, तथा कफ इनकों हरनेवाला है १५१ और ज्वरमें सदा पथ्य है, और कोठेकों अत्यंत शुद्ध करता है. अथ कटुकीनामगुणाः. कुटी तु कटुका तिक्ता कृष्णभेदा कटुम्भरा ॥ १५२ ॥ अशोका मत्स्यशकला चक्राङ्गी शकुलादनी । मत्स्यपित्ता काण्डरुहा रोहिणी कटुरोहिणी ॥ १५३ ॥ की तु कटुका पाके तिक्ता रूक्षा हिमा लघुः । भेदनी दीपनी हृद्या कफपित्तज्वरापहा ॥ १५४ ॥ प्रमेहश्वासकासास्त्रदाहकुष्ठकृमिप्रणुत् । For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० हरीतक्यादिनिघंटे टीका - कुटी १, कटुका २, तिक्ता ३, कृष्णभेदा ४, कटुंभरा ५, ॥ १५२॥ अशोका ६, मत्स्यशकला ७, चक्राङ्गी ८, शकुलादनी ९, मत्स्यपित्ता १०, कांरुहा ११, रोहिणी १२, ये द्वादश कुटकीके नाम हैं ॥ १५३ ॥ कुटकी कडवी, और पाकमें तिक्त है, रूखी है, और शीतल, तथा हलकी है, तथा भेदनी है, और दीपनी, हृद्य, पित्त, तथा ज्वर इनकों हरनेवाली है ॥ १५४ ॥ और प्रमेह, श्वास, कास, तथा रक्तपित्त, और दाह, कुष्ठ, कृमि, इनकोंभी जीतनेवाली है. अथ किराततिक्तनामगुणाः. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किराततिक्तः कैरातः कटुतिक्तः किरातकः ॥ १५५ ॥ काण्डतिको नार्यतिक्तो भूनिम्बो रामसेनकः । किरातकोsन्यो नैपालः सोऽर्धतिको ज्वरान्तकः ॥१५६॥ किरातः सारको रूक्षः शीतलस्तिक्तको लघुः । सन्निपातज्वरश्वासकफपित्तास्रदाहनुत् ॥ १५७ ॥ कासशोथतृषाकुष्ठज्वरव्रणरुमिप्रणुत् । ' टीका - किराततिक्त १, कैरात २, कटुतिक्त ३, किरातक ४, ॥ १५५ ॥ काण्डति ५, नारीतिक्त ६, भूनिम्ब ७, रामसेनक ८, दूसरा चिरायता नेपालीनामका होता है. वोह कुछ कडवा होता है, ज्वरांतक ॥। १५६ ॥ ये दश चिरायतेके नाम हैं. चिरायता सारक, और रूखा, तथा शीतल, तिक्त, और लघु, होता है ।। १५७ ।। चिरायता कफ, पित्त, दाह, इनकों हरनेवाला है, और कासरोग, सूजन, तृषा, तथा कुष्ठ, ज्वर, व्रण, और कृमि, इनकाभी हरनेवाला होता है. अथ इन्द्रयवनामगुणाः. उक्तं कुटजबीजं तु यवमिन्द्रयवं तथा ॥ १५८ ॥ कलिङ्गं चापि कालिङ्ग तथा भद्रयवा अपि । कचिदिन्द्रस्य नामैव भवेत्तदभिधायकम् ॥ १५९ ॥ फलानीन्द्रयवास्तस्य तथा भद्रयवा अपि । इन्द्रवं त्रिदोषनं संग्राहि कटु शीतलम् ॥ १६० ॥ ज्वरातीसाररक्तार्शोवमिवीसर्पकुष्ठनुत् । For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। ३१ दीपनं गुदकीलास्रवातास्त्रश्लेष्मशूलजित् ॥ १६१ ॥ टीका-कुटजबीज १, यव २, इन्द्रयव ३, कलिंग ४, कालिंग ५, भद्रयव ६, ये इन्द्रयवके नाम हैं ॥१५८ ॥ और श्रीधन्वंतरिजीने और अमरजीने कहा है की, जितने नाम इन्द्रके हैं उतनेही इन्द्रयवकेभी जानो ॥ १५९ ॥ फिर ये इन्द्रयव त्रिदोषका हरनेवाला है, और संग्राही है, कटु, तथा शीतल है ॥१६०॥ और ज्वर, अतीसार, तथा खूनी, बवासीर, वमन, विसर्प, और कुष्ठ, इनकाभी जी. तनेवाला है. तथा दीपन है, गुदकील, रक्तवात, और कफरोग, शूलरोग, इन सबकाभी नाशक होता है ॥ १६१ ॥ अथ मयनफलनामगुणाः. मर्दनश्छर्दनः पिण्डीनटः पिण्डीतकस्तथा । करहाटो मरुबकः शल्यको विषपुष्पकः ॥ १६२ ॥ मधुनो मधुरस्तिक्तो वीर्योष्णो लेखनो लघुः। वान्तिकद् विद्रधिहरः प्रतिश्यायव्रणान्तकः ॥ १६३ ॥ रूक्षः कुष्ठकफानाहशोथगुल्मव्रणापहः । टीका-मर्दन १, छर्दन २, पिंडीनट ३, पिंडीतक ४, करहाट ५, मरुबक६, शल्यक ७, विषपुष्पक ८, ये अष्ट मयनफलके नाम हैं ॥ १६२ ॥ फिर ये मयनफल मधुर, तिक्त, उण, लेखन, और हलकाभी होता है. और वमनकों लानेवाला, तथा विद्रधिका नाशक है, जुषाम, और घावोंकाभी हरनेवाला है ॥ १६३ ॥ और रूखा है, कुष्ठ, कफरोग, अफरा, गुल्मरोग, शोथरोग, तथा व्रण इनकोंभी हरनेवाला है. अथ रास्नानामगुणाः. रास्ना युक्तरसा रस्या सुवहा रसना रसा ॥ १६४ ॥ एलापर्णी च सुरसा सुगन्धा श्रेयसी तथा। रास्नाऽमपाचिनी तिक्ता गुरूष्णा कफवातजित् ॥ १६५॥ शोथश्वाससमीरास्त्रवातलोदरापहा। कासज्वरविषाशीतिवातकामयहिध्महत् ॥ १६६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-रास्ना १, युक्तरसा २, रस्या ३, सुवहा ४, रसना ५, रसा ६, ॥ १६४ ॥ एलापर्णी ७, सुरसा ८, सुगंधा ९, श्रेयसी १०, ये दश रास्नाके नाम हैं. रास्ना आमका पाचन करनेवाली होता है, तिक्त, भारी, उष्ण, और कफवातको हरनेवाली है ॥ १६५ ॥ और शोथरोग, श्वास, वातरक्त, वातशूल, उदरके रोग, इन समस्त रोगोंको हरनेवाली है. और कास, ज्वर, विष, और अस्सीप्रकारके वातरोग, हिम, इन सबनकोंभी हरनेवाली है ॥ १६६ ॥ अथ नाकुलीनामगुणाः. नाकुली सरसा नागसुगन्धा गन्धनाकुली। नकुलेष्टा भुजङ्गाक्षी साङ्गी विषनाशिनी ॥ १६७ ॥ नाकुली तुवरा तिक्ता कटुकोष्णा विनाशयेत् । भोगीलूतावृश्चिकाखुविषज्वरकमिव्रणान् ॥ १६८ ॥ टीका-रास्नाका भेद जिस्को लौकिकमें नाई बोलते हैं, उसके नाम और गुण लिखते हैं. नाकुली १, सुरसा २, नागसुगंधा ३, मंधनाकुली ४, नकुलेष्टा ५, भुजंगाक्षी ६, साक्षी ७, विषनाशिनी, ॥ १६७ ॥ नाकुली कसैली होती है, तिक्त, कटु, और उष्ण, होती है. और सर्पसें आदिले विषवाले जानवरोंके जैसे विच्छू, मकडी, मूसा, कांतर इनके विषकों नाश करती है. और ज्वर, कृमि, तथा व्रण, घाव, इन रोगोंकोंभी हरनेवाली है ॥ १६८॥ अथ माचिकानामगुणाः. माचिका प्रस्थिकाम्बष्ठा तथा वाम्बालिकाम्बिका । मयूरविदला केशी सहस्त्रा वालमूलिका ॥ १६९ ॥ माचिकाम्ला रसे पाके कषाया शीतला लघुः। पक्कातीसारपित्तास्त्रकफकण्ठामयापहा ॥ १७ ॥ टीका-इस किमाचको पश्चिमदेशमें मोइया बोलते हैं; और इसका वृक्ष होता है, अब इसके नाम और गुण लिखते हैं. माचिका १, प्रस्थिका २, अम्बष्ठा ३, अम्बालिका ४, मयूरा ५, विदला ६, केशी ७, सहस्रा ८, वालमूलिका ९, ये नव किमाचके नाम हैं ॥ १६९ ॥ ये किमाच रसमें अम्ल, पाकमें कसेला होता है, तथा १ पश्चिमदेशे मोइआ इति लोके प्रसिद्धो वृक्षविशेषः. For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। शीतल और हलका होता है, और पक्कातिसार, रक्तपित्त, कफरोग, तथा कंठरोग, इनकोंभी हरनेवाला है ॥ १७० ॥ अथ तेजवतीनामगुणाः. तेजस्विनी तेजवती तेजोबा तेजनी तथा । तेजस्विनी कफश्वासकासास्यामयवातहत् ॥ १७१ ॥ पाचन्युष्णा कटुस्तिक्ता रुचिवह्निप्रदीपिनी । टीका-तेजस्विनी १, तेजवती, २ तेजोहा ३, तेजनी ४, ये चार तेजवतीके नाम हैं. तेजवती कफ, श्वास, कास, मुखके रोग, इनको हरनेवाली होती है ॥१७१॥ और पाचन, गरम, कडवी, तिक्त, रुचि तथा वह्निकों दीपन करनेवाली कही है. कटभी(मालकांगनी)नामगुणाः. ज्योतिष्मती स्यात् कटभी ज्योतिष्का कांगनीति च॥१७२ पारावतपदी पण्या लता प्रोक्ता ककुन्दनी । ज्योतिष्मती कटुस्तिक्ता सरा कफसमीरजित् ॥ १७३ ॥ अत्युष्णा वामनी तीक्ष्णा वह्निबुद्धिस्मृतिप्रदा। टीका-ज्योतिभती ?, कटभी २, ज्योतिष्का ३, कांगनी ४ ॥ १७२ ॥ पारावतपदी ५, पण्या ६, ये छ मालकांगनीके नाम हैं. इसकी लता ककुन्दनीनामसें प्रसिद्ध है. ये मालकांगनी कडवी है, तिक्त है, सर है, कफ तथा वातकों जीतनेवाली है ॥ १७३ ॥ और बहुत गरम है, वमन करानेवाली है, तीखी है, और आग्नि, बुद्धि, तथा स्मृति, इनको बढानेवाली है. अथ कुष्ट(कूट)नामगुणाः. कुष्टं रोगाह्वयं वाप्यं पारिभव्यं तथोत्पलम् ॥ १७४ ॥ कुष्टमुष्णं कटु स्वादु शुक्रलं तिक्तकं लघु । हन्ति वातास्त्रवीसर्पकासकुष्ठमरुत्कफान् ॥ १७५॥ टीका-कुष्ट १, रोगाह्वय २, वाप्य ३, पारिभव्य ४, उत्पल ५, ये पांच कूटके नाम हैं ॥ १७४ ॥ कूट गरम, कडवा, मधुर, शुक्रको बढानेवाला, तिक्त For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ हरीतक्यादिनिघंटे तथा हलका होता है. और वातरक्त, कास, कुष्ठ, वात, कफ, इन समस्तरोगोंकों हरनेवाला है ।। १७५ ॥ अथ पुष्करमूलनामगुणाः. उक्तं पुष्करमूलं तु पौष्करं पुष्करं च तत् । पद्मपत्रं च काश्मीरं कुष्ठभेदमिमं जगुः ॥ १७६ ॥ पौष्करं कटुकं तिक्तमुक्तं वातकफज्वरान् । हन्ति शोथारुचिश्वासान्विशेषात्पार्श्वशूलनुत् ॥ १७७ ॥ टीका - पुष्करमूल १, पौष्कर २, पुष्कर ३, पद्मपत्र ३, काश्मीर ६, ये पुष्करमूलके नाम हैं. येभी कूटकाही भेद है || १७६ ।। पुष्करमूल कडवा है, और तिक्त है, और वात, कफ, तथा ज्वर इनकों मुक्ति करता है. तथा शोथ, अरुचि, श्वास, और विशेषकरके पार्श्वशूलकों, हरनेवाला है ॥ १७७ ॥ अथ हेमाका (चोक) नामगुणाः. कटुपर्णी हैमवती मक्षीरी हिमावती । हेमाहा पीतदुग्धा च तन्मूलं चोकमुच्यते ॥ १७८ ॥ हेमाहा रेचनी तिता भेदिन्युत्क्लेशकारिणी । कृमिकण्डूविषानाहकफपित्तास्रकुष्ठनुत् ॥ १७९ ॥ टीका - कटुपर्णी १, हैमवती २, हेमक्षीरी ३, हिमावती ४, हेमाहा ५, पीतदुग्धा ६, ये चोकवृक्षके नाम हैं. और उसके मूलकों चोक कहते हैं ।। १७८ ॥ चोक दस्तावर है, तिक्त है, भेदन करनेवाली है, और जीमि चलानेवाली हैं, और कृमि, खुजली, विष, अफरा, कफरोग, मूत्रकृच्छ तथा रक्तपित्त, कुष्ठ, इनकोंभी हरनेवाली होती है ॥ १७९ ॥ अथ शृंगी ( काकडाशीगी) नामुगुणाः. शृंगी कर्कटंगी च स्यात्कुलीरविषाणिका । अजभृंगी च वक्रा च कर्कटाख्या च कीर्तिता ॥ १८० ॥ शृङ्गी कषाया तिक्तोष्णा कफवातक्षयज्वरान् । श्वासोऽर्ध्ववाततृट्कासहिक्कारुचिवमीन् हरेत् ॥ १८१ ॥ For Private and Personal Use Only ' Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । ३५ टीका - शृंगी १, कर्कटशृंगी २, कुलीर ३, विषाणिका ४, अजगी ५, वका ६, कर्कटा ७, ये काकडाशींगीके नाम हैं ॥ १८० ॥ ये कसेली, तिक्त, कफ, वात, क्षय, और ज्वरोंकों हरनेवाली है. और श्वास, ऊर्ध्ववात, तृषा, कास, हिचकी, अरुचि, तथा वमन, इनकोंभी हरनेवाली कही है ॥ १८१ ॥ अथ कट्फलनामगुणाः. कट्फल: सोमवल्कश्च कैटर्यः कुम्भिकापि च । श्रीपर्णिका कुमुदिका भद्रा भद्रवतीति च ॥ १८२ ॥ कट्फलस्तुवरस्तिक्तः कटुर्वातकफज्वरान् । हन्ति श्वासप्रमेहार्शः कासकण्ठामयारुचीः ॥ १८३ ॥ टीका - कट्फल १, सोमवल्क २, कैटर्य ३, कुंभिका ४, श्रीपर्णिका ५, कुमुदिका ६, भद्रा ७, भद्रवती ८, ये कायफलके नाम हैं ॥ १८२ ॥ ये कसेला होता है, और तिक्त, तथा कडवा होता है. वात, कफ, तथा ज्वरोकों हरनेवाला है. और श्वास, प्रमेह, ववासीर, कास, कंठरोग, और अरुचि, इनकों हरनेवाला है ॥ १८३ ॥ अथ भांगनामगुणाः. भांग भृगुभवा पद्मा फञ्जी ब्राह्मणयष्टिका । भांगी रूक्षा कटुस्तिक्ता रुच्योष्णा पाचनी लघुः ॥ १८४ ॥ दीपनी तुवरा गुल्मरक्तजं नाशयेद्ध्रुवम् । शोथकासकफश्वासपीनसज्वरमारुतान् ॥ १८५ ॥ टीका - भांग १, भृगुभवा २, पद्मा ३, फंजी ४, ब्राह्मणयष्टिका ५, ये भांगके नाम हैं. ये रूखी होती है. तथा कडवी, तिक्त, और रुचिकों करनेवाली होती है, और गरम, पाचन, तथा हलकी होती है ॥ १८४ ॥ और दीपन, तथा कसेली होती है, और रक्त से उत्पन्न भये वायगोलाकों निश्चय हरती है, और शोथ, कास, कफ, श्वास, पीनस, तथा ज्वर, वायु, इनकों भी हरनेवाली है ।। १८५ ॥ और अन्यग्रंथों में कासनी १, भार्गपणिनी (?) २, परशाक ३, शुक्रमाता ४, ये चार नाम भांग विशेष लिखे हैं. For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६ हरीतक्यादिनिघंटे अथ पाषाणभेदनामगुणाः. पाषाणभेदोऽर्शनी गिरिभिद्भिन्नयाजनी | अश्मभेदो हिमस्तिक्तः कषायो बस्तिशोधनः ॥ १८६ ॥ भेदनो हन्ति दोषार्शोगुल्मकृच्छ्राश्महद्भुजः । योनिरोगान्प्रमेहांश्च प्लीहशूलवणानि च ॥ १८७ ॥ टीका - पाषाणभेदक ?, अश्मन्न २, गिरिभित् ३, भिन्नयाजनी ४ ये पाषाणभेदके नाम हैं. ये शीतल, तिक्त, कसेला, मूत्राशयकों शोधन करनेवाला है ॥ १८६ ॥ और भेदन, तथा दोष, बवासीर, गुल्म, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, हृदयकी पीड़ा, योनिरोग, प्रमेह, प्लीह, शूल, घाव, इन सबकों हरनेवाला है ।। १८७ ॥ ( और ग्रंथों में पाषाणभेद १, पाषाण २, अश्मभेद ३, अश्मभेदक ४, शिलाभेद ५, पद ६, नगभिन्नक ७, ये नाम पाषाणभेदके विशेष कहे हैं.) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ धातकी (धावई ) नामगुणाः. धातकी धातुपुष्पी च ताम्रपुष्पी च कुंजरा । सुभिक्षा बहुपुष्पी च वह्निज्वाला च सा स्मृता ॥ १८८ ॥ धातकी कटुका शीता मृदुरुत्तुवरा लघुः । तृष्णातीसारपित्तास्त्रविषकृमिविसर्पजित् ॥ १८९ ॥ टीका - धातकी १, धातुपुष्पी २, ताम्रपुष्पी ३, कुंजरा ४, मुभिक्षा ५, बहुपुष्प ६, वह्निज्वाला ७, ये धक्के नाम हैं ॥ १८८ ॥ यह धावई कडवी, और शीतल, तथा मुलायम करनेवाली, कसेली, हलकी होती है. तृषा, अतीसार, रक्तपित्त, विष, कृमि, तथा विसर्प इनको हरनेवाली है ॥ १८९ ॥ अथ मंजिष्ठनामगुणाः. मञ्जिष्ठा विकसा जिंगी समङ्गा कालमेषिका । मण्डूकपर्णी मण्डीरी भण्डी योजनवल्लयपि ॥ १९० ॥ रसायन्यरुणा काला रक्ताङ्गी रक्तयष्टिका । भण्डीतकीच गण्डीरी मञ्जूषा वस्त्ररञ्जिनी ॥ १९१ ॥ ॥ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। मञ्जिष्ठा मधुरा तिक्ता कषाया स्वरवर्णकृत् । गुरु चोष्णा विषश्लेष्मशोथयोन्यक्षिकर्णरुक् ॥ १९२॥ रक्तातीसारकुष्ठास्त्रवीसर्पव्रणमेहनुत् । टीका-मंजिष्ठा १, विकसा २, जिंगी ३, समंगा ४, कालमेषिका ५, मंडूकपर्णी ६, भंडीरी ७, भंडी, योजनवल्ली ८, ॥ १९० ॥ रसायनी ९, अरुणा १०, काला ११, रक्तांगी १२, रक्तयष्टिका १२, भण्डीतकी १३, गंडीरी १४, मंजूषा१५, वस्त्ररंजनी १६, ये मंजीठके नाम हैं ॥ १९१ ॥ ये मधुर, तिक्त, कसेली, और खर तथा वर्णको करनेवाली है. तथा भारी और गरम होती है. सबप्रकारके विष, कफ, शोथ, योनिपीडा, नेत्रपीडा, कर्णपीडा, ॥ १९२ ॥ तथा रक्तातीसार, कुष्ठ, रक्तपित्त, विसर्प, घाव, और प्रमेहको हरनेवाली है. __ अथ कुसुम्भनामगुणाः. स्यात्कुसुम्भं वह्निशिखं वस्त्ररंजकमित्यपि ॥ १९३ ॥ कुसुंभं वातलं कच्छू रक्तपित्तकफापहम् । टीका-कुसुंभ १, वह्निशिख २, वस्त्ररंजक, ३, ये कुसुंभके नाम हैं ॥ १९३ ॥ ये वातज होता है, और मूत्रकृच्छ्रका तथा रक्तपित्तका, और कफकाभी हरनेवाला है. __ अथ लाक्षा(लाही)नामगुणाः. लाक्षा पलंकषाऽलक्तो यावो वृक्षामयो जतु ॥ १९४ ॥ लाक्षा वा हिमा बल्या स्निग्धा च तुवरा लघुः। ब्राह्मण्यङ्गारवल्ली च स्वरशाका च हञ्जिका ॥ १९५॥ अनुष्णा कफपित्तास्त्रहिक्काकासज्वरप्रणुत् । व्रणोरःक्षतवीसर्पकमिकुष्ठगदापहा ॥ १९६ ॥ अलक्तको गुणैस्तद्वद्विशेषाद्व्यङ्गनाशनः । टीका-लाक्षा १, पलंकषा २, अलक्त ३, याव ४, वृक्षामय ५, जतु ६, ये लाहीके नाम हैं ॥१९४॥ ये वर्णकों अच्छा करनेवाली है, शीतल, बलकों बढानेवाली, चिकनी, कसेली, और हलकी है. ब्राह्मणी १, अंगारवल्ली २, स्वरशाका ३, हंञ्जिका ४, ये ब्राह्मीके नाम हैं ॥ १९५ ॥ ये शीतल होती है, कफ, रक्तपित्त, For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ हरीतक्यादिनिघंटे हिचकी, कास, ज्वर, इनकों हरनेवाली है. और घाव, उरःक्षत, विसर्प, कृमि, और कुष्ठ, इनकोंभी हरनेवाली है || १९६ ।। और लाही गुणोंमें इसीके बराबर है, परंतु विशेषकरके व्यङ्गकी नाशक होती है. अथ हरिद्रानामगुणाः. हरिद्रा काञ्चनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी ॥ १९७ ॥ मना हलदी योषित्प्रया हृद्या विलासिनी । हरिद्रा कटुका तिक्ता रूक्षोष्णा कफपित्तनुत् ॥ १९८ ॥ वर्ण्य त्वग्दोषमेहास्त्रशोथपाण्डुव्रणापहा । ठीका - हरिद्रा १, कांचनी २, पीता ३, निशाख्या ४, वरवर्णिनी ५, ॥ १९७ ॥ कृमिघ्ना ६, हलदी ७, योषित्प्रिया ८, हृद्या ९, विलासिनी १०, ये ह लदीके नाम हैं. ये कडवी, तिक्त, रूखी, और गरम, तथा कफपित्तकी नाशक है ॥ १९८ ॥ वर्णों अच्छा करती है, त्वचाके दोषोंकों और प्रमेहकों तथा रक्तशोथ, पांडु, और घावोंकों हरनेवाली है. अथ कर्पूरहरिद्रानामगुणाः. दावभेदात्रगन्धा च सुरभी दारुदारुच ॥ १९९॥ कर्पूरा पद्मपत्रा स्यात्सुरीमत् सुरतारिका । टीका-दावभेदा १, असगंधा २, सुरभी ३, दारुदारु ४ ॥ १९९ ॥ कपूरा ५, पद्मपत्रा ६, सुरीमत् ७, सुरतारका ८, ये कर्पूरहलदी के नाम हैं. अथ वनहलदीनामगुणाः. अरण्यहलदीकन्दः कुष्ठवातास्त्रनाशनः ॥ २०० ॥ आम्रगन्धिर्हरिद्रा या सा शीता वातला मता । पित्तन्मधुरा तिक्ता सर्वकण्डूविनाशिनी ॥ २०१ ॥ टीका – अरण्यहलदीकन्द अर्थात् वहलदी कुष्ठु और वातरक्तकों हरनेवाली है || २०० || और कर्पूरहलदी शीतल है, वातकों पैदा करनेवाली होती है. और पित्तकों हरनेवाली है, और मधुर है, तिक्त है, और खुजलीको हरनेवाली है ।। २०१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरितक्यादिवर्गः । अथ दारुहरिद्रानामगुणाः. दाव दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च । कटंकटेरी पीता च भवेत्सैव पचपचा ॥ २०२ ॥ सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोऽपि च । पीतश्व हरिदुश्व पीतदारु कपीतकम् ॥ २०३ ॥ दाव निशागुणा किन्तु नेत्रकर्णास्यरोगनुत् । टीका - दार्वी १, दारुहरिद्रा २, पर्जन्या ३, पर्जनी ४, कटंकटेरी ५, पीता ६, पचपचा ७ ॥ २०२ ॥ कालीयक ८, कालेयक ९, पीतद्रुम १०, हरिद्रा ११, पीतदारु १२, कपीतक १३, ये दारुहळदीके नाम हैं ॥ २०३ ॥ ये दारुहलदी ह लदीके समानही गुणवाली होती है, तथापि बहुतकरिके नेत्र, कर्ण, मुख, इनके रोगेको हरनेवाली है. अथ रसांजन ( रसोत ) नामगुणाः. ३९ दावकाथसमं क्षीरं पादं पक्त्वा यथा घनम् ॥ २०४ ॥ तदा रसांजनाख्यं तत् नेत्रयोः परमं हितम् । रसांजनं तार्क्षशैलं रसगर्भं च तार्क्ष्यजम् ॥ २०५ ॥ रसांजनं कटुश्लेष्मविषनेत्रविकारनुत् । उष्णं रसायनं तिक्तं छेदनं व्रणदोषनुत् ॥ २०६॥ टीका - दारुहळदी काढेके समान दूधकों पकावे, जब चोथा हिस्सा गाढा रहजाय ॥ २०४ ॥ तब उसको रसांजन अर्थात् रसोत कहते हैं. ये नेत्रोंके बडा हितकारी होता है. रसांजन १, तार्क्ष्यशैल २, रसगर्भ ३ तार्क्ष्यज ४, ये रसोतके नाम हैं ॥ २०५ ॥ ये कडवा होता है, कफ, तथा विष और नेत्ररोगोंकों हरनेवाला है, और गरम, रसायन, तिक्त, छेदन, घावोंका और दोषोंका हरनेवाला हैं ॥ २०६ ॥ अथ बाकुचीनामगुणाः. अवल्गुजी बाकुची स्यात् सोमराजी सुपर्णिका । For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे शशिलेखा कृष्णफला सोमा पूतिफलीति च ॥ २०७॥ सोमवल्ली कालमेषी कुष्ठनी च प्रकीर्तिता । बाकुची मधुरा तिक्ता कटुपाका रसायनी ॥ २०८ ॥ विष्टम्भहृद्धिमा रुच्या सरा श्लेष्मास्त्रपित्तनुत् । रक्षा हृद्या श्वासकुष्ठमेहज्वररुमिप्रणुत् ॥ २०९ ॥ तत्फलं पित्तलं कुष्ठकफानिलहरं कटु । केश्यं त्वच्यं वमिश्वासकासशोथामपाण्डुनुत् ॥ २१० ॥ टीका-अवल्गुज १, बाकुची २, सोमराजी ३, सुपर्णिका ४, शशिलेखा ५, कृष्णफाला ६, सोमा ७, पूतिफली ८ ॥ २०७॥ सोमवल्ली ९, कालमेषी १०, कुष्टनी, ये वाकुचीके नाम हैं. ये मधुर है, तिक्त है, पाकमें कडवी है, रसायनी है ॥२०८॥ विष्टंभकों हरे है, शीतल है, रुचिको बढानेवाली है, दस्तावर है, कफ तथा रक्तपित्तको नाश करनेवाली है, रूखी है, हृदयको प्रिय है, और श्वासरोग, कुष्ठरोग, प्रमेह तथा ज्वर, कृमि, इनको हरनेवाली है ॥२०९ ॥ और इसका फल पित्तकारक है, कुष्ठ, कफ, वात, इनका नाशक है, कडवा है, बालोंकों हितकारक है, बचाकों अच्छा करनेवाला है, वमन, श्वास, कास, और सूजन, पांडुरोग इनका हरनेवाला है ॥ २१॥ अथ चक्रमर्दनामगुणाः. चक्रमर्दः प्रपुन्नाटो दद्रुनो मेषलोचनः । पद्माटः स्यादेडगजश्चक्री पुन्नाट इत्यपि ॥ २११ ॥ चक्रमर्दो लघुः स्वादु रूक्षः पित्तानिलापहः। हृद्यो हिमः कफश्वासकुष्ठदद्रुकमीन हरेत् ॥ २१२ ॥ हन्त्युष्णं तत्फलं कुष्ठकण्डूदद्भविषानिलान् । गुल्मकासकमिश्वासनाशनं कटुकं स्मृतम् ॥ २१३ ॥ टीका-चक्रमर्द १, प्रपुन्नाट २, दद्रुघ्न ३, मेषलोचन ४, पद्माट ५, एडगज ६, चक्री ७, पुन्नाट ८, ये चकोरके नाम हैं ॥ २११ ॥ ये हलका, और मधुर, तथा रूखा होता है, और पित्तवायूका हरनेवाला है, हृदयका प्रिय है, शीतल है, For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। कफ, श्वास, कुष्ट, तथा दाह, कृमि, इनको हरनेवाला है ॥ २१२ ॥ और इसका फल बहुत गरम होता है. और कुष्ठ, पांडू, दाह, विष, वात, वायगोला, कास, कृमि, श्वास, इनका नाशक है, और कडवा कहागया है ॥ २१३ ॥ अतिविषानामगुणाः. विषा त्वतिविषा विश्वा शृङ्गी प्रतिविषारुणा । शुक्लकन्दा चोपविषा भङ्गुरा घुणवल्लभा ॥ २१४ ॥ विषा सोष्णा कटुस्तिक्ता पाचनी दीपनी हरेत् । कफपित्तातिसारामविषकासवमिकमीन् ॥ २१५ ॥ टीका-विषा १, अतिविषा २, विश्वा ३, भंगी ४, प्रतिविषा ५, अरुणा ६, शुक्लकंदा ७, उपविषा ८, भंगुरा ९, घुणवल्लभा, ये अतीसके नाम हैं ॥ २१४ ॥ ये थोडा गरम है, कडवी है, तिक्त और पाचन है, तथा दीपन है, और कफ, पित्त, अतिसार, आम, विष, तथा कास, वमन, कृमी, इनको हरनेवाला है ॥२१॥ अथ लोध्रनामगुणाः. लोध्रस्तिरीटकश्चैव शावरो मालवस्तथा । विनायः पट्टिकालोध्रः क्रमुकः स्थूलवल्कलः ॥ २१६ ॥ जीर्णपत्रो बृहत्पत्रः पट्टीलाक्षाप्रसादनः । लोध्रो ग्राही लघुः शीतश्चक्षुष्यः कफपित्तनुत् ॥ २१७ ॥ कषायो रक्तपित्तास्त्रज्वरातीसारशोथहृत् । टीका--लोध्र ?, तिरीटक २, शावर ३, मालव ४, ये लोध्रके नाम हैं. प. ट्टिका १, लोध्र २, कृमिक ३, स्थूलवल्कल ४, ॥२१६ ॥ जीर्णपत्र ५, बृहत्पत्र ६, पट्टी ७, लाक्षा ८, प्रसादन ९, ये पठानी लोधके नाम हैं. ये ग्राही, अल्प और शीतल है, नेत्रोंकों हितकारक है, कफपित्तको हरनेवाला है ॥ २१७ ॥ और कसेला है, तथा रक्तपित्त, ज्वर, अतीसार, और शोथ, इनको जीतनेवाला है. अथ लशुननामगुणाः. लशुनस्तु रसोनः स्यादुरगन्धो महौषधम् ॥ २१८ ॥ अरिष्टो म्लेच्छकन्दश्च यवनेष्टो रसोनकः। For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - लहसुन १, रसोन २, उग्रगन्ध ३, महौषध ४, ॥ २९८ ॥ अरिष्ट ५, म्लेच्छकन्द ६, यवनेष्ट ७, रसोनक ८, ये लहसुनके नाम हैं. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदा ततोऽपतद्विन्दुः सरसो नोऽभवद्भुवि ॥ २१९ ॥ पंचभिश्च रसैर्युक्तो रसेनाम्लेन वर्जितः । तस्माद्रसोन इत्युक्तो द्रव्याणां गुणवेदिभिः ॥ २२० ॥ कटुकश्चापि मूलेषु तिक्तः पत्रेषु संस्थितः । नाले कषाय उद्दिष्टो नालाये लवणः स्मृतः ॥ २२१ ॥ बीजे तु मधुरः प्रोक्तो रसस्तद्गुणवेदिभिः । रसोनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचनः सरः ॥ २२२ ॥ रसे पाके च कटुकस्तीक्ष्णो मधुरको मतः । टीका -- जब उस्से पृथ्वीपर बूंद, गिरी तिसका लहसुन होता है || २१९ ॥ पांचरसोंसे युक्त और अम्लरस से रहित होता है. इसलिये द्रव्योंके गुण जाननेवालोंनें रसोत नाम कहा है ॥ २२० ॥ ये मूलमें कडवा है, और पत्र में तिक्त रहता है, और नालमें कसेला, और नालके अग्रभागमें लवण ऐसा कहते हैं ।। २२१ ॥ और बीज में मधुर याप्रकार इसके रस कहे हैं. ये समस्त धातुओंकों बढानेवाली है, और कामदेवको प्रबल करती है, और स्निग्ध, उष्ण, तथा पाचन, दस्ताव - र होता है ।। २२२ ।। और रस और पाकमें कडवा, तीक्ष्ण, गरम, और मधुरभी होता है. भग्नसन्धानकृत् कण्ठ्यो गुरुः पित्तास्रवृद्धिदः ॥ २२३॥ बलवर्णकरो मेधाहितो नेत्र्यो रसायनः । टीका - टूटेहाडका जोडनेवाला, कंठके हित, भारी, रक्तपित्तकों बढानेवाला, होता है ।। २२३ ।। वलकों तथा वर्णकों बढानेवाला है, कांतिकों करनेवाला है, नेत्रों का हित करनेवाला है, और रसायन होता है, हृद्रोगजीर्णज्वरकुक्षिशुलविबन्धगुल्मारुचिकासशोफान् ॥ २२४ ॥ दुर्नामकुष्ठानलसादजन्तुसमीरणाश्वासकफांश्च हन्ति । मद्यं मांसं तथाम्लं च हितं लशुनसेविनाम् ॥ २२५ ॥ व्यायाममातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम् । For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः । रसोनमश्नन्पुरुषस्त्यजेदेतान्निरंतरम् ॥ २२६ ॥ टीका: - हृदयरोग, और जीर्णज्वर, तथा कोष्ठके शूल, विबंध, और वायगोला, अरुचि, तथा कास, ॥ २२४ ॥ शोथ, और कुष्ठ, मंदाग्नि, कृमि, वातरोग, श्वास, और कफ, इनकों हरनेवाला है. इस लहसन सेवन करनेवालेकों मद्य अर्थात मदिरा और मांस तथा खटाई ये हितकारक हैं ।। २२५ || और दंड पेलना, धूपमें फिरना, क्रोधकरना, बहुत जल पीना, दूध पीना, गुड खाना लहसनके सेन करनेवाला, इनकों यत्नसें त्याग दे || २२६ ॥ अथ पलांडु (प्याज) नामगुणाः. पलाण्डुर्यवनेष्टश्व दुर्गन्धो मुखदूषकः । पलाण्डुस्तु गुणैर्ज्ञेयो रसोनसदृशो गुणैः ॥ २२७ ॥ स्वादुः पाके रसोऽनुष्णः कफकृन्नातिपित्तलः । हरते केवलं वातं बलवीर्यकरो गुरुः ॥ २२८ ॥ ४३ टीका - पलांडु १, यवनेष्ट २, दुर्गन्ध २, मुखदूषक ४, ये प्याजके नाम हैं. जितने गुण लहसन में हैं उतनेही इसमें हैं ॥ २२७ ॥ और ये पाकमें मधुर, रस शीतल, और कफकों करनेवाला है, और पित्तकों अधिक करनेवाला नहीं, फक्त Eraat हरनेवाला है, और बलकों तथा वीर्यको बढानेवाला हैं, तथा गुरु हे ॥ २२८ ॥ अथ भल्लातक ( भिलावा) नामगुणाः. भल्लातकं त्रिषु प्रोक्तमरुष्को ऽरुष्करोऽग्निकः । तथैवामुखी भी वीरवृक्षच शोफरूत् ॥ २२९ ॥ भल्लातकफलं पक्कं स्वादुपाकरसं लघु । कषायं पाचनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं छेदि भेदनम् ॥ २३० ॥ मेध्यं वह्निकरं हन्ति कफवातत्रणोदरम् । कुष्ठाशग्रहणीगुल्मशोफानाहज्वररुमीन् ॥ २३१॥ For Private and Personal Use Only टीका - भल्लातक तीनोंमें कहा है. अरुष्क, अरुष्कर, अग्निक, ये भिलावेके नाम हैं. इसीप्रकार अग्निमुखी, भल्ली, वीरवृक्ष, शोफकृत, येभी नाम कहे हैं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ हरीतक्यादिनिघंटे ॥ २२९ ॥ भिलावेका फल पक्का भया पाकमें मधुर है, रस हलका है, कसेला, पाचन, स्निग्ध, तीखा, गरम, छेदन करनेवाला, और भेदन करनेवालाभी कहा है, ॥ २३० ॥ कांतिकों बढानेवाला, अग्निकों प्रबल करता है, कफरोग, वातरोग, घाव, और उदररोग इनकों हरनेवाला है. तथा कुष्ठरोग, बवासीर, और संग्रहणी, वायगोला, शोथ, और अफरा, ज्वर, कृमी, इनकोभी हरनेवाला है। २.३१ ॥ तन्मज्जा मधुरो वृष्यो बृंहणो वातपित्तहा । वृत्तमारुष्करं स्वादु पित्तघ्नं केयमनित् ॥ २३२॥ भल्लातकः कषायोष्णः शुक्रलो मधुरो लघुः । वातश्लेष्मोदरानाहकुष्ठाशग्रहणीगदान् ॥ २३३ ॥ हन्ति गुल्मज्वरश्वित्रवह्निमान्द्यक्रिमिव्रणान् । ग टीका -- इसकी गिरी मधुर होती हैं, पुरुषत्वको बढानेवाली, बलकों बढानेवाली, वातरोग तथा पित्तकों हरनेवाली है, और गोल भिलावा मधुर, पित्तकों हरनेवाला कहा है, अग्निकों प्रबल करनेवाला है || २३२ || और ये भिलावा कसेला होता, रम, वीर्यकों बढानेवाला, मधुर, तथा हलका है. वात, कफ, उदररोग, अफरा, कुष्ठ, ववासीर, संग्रहणी, इनकों जीतनेवाला है || २३३ ॥ और वायगोला, ज्वर, श्वेतकुष्ठ, मन्दाग्नि, तथा कृमि, और घावोंकों हरता है. भङ्गा (भांग) नामगुणाः. भङ्गा गंजा मातुलानी मादिनी विजया जया ॥ २३४ ॥ भंगा फहरी तिक्ता ग्राहिणी पाचनी लघुः । तीक्ष्णोष्णा पित्तलानाहमन्दवाग्वह्निवर्धिनी ॥ २३५॥ टीका -भंगा १, गंजा २, मातुलानी ३, मादिनी ४, विजया ५, जया ६, ये भांगके नाम हैं || २३४ ॥ ये कफकों पैदा करती हैं. तिक्त, ग्राहणी, पाचन, तथा हलकी, तीक्ष्ण और गरम है, और पित्तकों प्रबल करनेवाली, मोह, तथा मन्दवाणी, मंदानि, इनकोंभी प्रबल करनेवाली है ॥ २३५ ॥ अथ खसफल (पोस्त ) नामगुणाः. तिलभेदः खसतिलः कासश्वासहरः स्मृतः । स्यात् वा खसफलोद्भूतं वल्कलं शीतलं लघु ॥ २३६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। ग्राहि तिक्तं कषायं च वातकच्च कफास्त्रहत् । धातूनां शोषकं रूक्षं मदकद्वाग्विवर्धनम् ॥ २३७ ॥ मुहर्मोहकरं रुच्यं सेवनात्पुंस्त्वनाशनम् ।। टीका-तिलभेद १, खसतिल २, ये पोस्तके नाम हैं. ये कास और श्वासकों हरनेवाला है. पोस्तफलका जो वकल है वो शीतल और हलका है ॥२३६॥ ग्राही, तिक्त, कसेला, और वातकों पैदा करनेवाला, और कफरक्तका हरनेवाला, और धातुनका शोषक, तथा रूखा, और नशा लाता है, वा अवाजको बढानेवाला है ॥३२७॥ और ये वारंवार मोहकारक, रुचिदायक, और कामदेवकों हित करता है. अथ आफूक(अफीम)नामगुणाः. उक्तं खसफलं क्षीरमाफूकमहिफेनकम् ॥ २३८ ॥ आफूकं शोषणं ग्राहि श्लेष्मघ्नं वातपित्तलम् । तथा खसफलोद्भुतवल्कलप्रायमित्यपि ॥ २३९ ॥ टीका-पोस्तके फलके दूधकों अफूक और अहिफेन कहते हैं ॥ २३८ ।। अफीम देहकों सुखानेवाली, ग्राही, कफकों हरनेवाली है, वातपित्तको बढानेवाली है. और ये गुणमें पोस्तके वकलसदृश गुणवाली होती है ॥ २३९॥ अथ खसबीज(खसखस)नामगुणाः. उच्यते खसबीजानि तेखा खसतिला अपि । खसबीजानि बल्यानि वृष्याणि सुगुरूणि च ॥ २४० ॥ जनयन्ति कर्फ तानि शमयन्ति समीरणम् । टीका-इस पोस्तके बीजोंकों खाखस तिलभी कहते हैं. ये खसखस बलकों बढानेवाली, और पुष्ट, भारी, है ॥ २४० ॥ तथा कफकों पैदा करती है और वातकों हरती है. अथ सैन्धवनामगुणाः. सैन्धवोऽल्पो शीतशिवं माणिमन्थं च सिन्धुजम् ॥२४१॥ सैन्धवं लवणं स्वादु दीपनं पाचनं लघुः। स्निग्धं रुच्यं हिमं वृष्यं सूक्ष्म नेत्र्यं त्रिदोषहत् ॥ २४२ ।। For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - सैंधव १, शीतशिव २, माणिमंथ ३, सिंधुज ४, ये सेंधेनमकके नाम हैं ॥ २४९ ॥ ये स्वादु, दीपन, पाचन, तथा हलका, होता है. चिकना, और रुचिको बढानेवाला, शीतल, कामदेवको बढानेवाला, सूक्ष्म, नेत्रोंका हितकारक, और त्रिदोषकों हरनेवाला है ।। २४२ ॥ अथ क्षाकंभरी (सांभरनमक) नामगुणाः. शाकंभरीयं कथितं गुडाख्यं रोमकं तथा । गुडाख्यं लघु वातघ्नमत्युष्णं भेदि पित्तलम् ॥ २४३ ॥ तीक्ष्णोष्णं चापि सूक्ष्मं चाभिष्यन्दि कटुपाकि च । टीका - शाकंभरि १, गुडाख्य २, रोमक, ३, ये सांभरनमकके नाम हैं. ये हलका, वातनाशक, गरम, भेदी, तथा पित्तकों पैदा करता है || २४३ || और तीखा, गरम, सूक्ष्म, अभिष्यन्दी हैं, तथा पाकमें कडवा होता है. अथ सामुद्र ( पाङ्गानमक) नामगुणाः. सामुद्रं यत्तु लवणमक्षारं वसरं च तत् ॥ २४४॥ सामुद्रजं सागरजं लवणोदधिसम्भवम् । सामुद्रं मधुरं पाके सतितं मधुरं गुरु ॥ २४५ ॥ नात्युष्णं दीपनं भेदि सक्षारमविदाहि च । श्लेष्मलं वातनुत् तिक्तमरूक्षं नातिशीतलम् ॥ २४६ ॥ टीका --- समद्रलोन जो है सो क्षाररहित होता है. वाकों वसर कहे हैं ।। २४४॥ सामुद्रज ?, सागरज २, उदधिसंभव ३, ये पांगालवणके नाम हैं. ये पाकमें ममधुर, थोडा तिक्त, मधुर, और भारी हैं ॥ २४५ ॥ बहुत गरम, और दीपन है, भेदी, थोडा क्षार, और अविदाही होता है. और ये कफजतित वातका नाश क रनेवाला, तिक्त, स्निग्ध, और शीतल होता है ॥ २४६ ॥ अथ बिडनमकनामगुणाः. विडं पाकं च कतकं तथा द्राविडमासुरम् । बिडं सक्षारमूर्छाधः कफवातानुलोमनम् ॥ २४७ ॥ (ऊर्ध्वं कफमधो वातं संचारयेदित्यर्थः । ) For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिवर्गः। दीपनं लघु तीक्ष्णोष्णं रूक्षं रुज्यं व्यवायि च ॥ २४८ ॥ विबन्धानाहविष्टम्भहृदुग्गौरवशूलनुत् । टीका-विडपाक १, कतक २, द्राविड ३, आसर ४, ये विडनोनके नाम हैं. विड थोडा क्षार, अर्व अध, कफवातका, अनुलोमन करनेवाला होता है ॥२४७॥ ऊपर कफ और नीचे वातकों निकालता है, और ये दीपन, हलका, तीखा, गरम, और रूखा, रुचिको बढानेवाला है ॥ २४८ ॥ और विवन्ध, अफरा, विएम्भ, हृदयकी पीडा, तथा भारीपन शूल इनको हरनेवाला है. अथ सौवर्चल(सौंचर)नामगुणाः. सौवर्चलं स्याद्रुचकमन्धपाकं च तन्मतम् ॥ २४९ ॥ रुचकं रोचनं भेदि दीपनं पाचनं परम् । सुस्नेहं वातनुन्नातिपित्तकं विषदं लघु ॥ २५०॥ उद्गारशुद्धिदं सूक्ष्मं विबन्धानाहशुलजित् । टीका-मौवर्चल १, रुचक २, अन्धपाक ३, ये सौचरनोनके नाम हैं ॥२४९॥ ये चिको बढाता है, भेदी; दीपन, बहुत पाचक होता है. चिकना, वातका हरनेवाला, और अतिपित्तका करनेवाला, विषका नाशक, और हलका है ॥२५० ।। तथा डकारको शुद्ध करनेवाला है, विबंध, अफरा, तथा शूल, इनकोंभी शमन करनेवाला है. अथ औद्भिद(कचलोन)नामगुणाः. औद्भिदं पांशुलवणवजातं भूमिजं स्वयम् ॥ २५१॥ क्षारं गुरु कटु स्निग्धं शीतलं वातनाशनम् । टीका-औद्भिद १, पांसुलवण २, ये कचनोनके नाम हैं. जो भूमिसें आपही उत्पन्न होता है । १५१ ॥ क्षार है, भारी और कडवा, स्निग्ध, तथा शीतल है और वातका हरनेवाला है. अथ चणकक्षारनामगुणाः. चणकाम्लकमत्युष्णं दीपनं दन्तहर्षणम् ॥ २५२ ॥ लवणानुरसं रुच्यं शूलाजीर्णविबन्धनुत् । For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-चनेका खार बहुत गरम और दीपन होता है दोतोंकों रोंढनेवाला है ॥ २५२ ॥ और लवणके अनुसारही रुचिकों पैदा करता है, तथा शूल, और अजीर्ण, विबंध, इनका हरनेवाला है. ___ अथ वयक्षार(जवाखार)गुणाः. पाकक्षारो यवक्षारो यावशूको यवाग्रजः॥ २५३ ॥ स्वर्जिकापि स्मृतः क्षारः कपोतः सुखवर्चकः। कथितः स्वर्जिकाभेदो विशेषज्ञैः सुवर्चिकः॥ २५४ ॥ यवक्षारो लघुः स्निग्धः सुसूक्ष्मो वह्निदीपनः । टीका-पाकक्षार १, यवक्षार २, यावशूक ३, यवाग्रज ४, ये जवाखारके नाम हैं ॥ २५३ ॥ और सज्जीकोंभी क्षार कहते हैं, कापोत ?, सुखवर्चक, ये सजीका भेद सुवचिक वैद्योंने कहा है ॥ २५४ ॥ जवाखार हलका, स्निग्ध, बहुत मूक्ष्म, अग्निकों करनेवाला है. निहन्ति शुलवातामश्लेष्मश्वासगलामयान् ॥ २५५ ॥ पांडुर्शीग्रहणीगुल्मानाहलीहहृदामयान । स्वर्जिकाल्पगुणा तस्माद्विशेषाद्गुल्मशूलहृत् ॥ २५६ ॥ सुवर्चिका खर्जिकावबोद्धव्या गुणतो जनैः।। टीका-और शूलकों, वातकों, आमकों, तथा कफकों, और श्वासकों, तथा गलेके रोगोंकों, हरता है ॥ २५५ ॥ और पांडु, बवासीर, संग्रहणी, वायगोला, तथा अफरा, प्लीह, और हृदयरोग, इनकोंभी हरनेवाला है. और सज्जी इस्से थोडे गुणवाली होती है, सज्जी विशेषकरिके वायगोलाकों हरती है ॥ २५६ ॥ और सोरा सज्जीके समान गुणवाला कहा है. अथ सौभाग्य(सुहागा)नामगुणाः. सौभाग्यं टङ्कणं क्षारो धातुद्रावकमुच्यते ॥ २५७ ॥ टंकणं वह्निद्रूक्षं कफवातपित्तकत् ।। टीका-सौभाग्य १, टंकण २, क्षार ३, धातुद्रावक ४, ये सुहागेके नाम हैं ॥ २५७ ॥ ये अग्निकों दीप्त करनेवाला है, और रूखा है, कफका हरनेवाला है, तथा वातपित्तकारक है. For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हरीतक्यादिवर्गः । अथ क्षारद्वयनामगुणाः स्वर्जिका यावकश्च क्षारद्वयमुदाहृतम् ॥ २५८ ॥ टंकणेन युतं तत्तु क्षारत्रयमुदीरितम् । मिलितस्तूक्तगुणवद्विशेषागुल्महृत्परम् ॥ २५९ ॥ टीका - सज्जीखार और जवाखार इनकों क्षारद्वय बोलते हैं. और सुहागाभी मिलानेसें क्षारत्रय होता है || २५८ || ये मिले हुए उक्तगुणोंकों करनेवाले हैं, विशेषकरके वायगोलाको हरते हैं ॥ २५९ ॥ अथ क्षाराष्टकनामगुणाः. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलाशवज्रीशिखरिचिंचार्कतिलनालजाः । यवजः स्वर्जिका चेति क्षाराष्टकमुदाहृतम् ॥ २६० ॥ क्षारा एतेऽग्निना तुल्या गुल्मशुलहरा भृशम् । टीका - पलास १, थूहर २, कचेरा ३, इमली ४, आक ५, तिल ६, जव ७, सज्जी ८, इन आठों क्षारोंकों क्षाराष्ट्रक कहते हैं || २६० ॥ ये क्षाराष्ट्रक अनिके समान है, वायगोला, तथा शूल, इनका हरनेवाला है. अथ चक्र (चोक) नामगुणाः. चुकं सहस्रवेधि स्याद्वसाम्लं शुक्रमित्यपि । चुक्रमत्यम्लमुष्णं च दीपनं पाचनं परम् ॥ २६१ ॥ शूलगुल्मविबंधामवातश्लेष्महरं सरम् । ७ ४९ कमितृष्णास्य वैरस्यहृत्पीडावह्निमान्द्यहृत् ॥ २६२ ॥ इति भावमिश्रविरचिते हरीतक्यादिनिघंटें हरीतक्यादिवर्गः समाप्तः ॥ १ ॥ वा टीका - चुक्र १, सहस्रवेधी २, रसाम्ल ३, शुक्र ४, ये चोकके नाम हैं. चोक बहुत खट्टा होता है, गरम, दीपनीय, पाचन, है || २६१ || और शूल, यगोला, तथा विबंध, आमवात, और कफकों हरनेवाला, और दस्तावर है, तथा कृमि, तृषा, मुख स्वाद बिगडनेकों, हृदयकी पीडाकों, मन्दानीकोभी हरनेवाला है ॥२६२॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे बालबोधनीटीकायां हरीतक्यादिवर्गः समाप्तः ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे करादिवर्गः। peop कर्पूरनामगुणाः. पुंसि क्कीबे च कर्पूरः सिताभ्रो हिमवालुकः । घनसारश्चन्द्रसंज्ञो हिमनामापि स स्मृतः॥१॥ कर्परः शीतलो वृष्यश्चक्षुष्यो लेखनो लघुः। सुरभिर्मधुरस्तिक्तः कफपित्तविषापहः ॥ २॥ टीका-पुल्लिंग और नपुंसकलिंगसें कर्पूर बना है. कर्पूर १, सिताभ्र २, हिमवालुक ३, घनसार ४, चंद्रसंज्ञ ५, यह हिमनामसेंभी कहा है ॥ १ ॥ ये शीतल, वृष्य, नेत्रोंका हितकारक, लेखन, और हलका है, सुगंधयुक्त, मधुर, और तिक्त होता है, और कफ, पित्त, विष, इनको हरनेवाला है ॥२॥ दाहतृष्णास्यवैरस्यमेदोदौर्गन्ध्यनाशनः । कर्पूरो द्विविधः प्रोक्तः पक्कापक्कप्रभेदतः ॥३॥ पक्कात् कर्पूरतः प्राहुरपक्कं गुणवत्तरम् । टीका-दाह, प्यास, मुखके स्वाद बिगडना, मेदका दुर्गंध, इनको हरनेवाला है, और कर्पूर दोप्रकारका होता है, कच्चा और पका ॥३॥ पक्के कर्पूरसे कच्चा कर्पूर अधिकगुणवाला होता है. __ अथ चीनसंज्ञकर्पूरनामगुणाः. चीनाकसंज्ञः कर्पूरः कफक्षयकरः स्मृतः ॥ ४ ॥ कुष्ठकण्डवमिहरस्तथा तिक्तरसश्च सः। टीका-चीनाक नाम चीनिया कर्पूरका है. वो कफकों और क्षयकों करनेवाला होता है ॥ ४॥ कुष्ठ और खुजली तथा वमन इनका रहनेवाला है, तथा तिक्त रसवाला होता है. For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। अथ कस्तूरीनामगुणाः. मृगनाभिर्मुगमदः कथितस्तु सहस्त्रभित् ॥ ५॥ कस्तूरिका च कस्तूरी वेधमुख्या च सा स्मृता । काश्मरी कपिलच्छाया कस्तूरी त्रिविधा स्मृता ॥ ६॥ कामरूपोद्भवा श्रेष्ठा नैपाली मध्यमा भवेत् । कामरूपोद्भवा कृष्णा नैपाली नीलवर्णयुक् ॥७॥ काश्मीरदेशसंभूता कस्तूरी ह्यधमा मता। कस्तूरिका कटुस्तिक्ता क्षारोष्णा शुक्रला गुरुः ॥ ८॥ कफवातविषच्छर्दिशीतदौर्गन्ध्यशोषहत् । ठीका-मृगनाभि १, मृगमद ?, सहस्रभित् ३, ये कस्तूरीके नाम हैं ॥५॥ और कस्तूरिका ?, कस्तूरी २, वेधमुख्या ३, ये दूसरीके नाम हैं. काश्मरी १, कपिलच्छाया २, कस्तूरी ३, ये तीसरीके नाम है. ऐसे तीन प्रकारकी कस्तूरी लिखी है ॥ ६ ॥ जो कस्तूरी कामरूपदेशमें उत्पन्न होती है वोह श्रेष्ठ है, और जो नेपालमें होती है वो मध्यम होती है. कामरूपमें काली और नेपालमें नीली होती है ॥ ७॥ जो कस्तूरी काश्मीरदेशमें उत्पन्न होती है वह अधम कही है. कस्तूरी कडवी होती है, तिक्त, क्षार, गरम, शुक्रकों पैदा करनेवाली ॥ ८॥ तथा भारी होती है, और कफ, वात, विष, वमन, तथा शीत, दुर्गंधिता, शोष, इनको हरनेवाली है. अथ कस्तूरिका(मुस्कदाना)गुणाः, लता कस्तूरिका तिक्ता स्वादी वृष्या हिमा लघुः ॥ ९॥ चक्षुष्या छेदिनी श्लेष्मतृष्णाबस्त्यास्यरोगहृत् ।। टीका-कस्तूरिका लता, तिक्त, और मधुर होती है, तथा पुष्ट, शीतल, और हलकी होती है ॥ ९॥ नेत्रोंकों हित करनेवाली है, तथा छेदन करनेवाली है, कफ, प्यास, तथा पेडू, और मुखके रोग इनको हरनेवाली है. अथ गन्धमार्जारवीर्यगुणाः. गन्धमार्जारवीर्य तु वीर्यकत् कफवातहत् ॥ १० ॥ For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे कण्डूकुष्ठहरं नेत्र्यं सुगन्धं स्वेदगन्धनुत् । टीका-गौरासरको आंडीनामसे कहते हैं. गंधमार्जार १, वीर्यबल करनेवाला और कफवातका नाशक होता है ॥ १०॥ तथा कंडू, और कुष्ठ इनका हरनेवाला है, और नेत्रोंका हितकारी है, सुगन्ध है, पसीनाके गन्धकों नाश करनेवाला है. इसदेशमें इसे विल्लीलोटन कहते हैं. अथ चन्दननामगुणाः. श्रीखण्डं चन्दनं नस्त्री भद्रःश्रीस्तैलपर्णिकः ॥ ११॥ गन्धसारो मलयजस्तथा चन्द्रद्युतिश्च सः । स्वादे तिक्तं कषे पीतं छेदे रक्तं तनौ सितम् ॥ १२॥ ग्रन्थिकोटरसंयुक्तं चन्दनं श्रेष्ठमुच्यते । चन्दनं शीतलं रूक्षं तिक्तमालादनं लघुः ॥ १३ ॥ श्रमशोषविषश्लेष्मतृष्णापित्तास्त्रदाहनुत् । टीका-श्रीखंड १, चंदन २, भद्रश्री ३, तेलपणिका ४॥ ११ ॥ गंधसार ५, मलयज ६, चंद्रद्युति ७, ये चंदनके नाम हैं. ये स्वादमें तिक्त है, घिसनेमें पीला है, और काटनेमें लाल और शरीरमें लगानेमें सफेद होता है ॥१२॥ गांठ और खोडसे युक्त ऐसा चंदन श्रेष्ट कहा है. ये शीतल, रूखा, और तिक्त है, हर्षकों देनेवाला है, और हलका है ॥ १३ ॥ तथा श्रम, शोष, और विष, कफ, तृपा, रक्तपित्त, और दाह, इनको जीतनेवाला है. अथ पीतचंदननामगुणाः. कालीयकं तु कालीयं पीताभं हरिचन्दनम् ॥ १४ ॥ हरिप्रियं कालसारं तथा कालानुसार्यकम् । कालीयकं रक्तगुणं विशेषाव्यङ्गनाशनम् ॥ १५॥ टीका-पीतचंदनकों लौकिकमैं कलम्बक कहते हैं. कालीयक १, कालीय २, पीताभ ३, हरिचंदन ४ ॥ १४ ॥ हरिप्रिय ५, कालसार ६, कालानुसार्यक ७, ये पीतचंदनके नाम हैं. पीतचंदनमें रक्तचंदनके वरावर गुण होते हैं, और विशेषकरिके मुखकी झाईको हरता है ॥ १५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः । अथ रक्तचंदननामगुणाः. रक्तचन्दनमाख्यातं रक्ताङ्गं क्षुद्रचन्दनम् । तिलपर्ण रक्तसारं तत्प्रवालफलं स्मृतम् ॥ १६॥ रक्तं शीतं गुरु स्वादु छर्दितृष्णास्त्रपित्तहृत् । तिक्तं नेत्रहितं वृष्यं ज्वरणविषापहम् ॥ १७ ॥ टीका - रक्तचंदन १, रक्तांग २, क्षुद्रचंदन ३, ऐसा कहा है. और तिलपर्ण १, रक्तसार २, प्रवालफल ३, ऐसा भी कहते हैं ॥ १६ ॥ रक्तचंदन शीतल, भारी, मधुर, और वमन, तृषा, रक्तपित्त, इनका हरनेवाला है, और तिक्त है, नेत्रोंकों हितकारक है, तथा वृष्य होता हैं, और ज्वर, घाव, विष, इनका हारक हैं ॥ १७ ॥ अथ पतंगनामगुणाः. ५३ पतंग रक्तसारं च सुरंगं रञ्जनं तथा । पट्टरअकमाख्यातं पत्रं च कुचन्दनम् ॥ १८ ॥ पतंगं मधुरं शीतं पित्तश्लेष्मत्रणास्रनुत् । हरिचंदनवद्वेद्यं विशेषाद्दाहनाशनम् ॥ १९ ॥ चन्दनानि तु सर्वाणि सदृशानि रसादिभिः । गन्धेन तु विशेषोस्ति पूर्वः श्रेष्ठतमो गुणैः ॥ २० ॥ टीका - रक्तसार १, पतंग २, सुरंग ३, रंजन ४, पट्टरंजक ५, पत्तूर ६, कुचंदन ७, ये पतंगके नाम हैं. येभी चंदनकी किस्मसें होता है ॥ १८ ॥ पतंग मधुर हैं, शीतल है, पित्त, कफ, घाव, रक्त, इनको हरनेवाला है और पीत चंदनके समान जानना, परंतु विशेषकरिके दाहका नाशक है ॥ १९ ॥ सर्वचंदन, रसनमें समान हैं, और गन्धसें विशेष है, उनमें पहिले गुणोंमें श्रेष्ठ हैं ॥ २० ॥ अथ अगरुनामगुणाः. अगरु प्रवरं लोहं राजार्ह योगजं तथा । वंशिकं कमिजं वापि कमिजग्धमनार्यकम् ॥ २१ ॥ अगरूष्णं कटु वच्यं तिक्तं तीक्ष्णं च पित्तलम् । । For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे लघु कर्णाक्षिरोगघ्नं शीतवातकफप्रणुत् ॥ २२ ॥ कृष्णागुणाधिकं तत्तु लोहबहारि मजति । अगुरुप्रभवः स्नेहः कृष्णागुरुसमः स्मृतः ॥ २३॥ टीका-अगरु १, प्रवरलोह २, राजाई ३, योगज ४, वंशिक ५, कृमिजग्ध ६, अनार्यक ७, ये अगरके नाम हैं ॥ २१॥ ये स्वादमें कटु है, खचाका हितकारक, तिक्त, तीक्ष्ण, पित्तकों पैदा करता है, हलका है, कर्ण तथा नेत्रोंके रोगोंका हरनेवाला है, शीत तथा वात कफ इनकों जीत ॥२२॥ और इन दोनोंमें काला अगरु गुणमें अधिक है, और वो लोहके समान जलमें डूब जाता है, और अगरका तेल कृष्णागरके समान कहा गया है ॥ २३ ॥ अथ देवदारुनामगुणाः. देवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्रदारु च । मस्तदारु द्रुकिलिमं कृत्रिमं सुरभूरुहः ॥ २४ ॥ देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्णं कटु पाकि च । विबन्धाध्मानशोथामतन्द्राहिक्काज्वरात्रजित् ॥ २५॥ प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकण्डूसमीरनुत् । टीका-देवदारु १, दारुभद्र २, दार्वी ३, इन्द्रदारु ४, मस्तदारु, दुकिलिम ६, कृत्रिम ७, सुरभूरुह ८, ये देवदारुके नाम हैं ॥ २४ ॥ ये हलका होता है, चिकना, तथा गरम, तिक्त, और पाकमें कडवा है, विबंध, आध्मान, और सूजन तथा तंद्रा हिचकी ज्वर और रक्त इनका नाशक है ॥ २५ ॥ और प्रमेह, पीनस, कफ, तथा कास, खुजली, और वातकोंभी हरता है. अथ धूपसरलनामगुणाः. सरलः पीतवृक्षः स्यात्तथा सुरभिदारुकः । सरसो मधुरस्तिक्तो कटुपाकरसो लघुः ॥ २६ ॥ स्निग्धोष्णः कर्णकण्ठाक्षिरोगरक्षोहरः स्मृतः। कफानिलस्वेददाहकासमूर्छावणापहः ॥ २७ ॥ टीका-सरल १, पीतवृक्ष २, सुरभि ३, दारुक ४, ये दूसरे देवदारुके For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। नाम हैं. ये मधुर है, तिक्त है, पाकमें कडवा हैं ॥ २६ ॥ और स्निग्ध, गरम तथा कान, कंठ, और नेत्ररोग, और राक्षसोंका नाश करनेवाला है, और कफ, पसीना, दाह, तथा कास, मूर्छा, और घावोंकोंभी हरनेवाला है ॥ २७ ॥ अथ तगरनामगुणाः. कालानुसार्य तगरं कुटिलं नघुषं नतम् । अपरं पिण्डतगरं दण्डहस्ती च वर्हिणम् ॥ २८ ॥ नगरद्वयमुष्णं स्यात् स्वादु स्निग्धं लघु स्मृतम् । विषापस्मारशूलाक्षिरोगदोपत्रयापहम् ॥ २९ ॥ टीका-कालानुसार्य १,तरग २, कुटिल ३, मधुपनत ४, ये तगरके नाम हैं, और दूसरे तगरकों पिंडतगर १, दंडहस्ति, वर्हिण कहते हैं ॥ २८ ॥ ये दोनों गरम होते हैं, और मधुर, चिकने तथा हलके होते हैं, और विष, मिरगी, शूल तथा नेत्ररोग, और त्रिदोषकोंभी रहनेवाले हैं ॥ २९ ॥ अथ पद्माकनामगुणाः. पद्मकं पद्मगन्धि स्यात्तथा पद्माह्वयं स्मृतम् । पद्मकं तु परं तिक्तं शीतलं वातलं लघु ॥३०॥ विसर्पदाहविस्फोटकुष्ठश्लेष्मास्त्रपित्तनुत् । गर्भसंस्थापनं वृष्यं वमिव्रणतृषाप्रणुत् ॥ ३१ ॥ टीका-पद्मक १, पद्मगंधि २, पद्माद्वय ३, ये पद्माकके नाम हैं. ये कसेला और तिक्त, शीतल, वातकारक है ।। ३०॥ विसर्प, दाह, तथा विस्फोटक, कुष्ठ, और कफ, रक्तपित्त, इनकोंभी हारक है, और गर्भकों स्तंभन करता है, रुचिकों बढाता है, वमन, घाव, और तृषा इनकामी हरनेवाला है ॥ ३१ ॥ अथ गुग्गुलुनामगुणाः. गुग्गुल्लुर्देवधूपश्च जटायुः कौशिकः पुरः। कुस्तालूखलकं क्लीवे महीषाक्षः पलङ्कषः ॥ ३२ ॥ महिषाक्षो महानीलः कुमुदः पद्म इत्यपि । हिरण्यपंचमो ज्ञेयो गुग्गुलोः पञ्च जातयः॥ ३३॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे भृङ्गाजनसुवर्णस्तु महिषाक्ष इति स्मृतः। महानीलस्तु विज्ञेयः स्वनामसमलक्षणः ॥ ३४ ॥ कुमुदः कुमुदाभः स्यात् पद्मो माणिक्यसन्निभः । हिरण्याक्षस्तु हेमाभः पंचानां लिंगमीरितम् ॥ ३५॥ महिषाक्षो महानीलो गजेंद्राणां हि तावुभौ। हयानां कुमुदः पद्मः स्वस्त्यारोग्यकरौ परौ ॥ ३६ ॥ विशेषेण मनुष्याणां कनकः परिकीर्तितः । कदाचिन्महिषाक्षश्च यतः कैश्चिन्नृणामपि ॥ ३७॥ गुग्गुलर्विषदस्तिक्तो वीर्योष्णः पित्तलः सरः । कषायः कटुकः पाके कटुरूक्षो लघुः परः ॥ ३८ ॥ भग्नसंधानकद् वृष्यः सूक्ष्मः स्वयर्यो रसायनः। दीपनः पिच्छलो बल्यः कफवातव्रणापची ॥ ३९ ॥ टीका-गुग्गुल ?, देवधूप २, जटायु ३, कौशिकपुर ४, कुस्तालु ५, खलक ६, ये गूगलके नाम नपुंसकलिंगमें कहे हैं. और महिषाक्ष १, पलंकष, येभी नाम हैं ॥ ३२ ॥ महिषाक्ष १, महानील २, कुमुद ३, पद्म ४, हिरण्य, येभी गूगलके नाम हैं ॥ ३३ ॥ जो गूगल भोराके समान कालेरंगका हो उसे महिषाक्ष कहते हैं, और महानील अपने नामके बरावर लक्षणवाला होता है ॥ ३४ ॥ और कुमुद सफेद कमलके समान तथा पद्ममणिके सदृश कहा है, और हिरण्याक्षका सुवर्णकासा रंग होता है, इसप्रकार पांचोंका लक्षण कहा है ॥ ३५ ॥ महिषाक्ष और महानील ये दोनों हथियोंकों हितकारक है, और घोडानकों कुमुद तथा पद्म ये दोनों आरोग्य करनेवाले हैं ॥ ३६॥ और विशेषकरके कनक मनुष्यनकों हितकारक है, कभीकभी महिषाक्षभी मनुष्योंकों हितकारक है ॥ ३७॥ ये गूगल विषद है, तिक्त है, वीर्यमें गरम है, पित्तकों पैदा करता है, सर है, कसैला है, कडवा है, और पाकमें कटु है, और रूखा है, तथा बहुत हलका होता है ॥ ३८ ॥ और टूटे हाडौंको जोडनेवाला है, पुष्ट है, सूक्ष्म स्वरकों अच्छा करनेवाला है, और रसायन है, दीपन, और च. पेदार तथा बलकों बढानेवाला होता है, और कफ, वात, घाव, अपची, इनका नाश करता है ॥ ३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः । मेदोमेहारमवातांच वेदकुष्ठाममारुतान् । पिडिकाग्रन्थिशोफार्शोगण्डमालाकमीन् जयेत् ॥ ४० ॥ माधुर्याच्छमयेद्वातं कषायत्वाच्च पित्तहा । तिक्तत्वात् कफजित्तेन गुग्गुलुः सर्वदोषहा ॥ ४१ ॥ स नवो बृंहणो वृष्यः पुराणस्त्वतिलेखनः । स्निग्धः कांचनसंकाशः पक्कजम्बूफलोपमः ॥ ४२ ॥ नूतनो गुग्गुलुः प्रोक्तः सुगन्धिर्यस्तु पिच्छिलः । शुष्को दुर्गन्धश्चैव त्यक्तप्रकृतिवर्णकः ॥ ४३ ॥ पुराणः स तु विज्ञेयो गुग्गुलुवर्यवर्जितः । अम्लं तीक्ष्णमजीर्ण च व्यवायं श्रममातपम् ॥ ४४ ॥ मद्यं रोषं त्यजेत् सम्यग्गुणार्थी पुरसेवकः । टीका - मेद, प्रमेह, पथरी, तथा वात, क्केद, कुष्ठ, और आमवात, तथा पिंडिका, ग्रन्थि, और सूजन, बवासीर, तथा गंडमाला, और कृमि, इनकों हरनेवाला है ॥ ४० ॥ और मधुर रससें वातनाशक है, कसेलेपनसें पित्तनाशक है, तिक्तपनेसें कफनाशक है, इसीसें गूगल सर्वदोषों का जीतनेवाला होता है ॥ ४१ ॥ नया गूगल वीर्यकों बढानेवाला है, और पुराना, बहुत लेखन होता है. पका गूगल चिकना सुवर्णके रंग कैसा अथवा पक्के जामनके सदृश होता है ॥ ४२ ॥ और नया गूगल सुगन्ध चपदार होता है, शुष्क दुर्गंधके करनेवाला तथा स्वाभाविक वर्णसें रहित ॥ ४३ ॥ और पुराना गूगल वो है जो वीर्यसे रहित है, खटाई, मिर्च, अजीर्ण, मैथुन, श्रमकरना, धूपमें बैठना ॥ ४४ ॥ मद्य पीना, क्रोध करना, इतनी वातोंकों गूगलका सेवन करनेवाला अवश्य त्याग दे. अथ सरलनिर्यासगुग्गुलुः श्रीवासः सरलस्रावः श्रीवेष्टो वृक्षधूपकः ॥ ४५ ॥ श्रीवासो मधुरस्तिक्तः स्निग्धोष्णस्तुवरः सरः । पित्तलो वातमूर्धाक्षिस्वररोगकफापहः ॥ ४६ ॥ रक्षोघ्नः स्वेदौर्गन्ध्ययूकाकण्डूव्रणप्रणुत् । For Private and Personal Use Only ५७ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - देवदारुकी जातका एक गोंद होता है, उसें गूगल कहते हैं. श्रीवास १, सरलस्राव २, श्रीवेष्ट ३, वृक्षधूपक, ये इसके नाम हैं ॥ ४५ ॥ ये सरल और मधुर होता है, तिक्त, स्निग्ध, गरम, और कसेला, तथा सर है. पित्तहारक हैं, वातरोग, शिरोरोग, नेत्ररोग, स्वररोग, कफ, इनकों हरनेवाला है ॥ ४६ ॥ और राक्षसों का नाशक है, तथा पसीना, दुर्गन्धिता, जूआं खुजली, घाव, इनकभी हरनेवाला है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ रालनामगुणाः. रालस्तु शालनिर्यासस्तथा सर्जरसः स्मृतः ॥ ४७ ॥ देवधूपो यक्षधूपस्तथा सर्वरसश्च सः । रालो हिमो गुरुस्तिक्तः कषायो ग्राहको हरेत् ॥ ४८ ॥ दोषास्त्रस्वेदवीसर्पज्वरव्रणविपादिकाः । ग्रहभग्नाग्निदग्धाश्च शूलातीसारनाशनः ॥ ४९ ॥ टीका- राल १, साल २, निर्यास ३, सर्जरस ४ ॥ ४७ ॥ देवधूप ५, यक्षधूप ६, सर्जरस ये रालके नाम हैं. राल शीतल, भारी, तिक्त, कसेला, और ग्राहक है, ॥ ४८ ॥ और दोष, रक्त, पसीना, तथा विसर्प, ज्वर, घाव, और विपादिक इनको हरनेवाला है और शूल अतीसार इनकोंभी जीते है. ग्रह और टूटेहाकों तथा अग्निदग्धकों अच्छा करता है ॥ ४९ ॥ अथ कुन्दुरुसुगंधद्रव्यशल्लकीनिर्यासः कुन्दुरुस्तु मुकुन्दः स्यात् सुगन्धः कुन्द इत्यपि । कुन्दुरुर्मधुरस्तिक्तस्तीक्ष्णस्त्वच्यः कटुर्हरेत् ॥ ५० ॥ ज्वरस्वेदग्रहालक्ष्मीमुखरोगकफाऽनिलान् । टीका - सोनादररक्तके गोंदकों कुन्दरुगोंद कहते हैं. कुन्दरु १, मुकुन्द २, सुगन्धकुन्द ३, ये कुंदरुगोंद के तीन नाम हैं. ये मधुर, तिक्त, तीक्ष्ण, खचाके हितकारी है, और कडवा होता है ॥ ५० ॥ ज्वर, स्वेद, ग्रह, अलक्ष्मी, तथा मुखरोग, कफरोग, और रोगोंकोंभी हरनेवाला है. अथ शिलारसनामगुणाः. सिह्नकस्तु तुरुष्कः स्याद्यतो यवनदेशजः ॥ ५१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। कपितैलं च संख्यातस्तथा च कपिनामकः । सिह्नकः कटुकः स्वादुः स्निग्धोष्णः शुक्रकान्तिकत् ॥५२॥ वृष्यः कण्ठ्यः स्वेदकुष्ठज्वरदाहग्रहापहः । टीका-सिल्हक १, तुरुष्क २, यवनदेशज ३, ॥ ५१॥ कपिल ४, कपिनामक ५, ये शिलारसके पांच नाम हैं. शिलारस कडवा होता है, और मधुर, चिकना, तथा शुक्र और कांतिको बढानेवाला है ॥ ५२ ॥ पुष्ट है, कंठका हितकारी है, और पसीना, कुष्ठ, ज्वर, दाह, और ग्रह इनका नाशक है. अथ जातीफलनामगुणाः. जातीफलं जातिकोशं मालतीफलमित्यपि ॥ ५३॥ जातीफलं रसे तिक्तं तीक्ष्णोष्णं रोचनं लघुः। कटुकं दीपनं ग्राही स्वयं श्लेष्मानिलापहम् ॥ ५४॥ निहन्ति मुखवैरस्यं मद्यदौर्गन्ध्यकृष्णताः। कमिकासवमिश्वासशोषपीनसहृद्रुजः ॥ ५५॥ टीका-जातीफल १, जातिकोश २, मालतीफल ३, ये जायफलके नाम हैं ॥५३॥ जायफल रसमें तिक्त, तीक्ष्ण, गरम, रुचिकों करनेवाला तथा हलका है कडवा, दीपन, तथा ग्राही है, स्वरको अच्छा करता है, कफवातको हरनेवाला है ॥५४॥ मुखके बिगडे स्वादकों और मथकी दुर्गंधिताकों और कालेपनकोंभी हरनेवाला है, और कृमि, कास, वमन, तथा श्वात, शोष, पीनस, और हृदयकी पीडा, इनकोंभी जीतनेवाला है ॥ ५५ ॥ अथ जातीफल(जावित्री)नामगुणाः. जातीफलस्य त्वक् प्रोक्ता जातीपत्री भिषग्वरैः। जातीपत्री लघुः स्वादुः कटूष्णा रुचिवर्णकृत् ॥ ५६ ॥ कफकासवमिश्वासतृष्णाकमिविषापहा । टीका-वैद्योंने जायफलकी छालकों जावित्री कही है. जावित्री हलकी, मधुर, कडवी, गरम, रुचि तथा वर्णको करनेवाली है ॥ ५६ ॥ और कफ, कास, वमन, तथा श्वास, तृषा, कृमि, और विष, इनको हरनेवाली है. For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ लवंगनामगुणाः. लवंगं देवकुसुमं श्रीसंज्ञं श्रीप्रसूनकम् ॥ ५७ ॥ लवंगं कटुकं तिक्तं लघु नेत्रहितं हिमम् । दीपनं पाचनं रुज्यं कफपित्तास्त्रनाशकृत् ॥ ५८॥ तृष्णां छर्दि तथाध्मानं शूलमाशु विनाशयेत् । कासं श्वासं च हिकां च क्षयं क्षपयति ध्रुवम् ॥ ५९॥ टीका-लवंग १, देवकुसुम २, श्रीसंज्ञ३, श्रीप्रमूनक ४, ॥ ५७ ॥ ये लोंगके चार नाम हैं. और लोंग कडवी, तिक्त, हलकी, नेत्रोंको हितकारी, शीतल, दीपन, पाचन, तथा रुचिके देनेवाली, और कफ, रक्तपित्त, इनको हरनेवाली है ॥ ५८ ॥ और प्यास, वमन, तथा अफरा, तथा शूल, इनकी हारक है और कास, श्वास, हिचकी, तथा क्षय इनकोभी शीघ्र हरती है ॥ ५९॥ अथ स्थूलैला(बडी इलायची)नामगुणाः. एला स्थूला च बहुला पृथ्वीका त्रिपुटापि च । भदैला बृहदेला च चंद्रवाला च निष्कुटिः॥६०॥ स्थूलैला कटुका पाके रसे चानलकल्लघुः । रूक्षोष्णा श्लेष्मपित्तास्त्रकण्डूश्वासतृषापहा ॥ ६१॥ हृल्लासविषवस्त्यास्यशिरोरुग्वमिकासनुत् । टीका-एला १, स्थूला २, बहुला ३, पृथ्वीका ४, त्रिपुटा ५, भद्रेला ६, बृहदेला ७, चंद्रवाला ८, निष्कुटी ९, ये बडी इलायचीके नव नाम हैं ॥६०॥ ये पाक और रसमें कडवी है, अग्निकों दीप्त करती है, और हलकी, रूखी, गरम है, कफ, रक्त, पित्त, तथा खुजली, श्वास, तृषा, इनकी हारक है ॥ ६१ ॥ और ह. ल्लास, विष तथा पेडू, मुष और शिर इनकी पीडाकों हरती है, तथा वमन और श्वास इनकोंभी हरती है. अथ सूक्ष्मैला(गुजराती इलायची)नामगुणाः. सूक्ष्मोपकुंचिका तुत्था कोरंगी द्राविडी त्रुटिः ॥६२॥ एला सूक्ष्मा कफश्वासकासार्शोमूत्रकृच्छ्रहृत् । For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। रसे तु कटुका शीता लघ्वी वातहरी मता ॥ ६३ ॥ टीका-सूक्ष्मा १, उपकुंचिका २, तुत्था ३, कोरंगी ४, द्राविडी ५, त्रुटि ६, ये छोटी इलायचीके नाम हैं ॥ ६२ ॥ ये कफरोग, श्वास, कास, बवासीर, मूत्रकृच्छ्र, इन रोगोंकों हरनेवाली है, रसमें कडवी है, शीतल है, हलकी है, वातहारक है ॥ ६३॥ अथ त्वक्पत्र(तज)नामगुणाः. त्वपत्रं च वरांगं स्याद् भृङ्गं चोदन्त उत्कटम् । त्वच्यं लघूष्णं कटुकं स्वादु तिक्तं च रूक्षकम् ॥ ६४॥ पित्तलं कफवातघ्नं कण्ड्डामारुचिनाशनम् । हृद्वस्तिरोगवातार्शःकमिपीनसशुकहृत् ॥ ६५॥ टीका-वक्पत्र १, वरांग २, भृग ३, उदन्त ४, उत्कट ५, ये तजके नाम हैं. ये हलकी, गरम, कडवी, मधुर, तिक्त, रूखी है ॥ ६४॥ पित्तकों उत्पन्न करनेवाली है, कफवातकी हरनेवाली है, खुजली, आम, अरुचि, इनको जीतनेवाली है, हृदय, बस्ति इन रोगोंकों और वातकी बवासीरकों कृमि, पीनस, तथा शुक्रकों हरनेवाली है ॥ ६५ ॥ अथ त्वक्(दालचीनी)नामगुणाः. त्वक् स्वाही तु तनुत्वक् स्यात्तथा दारुसिता मता। उक्ता दारुसिता स्वाङ्गी तिक्ता चानिलपित्तहत् ॥ ६६ ॥ सुरभिः शुकला वर्ष्या मुखशोषतृषापहा । टीका-खक १, तनुखक २, दारुसीता ३, ये कलमी दारचीनीके नाम हैं. ये मधुर और तिक्त है, तथा वातपित्तको हरनेवाली है ॥ ६६ ॥ सुगन्धयुक्त शुक्रकों बढानेवाली है, रोगको अच्छा करती है, मुखशोष, और तृषा इनको जीतनेवाली है. अथ पत्रकनामगुणाः. पत्रं तमालपत्रं च तथा स्यात् पत्रवामकम् ॥ ६७ ॥ पत्रकं मधुरं किञ्चित्तीक्ष्णोष्णं पिच्छिलं लघुः । निहन्ति कफवाताझे हृल्लासारुचिपीनसान् ॥ ६८॥ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-पत्र १, तमालपत्र २, पत्रनामक ३, ये तेजपात्रके नाम है ॥६७॥ ये मधुर है, थोडा तीक्ष्ण है, गरम है, और चपेदार तथा हलका होता है, और कफ, वात, बवासीर, जीमिचलाना, अरुचि, पीनस, इनको हरनेवाला है ॥ ६८ ॥ अथ नागकेशरनामगुणाः. नागपुष्पः स्मृतो नागः केशरो नागकेशरः। चाम्पेयो नागकिअल्कः कथितः काञ्चनाह्वयः ॥ ६९॥ नागपुष्पं कषायोष्णं रूक्षं लघ्वामपाचनम् । ज्वरकंतृषास्वेदच्छर्दिहल्लासनाशनम् ॥ ७० ॥ दौर्गन्ध्यकुष्ठवीसर्पकफपित्तविषापहम् । टीका–नागकेशर १, नागपुष्प २, केशर ३, चाम्पेय ४, नागकिंजल्क ५, काञ्चनाह्वय ६, ये नागकेशरके नाम हैं ॥ ६९॥ ये पुष्पनमें नपुंसक है, ये कसेला है, गरम है, रूखा है, हलका है, और आमका पचानेवाला है, और खुजली, तृषा, पसीना, वमन तथा जीमि चलानेकों हरता है ॥ ७० ॥ और दुर्गन्धता, कुष्ठ, विसर्प, कफ, पित्त, तथा विष इनको हरनेवाली है. अथ त्रिजातचातुर्जातकनामगुणाः. त्वर्गला पत्रकैस्तुल्यैस्त्रिसुगंधि त्रिजातकम् ॥ ७१ ॥ नागकेशरसंयुक्तं चातुर्जातकमुच्यते । तवयं रेचनं रूक्षं तीक्ष्णोष्णं मुखगन्धहृत् ॥ ७२ ॥ लघुपित्ताग्निरूद्वयं कफवातविषापहम् । टीका-दारचिनी १, इलायची २, पत्रक ३, इन तीनोंकों समान भाग लेकर मिलाया हुआ त्रिजातक कहाता है ॥७१॥ तथा इसमें नागकेशर मिलानेसें चातुजर्जातक कहाता है, ये दोनों रेचन हैं, रूखे हैं, तीक्ष्ण हैं, गरम हैं, और मुखकी दुर्गधताके हरनेवाले हैं ॥ ७२ ॥ और लघु हैं, पित्त अग्निकों करनेवाले हैं, वर्णकों अच्छा करें कफ, वात, विषनाशक, हैं. अथ कुङमम्. कुङ्कुमं घुसृणं रक्तं काश्मीरं पीतकं वरम् ॥७३॥ For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। सङ्कोचं पिशुनं धीरं बाह्रीकं शोणिताभिधम् । काश्मीरदेशजे क्षेत्रे कुङ्कुमं यद्भवेद्धि तत् ॥ ७४ ॥ सूक्ष्मकेशरमारक्तं पद्मगन्धं तदुत्तमम् । बाह्रीकदेशसंजातं कुंकुम पाण्डुरं मतम् ॥ ७५ ॥ केतकीगन्धयुक्तं तन्मध्यमं सूक्ष्मकेशरम् । कुङ्कुमं पारसीके यत् मधुगन्धि तदीरितम् ॥७६ ॥ इषत्पाण्डुरवणं तदधमं स्थूलकेशरम् । कुङ्कुमं कटुकं स्निग्धं शिरोरुग् वणजन्तुजित् ॥ ७७॥ तिक्तं वमिहरं वयं व्यङ्गदोषत्रयापहम् । टीका-कुंकुम ?, घुसूण २, रक्त ३, काश्मीर ४, पीतक ५ ॥ ७३ ॥ संकोच ६, पिशुन ७, धीर ८, बाह्रीक ९, शोणिताभिध १० ये केशरके दस नाम हैं ॥ ७४ ॥ जो केशर काश्मीरदेशमें उत्पन्न होता है वो सूक्ष्म रक्तवर्ण पद्मके सदृश गंधवाला उत्तम होता है बाह्रीकदेश अर्थात् वलखदेशमें जो केशर होता है ॥७॥ वो केवडेके सदृश गंधवाला सूक्ष्म होता है, मध्यम है. जो केशर पारस देशमें होता है उसको मधुगंधि कहते हैं ॥ ७६ ॥ वो कुछ सफेदवर्ण और मोटा होता है, वोभी मध्यम है, ये कडवा है, चिकना है, और शिरके रोग, और घाव, कृमि, इनको हरनेवाला है ॥७७॥ और तिक्त है, वमनका नाशक, रंगका कारक, और झाई तथा तीनों दोष इनकाभी हरनेवाला है ॥ ७८ ॥ अथ गोरोचननामगुणाः. गोरोचना तु मङ्गल्या वन्द्या गौरी च रोचना ॥ ७८॥ गोरोचना हिमा तिक्ता वश्या मङ्गलकान्तिदा। विषाऽलक्ष्मीग्रहोन्मादगर्भस्रावक्षतास्त्रहत् ॥७९॥ टीका-गोरोचना १, मंगल्या २, वन्द्या ३, गोरी ४, रोचना ५, ये गोरोचनके नाम हैं ॥ ७८ ॥ ये शीतल है, तिक्त है, वशकरनेवाली है, मंगल तथा कांतिकारक है और विष, अलक्ष्मी, ग्रह, उन्माद, गर्भस्राव, तथा क्षत, इनकों दूर करनेवाली है ॥ ७९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ नखनखीनामगुणाः. नखं व्याघ्रनखं व्याघ्रायुधं तच्चक्रकारकम् । नखं स्वल्पं नखी प्रोक्ता हनुहटविलासिनी॥ ८०॥ नखद्रव्यग्रहश्लेष्मवातास्त्रज्वरकुष्ठहत् । लघूष्णं शुक्रलं वयं स्वादु व्रणविषापहम् ॥ ८१॥ अलक्ष्मीमुखदौर्गन्ध्यहृत्पाकरसयोः कटुः। टीका-नख १, व्याघनख २, व्याघ्रायुध ३, चक्रकारक ४, छोटे नखकों नखी और हनुहट्टविलासिनीभी कहते हैं ॥ ८० ॥ नख द्रव्यग्रहनाशक है, कफ, वात, रक्त, ज्वर, कुष्ठ, इनका हरनेवाला है, और हलका है, शुक्रकों पैदा करता है, वर्णकारक है, मधुर है, घाव, विष, इनका जीतनेवाला है ॥ ८१॥ और अलक्ष्मी, मुखकी दुर्गन्धनाशक है, और ये पाकमें और रसमें कडवा होता है. अथ सुगंधवालानामगुणाः. बालं हीबेरबर्हिष्ठोदीच्यं केशाम्बुनाम च ॥ ८२ ॥ बालकं शीतलं रूक्षं लघु दीपनपाचनम् । हल्लासारुचिवीसर्पहृद्रोगामातिसारजित् ॥ ८३ ॥ टीका-बाल, ह्रीबेर, बर्हिष्ठ, उदीच्य, केश, अम्बुनाम, ये सुगंधवालाके नाम हैं ॥ ८२ ॥ ये शीतल, रूखा, दीपन, हलका, और पाचन है और जीमि चलानेकों अरुचि, अरु विसर्प, तथा हृदयरोग, आमातिसार, इनको हरनेवाला है८३ अथ वीरणनामगुणाः. स्याहीरणं वीरतरुर्वीरं च बहुमूलकम् । वीरणं पाचनं शीतं वान्तिहल्लघुतिक्तकम् ॥ ८४ ॥ स्तम्भनं ज्वरनुद्वान्तिमदजित्कफपित्तहत्।। तृष्णास्त्रविषवीसर्पकच्छ्रदाहव्रणापहम् ॥ ८५ ॥ टीका-जिस औषधिकी जड खश होती है, उस्को वीरण कहते हैं. वीरण १, वीरतरु २, वीर ३, बहुमूलक, ये वीरणके पांच नाम हैं. ये पाचन, शीतल, वमनका हरनेवाला, और हलका, तिक्त है ।। ८४॥ और स्तम्भन है, ज्वर, भ्रांति, For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। मद, इनकामी हरनेवाला है, कफ, पित्त, तृषा, रक्त, विष, विसर्प, मूत्रकृच्छ्र, दाह, और घाव, इनको हरनेवाला है ॥ ८५ ॥ अथ खशनामगुणाः. वीरणस्य तु मूलं स्यादुशीरं नलदं च तत् । अमृणालं च सेव्यं च समगन्धिकमित्यपि ॥ ८६ ॥ उशीरं पाचनं शीतं स्तम्भनं लघु तिक्तकम् । मधुरं ज्वरहृतांतिमदनुत् कफपित्तहत् ॥ ८७ ॥ तृष्णास्त्रविषवीसर्पदाहरूच्छ्रव्रणापहम् । टीका-नलद १, उशीर २, अमृणाल ३, सेव्य ४, सुगंधिक ५, ये खशके पांच नाम हैं ॥ ८६ ॥ ये पाचन, शीतल, स्तंभन, और हलका, तिक्त, मधुर है; ज्वर, वमन, मद, इनको हरनेवाला है, और कफ, पित्तका हरनेवाला है ॥८७॥ तथा तृषा, रक्त, विष, विसर्प, दाह, मूत्रकृच्छ्र, और घावोंकाभी नाश करनेवाला है. अर्थ जटामांसीनामगुणाः. जटामांसी भूतजटा जटिला च तपस्विनी ॥ ८८ ॥ मांसी तिक्ता कषाया च मेध्या कान्तिबलप्रदा। स्वादी हिमा त्रिदोषानदाहवीसर्पकुष्ठनुत् ॥ ८९ ॥ टीका-जटामांसी १, भूतजटा २, जटिला ३, तपस्विनी ४, ये जटामांसीके ५, नाम हैं ॥ ८८ ॥ ये तिक्त, कसेली, पवित्र, कान्ति और बलकों बढानेवाली है, मधुर और शीतल है, त्रिदोष, रक्त, दाह, विसर्प, और कुष्ठ इनकों जीतनेवाली है ॥ ८९॥ शैलेय(भूरछरील)नामगुणाः. शैलेयं तु शिलापुष्पं वृद्धं कालानुसार्यकम् । शैलेयं शीतलं हृद्यं कफपित्तहरं लघु ॥ ९०॥ कण्डूकुष्ठाइमरीदाहविषड्दरक्तहृत् । For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-शैलेय १, शिलापुष्प २, वृद्ध ३, कालानुसार्यक ४, ये भूरछरीलके नाम हैं. ये शीतल, हृदयका प्रिय करनेवाला, कफपित्तका हरनेवाला है ॥९०॥ और खुजली, कुष्ठ, पथरी, दाह, तथा विष, इनका हरनेवाला है, और गुदाके रक्तका हारक है इसको लौकिकमें वालछड वोलते हैं. अथ मुस्ता(नागरमोथा)नामगुणाः. मुस्तकं च स्त्रियां मुस्तं त्रिषु वारिदनामकम् ॥ ९१ ॥ कुरुविन्द असंख्यातोऽपरः कोडकसेरुकः। भद्रमुस्तं च गुन्द्रा च तथा नागरमुस्तकः ॥ ९२ ॥ मुस्तं कटु हिमं ग्राहि तिक्तं दीपनपाचनम् । कायं कफपित्तास्त्रज्वरारुचिजन्तुहृत् ॥ ९३ ॥ अनूपदेशे यजातं मुस्तकं तत् प्रशस्यते। तत्रापि मुनिभिः प्रोक्तं वरं नागरमुस्तकम् ॥ ९४ ॥ टीका-मुस्तक १, मुस्त २, वारिद ३, ॥ ९१ ॥ कुरुविंद ४, संख्यात ५, क्रोड ६, कसेरुक ७, भद्रमुस्त ८, गुन्द्रा ९, नागरमुस्तक १०, ये नागरमोथाके नाम हैं ॥ ९२ ॥ ये कडवा और शीतल है, दस्तोंकों रोकनेवाला है, तिक्त और दीपन है, पाचन है कसेला है, कफ, रक्त, पित्त, तृषा, ज्वर, अरुचि, और कृमि इनका हरनेवाला है ॥ ९३ ॥ और अनूप देशका उत्पन्न भया नागरमोथा उत्तम कहा है ये मुनियोंने इस्मेंभी नागरमोथा श्रेष्ठ कहा है ॥ ९४ ॥ अथ कचूरनामगुणाः. क—रो वेधमुखश्च द्राविडः कल्पकः शटी । क—रो दीपनो रुच्यः कटुकस्तिक्त एव च ॥९५॥ सुगंधिः कटुपाकः स्यात् कुष्ठाझेव्रणकासनुत् । उष्णो लघुर्हरेच्छासं गुल्मवातकफकृमीन् ॥ ९६ ॥ टीका-कचूर १, वेदमुख्य २, द्राविड ३, कल्पक ४, शटी ५, ये कचूरके नाम हैं; ये दीपन, है रुचिकारक, कडवा, और तिक्त है ॥ ९५ ॥ सुगंधियुक्त और पाकमें कटु होता है, तथा कुष्ठ, बवासीर, घाव, और कास, इनकाभी हारक For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। है, और गरम, हलका, तथा श्वास, वायगोला, वात, कफ, और कृमि, इनकोंभी हरनेवाला है ॥ ९६ ॥ अथ एकागीनामगुणाः. मुरा गन्धकटी दैत्या सुरभिः शालपर्णिका। मुरा तिक्ता हिमा स्वादी लघ्वी पित्तानिलापहा ॥ ९७॥ ज्वरासृग्भूतरक्षोनी कुष्ठकासविनाशिनी। टीका-मुरा १, गन्धकटी २, दैत्या ३, सुरभि ४, शालपर्णिका ५, ये एकागीके नाम हैं. ये तिक्त है, और शीतल, मधुर, हलकी, तथा पित्तवातकों नाश करनेवाली है ॥ ९७ ॥ और ज्वर, रक्त, भूत, राक्षस, तथा कुष्ठ, कास, इनकी नाश करनेवाली है, ये इसलोकमें मरोडफली नामसे विख्यात है. अथ गन्धपलाशीनामगुणाः. शठी पलाशी षड्ग्रन्था सुव्रता गन्धमूलिका ॥ ९८॥ गन्धारिका गन्धवधूर्वधूः पृथुपलाशिका । भवेद्धपलाशी तु कषाया ग्राहिणी लघुः ॥ ९९ ॥ तिक्ता तीक्ष्णा च कटुका उष्णास्यमलनाशिनी। शोथकासव्रणश्वासशूलहिध्मग्रहापहा ॥ १०॥ टीका-ये सुगन्धद्रव्य काश्मीरदेशमें प्रसिद्ध है. और ये कचूरके किस्मसे होती है. शठी १, पलाशी २, षग्रंथा ३, सुव्रता ४, गंधमूलिका ५॥ ९८ ॥ गन्धारिका ६, गन्धवधृ ७, पृथुपलाशिका ८, ये गन्धपलाशीके नाम हैं; ये कसैली होती है, और दस्तकों रोकती है, और हलकी है ॥ ९९ ॥ और तीखी, कडवी, उष्ण होती है, मुखके मलको हरनेवाली है, सूजन, कास, घाव, श्वास, शूल, हिध्म, ग्रह, इनकी हारक है ॥ १०॥ अथ प्रियङ्गुगन्धप्रियङ्गनामगुणाः. प्रियङ्गुः फलिनी कान्ता लता च महिलाह्वया। गुन्द्रा गुन्द्रफला श्यामा विष्वक्सेनाङ्गनाप्रिया ॥ १०१॥ For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे प्रियङ्गुः शीतला तिक्ता तुवरानिलपित्तहत् । रक्तातियोगदौर्गन्ध्यस्वेददाहज्वरापहा ॥ १०२॥ गुल्मतृविषमोहनी तद्वद्गन्धप्रियङ्गुका। तत्फलं मधुरं रूक्षं कषायं शीतलं गुरु ॥ १०३ ॥ विवन्धाध्मानबलकत् संग्राही कफपित्तजित् । टीका-प्रियंगु, फलनी, कान्ता, लता, महिलाहया, गुन्द्रा, गुन्द्रफला, श्यामा, विष्वक्सेना, अंगनामिया, ये प्रियंगुके नाम हैं ॥ १०१॥ ये शीतल, तिक्त, कसेला, वातपित्तका हरनेवाला, और रक्तका अतियोग है, दुर्गंधता, पसीना, दाह, ज्वर, इनका हरनेवाला है ॥ १०२ ॥ तथा वायगोला, तृषा, विष, इनकाभी हारक है, और इसीके समानगन्ध प्रियंगुभी है, उसका फल मधुर, रूखा, कसेला, और शीतल, होता है, और भारी होता है ॥ १०३ ॥ विवंध, अफरा, और बल इनकों करनेवाला है, तथा मलका अवरोध करनेवाला है, कफपित्तका हरनेवाला है. अथ रेणुकामरिचसहशा. रेणुका राजपुत्री च नन्दिनी कपिला द्विजा ॥ १०४ ॥ भस्मगन्धा पाण्डुपुत्री स्मृता कौन्ती हरेणुका । रेणुका कटुका पाके तिक्ता चोष्णा कटुर्लघुः ॥ १०५॥ पित्तला दीपनी मेध्या पाचनी गर्भपातिनी । बलासवातकच्चैव तृटुकण्डविषदाहनुत् ॥ १०६ ॥ टीका-ये मिरचके सदृश सुगंधद्रव्य होता है, रेणुका १, राजपुत्री २, नन्दनी ३, कपिला ४, द्विजा ॥ १०४ ॥ भस्मगंधा ५, पाण्डुपुत्री ६, कौन्ती ७, हरेणुका ८, ये रेणुकाके नाम हैं. ये पाकमें कडवी, तिक्त, गरम, कटु, हलकी, ॥ १०५ ॥ और पित्तकों करनेवाली, दीपन, बुद्धिको बढानेवाली, पाचन, गर्मिकों गिरानेवाली है, कफवातकारक तथा तृषा, खुजली, विष, दाह, इनकी हारक है ॥ १०६॥ अथ ग्रंथिपर्ण(ठिवन)नामगुणाः. ग्रन्थिपर्ण ग्रन्थिकं च काकपुच्छं च गुच्छकम् । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः । नीलपुष्पं सुगन्धं च कथितं तैलपर्णकम् ॥ १०७ ॥ ग्रन्थिपर्णं तिक्ततीक्ष्णं कटूष्णं दीपनं लघुः । कफवातविषश्वासकण्डूदौर्गन्ध्यनाशनम् ॥ १०८ ॥ -- टीका - ग्रन्थिपर्ण १, ग्रन्थिक २, काकपुच्छ ३, गुच्छक ४, नीलपुष्प ५, सुगन्ध ६, तैलपर्णक ७, ये भटोरा के नाम हैं ॥ १०७ ॥ ये तिक्त, तीक्ष्ण, कटु, और गरम, दीपन, लघु, है. और कफ, वात, विष, श्वास, कण्डू, तथा दुर्गन्धि, इनका हरनेवाला है ॥ १०८ ॥ अथ ग्रन्थिपर्णस्यैव भेद ईषत्सुगन्धः स्थौणेयं (थर) इति लोके प्रसिद्धं तद्गुणाः. ६९ स्थाणेयकं बार्हिर्षं च शुक्रबर्ह च कुक्कुरम् । शीर्षरोम शुकं चापि शुष्कपुष्पं शुकच्छदम् ॥ १०९ ॥ स्थाणेयकं कटु स्वादुतितं स्निग्धं त्रिदोषनुत् । मेधाशुक्रकरं रुच्यं रक्षोघ्नं ज्वरजन्तुजित् ॥ ११० ॥ हन्ति कुष्ठातृड्दाहदौर्गन्ध्यतिलकालकान् । टीका–भटोराहीके भेद कुछ सुगंधवाला स्थाणेय अर्थात् धनेर नामसें प्रसिद्ध है. थौणेयिक १, बर्हिष २, शुक्रबई ३, कुकुर ४, शीर्षरोम ५, शुक ६, शुष्कपुष्प ७, शुकच्छद ८, ये नाम हैं ॥ १०९ ॥ ये कडवा, मधुर, तिक्त, स्निग्ध, त्रिदोषहारक, और बुद्धि, शुक्र इनका पैदा करनेवाला है, रुचिकारक, राक्षसोंका नाशक, और ज्वर, तथा कृमि, इनकभी जीतनेवाला है ॥ ११० ॥ और कुष्ठ, रक्त, तृषा, दाह, दुर्गंधता, तथा तिलकालक, इनकाभी हरनेवाला है, इस देशमें इसकों करोंदा कहते हैं. अथ ग्रन्थिपर्णस्यैव भेदः (भटेउर) इति नेपालदेशे भवति तद्गुणाः. निशाचरो धनहरो कितवो गणहालकः ॥ १११ ॥ रोचको मधुरस्तिक्तः कटुपाके कटुर्लघुः । For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे तीक्ष्णो द्यो हिमो हन्ति कुष्ठकण्डूकफानिलान् ॥ ११२ ॥ रक्षः श्रीस्वेदमेदोस्त्रज्वरागन्धविषव्रणान् । टीका -- करोंदेकी किस्मसें भटेहर एक द्रव्य नेपालदेशमें उत्पन्न होता है उसकेनाम ये हैं. निशाचर १, धनहर, कितव, गणहालक ये भटेउरके नाम हैं ॥ १११ ॥ ये रुचिके करनेवाला होता है, मधुर, और तिक्त, तथा पाकमें कडवा, हलका है, और तीक्ष्ण है, हृदयकों प्रिय है, और शीतल होता है, तथा कुष्ठ, कण्डू, कफ, और बात, इनकों हरनेवाला है ॥ ११२ ॥ और राक्षस, कांति, पसीना, मेद, रक्तज्वर, गंध, विष, व्रण, इनकाभी हरनेवाला है. अथ तालीसपत्रनामगुणाः. तालीसमुक्तं पत्राढ्यं धातृपत्रं च तत्स्मृतम् ॥ ११३॥ तालीसं लघुतीक्ष्णोष्णं श्वासकासकफानिलान् । निहन्त्यरुचिगुल्मादिवह्निमान्द्यक्षयामयान् ॥ ११४॥ टीका - तालीस, पत्राढ्य, धात्रीपत्रु ये नाग हैं ॥ ११३ ॥ ये हलका, तीखा, गरम, है. श्वास, कास, वात, इनको हरनेवाला है; अरुचि, गुल्म, अग्निमांद्य, और क्षयरोग, इनकों भी जीतनेवाला है ॥ ११४ ॥ अथ कंकोलनामगुणाः. कङ्कलं कोलकं तथा कोशफलं स्मृतम् । कङ्कलं लघु तीक्ष्णोष्णं तिक्तं हृद्यं रुचिप्रदम् ॥ ११५ ॥ ॥ आस्य दौर्गन्ध्यहृद्रोग कफवातामयान्ध्यहृत् । टीका - कंकोल, कोलक कोशफल, ये नाम हैं. कंकोल हलका और तीखा, गरम, तथा तिक्त, हृदयका प्रिय, और रुचिकों देनेवाला है ॥ ११५ ॥ मुखकी दुर्गता तथा हृदयरोग, कफ, वात, और आध्मान इनको हरनेवाला है. इसकों सीतलचीनी भी कहते हैं. अथ गन्धकोकिलानामगुणाः. स्निग्धोष्णा कफहत्तिका सुगन्धा गंधकोकिला ॥ ११६ ॥ गन्धकोकिलया तुल्या विज्ञेया गन्धमालती । For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्पूरादिवर्गः। ७१ टीका-गन्धकोकिला गन्धमालतीकों कहते हैं. ये चमेलीकीतरह सुगंधयुक्त होती है ॥ ११६ ॥ और स्निग्ध, गरम, कफकों दूर करनेवाली तथा तिक्त सुगन्ध इसप्रकार गंधकोकिला होती है और इसीके सदृश गंधमालतीभी जानना. अथ लामजकमुशीरवत्पीतच्छवि तृणविशेषः. लामजकं सुतालं स्यादमृणालं लयं लघुः ॥ ११७॥ इष्टकापथकं सेव्यं नलदं चावदातकम् । लामजकं हिमं तिक्तं लघु दोषामयास्त्रजित् ॥ ११८॥ स्वगामयस्वेदकृच्छ्रदाहपित्तास्त्ररोगनुत् । टीका-लामज्जकनामकी खशके सदृश पीली घास होती है. लामज्जक १, सुनाल २, अमृणाल ३, लयलघु ४, ये लामज्जकके नाम हैं ॥ ११७ ।। और इटकापथक, सेव्य, नलद, अवदातक, येभी इसीके नाम हैं, ये शीतल, तिक्त, हलकी, होती है त्रिदोषकी हरनेवाली है ॥ ११८॥ और बचाके रोग, पसीना, मूत्रकृच्छ, तथा दाह, और रक्तपित्त, इनकीभी हरनेवाली है. अथ एलवालुकं ककोलसदृशं कुष्ठगन्धि तद्गुणाः. एलवालुकमैलेयं सुगन्धि हरिवालुकम् ॥ ११९ ॥ एलवालुकमेलालुकपित्थं पत्रमीरितम् । एल्वालु कटुकं पाके कषायं शीतलं लघु ॥ १२०॥ हन्ति कण्डूव्रणछर्दितृट्कासारुचिहृदुजः। बलासविषपित्तास्त्रकुष्ठमूत्रगदकमीन् ॥ १२१ ॥ टीका-एलवालकनाम शीतल चीनीकेसदृश कूटके गन्धयुक्त होता है. इसकों वालुककडीभी कहते हैं. एलवालक १, ऐलेय २, सुगन्धि ३, हरिवालुक ४, ॥११९॥ एलवालुक एलालु कथितपत्र ये एलुवालकके नाम हैं. ये कडवा और पाकमें कसेला होता है, शीतल, हलका, होता है ॥ १२० ॥ और खुजली, घाव, वमन, तृषा, कास, और अरुचि इनका हरनेवाला है, और पीडा, कफ, विष, पित्त, रक्त, कुष्ठ, मूत्ररोग, तथा कृमि इनका हरनेवाला है ॥ १२१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. हरीतक्यादिनिघंटे अथ जलमोथानामगुणाः. (गुडतजी इति च इयं तु वितुन्नकनानो वृक्षस्य त्वक् मुस्ताकतिः) कुटन्नटं दासपुरं वालेयं परिपेलवम् । प्लवगोपुरगोनर्दकैवर्तीमुस्तकानि च ॥ १२२ ॥ मुस्तावत्पेलवं पुष्टं शुक्राभं स्याद्वितुन्नकम् । वितुन्नकं हिमं तिक्तं कषायं कटु कान्तिदम् ॥ १२३ ॥ कफपित्तास्त्रवीसर्पकुष्टकण्डूविषप्रणुत् । टीका-कुटन्नट, दासपुर, वालेय, परिवेलव, प्लव, गोपुर, गोनर्द, कैवर्ती, मुस्तक ।। १२२ ॥ मोथाके सदृश पेलव, पुष्ट, शक्राभ, वितुन्नक, ये जलमोथांके नाम हैं. ये शीतल, तिक्त, कसेला, तथा कडवा है, और कान्तिको देनेवाला है ॥ १२३ ॥ और कफ, रक्त, विसर्प, कुष्ठ, खुजली, तथा विष, इनकाभी नाशक है. अथ स्टकासुगंधद्रव्यनामगुणाः. स्टक्कासृक् ब्राह्मणी देवी मरुन्माला लता लघुः ॥१२४॥ समुद्रान्ता वधूः कोटिवर्षालङ्कोपिकेत्यपि । स्टक्का स्वादी हिमा वृष्या तिक्ता निखिलदोषनुत् ॥१२५॥ कुष्ठकण्डूविषस्वेददाहास्त्रज्वररक्तहृत् । टीका-स्पृक्कानामका एक सुगंधद्रव्य शाकविशेष है, इसकों पिंडितशाक कहते हैं. स्पृक्का, असृक्, ब्राह्मणी, देवी, मरुन्माला, लता ॥ १२४ ॥ समुद्रान्ता, वधू, कोटिवर्षा, लंकोपिका, ये स्पृक्काके नाम हैं. स्वरकों मधुर, शीतल, धातुनको बढानेवाला है, तिक्त है, संपूर्ण दोषोंका हरनेवाला है ॥१२॥ और कुष्ठ, खुजली, विष, पसीना, दाह, रक्तज्वर, तथा रक्त इनकाभी हरनेवाला है. ___ अथ पर्पटी(पद्मावती)नामगुणाः. पर्पटा रञ्जना कृष्णा जतुक्ता जननी जनी ॥ १२६ ॥ जतु कृष्णाग्निसंस्पर्शा जतुरुचक्रवर्तिनी । पर्पटी तुवरा तिक्ता शिशिरा वर्णकल्लघुः ॥ १२७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करादिवर्गः। विषव्रणहरी कण्डकफपित्तास्त्रकुष्ठनुत् । टीका-पर्पटी जो है सो पद्मावतीनामसे उत्तरदेशमें प्रसिद्ध है, और मालवेमें इसको चकवत कहते हैं. पर्पटी, रंजना, कृष्णा, जतुका, जननी, जनी ॥ १२६ ॥ जतु, कृष्णा, अग्निसंस्पर्शा, जतुकृत्, चक्रवर्तिनी, पापडी कसेली है, तिक्त और शीतल है, रंगकों अच्छा करनेवाली, और हलकी है ॥ १२७ ॥ और विष तथा घावोंकी हरनेवाली तथा खुजली, कफ, रक्तपित्त, कुष्ठ, इनकोंभी जीतनेवाली है. अथ नलिका(यवारी)नामगुणाः. नलिका विद्रुमलता कपोतचरणा नटी ॥ १२८ ॥ धमन्यञ्जनकेशी च निर्मध्या सुषिरा नली। नलिका शीतला लघ्वी चक्षुष्या कफपित्तहत् ॥ १२९ ॥ कच्छ्राश्मवाततृष्णास्त्रकुष्ठकण्डूज्वरापहा । टीका-ये नलिकानामसे उत्तरदेशमें प्रसिद्ध है. रवरि पारेके सदृश है और यवरीनामसें प्रसिद्ध है. नलिका, विद्रुमलता, कपोतचरणा, नटी, ॥ १२८॥ धमनी, अंजनकेशी, निर्मध्या, सुषिरा, नली, ये नलीके नाम हैं. ये शीतल, हलकी, नेत्रके हितकारक, कफपित्तहारक, ॥ १२९ ॥ तथा मूत्रकृच्छ्र, पथरी, वात, वृषा, रक्तकुष्ठ, खुजली, ज्वर, इनकी हरनेवाली है. अथ प्रपौण्डरीक(पुण्डेरी)नामगुणाः. प्रपौण्डरीकं पौण्डर्य चक्षुष्यं पौण्डरीयकम् ॥ १३०॥ पौण्डयं मधुरं तिक्तं कषायं शुक्रलं हिमम् । चक्षुष्यं मधुरं पाके वयं पित्तकफप्रणुत् ॥ १३१॥ इति भावमिश्रविरचिते हरीतक्यादिनिघंटे कर्पूरादि वर्गः समाप्तः ॥ २॥ टीका-प्रपौंडरीक ये सुगंधिद्रव्य है और पुंडेरीनामसे प्रसिद्ध है. प्रपौंडरीक १, पौंडर्य २, चक्षुष्य ३, पौंडरीयक ४, यह पुंडरीके नाम हैं. ॥१३०॥ ये मधुर, तिक्त, कसेली, शुक्रकों पैदा करनेवाली, और शीतल है, नेत्रोंकों हितकारक पाकमें मधुर, वर्णकों श्रेष्ठ करनेवाली है तथा पित्त कफकी नाशक है ॥ १३१ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे बालबोधनीटीकायां कपूर्रादिवर्गः समाप्तः ॥२॥ १० For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे गुडूच्यादिवर्गः। अथ गुडूच्या उत्पत्तिर्नामानि गुणाश्च. अथ लंकेश्वरो मानी रावणो राक्षसाधिपः । रामपत्नी बलात्सीतां जहार मदनातुरः ॥ १॥ ततस्तं बलवान् रामो रिपुं जायापहारिणम् । ततो वानरसैन्येन जघान रणमूर्धनि ॥२॥ टीका-अथ गुडूची अर्थात् गिलोयकी उत्पत्ति लिखते हैं. अभिमानी राक्षसोंका राजा लंकेश्वर रावण कामातुर होके श्रीरामचंद्रकी पत्नी सीताको बलकरके हर ले गया ॥ १ ॥ फिर बलवान श्रीरामचंद्रने अपनी पत्नीके चुरानेवाले शत्रूकों वानरोंकी सेना संग ले रणमें मारा ॥२॥ हते तस्मिन् सुरारातौ रावणे बलगविते । देवराजः सहस्राक्षः परितुष्टोऽतिराघवे ॥३॥ तत्र ये वानराः केचिद्राक्षसैनिहता रणे। तानिन्द्रो जीवयामास संसिच्यामृतवृष्टिभिः॥४॥ ततो येषु प्रदेशेषु कपिगात्रात् परिच्युताः।। पीयूषबिन्दवः पेतुस्तेभ्यो जाता गुडूचिका ॥ ५॥ टीका-बलकरिके गर्वित देवताओंके शत्रु रावणके मरनेसें देवताओंका राजा इन्द्र श्रीरामचंद्रपर बहुत प्रसन्न हुआ॥३॥ उस रणमें राक्षसोंके हाथसें मारेगये जो वानर तिनकों इन्द्रनें अमृतकी वर्षाकर सींच जिवादिया ॥४॥ जिसदेशमें वानरोंके शरीरोंसें अमृतकी बूंद गिरी उससे गुडूची अर्थात् गिलोय पैदा हुई ॥५॥ गुडूची मधुपर्णी स्यादमृतामृतवल्लरी । For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। छिन्ना छिन्नरुहा छिन्नोद्भवा वत्सादनीतिच ॥ ६॥ जीवन्ती तन्त्रिका सोमा सोमवल्ली च कुण्डली । चक्रलक्षणिका धीरा विशल्या च रसायनी ॥७॥ चन्द्रहासी वयस्था च मण्डली देवनिर्मिता। गुडूची कटुका तिक्ता स्वादुपाका रसायनी ॥८॥ संग्राहिणी कषायोष्णा लवी बल्याग्निदीपनी। दोषत्रयामतृड्दाहमेहकासांश्च पाण्डुताम् ॥ ९ ॥ कामलाकुष्ठवातास्त्रज्वरकमिवमीन हरेत् ।। प्रमेहश्वासकासाशकच्छ्रहृद्रोगवातनुत् ॥ १० ॥ टीका-अब गिलोयके नाम लिखते हैं. गुडूची १, मधुपर्णी २, अमृता ३, अमृतवल्लरी ४, छिन्ना ५, छिन्नरहा ६, छिन्नोद्भवा ७, मत्स्यादनी ८॥६॥ जीवंती ९, तत्रिका १०, सोमा ११, सोमवल्ली १२, कुंडली १३, चक्रलक्षणिका १४, धीरा १५, विशल्या १६, रसायनी १७ ॥७॥ चन्द्रहासी १८, वयस्था १९, मण्डली २०, देवनिर्मिता २१, ये गिलोयके नाम हैं. ये कडवी, तिक्त, पाकमें मधुर, रसायनी है ॥ ८॥ संग्राहिणी, तथा कसेली, गरम, और हलकी होती है. बलको करनेवाली, अग्निकों दीपन करनेवाली, और त्रिदोष, आम, तृषा, दाह, प्रमेह, कास, पाण्डु ॥ ९॥ कामला, कुष्ठ, वात, रक्त, ज्वर, कृमि, वमन, इनकों हरनेवाली है. और प्रमेह, श्वास, कास, बवासीर, मूत्रकृच्छ्र, हृदयरोग, वातरोग, इनकोंभी हरनेवाली है ॥ १०॥ अथ पाननामगुणाः. ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागनी नागवल्लरी । ताम्बूलं विशदं रुच्यं तीक्ष्णोष्णं तुवरं सरम् ॥ ११ ॥ वश्यं तिक्तं कटु क्षारं रक्तपित्तकरं लघु । बल्यं श्लेष्मास्यदौर्गन्ध्यमलवातश्रमापहम् ॥ १२॥ टीका-ताम्बूलवल्ली १, ताम्बूली २, नागिनी ३, नागवल्लरी ४, ये पानके नाम हैं. ताम्बूल विशद, रुचिकों करनेवाला, तीक्ष्ण, और गरम, कसेला और For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे सर ऐसा है ॥ ११ ॥ वशीकरण है, तिक्त, कटु, क्षार, तथा रक्तपित्तका करनेवाला, और हलका, बलकों बढानेवाला तथा कफ और मुखकी दुर्गधिता, मल, वात, और श्रम, इनका हरनेवाला है ॥ १२ ॥ अथ(बल)नामगुणाः. बिल्वः शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि । श्रीफलस्तुवरस्तिक्तो ग्राही रूक्षोऽग्निपित्तकृत् ॥ १३ ॥ वातश्लेष्महरो बल्यो लघुरुष्णश्च पाचनः। टीका-बिल्व १, शांडिल्य २, शैलूष ३, मालूर ४, श्रीफल ५, ये बेलके नाम हैं. ये कसेला और तिक्त ग्राही, और रूखा है. अग्नि तथा पित्तकों बढानेवाला है ॥ १३ ॥ वातकोंका हरनेवाला, बलका करनेवाला, तथा हलका और गरम तथा पाचन है. अथ गम्भारी(कुंभेर)नामगुणाः. गम्भारी भद्रपर्णी च श्रीपर्णी मधुपर्णिका ॥ १४ ॥ काश्मीरी काश्मरी हीरा काश्मयः पितरोहिणी । कृष्णदन्ता मधुरसा महाकुसुमिकापि च ॥ १५ ॥ काश्मरी तुवरा तिक्ता वीर्योष्णा मधुरा गुरुः। दीपनी पाचनी मेध्या भेदनी भ्रमशोषजित् ॥ १६ ॥ दोषतृष्णामशुलाशोंविषदाहज्वरापहा । तत्फलं बृंहणं वृष्यं गुरु केश्यं रसायनम् ॥ १७ ॥ वातपित्ततृषारक्तक्षयमूत्रविबन्धनुत् । स्वादु पाके हिमं स्निग्धं तुवराम्लविशुद्धिकत् ॥ १८॥ हन्यादाहतृषावातरक्तपित्तक्षतक्षयात् ।। टीका-गंभारी १, भद्रपर्णी २, श्रीपर्णी ३, मधुपर्णिका ४,॥१४॥ काश्मीरी ५, काश्मरी ६, हीरा ७, काश्मर्या ८, पीतरोहिणी ९, कृष्णदन्ता १०, मधुरसा ११, महाकुमुमिका १२, ये कंभारी अर्थात् कुंभेरके नाम हैं ॥१५॥ ये कसेली, तिक्त, वीर्यमें For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ गडूच्यादिवर्गः। ७७ गरम, मधुर, और भारी है, दीपन और पाचन, कांतिको बढानेवाली, भेदन करनेवाली, भ्रम और शोषकों जीतनेवाली है ॥ १६ ॥ दोष, तृषा, आमशूल, ववासीर, विष, दाह, और ज्वर, इनको हरनेवाली. इसका फल पुष्ट है, वीर्यकों उत्पन्न करनेवाला, रसायन है ॥ १७ ॥ और वात, पित्त, तृषा, रक्तक्षय, मूत्रका बंदहोना, इनको हरनेवाला है, और पाकमें मधुर, शीतल, चिकना, तथा कसेला, और खट्टा होता है, शुद्धिकों करनेवाला है ॥ १८॥ और दाह, तृषा, वात, रक्त, पित्त, क्षत, तथा क्षयकोंभी हरनेवाला जानना. अथ पाटली(पाण्डरीकण्ठपाण्डरी)नामगुणाः. पाटलिः पाटला मोघा मधुदूती फलेरुहा ॥ १९॥ कृष्णवन्ता कुबेराक्षी कालस्थाल्यलिवल्लभा । ताम्रपुष्पी च कथिता परा स्यात्पाटला सिता ॥ २० ॥ मुष्कको मोक्षको घण्टा पाटलिः काष्ठपाटला। (कालस्थालीत्यत्र काचस्थालीत्येके) टीका-पाटलि १, पाटला २, मोघा ३, मधुदूती ४, फलेरुहा ५ ॥ १९॥ कृष्णता ६, कुबेराक्षी ७, कालस्थाली ८, अलिवल्लभा ९, ताम्रपुष्पी १०, ये पाटलाके नाम कहे. और दूसरी पाटला सिता १ ॥ २० ॥ मुष्कक २, मोक्षक ३, घण्टा ४, पाटली ५, काष्ठपाटला ६, ये काष्ठपाटलाके नाम हैं. पाटला तुवरा तिक्ता चोष्णा दोषत्रयापहा ॥ २१ ॥ अरुचिश्वासशोथास्त्रछर्दिहिक्कातृषाहरा । पुष्पं कषायं मधुरं हिमं हृद्यं कफास्त्रनुत् ॥ २२ ॥ पित्तातीसारहत्कण्ठ्यं फलं हिक्कास्त्रपित्तहत् । टीका-कालस्थाली यहांपर कोई काचस्थालीभी कहते हैं. ये कसेली, तिक्त, शीतल, तीनों दोषोंके नाश करनेवाली ॥ २१ ॥ अरुचि, श्वास, शोथ, रक्तवमन होना, तृषा, इनकी हरनेवाली है, और इसका पुष्प कसेला, और मधुर, तथा शीतल, हृदयकों हितकारी, कफ, तथा रक्तका नाशक है, पित्तातीसारको हरनेवाला है ॥ २२॥ कंठकों अच्छा करनेवाला है, और उसका फल, हुचकी, तथा रक्तपित्त, और कफका नाशक है. For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ अग्निमंथ (अगेंथ, गनियारी) नामगुणाः. अग्निमन्थो जयः स स्याच्छ्रीपर्णी गणिकारिका ॥ २३ ॥ जया जयन्ती तर्कारी नादेयी वैजयन्तिका । अग्निमन्थः श्वयथुनुद्वीर्योष्णः कफवातहृत् ॥ २४ ॥ पाण्डुनुत् कटुकस्तिक्तस्तुवरो मधुरोऽग्निदः । टीका - अगेन्थकों गनियारी भी कहते हैं. अग्निमन्थ, जय, श्रीपर्णी, गणिकारका ॥ २३ ॥ जया, जयन्ती, तर्कारी, नादेयी, वैजयन्तिका, ये अरनीके नाम हैं. ये शोधकी नाशक, वीर्यमें गरम, कफवातकों दूर करनेवाली || २४ || पाण्डुरोगकी नाशक, और कडवी तिक्त, कसेली, मधुर, अनिकों करनेवाली है, इसकों अरभी कहते हैं. अथ स्योनाक (सोनापाठा) गुणाः. स्योनाकः शोषणश्च स्यान्नटकटुटुटुकाः ॥ २५ ॥ मण्डूकपर्णपत्रोर्णशुकनाशः कुटन्नटा । दीर्घवृन्तोऽश्वापि पृथुशिम्बः कटंभरः ॥ २६ ॥ स्योनाको दीपनः पाके कटुकस्तुवरो हिमः । ग्राही तिक्तोऽनिलश्लेष्मपित्तकासप्रणाशनः ॥ २७ ॥ टुण्टुकस्य फलं बालं रूक्षं वातकफापहम् । हृद्यं कषायं मधुरं रोचनं लघु दीपनम् ॥ २८ ॥ गुल्मार्शःकृमिहृत्प्रौढं गुरु वातप्रकोपनम् । टीका - स्योनाक, शोषण, नट, कटुंग, टुक || २५ || मंडूकपर्ण, पत्रोर्ण, शुकनास, कुटन्नट, दीर्घवृन्त, अरलु, पृथुशिम्ब, कटम्भर, ये सोनापाठा के नाम हैं ॥ २६ ॥ ये दीपन, पाकमें कटु, और कसेला तथा शीतल है, दस्तोंकों बंद करनेवाला, तिक्त, और वात, पित्त, कफ, इनका हरनेवाला है || २७ || और इसका कच्चा फल रूखा है, वातकफोंका हरनेवाला, हृदयका हितकारी, कसेला, रुचिकों करनेवाला, हलका, और दीपन है ॥ २८ ॥ वायगोला, बवासीर, For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। और कृमि, इनकामी हरनेवाला है. और इसका पका फल भारी है, वातको कुपित करनेवाला है. इसकों स्योनाक कहते हैं. अथ बहत्पञ्चमूललक्षणगुणाः. श्रीफलः सर्वतोभद्रा पाटला गणिकारिका ॥ २९॥ स्योनाकः पंचभिश्चैतैः पंचमूलं महन्मतम् । पञ्चमूलं महत्निक्तं कषायं कफवातनुत् ॥३०॥ मधुरं श्वासकासनमुष्णं लघ्वग्निदीपनम् । टीका:-श्रीफल १, सर्वतोभद्र २, पाटला ३, गणिकारिका ४ ॥२९॥ सो. नापाठा ५, इन पांचोंसें बृहत्पंचमूल होता है. ये तिक्त, कसेला, और कफ, वातका हरनेवाला, है ॥ ३० ॥ और मधुर है, श्वास कासका नाशक, गरम, हलका, अग्निका दीपन करनेवाला है. अथ शालिपर्णी(सरिवन)नामगुणाः. शालिपर्णी स्थिरा सौम्या त्रिपर्णी पीवरी गुहा ॥३१॥ विदारिगन्धा दीर्घाङ्गी दीर्घपात्रांशुमत्यपि । शालिपी गुरुच्छर्दिज्वरश्वासातिसारजित् ॥३१॥ शोषदोषत्रयहरी बृंहण्युक्ता रसायनी। तिक्ता विषहरी स्वादुः क्षतकासकमिप्रणुत् ॥ ३३ ॥ टीका-शालिपर्णी, स्थिरा, सौम्या, त्रिपर्णी, पीवरी, गुहा ॥ ३१ ॥ विदारिगंधा, दीर्घाङ्गी, दीर्घपत्रा, अंशुमती, ये सरवनके नाम हैं. ये भारी है और वमन, ज्वर, श्वास, तथा अतीसारको हरनेवाला है ॥ ३२ ॥ शोप, त्रिदोष, इनका हरनेवाला है, और धातुओंका पुष्ट करनेवाला, और रसायन तिक्त और विषका नाशक, मधुर, क्षत, कास, और कमी, इनका हरनेवाला है. इसका नाम शालिपर्णी प्रसिद्ध है ॥ ३३॥ अथ एश्चिपर्णी(पिठवन)नामगुणाः. एनिपर्णी पृथक्पर्णी चित्रपर्ण्यहिपर्ण्यपि। For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे कोष्टविन्ना सिंहपुच्छी कलशी धावनी गुहा ॥ ३४॥ पृश्निपर्णी त्रिदोषघ्नी वृष्योष्णा मधुरा सरा। हन्ति दाहज्वरश्वासरक्तातीसारतृड्वमीन् ॥ ३५॥ टीका-पृश्निपर्णी, पृथक्पर्णी चित्रपर्णी, अहिपर्णी, क्रोष्ठविन्ना, सिंहपुछी, कलशी, धावनी, गुहा ये पिठवनके नाम हैं, ॥ ३४ ॥ ये त्रिदोषकी नाशक और धातुकों पुष्ट करनेवाली, गरम, मधुर, और सर है, और दाह, ज्वर, श्वास, तथा रक्तातीसार, तृषा, और वमन, इनको हरनेवाली है. इसको लौकिकमें पृष्टपर्णी ऐसाभी कहते हैं ॥ ३५ ॥ अथ वार्ताकी(बडीकटेरी)नामगुणाः. वार्ताकी क्षुद्रभण्टाकी महती बृहती कुली। हिङ्गुली राष्ट्रिका सिंही महोष्ट्री दुःप्रधर्षिणी ॥ ३६॥ बृहती ग्राहिणी हृद्या पाचनी कफवातहृत् । कटुतिक्तास्यवरस्यमलारोचकनाशिनी ॥ ३७॥ उष्णकुष्ठज्वरश्वासशूलकासाग्निमान्यजित्। टीका-वार्ताकी, क्षुद्रभण्टाकी, महती, बृहती, कुली, हिंगुली, राष्ट्रिका, सिंही, महोष्ट्री, दुःप्रर्षिणी ॥ ३६॥ ये बडीकटेलीके नाम हैं. ये काविज हृदयके हितकारी है, पाचन है, कफवातकी हरनेवाली है, और कडवी, तिक्त, मुखके बिगडे स्वाद, मल, अरुचि, इनको हरनेवाली है ॥ ३७ ॥ और गरम है, कुष्ठ, ज्वर, श्वास, शूल, कास, अग्निमांद्य, इनकोंभी हरनेवाली है. अथ कण्टकारी(भटकटैया)नामगुणाः. कण्टकारी तु दुःस्पर्शा क्षुद्रा व्याघ्री निदिग्धिका ॥ ३८॥ कण्टालिका कण्टकिनी धावनी बृहती तथा । टीका-कंटकारी, दुःस्पर्शा, क्षुद्रा, व्याघ्री, निदिग्धिका ॥ ३८ ॥ कण्टालिका, कटिंकनी, धावनी, बृहती, ये छोटीकटेलीके नाम है. उभे च बृहत्यौ । यत आह शुश्रुतः । क्षुद्रा या क्षुद्रभद्राख्या वृहतीति निगद्यते ॥ ३९॥ For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। श्वेता क्षुद्रा चन्द्रहासा लक्ष्मणा क्षेत्रदूतिका। गर्भदा चन्द्रभा चन्द्री चन्द्रपुष्पा प्रियङ्करी ॥ ४०॥ कण्टकारी सरा तिक्ता कटुका दीपनी लघुः। रूक्षोष्णा पाचनी कासश्वासज्वरकफानिलान् ॥४१॥ निहन्ति पीनसश्वासपार्श्वपीडाहदामयान्। टीका-दोनों कटेली जैसें शुश्रुतनें कहा है छोटी कटेली, और बडी कटेली, इनको बृहती कहते हैं ॥ ३९ ॥ और सफेद कटेलीकों चन्द्रहासा, लक्ष्मणा, क्षेत्रदूतिका, गर्भदा, चंद्रप्रभा, चन्द्री, चंद्रपुष्पा, प्रियङ्करी, ऐसा कहते हैं ॥ ४० ॥ कटेली सर, तिक्त, कडवी, और दीपन, तथा हलकी, रूखी, गरम, पाचन है, कास, श्वास, ज्वर, कफ, वात, इनकों जीतनेवाली है ॥ ४१ ॥ पसलीकी पीडा, हृदयरोग, इनकोंभी हरनेवाली है.. अथ बहती(कटेली)फलगुणाः. तयोः फलं कटु रसे पाके च कटुकं भवेत् ॥ ४२ ॥ शुक्रस्य रेचनं भेदि तिक्तं पित्ताग्निकल्लघु । हन्यात्कफमरुत्कण्डूकासभेदकमिज्वरान् ॥ ४३॥ तद्वत्प्रोक्ता सिताक्षुद्राविशेषाद्गर्भकारिणी । टीका-कटेलीका फल रसमें और पाकमेंभी कडवा है ॥ ४२ ॥ शुक्रका रेचक, भेदन करनेवाला, तिक्त, पित्त और अग्निकों करनेवाला, हलका, और कफ, वायु, खुजली, कास, मेद, कृमि, तथा ज्वर, इनका हरनेवाला है ॥ ४३ ॥ इसी. प्रकार श्वेतकटेलीकेभी गुण हैं, और विशेषकरके गर्भकों करनेवाली होती है. अथ गोक्षुर(गोखरू)नामगुणाः. गोक्षुरः क्षुरकोऽपि स्यात् त्रिकण्टः स्वादुकण्टकः ॥४४॥ गोकण्टको गोक्षुरको वनशृङ्गाट इत्यपि । फलंकषा श्वदंष्ट्रा च तथा स्यादिक्षुगन्धिका ॥४५॥ गोक्षुरः शीतलः स्वादुर्बलकवस्तिशोधनः। १५ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे मधुरो दीपनो वृष्यः पुष्टिदश्वाश्मरीहरः ॥ ४६ ॥ प्रमेहश्वासकासाशकच्छ्रहृद्रोगवातनुत् । टीका–गोक्षुर, क्षुरक, त्रिकटु, स्वादुकंटक ॥ ४४ ॥ गोकंटक, गोक्षुरक, वनभंगाट, पलंकष, श्वदंष्ट्रा, इक्षुगंधिका, ये गोखरुके नाम हैं ॥ ४५ ॥ ये शीतल, मधुर, बलकों बढानेवाला, मूत्राशयकों शोधनेवाला है, मधुर, दीपन, शुक्रकों बढानेवाला, पुष्टिकारक, पथरीका हरनेवाला है ॥ ४६॥ प्रमेह, श्वास, कास, बवासीर, मूत्रकृच्छ्र, हृदयरोग, और वातका हारक है. अथ लघुपंचमूललक्षणं गुणाश्च. शालिपर्णी पृष्टपर्णी वार्ताकी कण्टकारिका ॥४७॥ गोक्षुरः पंचभिश्चैतैः कनिष्ठं पञ्चमूलकम् । पञ्चमूलं लघु स्वादु बल्यं पित्तानिलापहम् ॥ ४८॥ नात्युष्णं वृंहणं ग्राहि ज्वरश्वासाश्मरीप्रणुत् ।। टीका-शालिपर्णी, पृष्टपर्णी, दोनों कटेली ॥ ४७ ॥ और गोखरू, इनपाचोकों मिलानेसें लघुपंचमूल होता है. ये हलका, मधुर, बलको बढानेवाला, पित्त वातका हरनेवाला है ॥ ४८ ॥ और बहुत गरम नहीं हैं. धातुको बढानेवाला है, काविज है, और ज्वर, श्वास, तथा पथरी, इनका हरनेवाला है. अथ दशमूलस्य लक्षणं गुणाश्च. उभाभ्यां पञ्चमूलाभ्यां दशमूलमुदाहृतम् ॥ ४९ ॥ दशमूलं त्रिदोषघ्नं श्वासकासशिरोरुजः । तन्द्राशोथज्वरानाहपार्श्वपीडाऽरुचीर्हरेत् ॥ ५० ॥ टीका-दोनों पंचमूलोंको मिलानेसें दशमूल होता है ॥ ४९ ॥ ये त्रिदोष हरनेवाला, और श्वास, कास, शिरकी पीडा, तन्द्रा, शोथ, ज्वर, अफरा, पसलीकी पीडा, और अरुचि इनका हरनेवाला है ॥ ५० ॥ जीवन्तीनामगुणाः. जीवन्ती जीवनी जीवा जीवनीया मधुस्त्रवा। For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। ८३ मङ्गल्यनामधेया च शाकश्रेष्ठा पयस्विनी ॥ ५१ ॥ जीवन्ती शीतला स्वादुः स्निग्धा दोषत्रयापहा । रसायनी बलकरी चक्षुष्या ग्राहिणी लघुः ॥ ५२ ॥ टीका-जीवन्ती, जीवनी, जीवा, जीवनीया, मधुरस्रवा, मंगल्यनामधेया, शाकश्रेष्ठा, पयस्विनी, ये जीवन्तीके नाम हैं ॥ ५१॥ ये शीतल, मधुर, चिकनी, त्रिदोषकों हरनेवाली, रसायनी, बलकों करनेवाली, नेत्रोंका हित करनेवाली, काविज है, हलकी है ॥ ५२ ॥ अथ मुद्गपर्णी(वनमूग)नामगुणाः. मुद्गपर्णी काकपर्णी सूर्यपर्ण्यल्पिका सहा । काकमुद्रा च सा प्रोक्ता तथा मार्जारगंधिका ॥ ५३ ॥ मुद्गपर्णी हिमा रूक्षा तिक्ता स्वादुश्च शुक्रला। चक्षुष्या क्षतशोथनी ग्राहिणी ज्वरदाहनुत् ॥ ५४ ॥ दोषत्रयहरी लघ्वी ग्रहण्यर्थोऽतिसारजित्। टीका-मुद्गपर्णी १, काकपर्णी २, सूर्यपर्णी ३, अल्पिका ४, सहा ५, काकमुद्दा ६, मार्जारगंधिका ७, ये वनमूंगके नाम हैं ॥ ५३ ॥ ये शीतल, रूखी, तिक्त, मधुर, शुक्रकों उत्पन्नकरनेवाली, नत्रोंको हितकारक, क्षत, शोथ, इनकी नाशकारक है, काविज है ज्वर, और दाहकी हरनेवाली, है ॥ ५४॥ तीनों दोषोंको हरनेवाली, हलकी, और ग्रहणी, बवासीर, अतीसार, इनको जीतनेवाली है. अथ माषपर्णीनामगुणाः. माषपर्णी सूर्यपर्णी काम्बोजी हयपुच्छिका ॥५५॥ पाण्डुलोमशपर्णी च कृष्णवृन्ता महासहा। माषपर्णी हिमा तिक्ता रूक्षा शुक्रबलास्त्रात् ॥ ५६ ॥ मधुरा ग्राहिणी शोथवातपित्तज्वरात्रजित् । टीका-माषपर्णी १, मूर्यपर्णी २, काम्बोजी ३, हयपुच्छिका ४ ॥ ५५ ॥ पाण्डु ५, लोमशपर्णी ६, कृष्णवृन्ता ७, महासहा ८, ये वनमाषपर्णीके नाम हैं. ये For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे ८४ शीतल, तिक्त, रूखी, है शुक्र और बलकों करनेवाली ॥ ५६ ॥ मधुर, काविज, और शोथ, वात, पित्तज्वर तथा रक्त, इनकों जीतनेवाली हैं. अथ जीवनीयगणस्य लक्षणं गुणाश्च. अष्टवर्गः सयष्टीको जीवन्ती मुद्रपर्णिका ॥ ५७ ॥ माषपणगणोऽयं तु जीवनीयगणः स्मृतः । जीवनो मधुरश्वापि नाम्ना स परिकीर्तितः ॥ ५८ ॥ जीवनीयगणः प्रोक्तः शुक्रकद बृंहणो हिमः । गुरुर्गर्भप्रदः स्तन्यकफहृत् पित्तरहृत् ॥ ५९ ॥ तृष्णां शोषं ज्वरं दाहं रक्तपित्तं व्यपोहति । टीका - अष्टवर्ग मुलहठीके साथ और जीवन्ती, वनमृग ॥ ५७ ॥ वनउडद, इसे जीवनीयगण कहते हैं. ये जीवन, और मधुर नामसेंभी कहा गया है ॥ ५८ ॥ ये शुक्रकों पैदा करनेवाला, धातुकों बढानेवाला, और शीतल, भारी, गर्भकों देनेवाला, दूध और कफकों करनेवाला, पित्तरक्तका हरनेवाला है ॥ ५९ ॥ तृषा, शोष, ज्वर, दाह, रक्तपित्त, इनका नाशक है. अथ शुकरक्तैरण्डनामगुणाः. शुक्कएरण्ड आमण्डुश्वित्रो गन्धर्वहस्तकः ॥ ६० ॥ पञ्चाङ्गुलो वर्धमानो दीर्घदण्डोऽप्यदण्डकः । वातारिस्तरुणश्चापि रुबूकश्च निगद्यते ॥ ६१ ॥ रक्तोऽपरो रुबूकः स्यादुरुबूकोरुबूस्तथा । व्याघ्रपुच्छश्व वातारिश्वचुरुत्तानपत्रकः ॥ ६२ ॥ एरण्डयुग्मं मधुरमुष्णं गुरु विनाशयेत् । टीका- आमण्डु, चित्र, गंधर्वहस्तक ॥ ६० ॥ पंचांगुल, वर्धमान, दीर्घदण्ड, अदण्डक, वातारि, तरुण, रुबुक, ये एरंडके नाम हैं ॥ ६१ ॥ दूसरा लाल एरंड, रुबूक, उरुबूक, उरुबू, व्याघ्रपुच्छ, वातारि, चंचु, उत्तानपत्रक, ये लाल एरंडके नाम हैं ॥ ६२ ॥ ये दोनों एरंड मधुर, और भारी हैं. For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः । शूलशोथ कटीबस्तिशिरःपीडोदरज्वरान् ॥ ६३ ॥ व्रणश्वासकफानाहकासकुष्ठाममारुतान् । एरण्डपत्रं वातघ्नं कफकृत्कृमिनाशनम् ॥ ६४॥ मूत्रकृच्छ्रहरं चापि पित्तरक्तप्रकोपनम् । वातार्यप्रदलं गुल्मबस्तिशूलहरं परम् ॥ ६५ ॥ कफवात मीन्हन्ति वृद्धिं सप्तविधामपि । एरण्डफलमत्युष्णं गुल्मशूलानिलापहम् ॥ ६६ ॥ यल्लीहोदरार्शोघ्नं कटुकं दीपनं परम् । तद्वन्मज्जा च विभेदी वातश्लेष्मोदरापहा ॥ ६७ ॥ टीका-शूल, शोथ, तथा कटि, पेडू, शिर, इनकी पीडा, उदररोग, ज्वर ॥ ६३ ॥ बद, श्वास, कफ, अफरा, कास, कुष्ठ, आमवात, इनको हरनेवाला है. अंडीका पत्रा वातनाशक, कफवमिकों हरनेवाला है ॥ ६४ ॥ और मूत्रकृच्छ्रका हरनेवाला है, तथा पिरक्तका प्रकोप करनेवाला है, अंडीका अग्रदल वायगोला, पेडूका शुल, इनका नाशक है ॥ ६५ ॥ कफ, वात, कृमी, और सातप्रकारकी अंडवृद्धी इनका नाशक है. और अंडीका फल बहुत गरम होता है, और वायगोला, शूल, वात, इनका हरनेवाला है ॥ ६६ ॥ यकृत, प्लीह, उदर, बवासीर, इनका नाशक हैं, कटु है, अत्यन्त दीपन है, इसीप्रकार इसकी गिरी मलकों भेदन करनेवाली है, वात, कफ, तथा उदरकी नाशक होती है ॥ ६७ ॥ अथ शुक्कालर्कनामगुणाः. अलर्को गुणरूपः स्यान्मन्दारो वसुकोऽपि च । श्वेतपुष्पः सदापुष्पः सबालार्कः प्रतीपसः ॥ ६८ ॥ रक्त परोऽर्कनामा स्यादर्कपर्णो विकीरणः । रक्तपुष्पः शुक्लफलस्तथा स्फोटः प्रकीर्तितः ॥ ६९॥ अर्कद्वयं सरं वातकुष्ठकण्डूविषव्रणान् । निहन्ति लीहगुल्मार्शः श्लेष्मोदरशकृत्कमीन् ॥ ७० ॥ अलर्ककुसुमं वृष्यं लघु दीपनपाचनम् । For Private and Personal Use Only ८५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अरोचकप्रसेकार्शः कासश्वासनिवारणम् ॥ ७१ ॥ रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्ठकृमिघ्नं कफनाशनं च । अशविषं हन्ति च रक्तपित्तं संग्राहि गुल्मे श्वयथौ हितं तत् ७२ क्षीरमर्कस्य तिक्तोष्णं स्त्रिग्धं सलवणं लघु । कुष्ठगुल्मोदरहरं श्रेष्ठमेतद्विरेचनम् ॥ ७३ ॥ टीका - अलर्क, गुणरूप, मंदार, वसु, श्वेतपुष्प, सदापुष्प, सबालार्क, प्रतीपस, ये सफेद आक के नाम हैं ॥ ६८ ॥ दूसरा लाल आक इसके सूर्यके से नाम हैं. और अर्कफल, विकीर्ण, रक्तपुष्प, शुक्लफल, तथा स्फोट, ये लाल आकके नाम हैं ॥ ६९ ॥ दोनों आक सर हैं, वात, कुष्ठ, कण्डू, घाव, विष, इनकों हरनेवाला है, और प्लीह, वायगोला, ववासीर, कफ, उदरमल, कृमि इनकाभी हरनेवाला है ॥ ७० ॥ और आकका फूल, धातुकों बढानेवाला, और हलका, दीपन, पाचन है, और अरुचि, स्वेद, ववासीर, कास, श्वास, इनका, दूरकरनेवाला है || ७१ || लाल आकका फूल मधुर, और, तिक्त, होता है. और कुष्ठ कृमि, इनका हरनेवाला है, और कफकाभी हरनेवाला है, ववासीर, विष, इनका नाशक है, और रक्त पित्तका नाशक है, और काविज, तथा वायगोला, सूज - नकोंभी हित है ॥ ७२ ॥ और आकका दूध तिक्त, गरम, चिकना, लवणकेसहित होता है, हलका है. तथा कुष्ठ, गुल्म, उदर, इनका नाशक है, और ये श्रेष्ठ रेचन है ॥ ७३ ॥ अथ सेहुण्डनामगुणाः. हुण्डः सिंहतुण्डः स्यादजी वज्रद्रुमोऽपि च । सुधा सुमन्तदुग्धा च स्स्रुक् स्त्रियां स्यात् स्रुही गुङा ॥७४॥ हुण्डो रेचनस्तीक्ष्णो दीपनः कटुको गुरुः । शूलमष्ठीलिकाध्मानक फगुल्मोदरानिलान् ॥ ७५ ॥ उन्मादमोहकुष्ठार्शः शोथमेदोऽश्मपण्डुताः । व्रणशोथज्वरप्लीहविषदूर्वाविषं हरेत् ॥ ७६ ॥ उष्णवीर्यं स्रुही क्षीरं स्निग्धं च कटुकं लघु । For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। गुल्मिनां कुष्ठिनां चापि तथैवोदररोगिणाम् ॥ ७७॥ हितमेतद्विरेकार्थे ये चान्ये दीर्घरोगिणः। टीका-सेहुंड, सिंहतुण्ड, वज्री, वज्रद्रुम, सुधा, समंतदुग्धा, नुक् स्नुही, गुडा, ये थूअरके नाम हैं ॥ ७४ ॥ ये रेचन, तीक्ष्ण, दीपन, कटु, और भारी है. शूल, अष्ठीलिका, आध्मान, कफ, वायगोला, उदरवात ॥ ७५ ॥ उन्माद, मोह, कुष्ट, बवासीर, मूजन, मेद, पथरी, पांडु, घाव, ज्वर, स्नेही, विष, दूषीविष, इनकों हरनेवाला होता है ॥ ७६ ॥ थूअरका दूध गरम, स्निग्ध, कटु, अरु लघु होता है और गुल्म, कुष्ठ, उदर, इनरोगोंवालेकों ॥ ७७ ॥ ये विरेच देना हित है, तथा और दीर्घरोगियोंके वास्तेभी हितकारी कहा है. (अथ सेहुण्डभेदः शालला अनेनैव नाम्ना प्रसिद्धा) शातला सप्तला सारा विमला विदुला च सा ॥ ७८ ॥ तथा निगदिता भूरिफेना चर्मकषेत्यपि । शातला कटुका पाके वातला शीतला लघुः॥ ७९ ॥ तिक्ता शोथकफानाहपित्तोदावर्तरक्तजित् । टीका-थोहरका भेद दूसरा शातलानामसें प्रसिद्ध है. शातला, सप्तला, सारा, विसला, विदुला ॥ ७८ ॥ भूरिफेना, चर्मकषा, ये शातलाके नाम हैं, ये पाकमें कटु होता है, और वायुको कारनेवाला, शीतल, हलकी, और तिक्त है ॥७९॥ तथा सूजन, कफ, अफरा, पित्त, उदावर्त, रक्त, इनको हरनेवाला है. अथ शक्रपुष्पी(कलिहारी)नामगुणाः. कलिहारी तु हलिनी लागली शक्रपुष्प्यपि ॥ ८॥ विशल्याग्निशिखानन्ता वह्निवका च गर्भनुत् । कलिहारी सरा कुष्ठशोफार्शोव्रणशूलजित् ॥ ८१॥ सक्षारा श्लेष्मजित्तिक्ता कटुका तुवरापि च। तीक्ष्णोष्णा कमिहल्लघ्वी पित्तला गर्भपातिनी ॥ ८२॥ टीका:-कलिहारी, हलिनी, लाङ्गली, शक्रपुष्पी ॥ ८० ॥ विशल्या, अग्निशिखा, अनन्ता, वह्निवक्रा, गर्भनुत्, ये कलिहारीके नाम हैं. ये सर है, कुष्ठ, शोफ For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 हरीतक्यादिनिघंटे ववासीर, घाव, और शूल, इनको जीतनेवाली है ॥ ८१ ॥ और कुछ क्षारवाली होती है, और कफकों जीतनेवाली होती है, तिक्त, कडवी, और कसेली, तीक्ष्ण, गरम, कृमिकों नाश करती है, हलकी, पित्तकों उत्पन्न करनेवाली, और गर्भकी गिरानेवाली है ॥ ८२॥ अथ करवीर(श्वेतरक्तकनेर)नामगुणाः. करवीरः श्वेतपुष्पः शतकुम्भोऽश्वमारकः । द्वितीयो रक्तपुष्पश्च चण्डातो लगुडस्तथा ॥ ८३ ॥ करवीरदयं तिक्तं कषायं कटुकं च तत् । व्रणलाघवकन्नेत्रकोपकुष्ठव्रणापहम् ॥ ८४ ॥ वीर्योष्णं कमिकण्डूनं भक्षितं विषवन्मतम् । टीका-सफेद फूलके कनेरकों शतकुम्भ अश्वमारक कहते हैं, और लाल कनेरकों चंडात, लगुड, कहते हैं । ८३ ॥ दोनों कनेर तिक्त, कसेले, और कडवे होते हैं, और घावोंकों भरनेवाले हैं और नेत्र, कुष्ठ, व्रण, इनकों शमन करनेवाले हैं ।। ८४॥ तथा वीर्यमें गरम हैं, कृमि और खुजली इनको हरनेवाले हैं, और खानेमें विषके समान हैं. अथ धतूरनामगुणाः. धतूरधूर्तधत्तूरा उन्मत्तः कनकाह्वयः ॥ ८५॥ देवताकितवस्तूरी महामोही शिवप्रियः। मातुलो मदनश्चास्य फले मातुलपुत्रकः ॥ ८६॥ धत्तूरो मदवर्णाग्निवातकज्वरकुष्ठनुत् । कषायो मधुरस्तिक्तो यूकालिक्षाविनाशकः ॥ ८७ ॥ उष्णो गुरुर्वणश्लेष्मकण्डूकमिविषापहः। टीका-धतूर, धतूरा, उन्मत्त, स्वर्णके नामोंवाला ॥ ८५ ॥ देवता, कितवस्तूरी, महामोही, शिवप्रिया, मातुल, मदन, ये धतूरेके नाम हैं. और इसके फलकों मातुलपुत्र कहते हैं ॥ ८६ ॥ ये मदकारी, अग्नि वात इनकों करनेवाला है, ज्वर, कुष्ठका हरनेवाला है, और कसेला, मधुर, तिक्त, जूवालिक इनका हरने For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८९ गहच्यादिवर्गः । वाला होता है ॥ ८७ ॥ गरम, भारी, घाव, खुजली, कफ, कृमि, विष इनकभी हरनेवाला है. अथ वासक ( अरूसा) नामगुणाः. वासको वासिका वासा भिषङ्माता च सिंहिका ॥ ८८ ॥ सिंहास्यो वाजिदन्ता स्यादाटरूषोऽटरूषकः । आटरूषो वृषस्ताम्रः सिंहपर्णश्च स स्मृतः ॥ ८९ ॥ वासको वातकृत्स्वर्यः कफपित्तास्त्रनाशनः । तिक्तस्तुवरको हृह्यो लघुः शीतस्तृडर्तिहृत् ॥ ९० ॥ श्वासकासज्वरच्छर्दिमेहकुष्ठक्षयापहः । टीका - वासक १, वासिका २, वासा ३, भिषमाता ४, सिंहिका ५ ॥ ८८ ॥ सिंहास्य ६, वाजिदन्ता ७, आटरूषक ८, ये वांसेके नाम हैं और वृष १, ताम्र २, सिंहपर्ण ३, यभी नाम हैं ॥ ८९ ॥ ये वातकारक, स्वरकों श्रेष्ठ करनेवाला, कफ रक्तपित्तका हरनेवाला है, तिक्त है, कसेला है, हृदयकों अच्छा करनेवाला, हलका, शीत, तृषा, पीडा, इनका नाशक है ॥ ९० ॥ श्वास, कास, ज्वर, वमन, प्रमेह, कुष्ठ, क्षय, इनकाभी हरनेवाला है. अथ पर्पट (पित्तपापडा ) नामगुणाश्च. पर्पटो वरतिक्तश्च स्मृतः पर्पटकश्च सः ॥ ९१ ॥ कथितः पांशुपर्यायस्तथा कवचनामकः । पर्पटो हन्ति पित्तास्रभ्रमतृष्णाकफज्वरान् ॥ ९२ ॥ संग्राही शीतलस्तितो दाहनुद्वातलो लघुः । टीका - पर्पट १, वरतिक्त २, पर्पटक ३ ॥ ९१ ॥ पशुपर्याय ४, और कवचनामक ५, ये पित्तपापडे के नाम हैं. ये पित्त, भ्रम, तृषा, कफ, ज्वर, इनकों हरता है ॥ ९२ ॥ और काविज, शीतल, तिक्त, दाहका करनेवाला, वातकारक है. अथ निम्ब (नीम ) नामगुणाश्च. निम्बः स्यात् पिचुमर्दश्च पिचुमन्दश्च तिक्तकः ॥ ९३ ॥ १२. For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अरिष्टः पारिभद्रश्च हिंगुनिर्यास इत्यपि । निम्बः शीतो लघुर्गाही कटुपाकोऽग्निवातनुत् ॥ ९४ ॥ अहृद्यः श्रमतृट्कासज्वरारुचिकमिप्रणुत् । व्रणपित्तकफछर्दिकुष्ठहृल्लासमेहनुत् ॥ ९५ ॥ निम्बपत्रं स्मृतं नेत्र्यं कमिपित्तविषप्रणुत् । वातलं कटुपाकं च सर्वारोचककुष्ठनुत् ॥ ९६ ॥ निम्बफलं रसे तिक्तं पाके तु कटु भेदनम् । स्निग्धं लघूष्णं कुष्ठनं गुल्मार्शःकमिमेहनुत् ॥ ९७ ॥ टीका-निम्ब १, पिचुमर्द २, पिचुमन्द ३, तिक्तक ४ ॥ ९३ ॥ अरिष्ट ५, पारिभद्र ६, हिंगुनिर्यास ७, ये नीमके नाम हैं. ये शीतल और हलका, काविज, पाकमें कटु, अग्निवायुको हरनेवाला है ॥ ९४ ॥ हृदयका अप्रिय, श्रम, तृषा, कास, ज्वर, अरुचि, कृमि, इनका हरनेवाला है व्रण, पित्त, कफ, छर्दि, कुष्ठ, हल्लास, प्रमेह, इनका हरनेवाला है ॥ ९५ ॥ और नीमका पत्र नेत्रोंका हितकारी है; कृमि, पित्त, और विष इनका नाशक है, वायुकारक है, पाकमें कटु है, सर्व अरुचि, कुष्ठ, इनका हरनेवाला है ॥ ९६ ॥ और नीमका फल रसमें तिक्त, और पाकमें तिक्त, तथा कटु, और भेदन होता है, और चिकना, हलका, गरम, तथा कुष्ठका नाशक है, वायगोला, बवासीर, कृमि, प्रमेह, इनका हरनेवाला है, ॥ ९७ ॥ अथ वकायननामगुणाश्च. महानिम्बः स्मृतोद्रेकोऽरम्यको विषमुष्टिकः । केशामुष्टिर्निम्बकश्च कार्मुको जीव इत्यपि ॥९८॥ महानिम्बो हिमो रूक्षस्तिक्तो ग्राही कषायकः। कफपित्तभ्रमच्छर्दिकुष्ठहल्लासरक्तजित् ॥ ९९ ॥ प्रमेहश्वासगुल्मा मूषिकाविषनाशनः। टीका-महानिम्ब १, उद्रेक २, अरम्यक ३, विषमुष्टिक ४, केशामुष्टि ५, निम्बक ६, कार्मुक ७, जीव ८, ये वकायनके नाम हैं ॥ ९८ ॥ ये शीतल, और रूखा, तिक्त, काविज, कसेला, कफ, पित्त, भ्रम, वमन, कुष्ठ, हल्लास, रक्त, इ. For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्यादिवर्गः । ९१ नको जीतता है ॥ ९९ ॥ और प्रमेह, श्वास, वायगोला, ववासीर, मूषेका विष, इनका नाशक है. अथ पारिभद्र ( जलनीम) नामगुणाश्च. पारिभद्रो निम्बतरुर्मन्दारः पारिजातकः ॥ १०० ॥ पारिभद्रोऽनिल श्लेष्मशोथमेदः कृमिप्रणुत् । तत्पत्रं पित्तरोगघ्नं कर्णव्याधिविनाशनम् ॥ १०१ ॥ टीका - पारिभद्र १, निम्बतरु २, मंदार ३, पारिजातक ४, ये जलनीमके नाम हैं, ॥ १०० ॥ ये वात, कफ, सूजन, मेद कृमि, इनका हरनेवाला है, और इसका पत्र पित्तरोगका नाशक है, और कर्णारोगकाभी हरनेवाला है ॥ १०१ ॥ अथ काञ्चनार (कचनार) नामगुणाश्च. काञ्चनारः काञ्चनको गण्डारिः शोणपुष्पकः । ( अथ कचनारभेदः) कोविदारश्वमरिकः कुद्दालो युगपत्रकः ॥ १०२ ॥ कुण्डली ताम्रपुष्पश्चाश्मन्तकः स्वल्पकेसरी । काञ्चनारो हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत् ॥ १०३ ॥ कृमिकुष्ठगुदभ्रंशगंडमालाव्रणापहः । कोविदारोपि तद्वत्स्यात्तयोः पुष्पं लघु स्मृतम् ॥ १०४ ॥ रूक्षं संग्राहि पित्तास्त्रप्रदरक्षयकासनुत् । ये टीका - काञ्चनार १, काञ्चनक २, गंडारी ३, शोणपुष्पक ४, ये कचनारके नाम हैं, अब दूसरा कचनारके नाम लिखे हैं. कोविदार १, चमरिक २, कुद्दाल ३, युगपत्रक ४, ॥ १०२ ॥ कुण्डली ५, ताम्रपुष्प ६, अश्मंतक ७, स्वल्पकेसरी ८, दूसरा कचनार के नाम हैं. ये शीतल, काविज, कसेला, कफ पित्तका हारक है ॥ १०३ ॥ कृमि, कुष्ठ, गुदभ्रंश, गंडमाला, घाव, इनका हरनेवाला है, और दूसरा कचनारभी इसीके समान गुणवाला होता है, और इनका फूल हलका है ॥ १०४ ॥ रूखा, काविज, रक्तपित्त, प्रदर, क्षय, कास, इनकाभी हरनेवाला है. For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ शोभांजन(सहजन)नामगुणाश्च. शोभाञ्जनः शिग्रुतीक्ष्णो गन्धकाक्षीवमोचकः ॥ १०५॥ तबीजं श्वेतमरिचं मधुशिग्रुः सलोहितः। शिग्रुः कटुः कटुः पाके तीणोष्मो मधुरो लघुः ॥१०६॥ दीपनो रोचनो रूक्षः क्षारस्तिक्तो विदाहकत् । संग्राही शुक्रलो हृद्यो पित्तरक्तप्रकोपनः ॥ १०७॥ चक्षुष्यः कफवातघ्नो विद्रधिश्वयथुकमीन् । टीका-काला, सफेद, लाल तीनों प्रकारके सहजनके नाम तथा गुण लिखते हैं. शोभांजन १, शिग्रु २, तीक्ष्ण ३, गंधक ४, आक्षीव ५, मोचक ६ ॥१०५॥ इसका बीज सफेद मिरचसदृश होता है. और मधुर सहजन थोडा लाल होता है, ये कडवा, पाकमें कटु, तीक्ष्ण, गरम, मधुर, हलका, ॥ १०६ ॥ दीपन, रोचन, रूखा, क्षार, तिक्त होता है, विदाहकों करनेवाला है और काविज, शुक्रकों करता है, हृदयकों अच्छाकरनेवाला, पित्तरक्तका कोप करनेवाला, ॥१०७॥ नेत्रोंका हितकारी, कफवातका नाश करनेवाला, विद्रधि, सूजन, कृमि, इनको हरता है. मेदापचीविषश्लीहगुल्मगण्डव्रणान्हरेत् ॥ १०८॥ श्वेतः प्रोक्तगुणो ज्ञेयो विशेषाद्दाहरूद्भवेत् । प्लीहानं विद्रधिं हन्ति व्रणघ्नः पित्तरक्तहृत् ॥ १०९॥ मधुशिग्रुः प्रोक्तगुणो विशेषाद्दीपनः सरः। शिग्रुवल्कलपत्राणां स्वरसः परमार्तिहत् ॥ ११०॥ चक्षुष्यं शिग्रुजं बीजं तीक्ष्णोष्णं विषनाशनम् । अवृष्यं कफवातघ्नं तन्नस्येन शिरोतिनुत् ॥ १११ ॥ टीका—मेद, अरुचि, विष, प्लीह, वायगोला, गण्डमाला, व्रण, इनको हरनेवाला है ॥ १०८॥ और सफेद कहेहुये गुणके समान जानलेना. विशेषकरके दाहकारक है. प्लीह विद्रधीको हरनेवाला है, व्रणका हरनेवाला, पित्तरक्तको हरता है, ॥ १०९॥ और सहजनेका बीजभी कहेहुये गुणोंवाला है, परंतु विशेषकरके दीपन है. सहजनेकी छाल और पत्र इनका स्वरस अत्यंत पीडाको हरनेवाला है ॥ ११०॥ For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः । ९३ और नेत्रोंका हितकारी है, और इसका बीज, तीखा, गरम, विषका हरनेवाला, धातुकों क्षीण करनेवाला, और कफ वातका हारक है, और ये नाम लेनेसें शिरकी पीडाको हरता है ॥ १११ ॥ अथ अपराजितानामगुणाः. आस्फोता गिरिकर्णी स्याद्विष्णुक्रान्तापराजिता । अपराजिते कटू मेध्ये शीते कण्ठ्ये सुदृष्टिदे ॥ ११२ ॥ कुष्ठमूत्रत्रिदोषामशोथव्रणविषापहे । कषाये कटुके पाके तिक्ते च स्मृतिबुद्धिदे ॥ ११३ ॥ टीका - अब सफेद फूल और नीले फूलवाली विष्णुक्रांता के नाम और गुण लिखते हैं. आस्फोता १, गिरिकणी २, विष्णुक्रान्ता ३, अपराजिता ४, ये विष्णुक्रांता के नाम हैं. ये कडवी, और बुद्धिकों उत्पन्न करनेवाली है, शीतल है, कंठकों अच्छा करनेवाली है ॥ ११२ ॥ दृष्टिकों अच्छी है, कुष्ठ, मूत्र, दोष, आम, सूजन, घाव, विष, इनके हरनेवाली है, औ कसेली, कडवी, पाक में तिक्त, और स्मृति, बुद्धि इनकों देनेवाली है ॥ ११३ ॥ अथ सिंदुवार (संभालू) नामगुणाः. सिन्दुवारः श्वेतपुष्पः सिन्दुकः सिन्दुवारकः । नीलपुष्पी तु निर्गुण्डी शेफाली सुवहा च सा ॥ ११४ ॥ सिन्दुकः स्मृतिदस्तिक्तः कषायः कटुको लघुः । केश्यो नेत्रहितो हन्ति शूलशोथाममारुतान् ॥ ११५ ॥ कृमिकुष्ठारुचिश्लेष्मज्वरान्नीलापि तद्विधा । सिन्दुवारदलं जन्तुवात श्लेष्महरं लघु ॥ ११६ ॥ टीका -संभालुको सिन्दुवारभी कहते हैं. सिन्दुवार १, श्वेतपुष्प २, सिन्दुक ३, सिन्दुवारक ४, नीलपुष्पी ५, निर्गुडी ६, शेफाली ७, सुवहा ये मेडीके नाम हैं. ॥ ११४ ॥ ये स्मृतिकों देनेवाली, तिक्त, कसेली, कडवी, हलकी है, केशोंकों अच्छे करती है, नेत्रोंकी हितकारी है, और शूल, शोथ, आमवात, इनकों हरनेवाली है ॥ ११५ ॥ कृमि, कुष्ठ, अरुचि, कफ, ज्वर, इनकी नाशक है. ये For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे नीलीभी दोप्रकारकी है. मेउडीका पत्र कृमि, वात, कफ, इनका हरनेवाला तथा हलका है ॥ ११६ ॥ अथ कुटज(कुरैया)नामगुणाः. कुटजः कूटजः कोटी वत्सको गिरिमल्लिका। कालिगशकशाखी च मल्लिकापुष्प इत्यपि ॥ ११७॥ इन्द्रो यवफलः प्रोक्तो वृक्षकः पाण्डुरद्रुमः। कुटजः कटुको रूक्षो दीपनस्तुवरो हिमः ॥ ११८॥ अर्थोऽतिसारपित्तास्त्रकफतृष्णामकुष्ठनुत् । टीका-कुटज १, कूटज २, कोटी ३, वत्सक ४, गिरिमल्लिका ५, कालिंग ६, शक्रशाखी ७, मल्लिकापुष्प ८, ये कुरैयाके नाम हैं ॥ ११७॥ और इंद्रयव, फलवृक्षक, पांडुरद्रुम, येभी नाम हैं. ये कडवा, रूखा, दीपन, कसेला, और ठंडा है ॥ ११८ ॥ ववासीर, अतीसार, रक्तपित्त, तृषा, आम, इनका हरनेवाला है. अथ करंजनामगुणाः. करंजो नक्तमालश्च तथासौ चिरबिल्वकः ॥ ११९॥ घृतपूर्णकरोऽन्यः प्रकीर्यः पूतिकोऽपि च । स चोक्तः पूतिकरजः सोमवल्कश्च स स्मृतः ॥ १२०॥ करञ्जः कटुकस्तीक्ष्णो वीर्योष्णो योनिदोषहृत् । कुष्ठोदावर्तगुल्मार्थीव्रणमिकफापहः ॥ १२१ ॥ तत्पत्रं कफवातार्शःकमिशोथहरं परम् । भेदनं कटुकं पाके वीर्योष्णं पित्तलं लघु ॥ १२२॥ तत्फलं कफवातघ्नं मेहार्श कमिकुष्ठजित्।। घृतपूर्णकरोपि करञ्जसदृशो गुणैः ॥ १२३॥ टीका-करंज १, नक्तमाल २, चिरबिल्वक ३ ॥ ११९ ॥ घृतपूर्ण ४, और दुसरा करंज प्रकीर्य पूतिकभी कहते हैं. ये पूतिकरंज कहागया है. और उसीकों सोमवल्लभभी कहते हैं ॥ १२० ॥ ये कडवा, तीखा, गरम, वीर्यमेंगरम, योनिके For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ गडूच्यादिवर्गः। दोषोंका हरनेवाला, और कुष्ठ, उदावर्त, गुल्म, ववासीर, व्रण, कृमि, कफ, इनका हरनेवाला है ॥ १२१ ॥ और इसका पत्र कफ, वात, बवासीर, कृमि, सूजन, इनका हरनेवाला है. भेदनीय, कडवा, पाकमें और वीर्यमें गरम, पित्तकों करनेवाला, हलका है ॥ १२२ ॥ और इसका फल कफवातका हरनेवाला, प्रमेह, ववासीर, कृमि, कुष्ठ, इनकों जीतनेवाला है. घृतपूर्णनाम दूसरा करंजभी इसीके सदृश है ॥ १२३ ॥ अथ उदकीर्य(अरारि)नामगुणाश्च. उदकीयस्तृतीयोऽन्यः षड्न्था हस्तिवारुणी। मर्कटी वायसी चापि करञ्जी करभञ्जिका ॥ १२४ ॥ करञ्जी स्तम्भनी तिक्ता तुवरा कटुपाकिनी। वीर्योष्णा वमिपित्ताशःकमिकुष्ठप्रमेहजित् ॥ १२५ ॥ टीका:-उदकीर्य और तीसरा करंजवा, षड्ग्रन्था, हस्तिवारुणी, मर्कटी, वायसी, करंजी, करभंजिका, ये डारकरजके नाम हैं ॥ १२४ ॥ ये स्तम्भन करनेवाला, तिक्त, और कसेला, कटुपाकवाला, वीर्यमें गरम, और वमन पित्तकी ववासीर, कृमि, कुष्ठ, प्रमेह, इनको जीतनेवाला है ॥ १२५ ॥ अथ श्वेतरक्तगुंजानामगुणाश्च. श्वेता रक्तोच्चटा प्रोक्ता कृष्णला चापि सा स्मृता। रक्ता सा काकचिञ्ची स्यात् काकानन्ता च रक्तिका ॥१२६॥ काकादनी काकपीलः सा स्मृता काकवल्लरी । गुञ्जाइयं तु केश्यं स्यात् वातपित्तज्वरापहम् ॥ १२७ ॥ मुखशोषभ्रमश्वासतृष्णामदविनाशनम् । नेत्रामयहरं वृष्यं बल्यं कण्डूव्रणं हरेत् ॥ १२८ ॥ कमीन्द्रलुप्तकुष्ठानि रक्ता च धवलापि च । टीका-अब सफेद और लाल चिरमिठीके नाम तथा गुण कहते हैं. सफेद, और लालकों उच्चटा और कृष्णलाभी कहै हैं. और लालचिरमिठीकों काकचिश्ची १, काकानन्ता २, रक्तिका ३ ॥ १२६ ॥ काकादनी ४, काकपीलु ५, काकवल्लरी ६, For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९६ हरीतक्यादिनिघंटे ये लालचिरमिटीके नाम हैं. ये दोनों चिरमिटी केशोंकी हितकारक हैं, और बात, पित्तज्वरकी हारक हैं ।। १२७ ॥ और मुखशोष, भ्रम, श्वास, तृषा, मद, इनकभी हरनेवाली हैं. और नेत्ररोगोंको दूर करनेवाली, पुष्ट, बलकों करनेवाली, और कण्डू, व्रण, इनकोभी जीतनेवाली है ॥ १२८ ॥ और कृमि, इन्द्रलुप्त, लाल सफेद कुष्ट इनकाभी नाश करनेवाली है. अथ कपिकच्छू (किमांच ) नामगुणाश्च. कपिकच्छ्रेरात्मगुप्ता वृष्या प्रोक्ता च मर्कटी ॥ १२९ ॥ अजरा कण्डुरा व्यङ्गा दुःस्पर्शा प्रावृषायणी । लाङ्गुली शूकशिम्बी च सैव प्रोक्ता महर्षिभिः ॥ १३० ॥ कपिकण्डूर्भृशं वृष्या मधुरा वृंहणी गुरुः । तिक्ता वातहरी बल्या कफपित्तास्रनाशिनी ॥ १३१ ॥ तद्वीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरं परम् । टीका - कपिकच्छू १, आत्मगुप्ता २, हृष्या ३, मरकटी ४ ॥ १२९ ॥ अजरा ५, कण्डुरा ६, व्यंगा ७, दुःस्पर्शा ८, प्रावृषायणी ९, लांगली, १०, शुकशिम्बी ११, ये किमाचके नाम हैं. सो महर्षियोंनें कहे हैं ॥ १३० ॥ ये अत्यन्त धातुकों बढानेवाली, मधुर, पुष्ट, भारी, और दस्तावर वायकी नाशक, बलकों करनेवाली, तथा कफ, रक्तपित्त, इनको हरनेवाली है ॥ १३१ ॥ इस्का बीज वातनाशक है और अत्यन्त वाजीकरण, कहागया है. अथ रोहिणीनामरणाच. मांसरोहिण्यतिरुहा वृत्ता चर्मकरी कषा ॥ १३२ ॥ प्रहारवल्ली विकसा वीरवत्यपि कथ्यते । स्यान्मांसरोहिणी वृष्या सरा दोषत्रयापहा ॥ १३३ ॥ टीका - मांसरोहिणी १, अतिरुहा २, वृत्ता ३, चर्मकरी ४, कषा ५, ॥ १३२ ॥ प्रहारवल्ली ६, विकसा ७, वीरवती, ये रोहिणी के नाम हैं. ये पुष्ट, सर, त्रिदोष नाशक है ॥ १३३ ॥ अथ चिल्हकनामगुणाश्च. चिल्हको वातनिहरः श्लेष्मघ्नो धातुपुष्टिकत् । For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। आग्नोयो विषवद्यस्य फलमत्स्यनिषूदनम् ॥ १३४ ॥ टीका-चिल्हक, वातनिर्हार, श्लेष्मघ्न ये चीलूके नाम हैं. ये श्लेष्मका नाशक, धातुका पुष्ट करनेवाला, और गरम है. इसका फल विषके समान है, और मछरीका नाशक है ।। १३४ ॥ अथ टंकारीनामगुणाश्च. टंकारी वातजित्तिक्ता श्लेष्मघ्नी दीपनी लघुः । शोथोदरव्यथाहन्त्री हिता पीठविसर्पिणाम् ॥ १३५॥ टीका-टंकारी वातकों जीतनेवाली है, तिक्त है, और कफकी नाशक है, दीपन है, हलकी है, शोथ, उदरव्यथा इनका नाश करनेवाली है, और पीठ, विसपरोग, इनको हित है ॥ १३५॥ .. अथ वेतसनामगुणाः. वेतसो नम्रकः प्रोक्तो वानीरो वझुलस्तथा । अभ्रपुष्पश्च विदुलो रथशीतश्च कीर्तितः ॥ १३६ ॥ वेतसः शीतलो दाहशोथार्थोयोनिरुक्प्रणुत् । हन्ति वीसर्पकच्छ्रास्त्रपित्ताश्मरिकफानिलान् ॥ १३७ ॥ टीका–वेतस १, नम्रक २, वानीर ३, वञ्जुल ४, अभ्रपुष्प ५, विदुल ६, रथशीत ७, ये वतेके नाम हैं, ।। १३६ ॥ ये शीतल है. दाह, शोथ, बवासीर, योनिपीडा, इनको हरनेवाला है. और विसर्प, मूत्रकृच्छ्र, रक्तपित्त, पथरी, कफ, वायु, इनका नाश करनेवाला है ॥ १३७ ॥ अथ जलवेतसनामगुणाः. निकुञ्चकः परिव्याधो नादेयो जलवेतसः। जलजो वेतसः शीतः कुष्टहृदातकोपनः॥ १३८ ॥ टीका-निकुंचक १, परिव्याध २, नादेय ३, जलवतेस ४, ये जलवेतसके नाम हैं. ये शीतल है, कुष्ठका नाशक है, वातका प्रकोप करनेवाला है ॥ १३८ ।। For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ हिजल(समुद्रफल)नामगुणा.: इजलो हिजलश्चापि निचुलश्चाम्बुजस्तथा। जलवेतसववेद्यो हिजलोयं विषापहः ॥ १३९ ॥ टीका-इज्जलकों समुद्रफल लोकमें कहते हैं. इज्जल १, हिज्जल २, निचुल ३, अम्बुज ४, ये समुद्रफलके नाम हैं. जलवेतसके समान इस्कों जानों. ये विषहारक है ॥ १३९ ॥ अथ अङ्कोट( हिंगोट )नामगुणाः. अङ्कोटो दीर्घकीलः स्यादकोलश्च निकोचकः । अङ्कोटकः कटुस्तीक्ष्णाः स्निग्धोष्णस्तुवरो लघुः ॥ १४०॥ रेचनः कमिशूलामशोफग्रहविषापहः । विसर्पकफपित्तास्त्रमूषकाहिविषापहः ॥ १४१ ॥ तत्फलं शीतलं स्वादु श्लेष्मघ्नं बृंहणं गुरु । बल्यं विरेचनं वातपित्तदाहक्षयास्त्रजित् ॥ १४२ ॥ टीका-अंकोट १, दीर्घकाल २, अंकोल ३, निकोचक ४, ये हिंगोटके नाम हैं. ये कडवा, तीक्ष्ण, चिकना, गरम, कसेला, और हलका है ॥ १४० ॥ रेचन है, कृमि, शूल, आम, सूजन, ग्रह, विष, इनका हरनेवाला है. विसर्प, कफ, रक्तपित्त, मूषा, सर्प, इनके विषका हरनेवाला है ॥ १४१ ॥ और उसका फल, शीतल और मधुर है, कफवातहारक, धातुको बढानेवाला, भारी, बलको करनेवाला, रेचक, वात, पित्त, दाह, क्षय, रक्त, इनका जीतनेवाला है ॥ १४२ ॥ (अथ वरिआर, सहदेवी, काकहिया,) (गुलशकरी, इति बलाचतुष्टयं) वाघा वाघालिका वाघा सैव वाघालकाऽपि च । महाबला पीतपुष्पा सहदेवी च सा स्मृता ॥ १४३ ॥ ततोऽन्यातिबला ऋष्यप्रोक्ता कंकतिका च सा। गाङ्गेरुकी नागबला ह्येषा ह्रस्वा गवेधुका ॥ १४४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। बलाचतुष्टयं शीतं मधुरं बलकान्तिकृत् । स्निग्धं ग्राहि समीरास्त्रपित्तास्त्रक्षतनाशनम् ॥ १४५॥ बलामूलस्त्वचचूर्ण पीतं सक्षीरशर्करम् । मूत्रातिसारं हरति दृष्टमेतन्न संशयः ॥ १४६ ॥ हरेन्महाबला कच्छं भवेदातानुलोमनी । हन्यादतिबला मेहं पयसा सितया समम् ॥ १४७ ॥ टीका-वरियार, सहोदयी, ककहिया, गुलशकरी, ये बलाचतुष्टय हैं. वाघ १, वाघालिक २, ये वरियारके नाम हैं. और महाबला १, शीतपुष्पा २, सहदेवी ३, ये सहदेवीके नाम हैं ॥ १४४ ॥ और इससे दूसरी ककन्तिका, अतिबला, ये ककरैयाके नाम ऋषियोंने कहै हैं. और गांगेरुकी १, नागवला २, ह्रस्वा ३, गवेधुका ४, ये गुलशकरीके नाम हैं ॥ १४५ ॥ ये चारों शीतल, मधुर, वल और कन्तिकों करनेवाली, चिकनी, और काविज हैं. वात, रक्त, पित्त, रक्तक्षत, इनकी हारक हैं ॥ १४६ ॥ वरियारेकी छालके चूर्णकों दूध औ शक्करके साथ पीनेसें मूत्रातीसारकों हरती है, इसमें संशय नहीं. और महाबला मूत्रकृच्छ्रकों हरती है, और वातकों अनुलोमन करती है, और गुलशकरी दूध, और चीनीके साथ पीनेसें प्रमेहकों हरती है ॥ १४७॥ अथ लक्ष्मणानामगुणाः. पुत्रकाकाररक्ताल्पबिन्दुभिाञ्छिता सदा। लक्ष्मणा पुत्रजननी बस्तगन्धाकतिर्भवेत् ॥ १४८॥ कथिता पुत्रदावश्यं लक्ष्मणमुनिपुङ्गवैः । टीका-पुत्रकाकार रक्तके अल्प बिन्दुओंसें लांछित होती है, लक्ष्मणा, पुत्रजननी, बस्तगन्धाकृति ॥ १४८ ॥ पुत्रदा, ये लक्ष्मणाके नाम हैं. मुनिश्रेष्ठोंने लक्ष्मणाकों अवश्य पुत्रके देनेवाली कही है. अथ स्वर्णवल्लीनामगुणाः. स्वर्णवल्ली रक्तफला काकायुः काकवल्लरी ॥ १४९॥ स्वर्णवल्ली शिरःपीडां त्रिदोषान्हन्ति दुग्धदा। For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० हरीतक्यादिनिघंटे टीका-स्वर्णवल्ली १, रक्तफला २, काकायु ३, काकवल्लरी ४ ॥ १४९ ॥ स्वर्णवल्ली माथेकी पीडाकों और त्रिदोषको हरनेवाली है और दुग्धों करनेवाली है. अथ कार्पास(कपास)नामगुणाः. कार्पासी तुण्डकेरी च समुन्द्रान्ता च कथ्यते ॥ १५० ॥ कार्यासकी लघुः कोष्णा मधुरा वातनाशिनी । तत्पलाशं समीरघ्नं रक्तकन्मूत्रवर्धनम् ॥ १५१॥ तत्कर्णपीडिकातोदपूयास्त्रावविनाशनम् ।। तबीजं स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफकरं गुरु ॥ १५२ ॥ टीका-कार्पासी १, तुण्डकेरी २, समुद्रान्ता ३, ये कपासके नाम हैं ॥१५॥ ये हलका है, थोडा गरम है, मधुर है, और वातनाशक है, और इसका पत्ता वातका हरनेवाला है, रक्तकों करनेवाला है, और मूत्रकी वृद्धि करनेवाला है॥१५१॥ और कर्णपीडा, नाद, पूयका स्राव, इनकामी हरनेवाला है, और इस्का बीज दूधको बढानेवाला है, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला है, कफकारी है, और भारी है१५२ अथ वंशनामगुणाः. वंशस्त्वक्सारकिर्मीरत्वचिसारस्तृणध्वजः। शतपर्वा शतफलो वेणुमस्करतेजनाः॥१५३ ॥ वंशः सरो हिमः स्वादुः कषायो बस्तिशोधनः । छेदनः कफपित्तनः कुष्ठास्त्रव्रणशोथजित् ॥ १५४ ॥ तत्करीरः कटुः पाके रसे रूक्षो गुरुः सरः। कषायः कफरुत्स्वादुर्विदाही वातपित्तलः॥१५५ ॥ तद्यवास्तु सरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः । वातपित्तकरा उष्णा बदमूत्राः कफापहाः॥ १५६ ॥ टीका-वंश १, खकसार २, किर्मीर ३, तृणध्वज ४, शतपर्वा ५, शतफल ६, वेणु ७, मस्कर ८, तेजन ९, ये वांसके नाम हैं ॥ १५३ ॥ ये वायुकों अनुलोमन करनेवाला है, शीतल है, मधुर है, कसेला है, मूत्राशयकों शोधे है, छेदन, कफपित्तका हारक, कुष्ठ, रक्त, व्रण, सूजन, इनको जीतनेवाला है ॥१५४॥ इसका For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः । १०१ अङ्कुर पाकमें और रसमेंभी कडवा हैं, रूखा, और भारी है, दस्तावर है, कसेला है, कफकारक है, मधुर है, विदाही है, वातपित्तकारक है ॥ १५५ ॥ जो वायुकों अनुलोमन करनेवाले, रूखे, कसेले, कटुपाकवाले, वातपित्तकों करनेवाले, उष्ण, मूत्रकों रोकनेवाले, कफके हरनेवाले हैं ॥ १५६ ॥ अथ नलनामगुणाः. नलः पोटगलः शून्यमध्यश्च धमनस्तथा । नलस्तु मधुरस्तिक्तः कषायः कफरक्तजित् ॥ १५७ ॥ उष्णो हृद्वस्तियोन्यर्तिदाहपित्तविसर्पहृत् । टीका - नल १, पोटगल २, शून्यमध्य २, धमन ४, ये नलके नाम हैं. ये मधुर, तिक्त, कसेला, कफ रक्तकों जीतनेवाला है ॥ १५७ ॥ गरम, हृदय, मूत्राशय, योनि, इनकी पीडा, दाह, पित्त, विसर्प, इनका हरनेवाला है. भद्रमुञ्ज (अथ रामशर, शरपत ) इतिवा. भद्रमुञ्जः शरो बाणस्तेजनश्चक्षुवेष्टनः ॥ १५८ ॥ टीका -- भद्रमुञ्ज १, शर २, वाण ३, तेजन ४, चक्षुवेष्टन ५, ये सरपतेके नाम हैं ॥ १५८ ॥ अथ मुञ्जनामगुणाः, मुञ्ज मुञ्जातको वाणः स्थूलदर्भः सुमेखलः । मुञ्जयं तु मधुरं तुवरं शिशिरं तथा ॥ १५९ ॥ दाहतृष्णाविसर्पाममूत्रकृच्छ्राक्षिरोगजित् । दोषत्रयहरं दृष्यं मेखलासुपयुज्यते ॥ १६० ॥ टीका - मूंज १, मुंजातक २, वाण ३; स्थूलदर्भ ४, सुमेखल ५, ये मूंजके नाम हैं. दोनों मूंज मधुर, कसेला, और शीतल हैं, ॥ १५९ ॥ और दाह, तृषा, विसर्प, मूत्रकृच्छ्र, नेत्ररोग इनकों जीतनेवाला, है तथा तीनी दोषोंकों हरनेवाला है, धातुकों पुष्ट करनेवाला है, और मेखलामें उस्का उपयोग किया जाता है ॥ १६० ॥ अथ काशनामगुणाः. काशः काशेक्षुरुद्दिष्टः सः स्यादिक्षुसरस्तथा । For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे इक्ष्वालिकेक्षुगन्धा च तथा पोटगलः स्मृतः ॥ १६१॥ काशः स्यान्मधुरस्तिक्तः स्वदुपाकी हिमः शरः । मूत्रकृच्छ्राइमदाहास्त्रक्षयपित्तजरोगजित् ॥ १६२ ॥ टीका-कास १, कासेक्षु २, इक्षुसर ३, इक्ष्वालिक ४, इक्षुगन्धा ५, पोटगल ६, ये कासके नाम हैं ॥ १६१ ॥ ये मधुर, तिक्त, पाकमें मधुर, शीतल, दस्तावर, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, दाह, रक्तक्षय, और पित्तके रोगोंको जीतनेवाली है॥१६२॥ अथ गन्धपटेरनामगुणाः. गुन्द्रः पटेरकोरच्छः शृङ्गवेराभमूलकः। गुन्द्रः कषायो मधुरः शिशिरः पित्तरक्तजित् ॥ १६३ ॥ स्तन्यः शुक्ररजोमूत्रशोधनो मूत्रकृच्छ्रहृत् ॥ एरका गुन्द्रमूला च शिविर्गुन्द्रा शरीति च ॥ १६४ ॥ एरका शिशिरा वृष्या चक्षुष्या वातकोपिनी। मूत्रकृच्छ्राश्मरीदाहपित्तशोणितनाशिनी ॥ १६५॥ टीका-गन्धपटेर १, कोरच्छ २, शृंगवेराभ ३, मूलक ४, ये गंधपटेरके नाम हैं. ये कसेला, मधुर, शीतल, पित्तरक्तकों जीतनेवाला है ॥ १६३ ॥ दूधकों उत्पन्न करता है, शुक्र, रज, मूत्र, इनका शोषक है, और मूत्रकृच्छ्रका नाशक है. ए. रका १, गुंद्रमूला २, शिरा ३, गुन्द्रा ४, शरी ५, ये मोथीके नाम हैं ॥ १६४ ॥ ये शीतल, धातुकों पुष्ट करनेवाली है, नेत्रोंके वातकों प्रकोप करनेवाली है, मूत्रकृच्छ्र, पथरी, दाह, रक्तपित्त, इनको हरनेवाली है ॥ १६५ ॥ अथ कुशानामगुणाः. कुशो दर्भस्तथा बर्हिः सूच्यग्रो यज्ञभूषणः । ततोन्यो दीर्घपत्रः स्यात्क्षुरपत्रस्तथैव च ॥ १६६ ॥ दर्भद्वयं त्रिदोषघ्नं मधुरं तुवरं हिमम् । मूत्रकृच्छ्राइमरीतृष्णा बस्तिरुप्रदरास्वजित् ॥ १६७ ॥ टीका-कुश १, दर्भ २, वहीं ३, सूच्यग्र ४, यमभूषण, ये कुशाके नाम हैं. अब डाभके नाम कहे हैं इसकों दूसरेप्रकारका कुशा दीर्घपत्र १, क्षुरपत्र २, ये डा For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। भके नाम हैं ॥ १६६ ॥ दोनों प्रकारकी कुशा त्रिदोषनाशक है, मधुर है, कसेली है, और शीतल है, मूत्रकृच्छ्र, पथरी; तृषा, पेडूका दर्द, प्रदर, रक्त इनकी हरनेवाली है ॥ १६७॥ अथ कत्तृण(रोहिससोधिया)नामगुणाः. कत्तृणं रौहिषं देवजग्धं सौगन्धिकं तथा। भूतीकं ध्यामपौरं च श्यामकं धूमगन्धिकम् ॥ १६८॥ रौहिषं तुवरं तिक्तं कटुपाकं व्यपोहति । हृत्कण्ठव्याधिपित्तास्त्रशूलकासकफज्वरान् ॥ १६९ ॥ टीका-रोहिष, सोध्य, इसप्रकार लोकमें कहते हैं. कत्तृण १, रोहिष २, देवजग्ध ३, सौगन्धिक ४, भूतीक ५, ध्याम ६, पौर ७, ध्यामक ८, श्यामक ९, धूमगन्धिक १०, ये पीरीखसके नाम हैं ॥१६८ ॥ कसेली, चिरपरी, कडवी, और हृदय, कंठ, इनके रोग, रक्तपित्त, शूल, कास, कफ, ज्वर, इनको हरनेवाली है ॥ १६९ ॥ अथ भूस्तृण(भूतण)नामगुणाः. गुह्यबीजं तु भूतीकं सुगन्धं जम्बुकप्रियम् । भूस्तृणं तु भवेच्छत्रामालातृणकमित्यपि ॥ १७ ॥ भूतृणं कटुकं तिक्तं तीक्ष्णोष्णं रेचनं लघु । विदाही दीपनं रूक्षमनेत्र्यं मुखशोधनम् ॥ १७१॥ वृष्यं च बहुविट्कं च पित्तरक्तप्रदूषणम् । टीका-गुह्यबीज १, भूतीक २, सुगन्ध ३, जम्बुकप्रिय ४, ये भूतृणके नाम हैं. येभी एक घास है. और सुगंधयुत होती है. भूस्तृण, छत्रमाला, तृणक, येभी इसीके नाम हैं ॥१७०॥ ये चरपरा है, और कडवा, तीक्ष्ण, गरम, रेचन, हलका, विदाही, दीपन, सूक्ष्म, नेत्रोंका अहितकारी, और मुखका शोधन है ॥१७१॥ नपुंसकताको करनेवाला है, बहुत मलकों उपजावे है. और पित्तरक्तकों बिगाडनेवाला है. ___ अथ नीलदूर्वानामगुणाः. नीलदूर्वारुहानन्ता भार्गवी शतपर्विका ॥ १७२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०४ हरीतक्यादिनिघंटे शष्पा सहस्त्रवीर्या च शतवल्ली च कीर्तिता । नीलदूर्वा हिमा तिक्ता मधुरा तुव कफपित्तास्रवीसर्प तृष्णादाहत्वगामयान् । टीका नीलदूर्वा १, रुहा २, अनन्ता ३, भार्गवी ४, शतपर्विका ६, ये नीलदूर्वाके नाम हैं ॥ १७२ ॥ शप्पा, सहस्रवीर्या, शतवल्ली ये काली दुबके नाम हैं. कालीदूव शीतल है, कडवी है, मधुर है, कसेली है ॥ १७३ ॥ और कफ, रक्तपित्त, विसर्प, तृषा, दाह, त्वचा के रोग, इनकों हरनेवाली है. अथ श्वेतदूर्वानामगुणाः. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरा ॥ १७३ ॥ दूर्वा शुक्ला तु गोलोमी शतवीर्या च कथ्यते ॥ १७४ ॥ श्वेता दूर्वा कषाया स्यात् स्वादी व्रण्या च जीवनी | तिक्ता हिमा विसर्पास्त्रतृपित्तकफदाहहृत् ॥ १७५ ॥ टीका - श्वेतदूर्वा १, गोलोमी २, शतवीर्या ३, ये सफेद दूबके नाम हैं १७४ ये कसेली है, घावोंकों अच्छा करनेवाली है, जीवन है, कडवी, शीतल, कसेली है. विसर्प, रक्त, तृषा, पित्त, कफ, दाह, इनको हरनेवाली है ॥ १७५ ॥ अथ गाण्डरिदूविपाच इति च. For Private and Personal Use Only गण्डदूर्वा तु गण्डाली मत्स्याक्षी शकुलाक्षकः । गण्डदूर्वा हिमा लोहद्राविणी ग्राहिणी लघुः ॥ १७६ ॥ तिक्ता कषाया मधुरा वातकृत्कटुपाकिनी । दाहतृष्णावलासास्त्रकुष्ठपित्तज्वरापहा ॥ १७७ ॥ टीका- गण्डदूर्वा १, कंडाली २, मत्स्याक्षी ३, शकुलाक्षक ४, ये गांडरके नाम हैं. ये शीतल है, लोहेकों गलानेवाली है, कवज करनेवाली है ।। १७६ ॥ और कडवी, कसेली, मधुर, तथा वातल है, पाकमें चरपरी है, दाह, तृषा, कफ, रक्त, कुष्ठ, पित्तज्वर, इनकी हारक है ।। १७७ ।। अथ विदारीकंदनामगुणाः. वाराही कन्दरा वान्यैश्चर्मकारालुको मतः । अनूपसंभवे देशे वाराह इव लोमवान् ॥ १७८ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः । विदारी स्वादुकन्दा च सा तु क्रोष्ट्री सिता स्मृता । इक्षुगन्धा क्षीरवल्ली क्षीरशुक्ला पयस्विनी ॥ १७९ ॥ वाराहवदना गृष्टिदरेत्यपि कथ्यते । विदारी मधुरा स्निग्धा बृंहणी स्तन्यशुक्रदा ॥ १८० ॥ शीता स्वर्या मूत्रलाच जीवनी बलवर्णदा । गुरुः पित्तास्त्रपवनदाहान्हन्ति रसायनी ॥ १८१ ॥ १०५ टीका - और इस वाराहीकंदकों कोई आचार्य चर्मकारालुक कहते हैं, और ये आनूपदेशमें वराहके समान रोमवाला होता है ।। १७८ ॥ विदारी १, स्वादुकन्दा २, क्रोष्ट्री ३, सिता ४, इक्षुगन्धा ५, क्षीरवल्ली ६, क्षीरशुक्ला ७, पयस्विनी ८, ।। १७९ ।। वाराहवदना ९, गृष्टि १०, बदरा, ये विदारीकंदके नाम हैं, और ये मधुर होता है, स्निग्ध है, पुष्ट है, दुग्ध और शुक्रकों करनेवाला है ॥ १८० ॥ शीत, स्वरकों अच्छा करनेवाला है, मूत्रकों उत्पन्न करनेवाला है, जीवन है, बलवर्णकों देनेवाला है, भारी है, और रक्तपित्त, वात, दाह, इनका हरनेवाला है, और रसायनी है ॥ १८१ ॥ अथ मुसलीकन्दनामगुणाः. तालमूली तु विद्वद्भिर्मुसली परिकीर्तिता । मूली तु मधुरा वृष्या वीर्योष्णा बृंहणी गुरुः ॥ १८२ ॥ तिक्ता रसायनी हन्ति गुदजान्यनिलं तथा । टीका - तालमूलीकों विद्वानोंनें मुशली कही है. ये मूशली मधुर है, पुरुषत्वक करनेवाली है, वीर्यमें गरम है और पुष्ट तथा भारी होती है, और कडवी, रसायन है, तथा ववासीर बात उनको हरनेवाली है ॥ १८२ ॥ अथ शतावरीमहाशतावरीनामगुणाः. शतावरी बहुसुता भीरुरिन्दीवरी वरी ॥ १८३ ॥ नारायणी शतपदी शतवीर्या च पीवरी । महाशतावरी चान्या शतमूल्यर्धकण्टिका ॥ १८४ ॥ सहस्रवीर्या हेतुचरिष्या प्रोक्ता महोदरी । १४ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ हरीतक्यादिनिघंटे शतावरी गुरुः शीता तिक्ता स्वादी रसायनी ॥ १८५॥ मेधाग्निपुष्टिदा स्निग्धा नेत्र्या गुल्मातिसारजित् । शुक्रस्तन्यकरी बल्या वातपित्तास्त्रशोथजित् ॥ १८६ ॥ महाशतावरी मेध्या हृद्या वृष्या रसायनी। शीतवीर्या निहन्त्यमॆग्रहणीनयनामयान् ॥ १८७ ॥ टीका-शतावरी १, बहुसुता २, भीरु ३, इन्दीवरी ४, वरी ५, ॥ १८३ ॥ नारायणी ६, शतपदी ७, शतवीर्या ८, पीवरी ९, ये शतावरके नाम हैं. शतमूली १, अर्धकण्टिका २, ॥ १८४ ॥ सहस्रवीर्या ३, हेतुचरिष्या ४, महोदरी ५, ये महाशतावर अर्थात् बडी शतावरके नाम हैं. ये भारी है, शीतल है, कडवी, मधुर, रसायन ॥ १८५ ॥ और कान्ति, अग्नि, और पुष्टता, इनकों देनेवाली है, स्निग्ध है, और नेत्रोंकों हितकारक है, और वायगोला अतीसारकों जीतनेवाली है, शुक्रकों तथा दुग्धकों करनेवाली है, बलके हितकारी है, वात, पित्त, रक्त, मूजन, इनकोंभी जीतनेवाली है ॥ १८६ ॥ और बडी शतारी कान्तिको करनेवाली है, दिलकों ताकत देती है, पुरुषखकों बढाती है, रसायनी है, और बड़ा शतावर, ववासीर, संग्रहणी, नेत्ररोग, इनका नाश करनेवाली है ॥ १८७॥ __ अथ असगंधनामगुणाः. गन्धान्ता वाजिनामादिरश्वगन्धा हयाह्वया । वराहकर्णी वरदा तथोक्ता कुष्ठगन्धिनी ॥ १८८ ॥ अश्वगन्धानिलश्लेष्मश्वित्रशोथक्षयापहा । बल्या रसायनी तिक्ता कषाकोष्णातिशुक्रला ॥ १८९॥ टीका-गन्धान्ता १, घोडेकेनामआदिवाला २, अश्वगंधा ३, हयाह्वया ४, वराहकर्णी ५, वरदा ६, कुष्ठगन्धिनी ७, ये असगंधके नाम हैं ॥ १८८॥ ये वात, कफ, श्वित्र, सूजन, क्षय इनकी हरनेवाली, बलकों देनेवाली, रसायन है, चरपरी, कसेली, और खानेसें शुक्रकों उत्पन्न करती है ॥ १८९ ॥ अथ पाठानामगुणाः. पाठांबष्ठांबष्ठकी च प्राचीना पापचेलिका। एकाष्ठीला रसा प्रोक्ता पाठिका वरतिक्तका ॥ १९० ॥ For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , अम्बष्ठा, अम्बाह पाठाके नाम हैं। ल, ज्वर, वमन, गडूच्यादिवर्गः। १०७ पाठोष्णा कटुका तीक्ष्णा वातश्लेष्महरी लघुः। हन्ति शूलज्वरछर्दिकुष्ठातीसारदुजः ॥ १९१ ॥ दाहकण्डूविषश्वासकमिगुल्मगरव्रणान् ।। टीका-पाठा, अम्बष्ठा, अम्बष्ठकी, प्राचीना, पापचेलिका, एकाष्ठीला, रसा, पाठिका, वरतिक्तका ॥ १९० ॥ येह पाठाके नाम हैं, पाठा उष्ण, कडवी, तीक्ष्ण, वात कफको हरनेवाली, हलकी, होती है, और शूल, ज्वर, वमन, कुष्ठ, अतीसार, हृदयकी पीडा ॥१९॥ दाह, खुजली, विष, श्वास, कृमि, वायगोला, व्रण, इनकों हरती है. अथ श्वेतनिशोतनामगुणाः. श्वेता त्रिवृता भण्डी स्यानिवृता त्रिपुटापि च ॥ १९२ ॥ सर्वानुभूतिः सरला निशोता रेचनीति च । श्वेता तृवृद्रेचनी स्यात्स्वादुरुष्णा समीरहृत् ॥ १९३ ॥ रूक्षा पित्तज्वरश्लेष्मपित्तशोथोदरापहा । टीका---श्वेता, त्रिता, भण्डी, त्रिपुटा ॥ १९२ ॥ सर्वानुभूति, सरला, निशांता, रेचनी, येह मुफेद निशोतके नाम हैं. मुफेद निशोत दस्तावर होती है, मधुर, उष्ण, वातकी नाशक ॥ १९३ ॥ रूक्ष, पित्त, ज्वर, श्लेष्म, शोथ, उदर, इनको हरती है. अथ श्यामनिशोतनामगुणाः. त्रिवृच्छ्यामार्धचन्द्रा च पालिन्दी च सुषेणिका ॥ १९४॥ मसूरविदला कोलकैषिका कालमेषिका। श्यामा त्रिवृत् ततो हीनगुणा तीव्र विरेचनी ॥ १९५॥ मूर्छादाहमदभ्रान्तिकण्ठोत्कर्षणकारिणी । टीका-त्रिवृत्, श्यामा, अर्धचंद्रा, पालिन्दी, सुषेणिका ॥१९४॥ ममरविदला, कोलकैपिका, कालमेषिका, यह काली निशोतके नाम हैं. काली. निशोत उस्से हीनगुणवाली और अधिक दस्तावर होती है ॥ १९५ ॥ तथा मूर्छा, दाह, मद, भ्रान्ति, कंठका उत्कर्षण करनेवाली होती है. For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ हरीतक्यादिनिघंटे अथ लघुदन्तीनामगुणाः. लघुदन्ती विशल्या च स्यादुदुम्बरपर्ण्यपि ॥ १९६ ॥ तथैरण्डफला शीघ्रा श्येनघण्टा घुणप्रिया। वाराहाङ्गी च कथिता निकुम्भश्च मकूलकः ॥ १९७ ॥ टीका-लघुदन्ती, विशल्या, उदुम्बरपर्णी, ॥१९६॥ एरण्डफला, शीघ्रा, श्येनघंटा, घुणप्रिया, वाराहांगी, निकुम्भ, मकूलक, यह छोटी दन्तीके नाम हैं॥१९७॥ अथ बहद्दन्तीएरण्डपत्रविटपा. द्रवन्ती सा वरी चित्रा प्रत्यक्पर्ष्याखुपर्ण्यपि । चित्रोपचित्रा न्यग्रोधी प्रत्यक्श्रेण्याखुकर्ण्यपि ॥ १९८॥ दन्तिकं च सरं पाके रसे च कटु दीपनम् । गुदाङ्कुराश्मशूलार्शःकण्डूकुष्ठविदाहनुत् ॥ १९९ ॥ तीक्ष्णोष्णं हंति पित्तास्त्रकफशोथोदारकमीन् । टीका-जिसका फल जमालगोटा है, जो बडी दन्ती उसके पत्ते एरंडके पत्तोंके समान होते हैं. द्रवंती, वरी, चित्रा, प्रत्यक्पर्णी, आखुपर्णी, चित्रोपचित्रा, न्यायोधी, प्रत्यक्श्रेणी, आखुकर्णी, यह दंतीके नाम हैं ॥ १९८ ॥ दोनों दन्ती दस्तावर, पाक और रसमें कडवी, दीपन, बवासीर, पथरी, शूल, खाज, कुष्ठ, विदाह, इनकों हरती है ॥ १९९ ॥ तीखी, और उष्ण है, तथा रक्त, पित्त, कफ, शोथ, उदररोग, कृमि, इनको हरती है. __ अथ लघुदन्तीफलम्. क्षुद्रदन्तीफलं तु स्यान्मधुरं रसपाकयोः ॥ २०० ॥ शीतलं सृष्टविण्मूत्रगरशोथकफापहम् । जयपालो दन्तिबीजं विशेषातितिडीफलम् ॥ २०१॥ जयपालो गुरुः स्निग्धो रेची पित्तकफापहः । . टीका-छोटे जमालगोटेका फल रस और पाकमें मधुर होता है ॥ २०० ॥ और शीतल होता है, तथा मिलेहुए मलमूत्रको निकालनेवाला, विषके शोथकों तथा For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः । १०९ aai हरता है जयपाल, दन्तिबीज, तिन्तिडीफल यह जमालगोटेके नाम हैं ॥ २०१ ॥ जमालगोटा भारी, चिकना, रेचन, पित्तकफकों हरता है. इन्द्रवारुणी बडी इन्द्रकला. ऐन्द्रीन्द्रवारुणी चित्रा गवाक्षी च गवादिनी ॥ २०२ ॥ वारुणी च पराप्युक्ता सा विशाला महाफला । श्वेतपुष्पा मृगाक्षी च मृगैर्वारुमृगादनी ॥ २०३ ॥ गवादनीद्वयं तिक्तं पाके कटु सरं लघु । वीर्योष्णं कामलापित्तकफलीहोदरापहम् ॥ २०४ ॥ श्वासकासापहं कुष्ठगुल्मग्रन्थिव्रणप्रणुत् । प्रमेहमूढगर्भामगण्डामयविषापहम् ॥ २०५ ॥ टीका - एन्द्री इन्द्रवारुणी चित्रा गवाक्षी गवादिनी ॥ २०२ ॥ वारुणी ये इन्द्रायनके नाम हैं. दूसरी इन्द्रायनके नाम विशाला, महाफला, श्वेतपुष्पा, मृगाक्षी, मृगैर्वारु, मृगादनी, यह बडी इन्द्रायनके नाम हैं ॥ २०३ || दोनों इन्द्रायन तिक्त, पाकमें कडवी, दस्तावर, हलकी, वीर्यमें उष्ण हैं. तथा कामला, पित्त, कफ, प्लीह, उदररोग, इनकों हरती है ॥ २०४ ॥ और श्वास, कासके नाशक, तथा कुष्ठ, वायगोला, गांठ, व्रण, इनकोंभी हरती है, और प्रमेह, मूढगर्भस्राव, गंडरोग, गंण्डमाला, विष, इनकों हरती है ॥ २०५ ॥ अथ नीलीनामगुणाः. नीली तु नीलिनी तूली कालदोला च नीलिका । रञ्जनी श्रीफली तुत्था ग्रामीणा मधुपर्णिका ॥ २०६॥ कीतका कालकेशी च नीलपुष्पा च सा स्मृता । नीलिनी रेचनी तिक्ता केश्या मोहभ्रमापहा ॥ २०७ ॥ उष्णा हन्त्युदरलीहवातरक्तकफानिलान् । आमवातमुदावर्तं मन्दं च विषमुद्धतम् ॥ २०८ ॥ टीका नीली, नीलिनी, तूली, कालदोला, नीलिका, रंजनी, श्रीफली, तुत्था, ग्रामीणा, मधुपर्णिका ॥ २०६ ॥ क्रीतका, कालकेशी, नीलपुष्पा, ये नी For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० हरीतक्यादिनिघंटे लाके नाम हैं. नीला रेचन, तिक्त, केशके हित, मोह, भ्रमको हरता है ॥२०७॥ उष्ण, तथा उदररोग, प्लीह, वातरक्त, कफवात, आमवात, उदावर्त, मन्दाग्नि, इनकों हरती है, विष निकालनेवाली है ॥ २०८ ॥ अथ शरपुंख(सरफोका)नामगुणाः. शरपुङ्खः प्लीहशत्रुर्नीली वृक्षारुतिश्च सः। शरपुलो यकल्लीहगुल्मव्रणविषापहः ॥ २०९ ॥ तिक्तः कषायः कासास्त्रश्वासज्वरहरो लघुः। टीका-शरपुंख, प्लीहशत्रु, ये सरफोंकाके नाम हैं. यह नीलक्षके आकार होती है. सरफोंका तिल्ली, प्लीह, वायगोला, व्रण, विष, इनकों रहता है, और तिक्त, कसेला ॥ २०९ ॥ श्वास, ज्वर, इनकों हरता है, और हलका है. अथ दुरालभा(जवासा)नामगुणाः. यासो यवासो दुःस्पों धन्वयासः कुनाशकः ॥ २१०॥ दुरालभा दुरालम्भा समुद्रान्ता च रोदनी । गान्धारी कच्छुरानन्ता कषाया हरविग्रहा ॥ २११॥ यासः स्वादुः सरस्तिक्तस्तुवरः शीतलो लघुः । कफमेदोमदभ्रान्तिपित्तासृकुष्ठकासजित् ॥ २१२॥ तृष्णाविसर्पवातास्वमिज्वरहरः स्मृतः। यवासस्य गुणैस्तुल्या बुधैरुक्ता दुरालभा ॥ २१३ ॥ टीकाः —यास, यवास, दुःस्पर्श, धन्वयास, कुनाशक ॥२१०॥ दुरालभा, दु. रालंभा, समुद्रान्ता, रोदनी, गान्धारी, कच्छुरा, अनन्ता, कषाया, हरविग्रहा, ये जवासेके नाम हैं ॥ २११ ॥ जवासा मधुर, दस्तावर, तिक्त, कसेला, शीतल, हलका है और कफ, मेद, मद, भ्रान्ति, क्तरपित्त, कुष्ठ, कास, इनको हरनेवाला है ॥२१२॥ और तृषा, विसर्प, वात, रक्त, वमन इनको हरता है. पंडिताने जवासेके गुणके समान दुरालभाके गुण कहे हैं ॥ २१३ ॥ अथ मुण्डीनामगुणाः. मुण्डी भिक्षुरपि प्रोक्ता श्रावणी च तपोधना। For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ܕ ܕ ' गडूच्यादिवर्गः। श्रवणाहा मुण्डतिका तथा श्रवणशीर्षका ॥ २१४ ॥ महाश्रवणकान्या तु सा स्मृता भूकदम्बिका । कदम्बपुष्पिका च स्यादव्यथातितपस्विनी ॥ २१५॥ मुण्डतिका कटुः पाके वीर्योष्णा मधुरा लघुः । मेध्या गण्डापची कृच्छकमियोन्यतिपाण्डुनुत् ॥ २१९॥ श्लीपदारुच्यपस्मारठलीहमेदोगुदातिहत् । महामुण्डी च तत्तुल्या गुणैरुक्ता महर्षिभिः ॥ २१७ ॥ टीका-मुण्डी, भिक्षुश्रावणी, तपोधना, श्रवणाहा, मुंडतिका, श्रवणशीर्षका, यह मुण्डीके नाम हैं ॥ २१४ ॥ वडीमुंडी, महाश्रावणिका, भूकदम्बिका, कदम्बपुष्पिका, अव्यथा, अतितपस्विनी ॥२१५॥ मुण्डी पाकमें कडवी, वीर्यमें उष्ण, मधुर हलकी, होती है, कान्तीकों देनेवाली, गण्डमाल, अपची, मूत्रकृच्छ्र, कृमि, योनिपीडा, पाण्डुरोग, इनको हरनेवाली है ॥ २१६ ॥ और श्लीपद, अरुचि, मिरगी, प्लीह, मेद, गुदाकी पीडा, इनको हरनेवाली है. बडी मुंडी गुणोंमें उसीके समान महर्षियोंनें कही है ॥ २१७ ॥ अथ अपामार्ग(चिरचिरा)नामगुणाः. अपामार्गस्तु शिखरी ह्यधःशल्यो मयूरकः। मर्कटो दुर्ग्रहा चापि किणिही खरमञ्जरी ॥ २१८॥ अपामार्गः सरस्तीक्ष्णो दीपनस्तिक्तकः कटुः। पाचनो रोचनश्छर्दिकफमेदोऽनिलापहः ॥२१९॥ निहन्ति हृद्रुजाध्मार्शःकण्डूशूलोदरापची। टीका-अपामार्ग, शिखरी, अधःशल्या, मयूरक, मर्कटी, दुर्ग्रहा, किणिही, खरमंजरी, ये चिचेंडेके नाम हैं ॥ २१८ ॥ चिचेंडा दस्तावर, तीक्ष्ण, उष्ण, दीपन, तिक्त, कटु, पाचन, रोचन, कफ, मेद, वमन, वात, इनको हरता है ॥ २१९ ॥ हृदयकी पीडा आध्मान, बवासीर, खुजली, शूल उदररोग, अपची, इनकों हरता है. अथ रक्तापामार्ग(चिरचिरा)नामगुणाः. रक्तोन्यो वशिरो वृत्तफलो धामार्गवोऽपि च ॥ २२० ॥ For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० हरीतक्यादिनिघंटे प्रत्यक्पर्णी केशपर्णी कथिता कपिपिप्पली । अपामार्गोऽरुणो वातविष्टम्भी कफत् हिमः ॥ २२१ ॥ रूक्षः पूर्वगुणैन्यूनः कथितो गुणवेदिभिः । अपामार्गफलं स्वादु रसे पाके च दुर्जरम् ॥ २२२ ॥ विष्टम्भि वातलं रूक्षं रक्तपित्तप्रसादनम् । टीका-दूसरा लाल वशिर, वृत्तफल, अपामार्ग ॥ २२० ॥ प्रत्यकपर्णी, केशपर्णी, कपिपिप्पली, यह लाल चिचेरेके नाम हैं. लाल चिचेरा अरुण वातकों वि. टंभ करनेवाला, कफकों करनेवाला, शीतल ॥ २२१ ॥ रूक्ष, और पहलेके गुणोंसें हीनगुणके जाननेवालोंने ऐसा कहा है. चिचेरेका फल रसमें मधुर, और पाकमेंभी मधुर, विदग्ध ॥ २२२ ॥ विष्टंभकों करनेवाला, वातकों करनेवाला, रूखा, रक्तपित्तकों अच्छा करनेवाला होता है. अथ कोकिलाक्ष(तालमखाना)नामगुणाः. कोकिलाक्षस्तु काकेक्षुरिक्षुरः क्षुरकः क्षुरः ॥ २२३ ॥ इक्षुः काण्डेक्षुरप्युक्त इक्षुगन्धेझुवालिका । क्षुरकः शीतलो वृष्यः स्वादम्लः पित्तलस्तथा ॥ २२४ ॥ तिक्तो वातामशोथाश्मतृष्णादृष्ट्यनिलास्त्रजित् । टीका-कोकिलाक्ष, काकेक्षु, इक्षुर, क्षुरक, क्षुर ॥ २२३ ॥ इक्षु, काण्डेक्षु, इक्षुगन्धा, इक्षुवालिका, यह तालमखानेके नाम हैं. तालमखाना शीतल, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, मधुर, अम्लपित्तकों उत्पन्न करनेवाला ॥ २२४ ॥ तिक्त, आमवात, पथरी, शोथ तृषा, दृष्टिरोग, वातरक्त, इनको हरनेवाला है. अथ ग्रंथि(हडसंघारी)नामगुणाः. ग्रन्थिमानस्थिसंहारी वज्राङ्गी चास्थिशृङ्खला। अस्थिसंहारकः प्रोक्तो वातश्लेष्महरोऽस्थियुक् ॥ २२५ ॥ उष्णः सरः कृमिघ्नश्च दुर्नामनोऽक्षिरोगजित् । रूक्षः स्वादुर्लघुर्वष्यः पाचनः पित्तलः स्मृतः ॥ २२६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३ गहूच्यादिवर्गः । काण्डत्वग्विरहितमस्थि शृङ्खलाया माषार्द्रं द्विदलमकंचुकं तदर्धम् । सम्पिष्टं तदनु ततस्तिलस्य तैले सम्पक्कं वटकमतीव वातहारि २२७ टीका- ग्रन्थिमान्, अस्थिसंहार, वज्रांगी, अस्थिश्रृंखला, अस्थिसंहारक, यह हरसिंघारके नाम हैं, हरसिंघार वातकफकों हरता है, और हड्डियोंकों जोड़नेवाला ॥ २२५ ॥ उष्ण, दस्तावर, कृमिकों, हरता है, ववासीरकों हरता है, नेत्ररोगकों हरनेवाला, रूखा, मधुर, हलका, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, पाचन, पिasों करनेवाला कहा गया है || २२६ || तालमखाना त्वचासें रहित हरसिंगार - काभी गीला उडद, चुक, उस्सें आधा इनकों पीसकै उस्के पश्चात् उस्को तिलके तेल में पकाया वटक अतिवातकों हरता है ।। २२७ ॥ अथ कुमारी (घीकुवार) नामगुणाः. कुमारी गृहकन्या च कन्या घृतकुमारिका । कुमारी भेदनी शीता तिक्ता नेत्र्या रसायनी ॥ २२८ ॥ मधुरा बृंहणी बल्या वृष्या वातविषप्रणुत् । गुल्मलीहरु दृद्धिकफज्वरहरी हरेत् ॥ २२९ ॥ ग्रन्थ्यग्निदग्धविस्फोटपित्तरक्तत्वगामयान् । टीका - कुमारी, ग्रहकन्या, कन्या, घृतकुमारी, यह बीकुवारके नाम हैं. घीकुवार भेदन, शीत, तिक्त, नेत्रका हित, रसायन ॥ २२८ ॥ मधुर, पुष्ट, बलकों बढानेवाला, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, वात, विषकों हरता है, गुल्म, वायगोला, ली, तिल्ली, अंडवृद्धि, कफज्वर, इनकों हरता है || २२९ ॥ और ग्रन्थि, अग्निदग्ध, विस्फोट, पित्तरक्त, त्वचाके रोग, इनकों हरता है. अथ श्वेतपुनर्नवानामगुणाः. पुनर्नवा श्वेतमूला शोथनी दीर्घपत्रिका ॥ २३० ॥ कटुः कषायानुरसा पाण्डुघ्नी दीपनी सरा | शोफानिलगरश्लेष्महरी व्रण्योदरप्रणुत् ॥ २३१ ॥ टीका - पुनर्नवा, श्वेतमूला, शोथन्नी, दीर्घपत्रिका, यह सफेद गदहपूरना के 9'3 For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे नाम हैं ॥ २३० ॥ सफेद पुनर्नवा कसेला, पाण्डुरोगकों हरता है, दीपन और वात, विष, कफ, इनकों हरता है, तथा उदररोगकों हरता है ।। २३१ ॥ अथ रक्तपुष्पपुनर्नवानामगुणाः. पुनर्नवाऽपरा रक्ता रक्तपुष्पा शिलाटिका । शोथनः क्षुद्रवर्षाभूर्वृषकेतुः कपिल्लकः ॥ २३२ ॥ पुनर्नवारुणा तिक्ता कटुपाका हिमा लघुः । वातला ग्राहिणी श्लेष्मपित्तरक्तविनाशिनी ॥ २३३॥ टीकाः-पुनर्नवा दूसरी रक्तपुष्पा, शिलाटिका, यह लालपुनर्नवाके नाम हैं. शोथन, क्षुद्र, वर्षाभू, वृषकेतु, कपिल्लक, यह पुनर्नवाके नाम हैं ॥ २३२ ॥ पुननवा लाल, तिक्त, पाकमें कटु, शीतल, हलका, वातको उत्पन्न करनेवाला, अग्नि, कफ, पित्त, रक्त, इनकों हरता है ॥ २३३ ।। अथ गन्धप्रसारणीनामगुणाः. प्रसारणी राजबला भद्रपर्णी प्रतापनी। सरणी सारणी मद्रा बला चापि कटम्भरा ॥ २३४ ॥ प्रसारिणी गुरुर्वृष्या बलसन्धानरुत्सरा । वीर्योष्णा वातहत् तिक्ता वातरक्तकफापहा ॥ २३५॥ टीका:-प्रसारणी, राजबला, भद्रपर्णी, प्रतापनी, सरणी, सारणी, भद्रा, बला, कटम्भरा, यह गन्धप्रसारणीके नाम हैं ॥ २३४ ॥ गन्धप्रसारणी भारी, शु. क्रकों उत्पन्न करनेवाली, बलकों देनेवाली, हड्डियोंकों जोडनेवाली, दस्तावर, वीर्यमें उष्ण, वातकों हरती है, तिक्त है, वातरक्त, कफ, इनको हरनेवाली है ॥ २३५ ॥ अथ इंद्रजंबूक(करिआवांसा)नामगुणाः. इन्द्रजम्बूकवत्पत्रा सुगन्धा कलघण्टिका । कृष्णा तु शारिवा श्यामा गोपी गोपवधूश्च सा ॥ २३६ ॥ टीका-ये बडे जामनके पत्तोंके समान पत्ते होते हैं, और सुगन्धभी होता है, कलघंटिका, मुगन्धा, इन्द्रजम्बूक पत्तोंके समान पत्तोंवाली कृष्णा, सारिवा, श्यामा, गोपी, गोपवधू, यह काले सारिवाके नाम हैं. उस्को पूर्वसांउ कहते हैं २३६ For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। शारिवा(गौरीआसाऊ)नामगुणाः. (इयमपि जम्बूवत्पत्रा दुग्धगर्भा व्रततिर्भवति) धवला शारिवा गोपी गोपकन्या कशोदरी । स्फोटा श्यामागोपवल्ली लताऽस्फोता च चन्दना ॥२३७॥ (क) गोपी गोपस्य स्त्री पुंयोगादिङीप् । गोपा गां पातीति गोपा गोपकन्या श्यामापदेन कृष्णा श्वेतापि सारिवा कथ्यते सा। श्वेतेन सारिवापदस्य प्रयुक्तत्वात् । सारिवा च निशि श्यामाश्यामा च हरिता सिता। सारिवायुगलं स्वादु स्निग्धं शुक्रकरं गुरु ॥ २३८॥ अग्निमान्द्यारुचिश्वासकासामविषनाशनम् । दोषत्रयामप्रदरज्वरातीसारनाशनम् ॥ २३९॥ टीका-इस्केभी जमनकेसे पत्ते होते हैं, भीतर दूध होता है, और लतावाली होती है. धवला, सारिवा, मोपी, गोपकन्या, कृशोदरी, स्फोटा, श्यामा, गोपवल्ली, लता, आस्फेता, चन्दना ॥२३७॥ यह श्वेतसारिवाके नाम हैं. (क) (गोपी) गोपकी स्त्री. पुंयोगसें डीप् प्रत्यय हुवा है. (गोपा) गायकों जो रक्षण करता है वह गोप है (गोपकन्या) श्यामापदसें काली और सुपेद सारिवा कही है, वह श्वेतसारिवापदके प्रयोग होनेसें. वोह जैसे सारिवामें निशि, श्यामा, अश्यामा, हरिता, सिता, इसप्रकार कहा है. दोनों सारिवा मधुर चिकनी शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, भारी है ॥२३८॥ और अग्निमान्य, अरुचि, श्वास, कास, आम, विष इनकों हरती है, तथा त्रिदोष रक्तप्रदर, ज्वरातिसार, इनका नाश करनेवाली है ॥ २३९ ॥ अथ शुगराजनामगुणाः. भृङ्गराजो भृङ्गरजो मार्कवो भृङ्ग एव च। अङ्गारकः केशराजो भृङ्गारः केशरञ्जनः ॥ २४०॥ भृङ्गारः कटुकस्तीक्ष्णो रूक्षोष्णः कफवातनुत् । केश्यस्त्वयः कमिश्वासकासशोथामपाण्डुनुत् ॥ २४१॥ दन्त्यो रसायनो बल्यः कुष्ठनेत्रशिरोतिनुत्। For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे टीका-भंगराज, ,गरज, मार्कव, भंग, अंगारक, केशराज, गार, केशरजन, यह भंगेरके नाम हैं, ॥२४२॥ भंगेरा कडवा, तीखा, रूखा, गरम, कफवातकों हरता है, और केशकों हित, खचाको अच्छा करनेवाला, और कृमि, श्वास, कास, शोथ, पाण्डुरोगकों हरता है ।। २४१ ॥ और दांतोंकों अच्छा करनेवाला, रसायन, बलकों देनेवाला, कुष्ठ, मेदरोग, शिरकी पीडा, इनको हरनेवाला है. शणपुप्पी(हुली)नामगुणाः. शणपुष्पी कटुस्तिक्ता वामनी कफपित्तजित् ॥ २४२॥ शणपुष्पी स्मृता घण्टा शणपुष्पसमारूतिः। टीका-इसको हुलीभी कहते है. इस्के फूल सणके फूलके समान होते हैं. शणपुष्पी, घण्टा, पणपुच्छसमाकृति यह हुलीके नाम हैं ॥ २४२॥ हुली कडवी, तिक्त, वमनको करनेवाली, कफपित्तको हरनेवाली है. अथ त्रायमाणानामगुणाः. बलभद्रा लायमाणा त्रायन्ती गिरिसानुजा ॥ २४३ ॥ त्रायन्ती तुवरा तिक्ता सरा पित्तकफापहा । ज्वरहृद्रोगगुल्माशीभ्रमशूलविषप्रणुत् ॥ २४४ ॥ टीका-बलभद्रा, त्रायमाणा, त्रायंती गिरसानुजा, यह त्रायमाणके नाम हैं ॥२४३ ॥ त्रायमाणा कसेली, तिक्त, दस्तावर, पित्तकफकों हरती है, और ज्वर, हृद्रोग, वायगोला, बवासीर, भ्रम, शूल, विष, इनकों हरती है ॥ २४४ ॥ अथ चूर्णहारनामगुणाः. मूर्वा मधुरसा देवी मोरटा तेजनी स्रवा। मधूलिका मधुश्रेणी गोकर्णी पीलुपर्ण्यपि ॥ २४५ ॥ मूर्वा सरा गुरुः स्वादुस्तिक्ता पित्तासमेहनुत् । त्रिदोषतृष्णाहृद्रोगकण्डूकुष्ठज्वरापहा ॥ २४६ ॥ टीका-मूर्वा, मधुरसा, देवी, मोरटा, तेजनी, सवा, मधूलिका, मधुश्रेणी, गोकर्की, पीलुपर्णी, यह मरोडफलीके नाम हैं ॥ २४५ ॥ मरोडफली, मल, वातकों For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। ११७ नीचे करनेवाली, भारी, मधुर, तिक्त, रक्तपित्त, प्रमेह, इनकों हरती है, और त्रिदोष, तृषा, हृद्रोग, खुजली, कुष्ठ, ज्वर, इनकोंभी हरती है ॥ २४६ ॥ अथ काकमाची(कवैया)नामगुणाः. काकमाची ध्वाङ्गमाची काकाहा चैव वायसी । काकमाची त्रिदोषनी स्निग्धोष्णा स्वरशुक्रदा ॥ २४७ ॥ तिक्ता रसायनी शोथकुष्ठाझैज्वरमेहजित् । - कटुर्नेत्रहिता हिक्काच्छर्दिहृद्रोगनाशिनी ॥ २४८॥ ___टीकाः-काकमाची, ध्वांक्षमाची, काकाहा, वायसी, यह किमाचके नाम हैं. किमाच त्रिदोषहारक, चिकनी, उष्ण, स्वर, शुक्रकों करनेवाली, ॥ २४७॥ तिक्त, रसायन, शोथ, कुष्ठ, बवासीर, ज्वर, प्रमेह, इनको हरनेवाली है, कडवी, नेत्रके हित है, हुचकी, वमन, हृदयरोग इनको हरनेवाली है ॥ २४८ ॥ अथ काकनासा(कौआढोढी)नामगुणाः. काकनासा तु काकाङ्गी काकतुण्डफला च सा। काकनासा कषायोष्णा कटुका रसपाकयोः ॥ २४९ ॥ कफनी वामनी तिक्ता शोथार्श:श्वित्रकुष्ठहत् । टीकाः-काकनासा, काकाङ्गी, काकतुंडफला, यह कौवाढोढीके नाम हैं. कौवाढोढी कसेली, रसपाकमें कडवी होती है ॥ २४९ ॥ और कफकों हरती है, वमन करनेवाली, तिक्त, सूजन, बवासीर, श्वित्र, कुष्ठ, इनकों हरती है. __ अथ काकजंघा(मसी)नामगुणाः. काकजंघा नदीकांता काकतिक्ता सुलोमशा ॥ २५० ॥ पारावतपदी दासी काका चापि प्रकीर्तिता । काकजंघा हिमा तिक्ता कषाया कफपित्तजित् ॥ २५१ ॥ निहन्ति ज्वरपित्तास्त्रज्वरकण्डूविषकमीन् । टीका-काकजंघा इस्को लोकमें मसी ऐसी कहते हैं. काकजंघा, नदीकांता, काकतिक्ता, सुलोमशा ॥ २५०॥ पारावतपदी, दासी, काका, यह मसीके नाम हैं. For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ हरीतक्यादिनिघंटे काकजंघा तिक्त, शीतल, कसेली, कफपित्तकों हरती है ।। २५१ ।। और ज्वर, पित्त, रक्त, कृमि, कण्डू, विष, इनकों हरती है, अथ नागपुष्पी नामगुणाः. नागपुष्पी श्वेतपुष्पा नागिनी रामदूतिका ॥ २५२ ॥ नागिनी रोचनी तिक्ता तीक्ष्णोष्णा कफपित्तनुत् । विनिहन्ति विषं शूलं योनिदोषवमिकमीन् ॥ २५३ ॥ टीका - नागपुष्पी, श्वेतपुष्पा, नागिनी, रामदूतिका, यह नागिनीके नाम हैं, || २५२ || नागिनी रुचिकों करनेवाली, तिक्त, तीखी, उष्ण, कफ पित्तकों हरती है. और विष, शूल, योनिदोष, वमन, कृमि इनकों हरती है ।। २५३ ॥ अथ मेषशृंगी ( मेढासींगी) नामगुणाः. मेषशृङ्गी विषाणी स्यान्मेषवल्लयजशृङ्गिका । मेषशृङ्गी रसे तिक्ता वातला श्वासकासहृत् ॥ २५४ ॥ रूक्षा पाके कटुतिक्ता व्रणश्लेष्माक्षिशूलनुत् । मेषशृङ्गीफलं तिक्तं कुष्ठमेहकफप्रणुत् ॥ २५५ ॥ दीपनं स्रंसनं कासकमिव्रणविषापहम् । टीका - मेषशृंगी, विषाणी, मेषवल्ली, अजभृंगिका, यह मेंढासींगीके नाम हैं, मेढासींगी रसमें तिक्त, वातकों उत्पन्न करनेवाली, श्वास, कासकों हरती है ॥२५४॥ और रूखी, पाकमें कटु, तिक्त, व्रण, कफ, नेत्र, शूल, इनकों हरनेवाली है. मेढासींगीका फल तिक्त है, कुष्ठ, प्रमेह, कफ, इनकों हरता है || २५५ ॥ दीपन, दस्तावर, कास, कृमि व्रण, विष, इनकों हरता है, अथ हंसपादीनामगुणाः. हंसपदी हंसपदी कीटमाता त्रिपादिका ॥ २५६ ॥ हंसपादी गुरुः शीता हन्ति रक्तविषव्रणान् । विसर्पदाहातीसारताभूतानिरोहिणी ॥ २५७ ॥ टीका- हंसपादी, हसपदी, कीटमाता, त्रिपादिका, यह हंसपदीके नाम हैं ॥ २५६ ॥ हंसपदी भारी, शीत, रक्त, विष, व्रणकों हरती है, और विसर्प, दाह, अतीसार, लूता, भूत, अग्नि, रोहिणी, इनकोंभी हरती है ॥ २५७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गहूच्यादिवर्गः । अथ सोमलता तथा आकाशवल्लीना मगुणाः. सोमवल्ली सोमलता सोमक्षीरी द्विजप्रिया । सोमवल्ली त्रिदोषनी कटुस्तिक्ता रसायनी ॥ २५८ ॥ आकाशवल्ली तु बुधैः कथितामरवल्लरी | वल्ली ग्राहिणी तिक्ता पिच्छिलाक्षामयापहा ॥ २५९ ॥ तुराकिरी हा पित्तश्लेष्मामनाशिनी । ठीका - सोमवल्ली, सोमलता, सौमक्षीरी, द्विजप्रिया, यह सोमलता के नाम हैंसोमलता, त्रिदोष हरती है, कडवी, तिक्त, रसायनी है ॥ २५८ ॥ आकाशवल्लीकों पंडित अमरवेल कहते हैं. आकाशवल्ली, काविज, तिक्त, चेपदार, राजयक्ष्मारोगकों हरती ॥२५९॥ कसेली अग्निकों करनेवाली, हृद्य, पित्त, कफ, इनकों हरती है, ११९ अथ पातालगरुडी तथा वन्दानामगुणाः. छिलिहिण्टो महामूलः पातालगरुडाह्वयः ॥ २६० ॥ छिलिहिण्टः परं वृष्यः कफघ्नः पवनापहः । वन्दा वृक्षादनी वृक्षभक्ष्या वृक्षरुहापि च ॥ २६१ ॥ बन्दाकः स्याद्धिमस्तिक्तः कषायो मधुरो रसे । माङ्गल्यकफवातास्त्ररक्षोव्रणविषापहः ॥ २६२ ॥ टीका -- छिलिहिण्ट, महामूल, पातालगरुडीनामवाली, यह पातालगरुडीके नाम हैं || २६० || पातालगरुडी अत्यन्त शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, कफ हरती arant हरती है. वृक्षादनी, बन्दा, वृक्षभक्षा, वृक्षरुहा || २६१ || यह वन्दाकके नाम हैं. बन्दाक शीतल, तिक्त, कसेला, रसमें मधुर है, और मंगलकारक, कफ, वात, रक्त, राक्षस, व्रण, विष, इनकों हरता है ॥ २६२ ॥ अथ वटपत्र नामगुणाः. वटपत्री तु कथिता मोहिनी रेचनी बुधैः । वटपत्री कषायोष्णा योनिमूत्रगदापहा ॥ २६३ ॥ हिपत्री तु कबरी पृथ्वीका प्रथुका पृथुः । For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे हिङ्गपत्री भवेद्वच्या तीक्ष्णोष्णा पाचनी कटुः ॥ २६४॥ हृद्वस्तिरुग्विबन्धाशःश्लेष्मगुल्मानिलापहा । टीका-वटपत्री, मोहिनी, रेचनी, यह वटपत्रीके नाम पंडितोंने कहे हैं. वटपत्री, कसेली, गरम है, और योनिरोग, मूत्ररोग, इनकों हरती है ॥२६३॥ हिंगुपत्री, कवरी, पृथ्वीका, पृथुका, पृथु, यह हिंगुपुत्रीके नाम हैं. हिंगुपत्री रुचिकों करनेवाली, तीखी, उष्ण, पाचन कडवी है ॥२६४॥ और हृदय, पेडकी पीडा, विवन्ध, ववासीर, कफ, वायगोला, वात, इनको हरती है. अथ वंशपत्री, मत्स्याक्षीनामगुणाः. वंशपत्री वेणुपत्री पिङ्गा हिड शिवाटिका ॥ २६५ ॥ हिडपत्री गुणा विज्ञैवंशपत्री च कीर्तिता।। मत्स्याक्षी बालिका मत्स्यगन्धा मत्स्यादनीति च ॥२६६॥ मत्स्याक्षी ग्राहिणी शीता कुष्ठपित्तकफास्त्रजित् । लघुस्तिक्ता कषाया च स्वादी कटुविपाकिनी ॥ २६७ ॥ टीका:-पत्री, वेणुपत्री, पिण्डा, हिंगुशिवाटिका यह वंशपत्रीके नाम हैं. ॥२६५ ॥ शपत्री हिंगुपत्रीके समान गुणमें कहीं है मत्स्याक्षी इस्को मच्छेगी और मछरिया ऐसा कहते हैं. ॥२६६॥ मत्स्याक्षी, बाहिका, मत्स्यगन्धा, मत्स्यादनी, यह मत्स्याक्षीके नाम हैं. मत्साक्षी काविज, शीतल है, और पित्त, कुष्ट, कफ, रक्त, इनको हरनेवाली है, और हलकी, तिक्त, कसेली, मधुर, पाकमें कटु होती है॥२६॥ अथ साक्षी(सरहटीगण्डिनी)नामगुणाः. सर्पाक्षी स्यात्तु गण्डाली तथा नाडीकपालकाः । सर्पाक्षी कटुका तिक्ता सोष्णा कमिविकन्तनी ॥ २६८ ॥ वृश्चिकोन्दुरसर्पाणां विषघ्नी व्रणरोपणी। टीका-सर्पाक्षीकों सरहटी, गंडिनी ऐसाभी कहते हैं, साक्षी गंडाली, तथा नाडी कपालक, यह साक्षीके नाम हैं. साक्षी कडवी, तिक्त, कुछ, गरम होती है, और कृमिकों हरती है ॥ २६८ ॥ और विच्छू, चूहा, सांप, इनके विषकों हरती है, और घावकों भरनेवाली है. For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१ गडूच्यादिवर्गः। अथ शङ्खपुष्पीनामगुणाः. शङ्खपुष्पी तु शङ्खाह्वा माङ्गल्यकुसुमापि च ॥ २६९॥ शङ्खपुष्पी सरा मेध्या वृष्या मानसरोगहृत् । रसायनी कषायोष्णा स्मृतिकान्तिबलाग्निदा ॥ २७० ॥ दोषापस्मारभूतादि कुष्ठकमिविषप्रणुत् । टीका-शंखपुष्पी, शंखाव्हा, मागल्यकुसुमा, यह शंखपुष्पीके नाम हैं ॥२६९॥ शंखपुष्पी मल, वातको अनुलोम करनेवाली, कान्तिको बढानेवाली, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, मानसरोगकों हरती है. और रसायन, कसेली, गरम, स्मृति, कान्ति, बल, अग्नि इनकों देनेवाली ॥ २७० ॥ और मृगी, भूत, कुष्ट, कृमि, विष, इनकों हरती है. अथ अर्कपुष्पीतक्षलज्जालुनामगुणाः. अर्कपुष्पी क्रूरकर्मा पयस्या जलकामुका ॥ २७१ ॥ अर्कपुष्पी कमिश्लेष्ममेहपित्तविकारजित् । लजालुः स्यात् शमीपत्रा समझा जलकारिका ॥ २७२ ॥ रक्तपादी नमस्कारी नाना खदिरकेत्यपि । लज्जालुः शीतला तिक्ता कषाया कफपित्तजित् ॥ २७३॥ टीका-अर्कपुष्पी, क्रूरकर्मा, पयस्या, जलकामुका, यह अर्कपुष्पीके नाम हैं. ॥२७॥ अर्कपुष्पी कृमि, कफ, प्रमेह, पित्तरोग, इनकों हरती है. लाजालू, शमीपत्री, समंगा, जलकारिका, रक्तपादी, नमस्कारी, खदिरका यह लजालूके नाम हैं ॥ २७२ ॥ लाजालू शीतल, तिक्त, कसेला होताहै और कफ, पित्तको हरनेवाला, तथा रक्त, पित्त, अतीसार, योनिरोग, इनको हरता है ॥ २७३ ॥ अलम्बुषा, तथा दूधी नामगुणाः. रक्तपित्तमतीसारं योनिरोगान् विनाशयेत् । अलम्बुषा स्वरत्वक् च तथा मेदोगला स्मृता । अलम्बुषा लघुः स्वादुः कमिपित्तकफापहा ॥ २७१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे दुग्धिका स्वादुपर्णी स्यात्क्षीरा विक्षीरणी तथा । दुग्धिकोष्णा गुरू रूक्षा वातला गर्भकारिणी ॥ २७५ ॥ स्वादुक्षीरा कटुस्तिक्ता सृष्टमूत्रमलापहा । स्वादुर्विष्टम्भिनी वृष्या कफकुष्ठकमिप्रणुत् ॥ २७६ ॥ टीका-अलम्बुषा, स्वरखक, मेदोगला, यह हाउवेरके नाम हैं. हाउवेर हलका, मधुर, कृमि, पित्त, कफ़ इनकों हरता है ॥ २७४ ॥ दुग्धिका, स्वादुपर्णी, क्षीरा, विक्षीरणी, यह दुग्धीके नाम हैं. दुग्धी गरम, भारी, रूखी, वातकों करनेवाली और गर्भकों करनेवाली ॥ २७५ ॥ और दुग्धवाली, कडवी, तिक्त, मूत्रकों करनेवाली, मलहरती है मधुर, विष्टम्भको करनेवाली, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, और कफ, कुष्ठ, कृमि, इनको हरती है ॥ २७६ ॥ अथ भुइआंवरा तथा वरंभी. भूम्यामलकिका प्रोक्ता शिवा तामलकीति च । बहुपत्रा बहुफला बहुवीर्या जटापि च ॥ २७७॥ भूधात्री वातकत्तिक्ता कषाया मधुरा हिमा। पिपासाकासपित्तास्त्रकफकण्डूक्षतापहा ॥ २७८ ॥ ब्राह्मी कपोतवङ्का च शिवमल्ली सरस्वती। मण्डूकपर्णी माण्डूकी त्वाष्ट्री दिव्या महौषधी ॥ २७९ ॥ ब्राह्मी हिमा सरा तिक्ता लघुर्मेध्या च शीतला। कषाया मधुरा स्वादुपाकायुष्या रसायनी ॥ २८० ॥ स्वर्या स्मृतिप्रदा कुष्टपाण्डूमेहास्त्रकासजित् । विषशोथज्वरहरी तहन्मण्डूकपर्णिनी ॥ २८१ ॥ टीका-भूम्यामलकि, शिवा, तामलकी, बहुपत्रा, बहुफला, बहुवीर्या, जटा, यह भुईआंवलेके नाम हैं ॥२७७॥ भुईआंवला वातकों करनेवाला, तिक्त, कसेला, मधुर, शीतल है. और प्यास, कास, रक्तपित्त, कफ, खुजली, क्षत इनकों हरता है ॥२७८॥ ब्राह्मी, कपोतवंका, सोमवल्ली, सरस्वती, मण्डूकपर्णी, मण्डूकी, त्वाष्ट्री, दिव्या, महोषधी यह ब्राह्मी और मण्डूकपर्णीके नाम हैं ॥ २७९ ॥ ब्राह्मी शीतल, सर, For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गट्टच्यादिवर्गः । १२३ तिक्त, हलकी, बुद्धीकों बढानेवाली है, शीतल, कसेली, मधुर पाकमें मधुर आयुकों देनेवाली, रसायनी है ॥ २८० ॥ और स्वरकों अच्छा करनेवाली, स्मृतिकों देनेवाली तथा कुष्ठ, पाण्डुरोग, प्रमेह, रक्त, कास, इनकों हरनेवाली है. और विष, शोथ, ज्वर, इनकों हरती है. मण्डूकपर्णाभी गुणेंसें ब्रह्मीके समान है || २८१ ॥ अथ द्रोणपुष्पी (गुमा) नामगुणाः. द्रोणा च द्रोणपुष्पी च फलेपुष्पा च तिक्तिका । द्रोणपुष्पी गुरुः स्वाद्वी रुक्षोष्णा वातपित्तकृत् ॥ २८२ ॥ सतीक्ष्णलवणा स्वादुपाका कट्टी च भेदिनी । कफामकामलाशोथतमकश्वासजन्तुजित् ॥ २८३ ॥ टीका-द्रोणा, द्रोणपुष्पी, फलेपुष्पा, तिक्तिका यह गोमाके नाम कहे गये हैं. गोमा भारी, मधुर, रूखी, गरम, वातपित्तकों करनेवाली है ॥ २८२ ॥ तीखी, नमकयुक्त, पाक में मधुर, और कटु, तथा भेदन है. और कफ, आम, कामला, शोथ, तमक, श्वास, कृमि, इनकों हरनेवाली है ॥ २८३ ॥ अथ सुवर्चल (हुरहुराद्वितीय हुरहुर) गुणाः. सुवर्चला सूर्यभक्ता वरदावरदापि च । सूर्यावर्ता रविप्रीताऽपरा ब्रह्मसुवर्चला || २८४ ॥ सुवर्चला हिमा रुक्षा स्वादुपाका सरा गुरुः । आपित्तला कटुः क्षारा विष्टम्भकफवातजित् ॥ २८५॥ अन्या तिक्ता कपायोष्णा सरा रूक्षा लघुः कटुः । निहन्ति कफपित्तास्त्रश्वासकासारुचिज्वरान् ॥ २८६ ॥ विस्फोटकुष्ठमेहास्त्रयोनिरुक्कृमिपाण्डुताः । टीका - सुवर्चला, सूर्यभक्ता, वरदा, सूर्यावर्ता, रविनीता, और दूसरी ब्रह्म सुवर्चला यह दूसरे हुरहुरके नाम हैं || २८४ ॥ हुरहुर शीतल, रूखी, पाक में मधुर, सर, भारी, पित्तकों करनेवाली, कडवी, क्षार है. और विटंभ, कफवातकों हरनेवाली है || २८५ || और दूसरी तिक्त, कसेली, गरम, सर, रूखी, हलकी, For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ हरीतक्यादिनिघंटे कडवी, है और कफ, रक्त, पित्त, श्वास, कास, अरुचि, ज्वर, इनको हरती है २८६ तथा विस्फोट, कुष्ठ, प्रमेह, रक्त, योनिपीडा, कृमी, पाण्डुता, इनकोंभी हरती है. अथ वंध्या(वाभूखके)नामगुणाः. वन्ध्या कर्कोटकी देवी कन्या योगीश्वरीति च ॥ २८७ ॥ नागारी नक्रदमनी विषकण्टकिनी तथा। वन्ध्या कर्कोटकी लघ्वी कफनुव्रणशोधिनी ॥ २८८ ॥ सर्पदर्पहरी तीक्ष्णा विसर्पविषहारिणी। मार्कण्डिका भ्रूमवल्ली मार्कण्डी मृदुरेचनी ॥ २८९ ॥ मार्कण्डिकाकुष्ठहरी अधिःकायशोधिनी । विषदुर्गन्धकासनी गुल्मोदरविनाशिनी ॥ २९ ॥ वल्लीभूमिप्रसरणशीला। टीका-वन्ध्या, कर्कोटकी, देवी, कन्या, योगीश्वरी ॥२८७॥ नागारी, नकदमनी, विषकंटकिनी यह वांजखकसाके नाम हैं वांजखकसा हलका, कफ हरता, त्रणशोधन ॥ २८८ ॥ सर्पके दर्पको दूर करनेवाला, तीखा, विसर्प, विष, हरता है. यह लता भूमीपर फैलनेवाली होती है. मार्कडिका, भूमवल्ली, मार्कडी, मृदुरेचनी, यहभी खकसाके नाम हैं ।। २८९ ॥ खकसा कुष्ठ हरता ऊपर और नीचेस शरीरको शोधन करनेवाला है और विष, दुर्गध, कास, इनको हरता और वायगोला, उदररोग, इनकोंभी हरता है ॥ २९० ॥ अथ देवदाली(सोनैया)नामगुणाः. (इयमपि खखसावत्फला व्रततिः) देवदाली तु वेणी स्यात्कर्कटी च गरागरी । देवदाली वृत्तकोशस्तथा जीमूत इत्यपि ॥ २९१ ॥ पीतापरा खरस्पर्शा विषघ्नी गरनाशिनी । देवदाली रसे तिक्ता कफार्शःशोफपाण्डुताः ॥ २९२ ॥ नाशयेद्दामनी तिता क्षयहिकाहमिज्वरान् । For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। १२५ देवदालीफलं तिक्तं कमिश्लेष्मविनाशनम् ॥ २९३ ॥ ख्रसनं गुल्मशूलघ्नमर्शोघ्नं वातजित्परम् । टीका--देवदाली जिसको सोनियाभी कहते हैं, यह खाकसके समानफल और लतावाली है. देवदाली, वेणी, कर्कटी, गरागरी, देवताण्डी, वृत्तकोश, तथा जीमूत, यह सोनयाके नाम हैं ॥ २९१ ॥ और दूसरी पीली खरस्पर्शा, विषनी, गरनाशिनी, यह पीली सोनयाके नाम हैं. सोनया रसमें तिक्त, कफ, ववासीर, पांडुरोग, इनकों हरती है ॥ २९२ ॥ और कैलानेवाली, तिक्त है, तथा क्षय, हिचकी, कृमि, ज्वर, इनको हरती है, सोनयाका फल तिक्त, कृमि, कफकों हरता है ॥ २९३ ॥ और दस्तावर, वायगोला, शूल, इनकों हरता है, बवासीरकों हरता है, वात पित्तको हरनेवाला है. अथ जलपिप्पली(पनिसगा)नामगुणाः. जलपिप्पल्यभिहिता शारदी शकुलादनी ॥ २९४ ॥ मत्स्यादनी मत्स्यगन्धा लागलीत्यपि कीर्तिता। जलपिप्पलिका हृद्या चक्षुष्या शुक्रला लघुः ॥ २९५ ॥ संग्राहिणी हिमा रूक्षा रक्तदाहव्रणापहा। कटुपाकरसा रुच्या कषाया वह्निवर्धिनी ॥ २९६ ॥ टीका-जलपिप्पली इस्को पनिसगा ऐसा लोकमें कहते हैं. जलपिप्पली, शा. रदी, शकुलादनी ॥ २९४ ॥ मत्स्यादनी, मत्स्यगन्धा, लाङ्गली, यह जलपिप्पलीके नाम हैं. जलपिप्पली हृद्य, नेत्रहित, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, हलकी, काविज, रूखी, दाह व्रणकों हरती है ॥२९५॥ और पाक रसमें कटु, रुचिकों करनेवाली, कसेली अग्निको बढानेवाली है ॥ २९६ ॥ __ अथ गोजिका(गोभी)नामगुणाः. गोजिह्वा गोजिका गोभी दार्विका खरपर्णिनी। गोजिह्वा वातला शीता ग्राहिणी कफपित्तनुत् ॥ २९७॥ हृद्या प्रमेहकासास्त्रव्रणज्वरहरी लघुः। कोमला तुवरा तिक्ता स्वादुपाकरसा स्मृता ॥ २९८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ हरीतक्यादिनिघंटे टीका-गोजिव्हा, गोजिका, गोभी, दार्विका, खरपणिनी, यह गावजुवाके नाम हैं. गावजुवा वातकों करनेवाला, शीतल, काविज, कफपित्तको हरता है २९७ और हृद्य, प्रमेह, कास, रक्तत्रण, ज्वर, इनकों हरती है. और हलकी होती है, तथा कोमल, कसेली, तिक्त, पाक और रसमें मधुर कही गई है ॥ २९८ ॥ अथ नागदमनीनामगुणाः. विज्ञेया नागदमनी बला मोटा विषापहा । नागपुष्पी नागपत्रा महायोगेश्वरीति च ॥ २९९ ॥ बला मोटा कटुस्तिक्ता लघुः पित्तकफापहा । मूत्रकृच्छ्रव्रणानक्षो नाशयेजालगर्दभम् ॥ ३०० ॥ सर्वग्रहप्रशमनी निःशेषविषनाशिनी । जयं सर्वत्र कुरुते धनदा सुमतिप्रदा ॥ ३०१ ॥ टीका-नागदोन, नागदमनी, बला, मोटा, विषाप्रहा, नागपुष्पी, नागपत्रा, महायोगेश्वरी ॥ २९९ ॥ नागदमन कडवी, तीखी, हलकी, पित्तकफकों हरती है, और मूत्रकृच्छ्र, घाव, राक्षस, इनको हरती है. और जालगर्दभ नाम फुसीकों हरती है ॥ ३०० ॥ और संपूर्ण ग्रहोंकों, इनकों हरती है तथा अशेष विषकों हरती है और सर्वत्र जयकों करती है, तथा धनकों देनेवाली है, तथा अच्छी मतिको देनेवाली है ॥ ३०१ ॥ अथ वीरतरु(वरवेल)नामगुणाः. वेलन्तरो जगति वीरतरुः प्रसिद्धः श्वेतासितारुणविलोहितनीलपुष्पः। स्याजातितुल्यकुसुमः शमिसूक्ष्मपत्रः स्यात्कण्टकीविजलदेशज एष वृक्षः ॥ ३०२ ॥ वेलन्तरो रसे पाके तिक्तस्तृष्णाकफापहः । मूत्राघाताश्मजिद्राही योनिमूत्रानिलार्तिजित् ॥ ३०३ ॥ टीका-वेलन्तर जगमें वीरतरु नामसें प्रसिद्ध है. वह सुफेद काला अरुण लाल नील एसे फूलवाला होता है. अपनी जातकी सदृश फूल होते हैं. और शमीक्षके For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गडूच्यादिवर्गः। १२७ समान सूक्ष्म पात्ते होते हैं, तथा काटोंके सहित निजीलदेशमें यह होता है ॥३०२॥ वरवेल रस और पाकमें तिक्त होता है, और तृषाकफकों, हरती है, मूत्राघात, पथरी, इनको हरनेवाला, काविज, तथा योनिरोग मूत्रवातकी पीडा इनको हरनेवाला है ॥ ३०३ ॥ अथ छिक्कनीतथा कुकुंदरनामगुणाः. छिक्कनी क्षवकत्तीक्ष्णा छिक्किका घ्राणदुःखदा । छिकनी कटुका रुच्या तीक्ष्णोष्णा वह्निपित्तकृत् ॥ ३०४ ॥ वातरक्तहरी कुष्ठकमिवातकफापहा ।। कुकुन्दरस्ताम्रचूडः सूक्ष्मपत्रो मृदुच्छदः ॥ ३०५॥ कुकुन्दरः कटुस्तिक्तो ज्वररक्तकफापहः। तन्मूलमा निःक्षिप्तं वदने मुखशोषत् ॥ ३०६ ॥ टीका-छिक्कनी, क्षवकृत, तीक्ष्णा, छिकिका, प्राणदुःखदा, यहतक छिकनीके नाम हैं. छिक्कनी, कडवी, रुचिकों करनेवाली, तीखी, और गरम, अग्निकों पित्तकों करनेवाली है ॥ ३०४ ॥ और वातरक्तकों हरती तथा कोष्ठ, कृमि, वात कफकों हरती है. कुकुन्दर, ताम्रचूड, मूक्ष्मपत्र, मृदुच्छद, यह ककरोंदाके नाम हैं ॥ ३०५ ॥ ककरोंदा कडवा, तिक्त, ज्वर, रक्त, कफ, इनकों हरता है. उस्की गीली जड मुरमें डालेसें मुखशोपको हरती है ॥ ३०६ ॥ अथ सुदर्शन तथा आखुपर्णी नामगुणाः. सुदर्शना सोमवल्ली चक्राहा मधुपर्णिका । सुदर्शना स्वादुरुष्णा कफशोफास्त्रवातजित् ॥ ३०७ ॥ आखुकर्णी त्वाखुकर्णपर्णिका भूदरीभवा । आखुकर्णी कटुस्तिक्ता कषाया शीतला लघुः ॥ ३०८ ॥ विपाके कटुका मूत्रकफामयरुमिप्रणुत् । टीका-सुदर्शना, सोमवल्ली, चक्राव्हा, मधुपर्णिका, यह सुदर्शनके नाम हैं. सुदर्शन, मधुर, उष्ण, कफ, शोथ, रक्त, वातकों हरनेवाली है ॥ ३०७ ॥ आखुकर्णी अखुकर्ण, पर्णिका, भूदरीभवा, यह मूसाकीके नाम हैं मूसाकर्णी कडवी, For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ हरीतक्यादिनिघंटे तिक्त, कसेली, शीतल, हलकी, होती है ॥ ३०८ ॥ और पाकमें कडवी तथा मूत्र, कफरोग, कृमि, इनकों हरती है. अथ मयूरशिखानामगुणाः. मयूराह्वशिखा प्रोक्ता सहस्राहिमधुच्छदा। नीलकंठशिखा लघ्वी पित्तश्लेष्मातिसरजित् ॥ ३०९ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे गूडच्यादिवर्गः समाप्तः ॥ ३॥ टीका-मयूराव्हशिखा, सहस्रा, अहि, मधुच्छदा, नीलकंठशिखा, यह मोरशिखाके नाम हैं. मोरशिखा हलकी पित्त अतीसारको हरनेवाली है ॥ ३०९॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे गडूच्यादिवर्गः समाप्तः ॥ For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे पुष्पादिवर्गः । अथ गुडूच्या उत्पत्तिर्नामानि गुणाश्च. तत्रादौ कमलस्य नामानि गुणाश्च. वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम् । सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशोशयम् ॥ १ ॥ पङ्केरुहं तामरसं सारसं सरसीरुहम् । बिसप्रसून राजीव पुष्कराम्भोरुहाणि च ॥ २ ॥ कमलं शीतलं वर्ण्य मधुरं कफपित्तजित् । तृष्णादाहास्त्रविस्फोटविषवीसर्पनाशनम् ॥ ३ ॥ विशेषतः सितं पद्मं पुण्डरीकमिति स्मृतम् । रक्तं कोकनदं ज्ञेयं नीलमिन्दीवरं स्मृतम् ॥ ४॥ धवलं कमलं शीतं मधुरं कफपित्तजित् । तस्मादल्पगुणं किञ्चिदन्यद्रक्तोत्पलादिकम् ॥ ५ ॥ टीका - उस्में पहले कमलके नाम और गुण कहते हैं. पद्म, नलिन, अरविंद, महोत्पल, सहस्रपत्र, कमल, शतपत्र, कुशेशय ॥ १ ॥ पंकेरुह, तामरस, सारस, सरसीरुह, विसप्रसून, राजीव, पुष्कर, अम्भोरुह यह कमलके नाम हैं ॥ २ ॥ कमल शीत, व्रणकों अच्छाकरनेवाला, मधुर, कफपितकों हरनेवाला और तृषा, दाह, रक्त, विस्फोट, विष, विसर्प इनकों हरता है ॥ ३ ॥ विशेषकरके श्वेतपद्मकों पुण्डरीक ऐसा कहा है. लालकों कोकनद जानना चाहिये. और नीलेकों इन्दीवर ऐसा है ॥ ४ ॥ श्वेतकमल शीतल, मधुर, कफकों हरनेवाला है, उस्सें कुछ अल्पगुवाले दुसरे लालकमलादिक हैं ॥ ५ ॥ कहा १७ For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ पद्मिनीनामगुणाः. मूलनालदलोत्फुल्ला फलैः समुदिता पुनः । पद्मिनी प्रोच्यते प्राज्ञैर्बिसिन्यादि च सा स्मृता ॥ ६ ॥ (क) आदिशब्दान्नलिनी कमलिनीत्यादि ॥ पद्मिनी शीतला गुर्वी मधुरा लवणा च सा । पित्तासृक्कफनुक्षा वातविष्टम्भकारिणी ॥ ७ ॥ टीका - मूल, नाल, पत्र, पुष्प, फल, इनकरके युक्तकों पद्मिनी ऐसा प्राज्ञ कहते हैं. और मूल विसिनीआदि कही गई है || ६ || (क) आदिशब्दसें नलिनी कमलिनी इत्यादिक जानना. पद्मिनी शीतल, भारी, मधुर, लवण, रसकरके युक्त होती है और यह रक्तपित्त, कफ, इनकों हरनेवाली तथा वातका विजृम्भ करनेवाली है ॥ ७ ॥ अथ नवपत्रादि नामगुणाः. संवर्तिका नवदलं बीजकोशस्तु कर्णिका । किञ्जल्कः केसरः प्रोको मकरन्दो रसः स्मृतः ॥ ८ ॥ पद्मनालं मृणालं स्यात्तथा विसमिति स्मृतम् । संवर्तिका हिमा तिक्ता कषाया दाहतृट्प्रणुत् ॥ ९ ॥ मूत्रकृच्छ्रगुदव्याधिरक्तपित्तविनाशिनी । पद्मस्य कर्णिका तिक्ता कषाया मधुरा हिमा ॥ १० ॥ मुखवैशद्यरुल्लघ्वी तृष्णास्त्र कफपित्तनुत् । किञ्जल्कः शीतलो वृष्यः कषायो ग्राहकोऽपि सः ॥११॥ कफपित्ततृषादाहरक्ताशविषशोथजित् । मृणालं शीतलं वृष्यं पित्तदाहास्त्रजिद्गुरु ॥ १२ ॥ दुर्जरं स्वादुपाकं च स्तन्यानिलकफप्रदम् । संग्राहि मधुरं रूक्षं शालूकमपि तद्गुणम् ॥ १३ ॥ टीका - कमलके नये पत्तोंकों संवर्तिका कहते हैं, और बीजके कोशकों क For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पादिवर्गः। १३१ णिका कहते हैं. और परागकों किंजल्क, केसर कहते हैं, तथा रसको मकरंद ऐसा कहते हैं ॥८॥ और उस्के नालको मृणाल, पद्मनाल, बिस ऐसा कहाहै. नवीन पत्ता शीतल कसेला दाह, तृषाकों हरता हैं ॥९॥ और मूत्रकृच्छ्र, गुदारोग, रक्तपित्त, इनकों हरता है और उस्के बीज तिक्त, कसेला, शीतल है ॥ १०॥ और मुखकों स्वच्छ करनेवाले हलके तथा तृषा, रक्त, कफ, पित्त, इनको हरता है. तिर्रियां शीतल, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, कसेली, काविज होती है ॥११॥ कफ, पित्त, तृषा, दाह, रक्तकी बवासीर, विष, सूजन, इनकों हरनेवालाहै. कमलका नाल, शीतल, शु. क्रको उत्पन्न करनेवाला, और पित्त, दाह, रक्त, इनको हरनेवाला भारी है ॥१२॥ दुर्जर, पाकमें मधुर, दुग्ध, वात, कफ, इनकों उत्पन्न करनेवाली है तथा काविज, मधुर, रूखी होती है और शालूक अर्थात् उस्की जडभी उसीके समान गुणमें होती है ॥ १३ ॥ स्थलकमल, कुमुदनी, कुमुदभेदाः. पद्मचारिण्यतिचरा व्यथा पद्मा च शारदा । पद्मानुष्णा कटुस्तिक्ता कषाया कफवातजित् ॥ १४ ॥ मूत्रकृच्छाश्मशूलनी श्वासकासविषापहा । श्वेतं कुवलयं प्रोक्तं कुमुदं कैरवं तथा ॥ १५ ॥ कुमुदं पिच्छिलं स्निग्धं मधुरं हृद्यशीतलम् । कुमुदती कैरविका तथा कुमुदिनीति च ॥ १६ ॥ . सा तु मूलादिसर्वाङ्गे रक्ता समुदिता बुधैः। कुमुदती च सा प्रोक्ता कुमुदिन्यपि च स्मृता ॥ १७ ॥ टीका-पद्मचारिणी, अतिचरा, अव्यथा, पद्मा, शारदा, यह स्थलकमलके नाम हैं. स्थलकमल शीतल, कडवा, तिक्त, कसेला, कफ, वातकों हरनेवाला है ॥ १४ ॥ और मूत्रकृच्छ, पथरी, शूल, इनको हरता तथा श्वास, कास, विष इनकोंभी हरता है. श्वेतकमलकों कुमुद तथा कैरव कहते है ॥ १५ ॥ श्वेतकमल चिकना, चेपदार, मधुर, हृद्य, शीतल, होता है. कुमुद्वती, कैरविका, कुमुदिनी, यह कुमुदिनीके नाम हैं ॥ १६ ॥ वह मूलआदिसब अंगोंसें खिली हुई होती ऐसा पंडितोंने काहा है. जो पद्मनीके गुण कहे गये हैं वोही कुमुदिनीकेभी कहेहैं १७ For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ हरीतक्यादिनिघंटे अथ जलकुम्भी(सेवार)नामगुणाः, वारिपर्णी कुम्भिका स्याच्छैवालं शैवलं च तत् । वारिपर्णी हिमा तिक्ता लघ्वी स्वाही सरा कटुः ॥ १८॥ दोषत्रयहरी रूक्षा शोणितज्वरशोषकत् ।। शैवालं तुवरं तिक्तं मधुरं शीतलं लघु ॥ १९ ॥ स्निग्धं दाहतृषापित्तरक्तज्वरहरं परम् । टीका–वारिपर्णी, कुम्भिका, यह जलकुंभीके नाम हैं. शैवाल शैवल यह सैवारेके नाम हैं. जलकुम्भी शीतल, तिक्त, हलकी, मधुर, सर, कटु होती है ॥१८॥ और त्रिदोषको हरनेवाली, रूखी, रक्त, ज्वर, इनकों करनेवाली है और सिवार, कसेला, तिक्त, मधुर, हलका ॥१९॥ चिकना और दाह, तृषा, पित्त, रक्त, ज्वर, इनकों दूर करनेवाला है. अथ सेवती गुलाबइति तस्य नामगुणाः, शतपत्री तरुण्युक्ता कर्णिका चारुकेशरा ॥ २० ॥ महाकुमारी गन्धाढ्या लाक्षा कृष्णातिमञ्जुला। शतपत्री हिमा हृद्या ग्राहिणी शुक्रला लघुः॥ २१ ॥ दोषत्रयाजिदा तिक्ता कटी च पाचनी।। टीका-शतपत्री, तरुणी, कणिका, चारुकेशरा ॥ २० ॥ महाकुमारी, गन्धाहा, लाक्षा, कृष्णा, अतिमञ्जुला, यह सेवतीके नाम हैं. शेवती शीतल, हृदयकों प्रिय, काविज, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, हलकी ॥२१॥ और त्रिदोष, रक्त, इ. नकों हरनेवाली और वर्णकों अच्छा करनेवाली, तिक्त, कडवी, पाचन है. __ अथ वासंती (नेवारि)इति लोके. नेपाली कथिता तज्ज्ञैः सप्तला नवमालिका ॥ २२ ॥ वासन्ती शीतला लघ्वी तिक्ता दोषत्रयास्त्रजित् । श्लीपदी षट्पदा नन्दा वार्षिकी मुक्तबन्धना ॥ २३ ॥ वार्षिकी शीतला लध्वी तिक्ता दोषत्रयापहा । कर्णाक्षिमुखरोगे स्यात्तैलं तद्गुणकं स्मृतम् ॥ २४॥ For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पादिवर्गः। १३३ टीका-नैपाली, सप्तला, नवमालिका, यह निवारीके नाम हैं ॥ २२॥ निवारी शीतल, हलकी, तिक्त, त्रिदोषको हरनेवाली है. वार्षिकीवेल, अर्थात् वरसानीवेल श्लीपदी, षट्पदा, नंदा, वार्षिकी, शुक्रबन्धना, यह वरसाती वेलके नाम हैं ॥ २३ ॥ वर्साती शीतल, तिक्त, हलकी, त्रिदोषकों हरती है, और कान, आंख मुख, इनके रोगोंकों हरती है. उस्का तेल उसीके समान गुणमें कहा गया है ॥२४॥ अथ जाती(चम्बेली)नामगुणाः. जातिर्जाती च सुमना मालिती राजपुत्रिका । चेतिका हृद्यगन्धा च सा पीता स्वर्णजातिका ॥ २५॥ जातीयुगं तिक्तमुष्णं तुवरं लघु दोषजित् । शिरोक्षिमुखदन्तातिविषकुष्ठानिलास्त्रजित् ॥ २६ ॥ टीका-जाति, जाती, मुमना, मालिनी, राजपुत्रिका, यह चमेलीके नाम हैं. और चेतिका हृद्यगन्धा, स्वर्णजातिका, यह पीली चमेलीके नाम हैं ॥ २५॥ दोनों चमेली तिक्त, उष्ण, कसेली, हलकी, दोषकी हरनेवाली है, और शिर, नेत्र, मुख, दांत, इनकी पीडा. और विष, कुष्ठ, वातरक्त, इनको हरनेवाली है ॥ २६ ॥ अथ यूथिका तथा चंपा (जुहीसुवर्णजुही). यथिकागणिकाम्बष्ठा सा पीता हेमपुष्पिका। यूथीयुगं हिमं तिक्तं कटुपाकरसं लघु ॥ २७ ॥ मधुरं तुवरं हृद्यं पित्तघ्नं कफवातलम् । व्रणास्त्रमुखदन्ताक्षिशिरोरोगविषापहम् ॥ २८ ॥ चाम्पेयश्चम्पकः प्रोक्तो हेमपुष्पश्च स स्मृतः। एतस्य कलिका गन्धफलिनी कथिता बुधैः ॥ २९ ॥ चम्पकः कटुकस्तिक्तः कषायो मधुरो हिमः । विषकमिहरः कृच्छ्रकफवातास्वपित्तजित् ॥ ३० ॥ टीका-यूथिका, गणिका, अम्बष्ठा, यह जुहीके नाम हैं. और हेमपुष्पिका, यह पीलीजुहीके नाम है. दोनों जुही शीतल, पाकमें कडवी, हलकी होती है॥२७॥ और मधुर, कसेली, हृय, पित्तहरती, कफवातकों करनेवाली है, और घाव, रक्त, For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ हरीतक्यादिनिघंटे मुख, दंत, नेत्र, शिर, इनके रोग तथा विष इनकों हरती है ॥ २८ ॥ चाम्पेय, चम्पक, हेमपुष्प, यह चम्पेके नाम कहे हैं. इस्की फलीकों गन्धफली ऐसा पंडितोंनें कहा है ॥ २९ ॥ चम्पा कडवी, तिक्त, कसेला, मधुर, शीतल है और विष कृमि इनकों हरता तथा मूत्रकृच्छ्र, कफवात, रक्तपित्त, इनको हरनेवाला है ॥ ३० ॥ अथ बकुल (मौलसरी) नामगुणाः. बकुलो मधुगन्धश्च सिंहकेसरकस्तथा । बकुलस्तुवरोऽनुष्णः कटुपाकरसो गुरुः ॥ ३१ ॥ कफपित्तविषश्वित्रकृमिदन्तगदापहः । शिवमल्ली पाशुपत एकाष्ठीलो वुको वसुः ॥ ३२ ॥ बुकोऽनुष्णः कटुस्तिक्तः कफपित्तविषापहः । योनिशूलतृषादाहकुष्ठशोथास्वनाशनः ॥ ३३ ॥ टीका - बकुल, मधुगन्ध, सिंहकेसरक, यह मौलसरीके नाम हैं. मौलसरी कसेली, शीतल, पाकरसमें कटु, हलकी, भारी है ॥ ३१ ॥ कफ, पित्त, विष, श्वित्र, कृमि, दन्तरोग, इनकों हरती है. शिवमल्ली, पाशुपत, एकाष्ठील, बुक, वसु, यह ast मौलसरीके नाम हैं ॥ ३२ ॥ मौलसिरी शीतल, कडवी, तिक्त है और कफ, पित्त, विपकों हरती है. योनिशूल, तृषा, दाह, कुष्ठ, रक्त, शोथ, इनकों ह रती है ॥ ३३ ॥ अथ कदम्ब तथा कुब्ज. कदम्बप्रियको नीपो वृत्तपुष्पो हलिप्रियः । कदम्बो मधुरः शीतः कषायो लवणो गुरुः ॥ ३४ ॥ सरो विष्टम्भक्षः कफस्तन्यानिलप्रदः । कुञ्जको भद्रतरिणी बृहत्पुष्पोऽतिकेसरः ॥ ३५ ॥ महासहा कण्टकाद्या नीलालिकुलसङ्कुला । कुनकः सुरभिः स्वादुः कषायानुरसः सरः ॥ ३६ ॥ त्रिदोषशमनो वृष्यः शीतहर्ता च स स्मृतः । टीका - कदम्ब, प्रियक, नीप, वृत्तपुष्प, हरिप्रिय, यह कदंबके नाम हैं. कदम For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पादिवर्ग: । १३५ मधुर, शीतल, कसेला, नमकीन भारी ॥ ३४ ॥ विष्टम्भ, सर करनेवाला, रुखा है, और कफ, दुग्धवात, इनकों करनेवाला है, कुब्नक, भद्रतरणी, बृहत्पुष्प, अतिकेसर ॥ ३५ ॥ महासहा, कण्टकाद्या, नीलालिकुलसंकुला यह कूजाके नाम हैं. यह फूल सेवंतीकी किस्मसे होता है, कूजा सुगन्धयुक्त, मधुर, पीछेसे कसेला, सर ॥ ३६ ॥ त्रिदोषशमन, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, शीत कहागया है. अथ मल्लिका तथा माधवी नामगुणाः. मल्लिका मदयन्ती च शीतभीरुव भूपदी ॥ ३७ ॥ मल्लिकोशा लघुर्वृष्या तिक्ता च कटुका हरेत् । वातपित्तास्यग्व्याधि कुष्ठारुचिविषव्रणान् ॥ ३८ ॥ माधवी स्यात्तु वासन्ती पुण्ड्रको मण्डकोऽपि च । अतिमुक्तो विमुक्तश्च कामुको भ्रमरोत्सवः ॥ ३९ ॥ माधवी मधुरा शीता लघ्वी दोषत्रयापहा । । टीका - मल्लिका, मदयन्ती, शीतभीरु, भूपदी ॥ ३७ ॥ यह मालतीके नाम हैं. मालती गरम, हलकी, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, तिक्त, कडवी होती है, और वात, पित्त, मुख, दृष्टि, कुष्टरोग, अरुचि, विष, व्रण, इनकों हरती है ॥ ३८ ॥ माधवी, वासन्ती, पुण्ड्रक, मण्डक, अतिमुक्त, विमुक्त, कामुक, भ्रमरोत्सव ॥ ३९ ॥ यह मोतियाके नाम हैं. मोतिया शीतल, मधुर, हलका दोषत्रयकों हरता है. अथ सुवर्णकेतकीनामगुणाः. केतकः सूचिकापुष्पो जम्बुकः क्रकचछदः ॥ ४० ॥ सुवर्णकेतकी त्वन्या लघुपुष्पा सुगन्धिनी । केतकः कटुकः स्वादुर्लघुस्तिक्तः कफापहः ॥ ४१ ॥ उष्णा तिक्ता रसा ज्ञेया चक्षुष्या केतकी । टीका - केतक, सूचिकापुष्प, जम्बुक, क्रकचच्छद, यह केवडेके नाम हैं ॥ ४० ॥ -------- और दूसरा सुनहरीकेवडा छोटे फूलवाला, सुगन्धयुक्त होता है. केवडा मधुर, हलका, तिक्त, कफकों हरता है, और सुनहरीकेवरा ॥ ४१ ॥ उष्ण रसमें तिक्त नेत्र हित होता है. For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३३ हरीतक्यादिनिघंटे अथ किङ्किरात तथा कर्णिकारनामगुणाः. किङ्किरातो हेमगौरः पीतकः पीतभद्रकः ॥ ४२ ॥ किङ्किरातो हिमस्तिक्तः कषायश्च हरेदसौ। कफपित्तपिपासास्त्रदाहशोथवमिकमीन् ॥ ४३ ॥ कर्णिकारः परिव्याधः पादपोत्पल इत्यपि । कर्णिकारः कटुस्तिक्तस्तुवरः शोधनो लघुः ॥ ४४ ॥ रञ्जनः सुखदः शोथश्लेष्मास्त्रव्रणकुष्ठजित् । टीका-किंकिरात, हेमगौर, पीतक, पीतमद्रक यह किंकिरातके नाम हैं ॥४२॥ किंकिरात, शीतल, तिक्त, कसेला है, और कफ, पित्त, तुषा, रक्त, दाह, शोथ, वमन, कृमि इनकों हरता है ॥ ४३ ॥ कर्णिकार, परिव्याध, पादपोत्पल, यह कर्णिकारके नाम हैं. कर्णिकार कडवा, तिक्त, कसेला, शोधन, हलका ॥ ४४ ॥ रञ्जन सुख देनेवाला शोथ कफ, रक्त, व्रण, कुष्ठ, इनको हरनेवाला है. अथ अशोक(असोगि)नामगुणाः. अशोको हेमपुष्पश्च वचुलस्ताम्रपल्लवः ॥ ४५ ॥ अङ्केली पिण्डपुष्पश्च गन्धपुष्पो नटस्तथा। अशोकः शीतलस्तितो ग्राही वर्ण्यः कषायकः ॥ ४६॥ दोषापचीतृषादाहकमिशोथविषास्त्रजित् । टीका--अशोक, हेमपुष्प, वंजुल, ताम्रपल्लव, ॥ ४५ ॥ अंकेली, पिंडपुष्प, गंधपुष्प, नट यह अशोकके नाम है अशोक शीतल, तिक्त, काविज, वर्णको अच्छा करनेवाला कसेला है ॥ ४६॥ दोष अपची, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष, रक्त, इनको हरनेवाला है. अथ बाणपुष्प तथा कटसरैया. अम्लातोऽम्लाटनः प्रोक्तस्तथाम्लातक इत्यपि ॥ ४७ ॥ कुरण्टको वर्णपुष्पः स एवोक्तो महासहः । अम्लाटनः कषायोष्णः स्निग्धः स्वादुश्च तिक्तकः॥४८॥ For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पादिवर्गः। सैरेयकः श्वेतपुष्पः सैरेयः कटसारिका। सहाचरः सहचरः स च भिन्द्यपि कथ्यते ॥ ४९ ॥ कुरण्टकोऽत्र पिने स्याद्रक्ते कुरबकः स्मृतः। नाले बाणादयोरुक्तो दासे आर्तगलश्च सः ॥ ५० ॥ सैरेयः कुष्ठवातास्त्रकफकण्डूविषापहः । तिक्तोष्णो मधुरोऽनम्लः सुस्निग्धः केशरञ्जनः ॥ ५१ ॥ टीका-अम्लात, अम्लाटन, तथा अम्लातक, कुरंटक, वर्णपुष्प, महासह यह बाणपुष्पके नाम हैं ॥४७॥ बाणपुष्प कसेला, गरम, चिकना, मधुर, तिक्त होता है. ॥४८॥ सैरेयक, श्वेतपुष्प, सैरेय, कटसारिका, सहाचर, सहचर, भिन्दि, यह कटसरैयाके नाम हैं ॥ ४९ ॥ कटसरैया, पीलीफूलवालीकों कुरंटक कहते हैं और लालफूलवालीको कुरबक कहा है और दुरंगे फूलवाली दास आर्तगल कही है ॥५०॥ कटसरैया कुष्ठ, वातरक्त, कफ, खुजली, विष, इनकों हरती है और तिक्त, गरम, मधुर, खट्टी, चिनकी, केशकी रञ्जन होती है ॥ ५१॥ अथ कुन्दनामगुणाः, कुन्दं तु कथितं माध्यं सदापुष्पं च तत्स्मृतम् । कुन्दं शीतं लघु श्लेष्मशिरोरुग्विषपित्तहत् ॥ ५२ ॥ अथ मुचुकुन्द तथा तिलकनामगुणाः. मुचुकुन्दः क्षत्रवृक्षश्चित्रकः प्रतिविष्णुकः। मुचुकुन्दः शिरःपीडा पित्तास्त्रविषनाशनः ॥ ५३॥ तिलकः क्षुरकः श्रीमान्पुरुषश्छिन्नपुष्पकः । तिलकः कटुकः पाके रसे चोष्णो रसायनः ॥ ५४॥ कफकुष्ठकमीन्बस्तिमुखदन्तगदान्हरेत् । टीका-कुन्द, माध्य, सदापुष्प, यह कुन्दके नाम हैं. कुन्द शीतल, हलका, कफ, शिरकी पीडा, विष, पित्त, इनको हरता है ॥ ५२॥ मुचुकुन्द, क्षत्रवृक्ष, चित्रक, प्रतिविष्णुक, यह मुचुकुन्दके नाम हैं. मुचुकुन्द, शिरकीपीडा, रक्तपित्त, विष, इनकों हरता है ॥ ५३॥ तिलक इस्का फूल तिलके समान होता है और १८ For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ हरीतक्यादिनिघंटे इसीनामसे प्रसिद्ध है. तिलक, क्षुरक, श्रीमान् , पुरुष, छिन्नपुष्पक, यह तिलकके नाम हैं. तिलक, पाकरसमें कडवा, उष्ण, रसायन है ॥ ५४ ॥ तथा कफ, कुष्ठ, कृमि, वस्ति, मुख, दंत, इन रोगोंकों हरता है. अथ बन्धूक तथा ऊर्ध्वपुष्पनामगुणाः. फन्धको बंधूजीवश्च रक्तो माध्याह्निकोऽपि च ॥ ५५॥ बन्धूकः कफळत् ग्राही वातपित्तहरो लघुः। ऊर्ध्वपुष्पं जपा चाथ त्रिसन्ध्या सारुणा सिता ॥ ५६ ॥ जपा संग्राहिणी केश्या त्रिसन्ध्या कफवातजित् । ठीका-बन्धूक, बन्धुजीव, रक्त, माध्यान्हिक, यह दुपहरियाके नाम हैं. दुपहरिया कफकों करनेवाला, काविज, वातपित्तकों हरता है, हलका होता है ॥५५॥ ऊर्ध्वपुष्प, जवापुष्प, त्रिसन्ध्या, अरुणा, सिता, यह जपापुष्पके नाम हैं. जवापुष्प काविजकों अच्छा करनेवाला, कफको हरनेवाला है ॥ ५६ ॥ अथ सेन्दूरी तथा अगस्तिनामगुणाः. सिन्दूरी रक्तवीजा च रक्तपुष्पा सुकोमला ॥ ५७ ॥ सिन्दूरी विषपित्तात्रतृष्णावान्तिहरी हिमा। अथागस्त्यो वङ्गसेनो मुनिपुष्पो मुनिद्रुमः ॥ ५८॥ अगस्तिः पित्तकफजिच्चातुर्थकहरो हिमः। रूक्षो वातकरस्तिक्तः प्रतिश्यायनिवारणः ॥ ५९ ॥ टीका-सिंदूरी, रक्तवीजा, रक्तपुष्पा, सुकोमला, यह सिंदूरियाके नाम हैं ॥ ५७॥ सिन्दूरी, विष, रक्त, पित्त, तृषा, वमन, इनकों हरती है, शीतल है. अगस्त्य, वंगसेन, मुनिपुष्प, मुनिद्रुम, यह अगस्त्यके नाम हैं ॥ ५८ ॥ अगस्त्य पित्त, कफकों हरनेवाला, और चातुर्थक ज्वरको हरनेवाला शीतल है, और रूखा, वातकों करनेवाला, तिक्त, प्रतिश्यायको हरनेवाला है ॥ ५९॥ अथ तुलसीशुक्ला कृष्णा च. तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमञ्जरी । अपेतराक्षसी गौरी शूलनी देवदुन्दुभिः ॥ ६० ॥ For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Achar www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुष्पादिवर्गः। तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाहपित्तकत् । दीपनी कुष्ठरुच्छ्रास्त्रपार्श्वरुक्कफवातजित् ॥ ६१ ॥ शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तिता। टीका-काली और श्वेत तुलसी, सुरसा, ग्राम्या, सुलभा, बहुमञ्जरी, अपेतराक्षसी, गौरी, शूलनी, देवदुन्दुभी यह तुलसीके नाम हैं ॥ ६० ॥ तुलसी कडवी तिक्त हृद्य उष्ण दाह पित्तकों करनेवाली, और दीपन है, तथा कुष्ठ, मूत्रकृच्छ्र, रक्त, पसलीकी पीडा, कफ, वात, इनको हरनेवाली है ॥ ६१॥ काली और श्वेत तुलसी गुणमें समान कही गई है. अथ मारुता(मरुआ)नामगुणाः. मारुतोऽसौ मरुबको मरुन्मरुरपि स्मृतः ॥ ६२ ॥ फणी फणिजकश्चापि प्रस्थपुष्पः समीरणः । मरुदग्निप्रदो हृद्यस्तीक्ष्णोष्णः पित्तलो लघुः ॥ ६३ ॥ वृश्चिकादिविषश्लेष्मवातकुष्ठरुमिप्रणुत् । कटुपाकरसो रुच्यस्तिक्तो रूक्षः सुगन्धिकः ॥ ६४ ॥ टीका-मारुत, मरुवक, मरुत, मरु ॥ ६२॥ फणी, फणिज्जक, प्रस्थपुष्प, समीरण, यह मरुआके नाम हैं. मरुआ अग्निकों करनेवाला, हृद्य, तीक्ष्ण, उष्ण, पित्तकों करनेवाला, हलका है ॥ ६३ ॥ और विच्छ्रआदियोंके विष, कफ, वात, कुष्ठ, कृमि, इनकों हरता है. और पाक रसमें कडवा, रुचिकों करनेवाला, तिक्त, रूखा, सुगन्धिक होता है ॥ ६४ ॥ अथ दमनक(दवना)नामगुणाः. उक्तो दमनको दान्तो मुनिपुत्रस्तपोधनः । गन्धोत्कटो ब्रह्मजटो विनीतिः कलपत्रकः ॥ ६५॥ दमनस्तुवरस्तितो हृद्यो वृष्यः सुगन्धिकः । ग्रहणाद्विषकुष्ठास्त्रक्लेदकण्डूत्रिदोषजित् ॥६६॥ टीका-दमनक, दान्त, मुनिपुत्र, तपोधन, गन्धोत्कट, ब्रह्मजट, विनीति, कलपत्रक, यह दवनाके नाम हैं ॥६५॥ दवना कसेला, तिक्त, हृद्य, शुक्रकों उत्पन्न For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे करनेवाला, सुगन्धिक है, और पीनस, विष, कुष्ठ, रक्त, क्लेद, खुजली, त्रिदोष, इनको हरनेवाला है ॥६६॥ अथ वर्वरीनामगुणाः. वर्वरी तुवरी तुङ्गी खरपुष्पाजगंधिका । पर्णाशस्तत्र कृष्णस्तु कठिल्लककुठेरकौ ॥ ६७ ॥ तत्र शुक्केऽर्जकः प्रोक्तो वटपत्रस्ततोऽपरः । वर्वरीत्रितयं रूक्षं शीतं कटु विदाहि च ॥ ६८ ॥ तीक्ष्णं रुचिकरं हृद्यं दीपनं लघुपाकि च ॥ पित्तलं कफवातास्त्रकण्डूकमिविषापहम् ॥ ६९ ॥ इति हरीतिक्यादिनिघंटे पुष्पादिवर्ग समाप्तः । टीका-वर्वरी, तुवरी, तुंगी, खरपुष्पा, अजगन्धिका, पर्णाश यह वर्वरीके नाम हैं. उस्में कालेका नाम कठिल्लक और कुठेरक है ।।.६७॥ उन्में सुफेद अर्जक, वटपत्र कहागया है, तीनों वर्वरी रूखी, शीतल, कडवी, विदाहकों करनेवाली है ॥६॥ तथा तीखी, रुचिकों करनेवाली, हृद्य, दीपन, और पाकमें हलकी होती है, और पित्तको करनेवाली, कफ, वातरक्त, खुजली, कृमि, विष, इनको हरती है ॥६९॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे बालबोधनीटीकायां पुष्पादिवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे वटादिवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्रादौ वटस्य नामानि गुणाश्च. वटो रक्तफलः शृङ्गी न्यग्रोधः स्कन्धजो ध्रुवः । क्षीरी वैश्रवणो वासो बहुपादो वनस्पतिः ॥ १ ॥ वटः शीतो गुरुग्रही कफपित्तव्रणापहः । वय विसर्पदाहघ्नः कषायो योनिदोषहृत् ॥ २ ॥ टीका-वट, रक्तफल, शृङ्गी, न्यग्रोध, स्कंधज, ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवण, वास, बहुपाद, वनस्पति यह वडके नाम हैं ॥ १ ॥ वड शीतल, भारी, काविज, कफ, पित्त, व्रणकों हरता है और व्रणकों अच्छा करनेवा तथा विसर्प दाहकों हरता कसेला और योनिदोषकों हरता है ॥ २ ॥ अथ पिप्पलनामगुणाः । बोधिदुः पिप्पलोऽश्वत्थश्चलपत्रो गजाशनः । पिप्पलो दुर्जरः शीतः पित्तश्लेष्मत्रणास्रजित् ॥ ३॥ गुरुस्तुवरको रूक्षो वयों योनिविशोधनः । पारीषोऽन्यः पलाशश्च कपिरुतः कमण्डलः ॥ ४ ॥ गर्दभाण्डः कन्दरालः कपीतनसुपार्श्वकः । पारीषो दुर्जरः स्निग्धः कमिशुक्रकफप्रदः ॥ ५ ॥ फलेऽम्लो मधुरो मूले कषायः स्वादुमज्जकः । टीका – बोधिद्रु, पीपल, अश्वत्थ, चलपत्र, गजाशन, यह पीपलके नाम हैं, पीपल दुर्जर, शीतल, पित्त, कफ, व्रण, रक्तकों हरनेवाला है ॥ ३ ॥ और भारी, कसेला, रूखा, वर्णकों अच्छा करनेवाला, योनिका शोधक है, गजदण्ड सोहरा For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२ हरीतक्यादिनिघंटे इसप्रकार लोकमें कहतेहैं अन्य पारीष पलाश, कपिरुत, कमण्डल ॥ ४॥ गर्दभाण्ड, कंदराल, कपीतन, सुपार्श्वक, यह परसपीपलके नामहैं यह दुर्जर, चिकना, कृमि, शुक्रकों कफकों करनेवालाहै. ॥५॥ फलमें खट्टा, मूलमें मधुर, गिरी कसेली और मधुर होती है. अथ नंदिटक्षनामगुणाः। नन्दिवृक्षोऽश्वत्थभेदः प्ररोही गजपादपः ॥६॥ स्थालीवृक्षः क्षयतरुः क्षीरी च स्यादनस्पतिः। नन्दिवृक्षो लघुः स्वादुः तिक्तस्तुवर उष्णकः ॥७॥ कटुपाकरसो ग्राही विषपित्तकफास्त्रजित् । टीका-नन्दिवृक्ष अश्वत्थवेल, प्ररोही, गजपादप, ॥६॥ स्थालीवृक्ष, क्षयतरु, क्षीरी, वनस्पति यह वेरियापीपरके नाम हैं. वेरियापीपर, हलका मधुर, तिक्त, कसेला, गरम है ॥ ७ ॥ और पाकरसमें कटु, काविज, विष, पित्त, कफ, रक्तकों हरता है. अथ उदुम्बर तथा कटुंभरीनामगुणाः। उदुम्बरो जन्तुफलो यज्ञाङ्गो हेमदुग्धकः ॥ ८॥ उदुम्बरो हिमो रूक्षो गुरुः पित्तकफास्त्रजित् । मधुरस्तुवरो वयो व्रणशोधनरोपणः ॥ ९॥ काकोदुम्बरिका फल्गुमलयूर्जघनेफला। मलपूस्तम्भकृत्तिक्ता शीतला तुवरा जयेत् ॥ १०॥ कफपित्तव्रणश्वित्रकुष्ठपाण्ड्दर्शकामलाः । टीका-उदुम्बर, जंतुफल, यज्ञाङ्ग, हेमदुग्धक, यह गूलरके नाम हैं ॥ ८॥ गूलर शीतल, रूखा, भारी, पित्त, कफ, रक्तको हरनेवाला है. और मधुर, कसेला, वर्णकों अच्छा करनेवाला, व्रणकों शोधन रोपण है ॥९॥ काकोदुम्बरिका, फल्गु, मलयू, जघनेफल, यह कठिया गूलरके नाम हैं. कठियागूलर स्तंभन करनेवाला, तिक्त, शीतल, कसेला है ॥ १० ॥ और कफ, पित्त, व्रण, श्वित्र, कुष्ठ, पांडुरोग, ववासीर, कामला इनकों हरताहै ॥ For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वटादिवर्गः। अथ प्लक्ष(पाकारि) नामगुणाः. प्लक्षो जटी पर्कटी च स्त्रियामपि च स स्मृतः॥११॥ प्लक्षः कषायः शिशिरो व्रणयोनिगदापहः । दाहपित्तकफास्त्रघ्नः शोथहा रक्तपित्तहत् ॥ १२ ॥ शिरीषो भण्डिलो भण्डी भण्डीरश्च कपीतनः। शुकपुष्पः शुकतरुप॑दुपुष्पः शुकप्रियः ॥ १३॥ शिरीषो मधुरोऽनुष्णस्तिक्तश्च तुवरो लघुः । दोषशोथविसर्पघ्नः कासव्रणविषापहः ॥ १४ ॥ टीका-प्लक्ष, जटी, पर्कटी, यह पाकरके नाम हैं ॥ ११ ॥ पाकर कसेला शीतल व्रण, योनिरोग, इनकों हरताहै और दाह, पित्त, कफ, रक्त, इनकों हरता शोथनाशक रक्त पित्त हरनेवाला है ॥ १२ ॥ शिरीष, भण्डिल, भण्डी, भण्डीर, कपीतन, शुकपुष्प, शुकतरु मृदुपुष्प, शुकप्रिय यह शिरीषके नाम हैं ॥१३॥ शिरस मधुर शीतल, तिक्त, कसेला, हलका होताहै, और दोष, शोथ, विसर्प, इनकों हरता तथा कास व्रण इनको हरताहै, विषकों हरता है ॥ १४ ॥ अथ क्षीरक्षादि पञ्चवल्कलयोर्लक्षणं गुणाश्च. न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थपारीषप्लक्षपादपाः । पञ्चैते क्षीरिणो वृक्षास्त्वेषां त्वक्पञ्चवल्कलम् ॥ १५॥ (केचित्तु पारीषस्थाने शिरीषं वेतसं परे वदन्तीति शेषः) क्षीरवृक्षा हिमा वा योनिरोगव्रणापहा । रूक्षा कषया मेदोना विसर्पामयनाशनी ॥ १६ ॥ शोथपित्तकफास्त्रघ्ना स्तन्या भग्नास्थियोजका। त्वक्पंचकं हिमं तिक्तं व्रणशोथविसर्पजित् ॥ १७॥ तेषां पत्रं हिमं ग्राहि कफवातास्त्रनुल्लघु । विष्टम्भाध्मानजित्तिक्तं कषायं लघु लेपनम् ॥ १८ ॥ टीका-पंचवल्कलोंका लक्षण और गुण कहतेहैं वड गूलर पीपल पारिष For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ हरीतक्यादिनिघंटे प्लक्ष पांच यह क्षीरवृक्ष हैं. उनकी छाल पंचवल्कल हैं ॥ १५॥ कोई पार्श्वपीपलकों शिरीष और कोई वेतसकों कहते हैं. यह शेषहै. क्षीर शीतल, वर्णकों अच्छा करनेवाले योनिरोग व्रण इनकों हरता है सूखे, कसेले, मेदकों हरनेवाले, विसर्परोगकों हरतेहैं ॥ १६॥ तथा शोथ, पित्त, कफ, रक्त, इनकों हरताहै और दूधकों करनेवाला है टूटेहाडकों जोडनेवालीहै और पांचोंकी छाल शीतल, काविज, व्रण, शोथ, विसर्प, इनको हरनेवालाहैं ॥ १६ ॥ इनके पत्ते शीतल, काविज, कफ, वात, रक्तकों हरतेहैं, हलके हैं और विष्टम्भ, आध्मान, इनको हरनेवाले तिक्त कसेले लेपन हैं ॥ १८॥ __ अथ शालस्तद्भेदश्च तद्गुणाः. शालस्तु सर्जकार्याश्वकर्णिकाशस्यसंवरः । अश्वकर्णः कषायः स्याद्रणस्वेदकफळमीन् । बध्मविद्रधिबाधिर्ययोनिकर्णगदान्हरेत् ॥ १९ ॥ सर्जकोऽजककर्णः स्याच्छालो मरिचपत्रिकः । अजकर्णः कटुस्तिक्तः कषायोष्णो व्यपोहति । कफपामाश्रुतिगदान्मेहकुष्टविषव्रणान् ॥ २०॥ टीका-शाल, सर्जकार्य, अश्वकर्णिका, शस्यसंवर यह सालके नाम हैं. साल कसेला होताहै और व्रण, स्वेद, कफ, कृमि, बद, विद्रधी, बहरापन, योनिरोग, कर्णरोग, इनकों हरता है ॥ १९॥ सर्जक, अजकर्ण, शाल, मरिचपत्रक यह शालभेदके नाम हैं दूसरा शाल कडुवा, तिक्त, कसेला, उष्ण होता है और कफ, खुजली, कर्णरोग, प्रमेह, कुष्ठ, विष, व्रण, इनको हरता है ॥२०॥ अथ शल्लकी (शालई) नामगुणाः. शल्लकी गजभक्ष्या च सुवहा सुरभी रसा। महेरुणा कुन्दुरुकी वल्लकी च वहुस्त्रवा ॥ २१ ॥ शल्लकी तुबरा शीता पित्तश्लेष्मातिसारजित् । रक्तपित्तव्रणहरी पुष्टिकत्समुदीरिता ॥ २२ ॥ टीका-शल्लकी, गजभक्ष्या, सुवहा सुरभीरसा, महेरुणा, कुन्दुरुकी, वल्लकी, बहुस्रवा यह सलईके नाम हैं. ॥ २१ ॥ सलई कसेली, शीतल, पित्त, कफ, For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वटादिवर्गः। १४५ अतिसारको हरनेवाली, रक्त, पित्त, व्रण, इनको हरनेवाली पुष्टिकों करनेवाली कहीगईहै ॥ २२॥ अथ शिंशिपा(शीसम)नामगुणाः. शिशिपा पिच्छिला श्यामा कृष्णसारा च सा गुरुः। कपिला सैव मुनिभिर्भस्मगर्भेति कीर्तिता ॥ २३ ॥ शिशिपा कटुका तिक्ता कषाया शोषहारिणी। उष्णवीर्या हरेन्मेदःकुष्ठश्वित्रवमिक्रिमीन् ॥ २४ ॥ बस्तिरुग्वणदाहास्त्रबलासान् गर्भपातिनी । टीका-और कपिलवर्ण शीशमके नामगुण कहतेहैं. शिशिपा, पिच्छिला,श्यामा, कृष्णसारा, यह शीशमके नाम हैं. और वोह भारी होताहै. कपिला, भस्मगर्भा, ऐसा मुनियोंने कहाहै ॥ २३ ॥ शीशम कडवा, तिक्त, कसेला, शोषकों हरता है, उष्णवीर्य होता है, और मेद, कुष्ठ, श्वित्र, वमन, कृमि, इनकों रहताहै ॥ २४ ॥ और पेडकी पीडा, व्रण, दाह, रक्त, कफ, इनकोंभी हरता है, और गर्भकों गिरानेवाला है. __ अथ ककुभ( कौह)नामगुणाः. ककुभोऽर्जुननामाख्यो नदीसर्जश्व कीर्तितः ॥ २५ ॥ इन्द्रद्रुर्वीरवृक्षश्च वीरश्च धवलः स्मृतः। ककुभः शीतलो हृद्यः क्षतक्षयविषास्त्रजित् ॥ २६ ॥ मेदोमेहव्रणान्हन्ति तुवरः कफपित्तहत् । टीका-ककुभ, अर्जुननामाख्य, नदीसर्ज ॥२५ ॥ इन्द्रदु, वीरवृक्ष, वीर, धवल, यह अर्जुनदृक्षके नाम हैं. अर्जुन शीतल, हृद्य, क्षत, क्षय, विष, रक्त, इनकों हरनेवाला है ॥ २६ ॥ और मेद, प्रमेह, व्रण, इनकों हरता है और कसेला है तथा कफ पित्तकों हरता है. अथ बीजक( विजयसार )नामगुणाः. बीजकः पीतसारश्च पीतशालक इत्यपि ॥ २७ ॥ बन्धूकपुष्पः प्रियकः सर्जकश्वासनः स्मृतः। १९ For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे बीजकः कुष्ठवीसर्पश्वित्रमेहगुदकृमीन् ॥ २८ ॥ हन्ति श्लेष्मास्त्रपित्तं च त्वच्यः केश्यो रसायनः । टीका - अब आसन और विजयसारके नाम गुण कहते है. बीजक, पीतसार, पीतशालक ॥ २७ ॥ बन्धूकपुष्प, प्रियक, सर्जक, आसन, यह विजयसारके नाम हैं. विजयसार कुष्ठ, विसर्प, श्वित्र, प्रमेह, गुद, कृमि इनकों हरताहै ॥ २८ ॥ और कफ, रक्त, पित्तकों भी हरता है तथा त्वचाका हित, केशका हित, तथा रसायन है. अथ खदिरनामगुणाः. खदिरो रक्तसारश्व गायत्री दन्तधावनः ॥ २९ ॥ कण्टकी वालपत्रश्च बहुशल्यश्च यज्ञियः । खदिरः शीतलो दन्त्यः कण्डूकासारुचिप्रणुत् ॥ ३० ॥ तिक्तः कषायो मेदोघ्नः कृमिमेहज्वरव्रणान् । श्वित्रशोथामपित्तास्त्रपाण्डुकुष्ठकफान्हरेत् ॥ ३१ ॥ टीका - खदिर, रक्तसार, गायत्री, दन्तधावन, ॥ २९ ॥ कण्टकी, वालपत्र, बहुशल्य, यज्ञिय, यह खैरके नाम हैं. खैर शीतल, दन्तकों अच्छा करनेवाला, कण्डू, कास, अरुचि, इनकों हरता है ॥ ३० ॥ तिक्त, कसेला, मेदकों हारक, कृमि, प्रमेह, ज्वर, व्रण, शोथ, आम, रक्तपित्त, पांडुरोग, कुष्ठ, कफ, इनकों हरता है ३१ अथ श्वेतखदिर तथा इरिमेदनामगुणाः. खदिरः श्वेतसारोऽन्यः कदरः सोमवल्कलः । कदरो विशदो वण्यों मुखरोगकफास्त्रजित् ॥ ३२ ॥ इरिमेदो विखदिरः कालस्कन्धोऽरिमेदकः । इरिमेदः कषायोष्णो मुखदन्तगदात्रजित् ॥ ३३ ॥ हन्ति कण्डूविषश्लेष्मकमिकुष्ठविषव्रणान् । टीका - सुफेद कत्था जिस्कों पपडीखैर कहते हैं उसके नाम गुण कहते है. खदिर, श्वेतसार, कंदर, सोमवल्कल यह पपडीखैरके नाम हैं. पपडीखैर विशद, वर्णकों अच्छा करनेवाला, मुखरोग, कफ, रक्त, इनकों जीतनेवाला है || ३२ ॥ इरिमेद विट्खदिर, कालस्कन्ध, अरिमेदक, यह दुर्गन्ध खैरके नामहैं. दुर्गन्ध खदिर, कसेला, For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वटादिवर्गः। १४७ गरम, मुखदन्तके रोग, रक्त, इनको हरनेवालाहै ॥ ३३ ॥ और खुजली, विष, कफ, कृमि, कुष्ठ, विष, व्रण, इनकों हरता है. अथ रोहितक तथा बब्बूलनामगुणाः. रोहीतको रोहितको रोही दाडिमपुष्पकः ॥ ३४ ॥ रोहीतकः प्लीहघाती रुच्यो रक्तप्रसाधनः । बब्बूलः किङ्किरातः स्यात्किङ्किणश्च सपीतकः॥३५॥ स एव कथितस्तज्ज्ञैराभाषपदमोदिनी। बब्बूलः कफनुद् ग्राही कुष्ठकमिविषापहः ॥ ३६ ॥ अरिष्टकस्तु माङ्गल्यः कृष्णवर्णोऽर्थसाधनः। रक्तबीजः पीतफेनः फेनिलो गर्भपातनः ॥ ३७॥ टीका-रोहितक इसमें अनारकेसे फूल होते हैं. रोहितक, रोहीतक, रोही, दाडिमपुष्पक, यह रोहीके नाम हैं ॥ ३४ ॥ रोही प्लीहकों हरनेवाली रुचिकों करनेवाली रक्तको स्वच्छ करनेवाली है. बबूल, किंकिरात, किंकिण, सपीतक, यह बबूलके नाम हैं ॥ ३५ ॥ उसीकों उस्के जाननेवालोंने आभाषपदमोदनी ऐसा कहाहै. कीकर कफहरता, काविज, कुष्ठ, कृमि, इनको हरताहै ॥ ३६ ॥ अरिष्टक, मांगल्य, कृष्णवर्ण, अर्थसाधन, रक्तबीज, पीतफेन, फेनिल, गर्भपातन, यह रीठेके नाम हैं ॥ ३७॥ अथ पुत्रीजीव तथा इंगुदीनामगुणाः. पुत्रीजीवो गर्भकरो यष्टीपुष्पोऽर्थसाधकः । पुत्रीजीवो गुरुर्वृष्यो गर्भदः श्लेष्मवातहत् ॥ ३८॥ सृष्टमूत्रमलो रुक्षो हिमः स्वादुः पटुः कटुः । इगुदोऽङ्गारतक्षश्च तिक्तकस्तापसद्रुमः ॥३९॥ इङ्गुदः कुष्ठभूतादिग्रहव्रणविषकमीन् ।। हंत्युष्णश्वित्रशूलनस्तिक्तकः कटुपाकवान ॥ ४० ॥ टीका-पुत्रीजीव, गर्भकर, यष्टीपुष्प, अर्थसाधक, यह पुत्रजीवके नाम हैं. पुत्रजीव भारी शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला ॥३८॥ रुखा, शीतल, मधुर, नमकीन, For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ हरीतक्यादिनिघंटे ति asat होती है गर्भकों करनेवाली, कफकों हरती है ॥ ३९ ॥ इंगुद अंगारवृक्ष, तक, तापसतुम, यह हिंगोठेके नाम हैं. हिंगोठ कुष्ठ, भूतादिग्रह, व्रण, विष, कृमि, इनकों हरता है और उष्णहै तथा श्वित्र शूलकों हरता, तिक्त, कटुपाकवाला है ॥ ४० ॥ अथ जिङ्गिनीनामगुणाः. जिङ्गिनी झिङ्गिनी झिङ्गी सुनिर्यासा प्रमोदिनी । जिङ्गिनी मधुरा सोष्णा कषाया व्रणशोधिनी ॥ ४१ ॥ कटुका व्रणहृद्रोगवातातीसारहृत्पटुः । तमालः शालव दाहविस्फोटहृत्पुनः ॥ ४२ ॥ टीका - जिंगिनी, झिंगिनी, झिंगी, सुनिर्यासा, प्रमोदनी, यह जिंगनीके नाम हैं. जिंगनी मधुर, कुछ गरम, कसेली, व्रणशोधक है ॥४१॥ और कड़वी है, तथा व्रण, हृदयरोग, वातातिसार, इनकों हरती, नमकीन, होती है. तमाल और सालके सदृश इसकों जानना चहिये. और दाह, विस्फोटकों हरती है ॥ ४२ ॥ अथ तूणी तथा भूर्जपत्रनामगुणाः. तूणी तुन्नक आपीनस्तुणिकः कच्छकस्तथा । कुठेरकः कान्तलको नन्दिवृक्षश्च नन्दकः ॥ ४३॥ तूणी रक्तः कटुः पाके कषायो मधुरो लघुः । तितो ग्राही हिमो वृष्यो व्रणकुष्ठास्त्रपित्तजित् ॥ ४४ ॥ भूर्जपत्रः स्मृतो भूर्जचर्मी बहुलवल्कलः । भूर्जो भूतग्रहश्लेष्म कर्णरुपित्तरक्तजित् ॥ ४५॥ कषायो राक्षसन्नश्व मेदोविषहरः परः । टीका- तूणी, तुनक, आपीन, तुणिक, कच्छक, कुठेरक, कान्तलक, नन्दिवृक्ष, नन्दक, यह तुनके नाम हैं ||४३|| तूनी पाकमें कडवा, कसेला, मधुर, हलका होता है और तिक्त, काविज, शीतल, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, व्रण, कुष्ठ, रक्त, इनकों हरनेवाला है ॥ ४४ ॥ भूर्जपत्र, भूर्जचर्मी, बहुवल्कल, यह भोजपत्रके नाम हैं. भोजपत्र भूत, ग्रह, कफ, कर्णपीडा, पित्तरक्त, इनको हरनेवाला है ॥ ४५ ॥ और कसेला राक्षसकों, तथा मेद, विषकों हरता है. For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वटादिवर्गः। १४९ अथ पलाशनामगुणाः. पलाशः किंशुकः पर्णो यज्ञियो रक्तपुष्पकः ॥ ४६॥ क्षारश्रेष्ठो वातहरो ब्रह्मवृक्षः समिद्वरः। पलाशो दीपनो वृष्यः सरोष्णो व्रणगुल्मजित् ॥ ४७॥ कषायः कटुकस्तिक्तः स्निग्धो गुदजरोगजित् । टीका-पलाश, किंशुक, पर्ण, यज्ञिय, रक्तपुष्प, ॥ ४६॥ क्षारश्रेष्ठ, वातहर, ब्रह्मक्ष, समिद्वर, यह पलाशके नाम हैं. पलाश दीपन, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, सर, उष्ण, और व्रण, वायगोला, इनको हरनेवाला है ॥ ४७ ॥ तथा कसेला, कडवा, तिक्त, चिकना, गुदाके रोगोंको हरनेवाला. भग्नसन्धानकद्दोषग्रहण्य कमीन्हरेत् ॥४८॥ तत्पुष्पं स्वदु पाके तु कटु तिक्तं कषायकम् । वातलं कफपित्तास्त्रकृच्छजिद्राहि शीतलम् ॥४९॥ तृड्दाहशमकं वात्तरक्तकुष्ठहरं परम् । फलं लघूष्णं मेहार्शःकृमिवातकफापहम् ॥ ५० ॥ विपाके कटुकं रूक्षं कुष्ठगुल्मोदरप्रणुत् । ___ अथ शाल्मलीनामगुणाः. शल्मलिस्तु भवेन्मोचा पिच्छिला पूरणीति च ॥ ५१ ॥ रक्तपुष्पा स्थिरायुश्च कण्टकाढया च तूलिनी। शाल्मली शीतला स्वादी रसे पाके रसायनी ॥ ५२ ॥ श्लेष्मला पित्तवातावहारिणी रक्तपित्तजित् । टीका-ठूटेहुवे हाडको जोडनेवाला, और संग्रहणी, ववासीर, कृमि, इनको हरता है ॥ ४८ ॥ उस्का पुष्प पाकमें मधुर, कडवा, तिक्त, कसेला होता है तथा वातकों करनेवाला, कफ, रक्तपित्त, मूत्रकृच्छ्र, इनको हरनेवाला, काविज, शीतल होताहै, ॥ ४९॥ और तृषा, दाहका शमन करनेवाला, अत्यन्त वातरक्त, और कुष्ठ इनकों हरता है. उस्का फल हलका, उष्ण होता है, और प्रमेह, बवासीर, कृमि, For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० हरीतक्यादिनिघंटे वातकफ, इनकों हरता है. विपाकमें कटु, रूखा होताहै. तथा कुष्ठ, वायगोला, उदररोग, इनको हरता है. शाल्मली, मोचा, पिच्छिला, पूरणी ॥५१॥ रक्तपुष्पा, स्थिरायु, कण्टकाढ्या, तूलिनी, यह सेमलके नाम हैं. सेमल शीतल, रसमें और पाकमें मधुर, रसायनी ॥५२॥ कफकों करनेवाली, पित्त, वातरक्तकों हरती रक्तपित्तको हरनेवाली है. अथ मोचरस तथा कूटशाल्मलीनामगुणाः. निर्यासः शाल्मलेः पिच्छा शाल्मली वेष्टकोऽपि च ॥५३॥ मोचास्त्रावो मोचरसो मोचनिर्यास इत्यपि । मोचारसो हिमो ग्राही स्निग्धो वृष्यः कषायकः ॥ ५४ ॥ प्रवाहिकातिसारामकफपित्तास्त्रदाहनुत् । कुत्सितः शाल्मलिः प्रोक्तो रोचनः कूटशाल्मलिः॥ ५५॥ कूटशाल्मलिकस्तिक्तः कटुकः कफवातनुत् । भेद्युष्णः प्लीहजठरयरुगुल्मविषापहः ॥ ५६ ॥ भूतानाहविबन्धास्त्रमेदःशूलकफापहः। टीका-मोचरस यह सेमलका गोंद है. पिच्छा, शाल्मलीवेष्टक ॥५३॥ मोचास्राव, मोचरस, मोचनिर्यास, यह मोचरसके नाम हैं. मोचरस शीतल, काविज, चिकना, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, कसेला, होता है ।। ५४ ॥ और प्रवाहिका, अतिसार, आम, कफ, रक्तपित्त, इनको हरनेवाला है. कुत्सितशाल्मली, रोचन, कूटशाल्मली, यह कूटशाल्मलीके नाम हैं ॥५५॥ कूटसेमल तिक्त, कटु, कफवातकों हरताहै भेदनकरनेवाला उष्ण होतीहै और प्लीह, उदररोग, यकृत, वायगोला, विष, इनको हरता है. और भूत, अफारा, विबन्ध, रक्त ॥५६॥ मेद, शूल, कफ, इनकों हरता है. अथ धव, धामार्गव, करीरनामगुणाः. धवो धटो नन्दितरुः स्थिरो गौरो धुरन्धरः ॥ ५७ ॥ धवः शीतप्रमेहार्शःपाण्डूतिक्तकफापहः । मधुरस्तुवरस्तस्य फलं च मधुरं मनाक् ॥ ५८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वटादिवर्गः। धन्वङ्गास्तु धनुर्वक्षो गोत्रवृक्षः सुतेजनः । धन्वङ्गः फकपित्तास्त्रकासहृत्तुवरो लघुः ॥ ५९ ॥ बृहणो बलकद्रूक्षः सन्धिरुद्रणरोपणः। करीरः ककरः पत्रो ग्रन्थिलो मरुभूरुहः ॥६०॥ करीरः कटुकस्तिक्तः स्वेद्युष्णो भेदनः स्मृतः । दुर्नामकफवातामगरशोथव्रणप्रणुत् ॥ ६१ ॥ टीका-धव, घट, नन्दितरु, स्थिर, गौर, धुरंधर यह धवके नाम हैं ॥५७॥ धव शीतल, प्रमेह, बवासीर, पाण्डू, पित्त, कफ, इनकों हरता है. मधुर, कसेला, होताहै ॥५८॥ धन्वंग, धनुर्वृक्ष, गोत्रवृक्ष, सुतेजन, यह धामिनके नाम हैं. धामिन कफ, रक्त, पित्त, कास, इनको हरनेवाला हलका होताहै ॥ ५९॥ और पुष्ट बलकों करनेवाला, रूखा संधीकों करनेवाला, घावकों भरनेवाला है. करीर, ककरपत्र, ग्रन्थिल, मरुभूरुह, यह करीरके नाम हैं ॥ ६० ॥ करीर, कडुवा, तिक्त, पसीना लानेवाला, उष्ण, भेदन, कहागयाहै. और ववासीर, कफ, वात, आम, विष, शोथ, व्रण, इनकों हरता है ॥ ६१॥ अथ सहोरा तथा वरुणनागुणाः. शाखोटः पीतकलको भूतावासः स्वरच्छदः । शाखोटो रक्तपित्ताझेवातश्लेष्मातिसारजित् ॥ ६२॥ वरुणो वरणः सेतुस्तिक्तशाकोऽग्निदीपनः । कषायो मधुरस्तिक्तः कटुको रूक्षको लघुः ॥ ६३॥ टीका-शाखोट, पीतकलक, भूतावास, स्वरच्छद, यह सहोराके नाम हैं. सहोरा रक्त, पित्त, ववासीर, वातकफ, अतीसार इनको हरनेवाला है ।। ६२ ॥ वरुण, वरण, सेतु, तिक्तशाक, यह वरुणके नाम हैं. वरुण अग्निदीपन कसेला मधुर तिक्त कडवा रूखा हलका होता है ॥ ६३ ॥ __अथ कटभीनामगुणाः. कटभी स्वादुपुष्पी च मधुरेणुः कटुम्भरा । कटभी तु प्रमेहार्मोनाडीव्रणविषकमीन् ॥ ६४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे हन्त्युष्णा कफकुष्ठन्नी कटू रूक्षा च कीर्तिता। तत्फलं तुवरं ज्ञेयं विशेषात्कफशुक्रहृत् ॥ ६५॥ . टीका-कटभी, स्वादुपुष्पी, मधुरेणु, कटुम्भर, यह कटभीके नाम हैं. यह मालकंगनीकी किस्मसें है. कटभी प्रमेह, बवासीर, नाडीव्रण, विष, कृमि, इनकों हरती है ॥ ६४ ॥ और उष्ण होती है. तथा कफ, कुष्ठकों हरती कडवी, रूखी, कहीगई है. इस्का फल कसेला जानना चाहिये, विशेषकरके कफशुक्रकों हरता है६५ अथ मोक्षरक्षनामगुणाः. मोक्षस्तु मोक्षकोऽपि स्याद्गोलीढो गोलिहस्तथा । क्षारश्रेष्ठः क्षारवृक्षो द्विविधः श्वेतकृष्णकः ॥ ६६ ॥ मोक्षकः कटुकस्तितो ग्रााष्णः कफवातहृत् । विषमेदोगुल्मकण्डूबस्तिस्कृमिशुक्रनुत् ॥ ६७ ॥ टीका-यह लोधकी किस्मसें होताहै. इस्के पत्ते पलासकेसे होते हैं. मोक्ष, मोक्षक, गोलीढ, गोलिह, क्षारश्रेष्ठ, क्षारक्ष, यह घंटापाटलाके नाम हैं. यह दोप्रकारका होता है काला और सफेद ॥६६॥ घंटापाटल, कडवा, तिक्त, काविज, उष्ण, कफवातकों हरता है. और विष, मेद, वायगोला, खुजली, बस्तिकी पीडा और कृमि शु. क्रकों हरता है ॥ ६७॥ अथ शिरीषिका तथा शमीनामगुणाः. शिरीषिका टिण्टिणिका दुर्बलाम्बुशिरीषिका । त्रिदोषविषकुष्ठाझेहरी वारिशिरीषिका ॥ ६८॥ शमी सक्तुफला तुङ्गा केशहन्त्री फलाशिवा । मङ्गल्या च तथा लक्ष्मीः शमीरः साल्पिका स्मृता ॥६९॥ शमी तिक्ता कटुः शीता कषाया रेचनी लघुः। कफकासभ्रमश्वासकुष्ठार्शःकमिजिस्मृता ॥ ७० ॥ टीका-इस्कों टिंटणीभी कहते हैं. शिरीषिका, टिंटिणिका, दुर्बला अंबुशिरीपिका यह जलशिरीषके नाम हैं. जलशिरीष त्रिदोष, विष, कुष्ठ, बवासीर, इनकों हरनेवाली है ॥ ६८ ॥ शमी, सक्तुफला, तुङ्गा, केशहत्री, फला, शिवा, मंगल्या, For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org aaraर्ग: । १५३ लक्ष्मीसमीर, साल्पिका, यह शमी के नाम हैं ॥ ६९ ॥ शमी कडवी, तिक्त, शीतल, कसेली, दस्तावर, हलकी होती है और कफ, कास, भ्रम, श्वास, कुष्ठ, ववासीर, कृमि, इनकों हरनेवाली कहीगई है ॥ ७० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ सप्तपर्णी तथा तिनिशनामगुणाः. सप्तपर्णी विशालत्वक शारदो विषमच्छदः । सप्तपर्णी व्रणश्लेष्म वातकुष्ठास्त्रजन्तुजित् ॥ ७१ ॥ दीपनः श्वासगुल्मनः स्निग्धोष्णस्तुवरः सरः । तिनिशः स्यन्दनो नेमी रथदुर्वलस्तथा ॥ ७२ ॥ तिनिशः श्लेष्मपित्तास्त्रमेदः कुष्ठप्रमेहजित् । तुरः श्वित्रदाहनो व्रणपाण्डुकमिप्रणुत् ॥ ७३ ॥ टीका - सप्तपर्ण, विशालत्वक, शारद, विषमच्छद, यह छितवनके नाम हैं. छितवन, व्रण, कफ, वात, कुष्ठ, रक्त, जन्तु, इनकों हरता है ॥ ७१ ॥ और दीपन वायगोला इनकों हरता चिकना उष्ण कसेला सर है इस्कों तिरिछभी कहा है. तिनिश, स्पंदन, नेमी, रथगु, वञ्जुल, यह तिनिशके नाम हैं ॥ ७२ ॥ तिनिश कफ, रक्त, पित्त, मेद, कुष्ठ, प्रमेह इनकों हरनेवाला है. और कसेला, श्वित्र, दाहकों हरता है व्रण, पांडु कृमि, इनकोंभी हरता है ॥ ७३ ॥ २० अथ भूमीसह ( भुइसह) नामगुणाः. भूमीसहो द्वारदारुनरिदारुः स्वरच्छदः । भूमीसहस्तु शिशिरो रक्तपित्तप्रसादनः ॥ ७४ ॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटेवटादिवर्गः ॥ टीका - भूमीसह, द्वारदारु, नरिदारु, स्वरच्छद, यह भुइसाहके नाम हैं. भुइसहा शीतल, रक्तपित्तकों अच्छा करनेवाला है ॥ ७४ ॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे वटादिवर्गः समाप्तः ॥ For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे आम्रादिफलवर्गः। - DAO3000 --- तत्रादावाम्रस्य नामानि गुणाश्च. आम्रः प्रोक्तो रसालश्च सहकारोऽतिसौरभः । कामाङ्गो मधुदूतश्च माकन्दः पिकवल्लभः ॥ १ ॥ आम्रपुष्पमतीसारकफपित्तप्रमेहनुत् । असृग्दुष्टिहरं शीतं रुचिरुद्राहि वातलम् ॥२॥ टीका-उस्में पहले आमके नाम और गुणकों कहतेहै. आम्र, रसाल, सहकार, अतिसौरभ, कामांग, मधुदृत, माकंद, पिकवल्लभ, यह आम्रके नाम हैं ॥ १॥ आम्रका पुष्प अतिसार, कफ, पित्त, प्रमेह, इनकों हरताहै. और दुष्टरक्तकों हरता, शीतल, रुचि करनेवालाहै, काविज, वातकों करनेवालाहै ॥ २ ॥ आनं वालं कषायाम्लं रुच्यं मारुतपित्तकृत् । तरुणं तु नदत्यक्तं रूक्षं दोषत्रयास्त्रहत् ॥३॥ आम्रमामं त्वचाहीनमातपेतिविशोषितम् । अम्लं स्वादु कषायं स्याद्भेदनं कफवातजित् ॥ ४ ॥ पक्कं तु मधुरं वृष्यं स्निग्धं बलसुखप्रदम् । गुरु वातहरं हृद्यं वयं शीतमपित्तलम् ॥ ५॥ कषायानुरसं वन्हिश्लेष्मशुक्रविवर्धनम् । तदेव वृक्षसम्पक्कं गुरु वातहरं परम् ॥ ६ ॥ मधुराम्लं रसं किञ्चिद्भवेत्पित्तप्रकोपनम् । आनं कृत्रिमपक्कं च तद्भवेत्पित्तनाशनम् ॥७॥ सरस्याम्लस्य हीनस्तु माधुर्याच्च विशेषतः । For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः । १५५ टीक - कैरी कसेली, खट्टी, रुचिकों करनेवाली, वातपित्तकों करनेवाली है. और कच्चा आम अत्यन्त खट्टा, रूखा, होता है तथा तीनों दोष और रक्तकों करनेवाला || ३ || वेछा किया कच्चा आम धूपमें सुखद खट्टा मधुर कसेला होता है, और भेदन कफवातकों हरनेवाला है || ४ || और पकाहुवा मधुर शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला चिकना बल सुखकों देनेवाला है, और भारी, वातहरता, हृद्य, वर्णकों अच्छा करनेवाला, शीतल, पित्तकों करनेवाला || ५ || पीछे कसेला अग्नि, कफ, शुक्र, इनकों बढानेवाला है. और वोही वृक्षपर पकाहुवा भारी परमवात हरताहैं || ६ || और मधुर कुछ खट्टा पित्तकों करनेवाला है अम्लरससें हीन और अधिक मधुरता वोह पालका पकाहुवा पित्तकों हरता है ॥ ७ ॥ उषितं तत्परं रुच्यं बल्यं वीर्यकरं लघु ॥ ८ ॥ शीतलं शीघ्रपाकि स्याद्वातपित्तहरं सरम् । तसो गालितो बल्यो गुरुवतहरः सरः ॥ ९॥ अस्तर्पणोऽतीव बृंहणः कफवर्धनः । परं रोचनं चिरपाक च ॥ १० ॥ तस्य खण्डं गुरु मधुरं बृंहणं बल्यं शीतलं वातनाशनम् । वातपित्तहरं रुच्यं वृंहणं बलवर्धनम् । वृष्यं वर्णकरं स्वादु दुग्धानं गुरु शीतलम् ॥ ११ ॥ मन्दानत्वं विषमज्वरं च रक्तामयं बद्धगुदोरं च । आम्रातियोगो नयनाभयं वा करोति तस्मादति तानिनाद्यात् १२ एतदम्लानविषयं मधुराम्लपरं नतु । मधुरस्यपरं नेत्रं हित्वाद्यात्र गुणा यतः ॥ १३ ॥ शुंoयाम्भसोऽनुपानं स्यादाम्राणामतिभक्षणे । जीरकं वा प्रयोक्तव्यं सहसौवर्चलेन च ॥ १४॥ पक्कं च सहकारस्य पटे विस्तारितो रसः । धर्मशुष्को मुहुर्दत आम्रावर्त इति स्मृतः ॥ १५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे आम्रावस्तृषाच्छर्दिवातपित्तहरः सरः। रुच्यः सूर्यांशुभिः पाकाल्लघुश्च स हि कीर्तितः ॥ १६ ॥ टीका-और रक्खाहुवा वोह परम रुचिकों करनेवाला, बलकों देनेवाला, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, हलका होताहै ॥ ८ ॥ बहुत और शीतल, शीघ्रपाक वाला, वातपित्तको हरता सर होताहै. उस्का निचोडा हुवा रस बलकों देने वाला भारी वात हरता सर होताहै ॥ ९॥ और हृद्य तर्पण और पुष्टिकों करनेवाला कफको बढानेवाला है. और उस्का टुकडा भारी अत्यन्त रुचिकों करनेवाला बहुत कालमें पाक होनेवाला है ॥ १०॥ और मधुर, पुष्ट, बलकों करनेवाला, शीतल, वातकों हरताहै. दूध आमवात पित्तकों करनेवाला रुचिको करनेवाला, पुष्ट, बलको बढानेवाला ॥ ११ ॥ शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, वर्णकों करनेवाला, मधुर, भारी, शीतल होता है. बहुत आमका सेवन मंदामि, विषमज्वर, रक्तके रोग, बद्धगुदोदर और नेत्ररोग, इनकों करताहै इसवास्ते बहुत न सेवन करै. ॥ १२ ॥ यह खट्टे आमके विषयमें कहाहै नकी मधुर आमके विषयमें म धुर परमनेत्रके हित होता है. क्योंकी पहले कहे हुवे मुणोंसें ॥ १३ ॥ आम्रके अतिभक्षणमें पीछेसें सोंठ और पानी पीवे अथवा जीरा और सोंचलनमक मिलाके पीवे ॥ १४॥ पकेहुवे आमके रसकी कपडेपर फैलाकर धृपमें सुखायाहुवा और फिरसें पुट दिये हुवेकों आम्रावर्त ऐसा कहते है ॥ १५॥ और अमवट ऐसा लोकमें कहते है. अम्रवट तृषा वमन वात पित्त इनको हरता सर रुचिकों करनेवाला है और सूर्यकी किरणोंके द्वारा पाक होनेसे वोह हलका कहागयाहै ॥ १६॥ अबबीज तथा नवपल्लवनामगुणाः, आम्रबीज कषायं स्याच्छर्घतीसारनाशनम् । ईषदम्लं च मधुरं तथा हृदयदाहनुत् ॥ १७ ॥ आम्रस्य पल्लवं रुज्यं कफपित्तविनाशनम् । टीका-आमकी गुठली कसेली और वमन अतीसारको हरता कुछ खट्टी मधुर तथा हृद्य दाहकों हरता ॥ १७॥ आमके पत्ते रुचिकों करनेवाले कफपित्तकों हरनेवाले हैं. For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः। १५७ अम्रातकनामगुणाः. आनातकः पीतनश्च मर्कटाम्रकपीतनः ॥ १८॥ आम्रातमम्लवातघ्नं गुरूणं रुचिकत्सरम् । पक्कं तु तुवरं स्वादु रसे पाके हिमं स्मृतम् ॥ १९॥ तर्पणं श्लेष्मलं स्निग्धं वृष्यं विष्टम्भि हणम् । गुरु बल्यं मरुत्पित्तक्षतदाहक्षयास्रजित् ॥ २०॥ टीका-आम्रातक, पीतन, मर्कटाम्र, कपीतन, यह अम्बाडेके नाम हैं. अम्बाडा खट्टा, वातहरता, भारी, गरम, रुचिकों करनेवाला, सरहै ॥ १८ ॥ पक्का कसेला, पाकरसमें मधुर, और शीतल कहाहै. तर्पण कफकों करनेवाला, चिकना, शुक्र उत्पन्नकरनेवाला, विष्टंभी, पुष्टहै ॥ १९॥ तथा भारी, बलकों हितहै. और वात, पित्त, क्षत, दाह, क्षय, रक्त, इनको जीतनेवालाहै ॥ २० ॥ अथ राजाम्र तथा कोशाम्रनामगुणाः, राजाम्रष्टङ्क आम्रातः कामाह्वो राजपुत्रकः। राजानं तुवरं स्वादु विशदं शीतलं गुरु ॥ २१ ॥ ग्राहि रूक्षं विबन्धाध्मवातकृत्कफपित्तनुत् ।। कोशान उक्तः क्षुद्राम्रः कृमिवृष्यः सुकोशकः ॥ २२ ॥ कोशाम्रः कुष्ठशोथास्त्रपित्तव्रणकफापहः। तत्फलं ग्राहि वातघ्नमम्लोऽम्लं गुरु पित्तलम् । पक्कं तु दीपनं रुच्यं लघूष्णं कफवातनुत् ॥ २३ ॥ टीका-राजाम्र, टङ्क, आम्रात, कामाह, राजपुत्रक, यह कसेला, मधुर, विशद, शीतल, भारी ॥ २१॥ काविज, रूखाहै. और विबन्ध, आध्मान, वात इ. नकों करनेवाला और कफपित्तकों हरता है. अथ कोशाम्र इस्कों कोशम्भभी कहते हैं. कोशाम्र, क्षुद्राम्र, कृमिवृक्ष, सुकौशिक, यह कोशाम्रके नाम हैं. कोशम्भ, रक्तपित्त, कुष्ठ, मूजन, व्रण, कफ इनको हरनेवाला है ॥ २२॥ उस्का फल काविज, वातहरता, खट्टा और पाकमेंभी खट्टा होताहै. भारी पित्तकों करनेवाला है तथा पकाहुवा दीपन रुचिकों करनेवाला हलका उष्ण कफवातकों हरताहै ॥ २३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ हरीतक्यादिनिघंटे अथ फनसनामगुणाः. फनसः कण्टकिफलः पणशोऽतिबृहत्फलः। पणशं शीतलं पक्कं स्निग्धं पित्तानिलापहम् ॥ २४ ॥ तर्पणं बृंहणं स्वादु मांसलं श्लेष्मलं भृशम् । बल्यं शुकप्रदं हन्ति रक्तपित्तक्षतव्रणान् ॥ २५ ॥ आमं तदेव विष्टम्भि वातलं तुवरं गुरु । दाहकन्मधुरं बल्यं कफमेदोविवर्धनम् ॥ २६ ॥ फनसोद्भूतबीजानि वृष्याणि मधुराणि च । गुरूणि बदविट्कानि सृष्टमूत्राणि संवदेत् ॥ २७ ॥ मजा फनसजो वृष्यो वातपित्तकफापहः । विशेषात्पनसो वज्यों गुल्मिभिर्मन्दवह्निभिः ॥ २८॥ टीका-फनस, कंटकिफल, पणस, अतिबृहत्कल, येह कटहलके नाम हैं. कटहल शीतल और पकाहुवा चिकना पित्तवातकों हरता है ॥ २४ ॥ तृप्तिकों करनेवाला, पुष्ट, मधुर, मांसकों करनेवाला और अत्यन्त कफकों करनेवालाहै. तथा बलकों करनेवाला और शुक्रकों करनेवालाहै. रक्तपित्त, क्षत, व्रण, इनकों हरताहै ॥ २५॥ वोही कच्चा विष्टम्भ करनेवाला, वातल, कसेला, भारीहै और दाहकों करनेवाला मधुर बलके हित कफमेदकों बढानेवाला है ॥ २६ ॥ कटहलके बीज शुक्रकों उत्पन्न करनेवाले मधुरहै और भारी मलको रोकनेवाला तथा मूत्रकों करनेवाला है ॥ २७ ॥ कटहलकी गिरी शुक्रकों करनेवाली वातपित्तकफकों हरतीहै, विशेषकरके वायगोलावाले और मन्दाग्निवाले कटहलकों न सेवन करै ॥२८॥ अथ क्षुद्रफनसनामगुणाः. लकुचः क्षुद्रपनसो लिकुचो डहुरित्यपि । आमं लकुचमुष्णं च गुरु विष्टम्भकत्तथा ॥ २९ ॥ मधुरं च ताथाम्लं च दोषत्रितयरक्तरुत् । शुक्राग्निनाशनं वापि नेत्रयोरहितं स्मृतम् ॥ ३०॥ सुपक्कं तत्तु मधुरमम्लं चानिलपित्तहृत् । For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५९ आम्रादिफलवर्गः। कफवह्निकरं रुच्यं वृष्यं विष्टम्भकं च तत् ॥ ३१॥ टीका-लकुच क्षुद्रपणस लिकुच डहु इतने नाम वडहलके हैं. कच्चा वडहल गरम भारी विष्टम्भको करनेवाला है ॥ २९॥ और मधुर तथा खट्टा तीनोंदोषोंकों और रक्तकों करनेवाला है और शुक्र तथा अग्निकों हरता और नेत्रोंके अहित कहाहै ॥३०॥ और अच्छेप्रकार पका हुवा खट्टा और मीठा होता है तथा वातपित्तकों हरनेवाला है और कफ अग्निकों करनेवाला रुचिके हित शुक्रकों करनेवाला और विष्टम्भक है ॥ ३१॥ अथ कदलीनामगुणाः. कादली वारणा मोचांबुसारांशुमतीफला । मोचाफलं स्वादु शीतं विष्टम्भि कफनुगुरु ॥ ३२॥ स्निग्धं पित्तात्रतृट्दाहक्षतक्षयसमीरजित् । पक्कं स्वादु हिमं पाके स्वादु वृष्यं च बृंहणम् । क्षुत्तृष्णानेत्रगदहन्मेदोघ्नं रुचिमांसकृत् ॥३३॥ माणिक्यमामृतचम्पकाद्या मेदाः कदल्या बहवोऽपि सन्ति । उक्ता गुणास्तेष्वधिका भवन्ति निर्दोषता स्याल्लघुता च तेषाम् ॥३४ टीका-कदली, वारणा, मोचा, अम्बुसारा, अंशुमतीफला, यह केलेके नाम हैं. केला मधुर, शीतल, विष्टंभ करनेवाला, कफहरता, भारी है ॥ ३२॥ और चिकना पित्त, रक्त, तृषा दाहकों हरता और क्षत, क्षय, वात, इनको हरनेवालाहै. पका हुवा शीतल, मधुर, और पाकमें मधुर शुक्रकों करनेवाला और पुष्ट है. क्षुधा, तृषा, नेत्ररोग इनकों हरता प्रमेहकों हरता तथा रुचि और मांसकों करनेवाला है॥३३॥ माणिक्य मर्त्य अमृत चंपक आदि केलेके बहुत भेद हैं उन्में यह कहेहुए गुणोंमें आधिकहै और उन्में निर्दोषता तथा लघुता है ॥ ३४ ॥ अथ चिर्भटनामगुणाः. चिर्भटं धेनुदुग्धं च तथा गोरक्षकर्कटी। चिर्भ मधुरं रूक्षं गुरु पित्तकफापहम् ॥ ३५॥ अनुष्णं ग्राहि विष्टम्भि पक्कं तूष्णं च पित्तलम्। For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६० हरीतक्यादिनिघंटे टीका - चिर्भट, धेनुदुग्ध, गोरक्ष, ककीं, यह भ्रुकुरके नाम हैं. भुकुर मधुर, रूक्ष, पित्त, कफकों हरता भारी है ॥ ३५ ॥ और उष्ण, काविज, विष्टम्भ, और पकाहुवा उष्ण तथा पित्तकों करनेवाला है. अथ नारिकेलनामगुणाः. नारिकेरो दृढफलो लाङ्गली कूर्चशीर्षकः ॥ ३६ ॥ तुङ्गस्कन्धफलचैव तृणराजः सदाफलः । नारिकेरफलं शीतं दुर्जरं बस्तिशोधनम् ॥ ३७॥ विष्टम्भ बृंहणं बल्यं वातपित्तास्रदाहनुत् । विशेषतः कोमलनारीकेरं निहन्ति पित्तज्वर पित्तदोषान् ॥३८॥ तदेव जीर्णं गुरु पित्तकारि विदाहि विष्टम्भि मतं भिषग्भिः । तस्याम्भः शीतलं हृद्यं दीपनं शुक्रलं लघु ॥ ३९ ॥ पिपासापित्तजित्स्वादु बस्तिशुद्धिकरं परम् । नारिकेरस्य तालस्य खर्जूरस्य शीरांसि तु ॥ ४० ॥ कषायस्त्रिग्धमधुरबृंहणानि गुरूणि च । टीका - नारिकेर, ढफल, लाङ्गली, कूर्चशीर्षक ॥ ३६ ॥ तुङ्ग, स्कन्धफल, तृणराज, सदाफल यह नारियलके नाम हैं ।। ३७ ।। नारियल शीतल, दुर्जर, बस्तिशोधन, विष्टंभी, पुष्ट, बलके हित और वात, पित्त, रक्त, दाह, इनकों हरता है विशेषकरके कोमल नारिकेल पित्तज्वर और पित्तके देषोंकों हरता है ॥ ३८ ॥ वोही जीर्ण भारी, पित्त, कास, विदाही, विष्टम्भी, एसा वैद्योंनें माना है. उस्का जल शीतल, हृद्य, दीपन, शुक्रकों करनेवाला, हलका है ॥ ३९ ॥ और तृष्णा, पित्त इनकों जीतनेवाला, मधुर तथा वस्तिकों शुद्ध करनेवाला है. नारियल ताड, खजूर, इनकी शिरा ॥ ४० ॥ कसेली चिकनी पुष्ट भारी होती है. अथ कालिन्द ( तरबूज ) नामगुणाः. कालिन्दं कृष्णवीजं स्यात्कालिङ्गं च सुवर्त्तुलम् ॥ ४१ ॥ कालिन्दं प्राहि पित्तशुक्रहृच्छीतलं गुरु । पक्कं तु सोष्णं सक्षारं पित्तलं कफवातजित् ॥ ४२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६१ आम्रादिफलवर्गः। टीका-कालिन्द कृष्णबीज, कालिंग, सुवर्तुल येह तरबूजके नाम हैं ॥४१॥ तरबूज काविज, दृष्टी, पित्त, शुक्र, इनको हरनेवाली शीतल और भारी होता है पकाहुवा कुछ गरम और क्षारके सहित होता है और पित्तकों करनेवाला कफवातकों हरताहै ॥ ४२ ॥ अथ खबूंज तथा त्रपुसकर्कटीनामगुणाः. दशाङ्गुलं तु खर्बुजं कथ्यते तद्गुणा अथ। खर्बुजं मूत्रलं बल्यं कोष्ठशुद्धिकरं गुरु ॥ ४३ ॥ . स्निग्धं स्वादुतरं शीतं वृष्यं पित्तानिलापहम् । तेषु यच्चाम्लमधुरं सक्षारं च रसाद्भवेत् ॥ ४४ ॥ रक्तपित्तकरं तत्तु मूत्रकृच्छ्रकरं परम् । त्रपुस कण्टकिफलं सुधावासः सुशीतलम् ॥ ४५ ॥ त्रपुसं लघु नीलं च नवं तृटक्कमदाहजित् । स्वादु पित्तापहं शीतं रक्तपित्तहरं परम् ॥ ४६ ॥ तत्पक्कमम्लमुष्णं स्यात्पित्तलं कफवातनुत् । तबीजं मूत्रलं शीतं रूक्षं पित्तास्त्रकच्छजित् ॥ ४७ ॥ . टीका-दशांगुल खरबूज यह खरबूजके नाम हैं. अब उस्के गुण कहतेहैं. खरबूज मूत्रकों करनेवाला बलकों करनेवाला कोष्ठकी शुद्धि करनेवाला और भारी होताहै ॥ ४३ ॥ और चिकना, बहुत मधुर, शीतल, शुक्रकों करनेवाला पित्तवातकों हरताहै उनमें जो खट्टा, मधुर, क्षारके सहित रससे होता है वोह रक्त पित्तकों करनेवाला और मूत्रकृच्छ्रकों करनेवाला है ॥ ४४ ॥ त्रुपुस कंटकिफल, सुधावास, सुशीतल, येह वालमखीरेके नाम हैं. खीरा हरा और नया खीरा हलका होताहै वोह तृषा, क्लम, दाह इनको हरनेवाला है ॥४५॥ और मधुर, पित्तहरता, शीतल, और रक्तपित्तकों हरता है. वो पकाहुवा खट्टा उष्ण और पित्तकों करनेवाला कफवातकों हरता है ॥ ४६ ॥ उस्का बीज मूत्रकों करनेवाला, शीतल, रूखा, रक्तपित्त और मूत्रकृच्छ्र, इनको हरनेवाला है ॥ ४७॥ अथ पूगफल(सुपारी)नामगुणाः, घोण्टाथ पूगी पूगश्च गुवाकः क्रमुकोऽस्य तु । For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे फलं पूगीफलं प्रोक्तमुद्वेगं च तदीरितम् ॥ ४८ ॥ पूगं गुरु हिमं रूक्षं कषायं कफपित्तजित् । मोहनं दीपनं रुच्यमास्यवैरस्यनाशनम् ॥ ४९ ॥ आर्द्र गुर्वभिष्यन्दि वह्निदृष्टिहरं स्मृतम् । स्विन्नं दोषत्रयच्छेदि दृढमध्यं तदुत्तमम् ॥ ५० ॥ टीका- घोण्टा, पूगी, पूरा, गुवाक, क्रमुकफल, पूगीफल, उद्वेग यह सुपारीके नाम हैं ॥ ४८ ॥ सुपारी भारी, शीतल, रूखी कसेली, कफपित्तकों हरनेवाली है. और मोहन, दीपन, भारी, रुचिकों करनेवाली मुखके विरसताकों हरता है ॥ ४९ ॥ वोह गोली भारी अभिष्यंदी होती है और अग्निकों दृष्टिकों हरता है चिकनी तीनों दोषोंकों हरनेवाली बीचमें जो दृढ होती वोह उत्तम है ॥ ५० ॥ अथ तालः. तालस्तु लेखपत्रः स्यात्तृणराजो महोन्नतः । पक्कं तालफलं पित्तरक्तश्लेष्मविवर्धनम् ॥ ५१ ॥ दुर्जरं बहुमूत्रं च तन्द्राभिष्यन्दि शुक्रदम् । तालमज्जा तु तरुणः किञ्चिन्मदकरो लघुः ॥ ५२ ॥ श्लेष्मलो वातपित्तघ्नः सस्नेहो मधुरः सरः । तालजं तरुणं तोयमतीव मादकृन्मतम् ॥ ५३॥ अम्लीभूतं तदा तु स्यात्पित्तकृद्वातदोषहृत् । बिल्वः शण्डिल्यशैलूषो मालूर श्रीफलावपि ॥ ५४ ॥ बालं बिल्वफलं बिल्वकर्कटी बिल्वपेशिका | ग्राहिणी कफवातामशूलघ्नी बिल्वपेषिका ॥ ५५ ॥ टीका - ताल लेखपत्र तृणराज महोन्नत यह ताडके नाम हैं. पकाहुवा ताडफल रक्त, पित्त, कफ, इनकों बढानेवाला ॥ ५१ ॥ दुर्जर बहुत मूत्रकों करने - वाला तन्द्रा अभिष्यन्दी और शुक्रकों देनेवाला है. पकेहुवे तालकी गिरी कुछ नशा लानेवाली और हलकी होती है ॥ ५२ ॥ और कफकों करनेवाली वातपि For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः । १६३ तकों हरती कुछ चिकनी मधुर सर होती है. ताडी बहुत नशा करनेवाली होती है ॥ ५३ ॥ और जब खटी होती है तब पित्तकों करनेवाली बात तथा वातदोषकों हरती है. बिल्व, शाण्डिल्य, शैल्यूष, मालूर, श्रीफल, यह बेलफलके नाम हैं ॥ ५४ ॥ और कच्चे बेलफल बिल्वकर्कटी और बिल्वपेशिका कहते हैं. कच्चा बेल काविज, कफवात, अंगशूल, इनकों हरता है ॥ ५५ ॥ (अन्यच्च) बालं बिल्वफलं ग्राहि दीपनं याचनं कटु | कषायोष्णं लघु स्निग्धं तिक्तं वातकफापहम् ॥ ५६ ॥ पक्कं गुरु त्रिदोषं स्याद्दुर्जरं पूतिमारुतम् । विदाहि विष्टम्भकरं मधुरं वह्निमान्धत् ॥ ५७ ॥ फलेषु परिपकं यद्गुणवत्तदुदाहृतम् । बिल्वादन्यत्र विज्ञेयमामं तद्विगुणाधिकम् ॥ ५८ ॥ द्राक्षाबिल्वशिवादीनां फलं शुष्कं गुणाधिकम् । टीका - कच्चा बेलफल काविज, दीपन, पाचन, कटु, कसेला, उष्ण, हलका, चिकना, तिक्त, वातकफकों, हरता है ।। ५६ ।। और पकाहुवा भारी, त्रिदोषकों करनेवाला होता है और सडाहुवा, दुर्गंधि, और वातकों करता है, तथा विदाहकों करनेवाला विष्टम्भी मधुर अग्निमांद्यकों करनेवाला है ।। ५७ ।। फलोंमें पकाहुवा जो होता है वोह गुणयुक्त होता है, परन्तु बेलसें अतिरक्तोंकों जानना चाहिये यह कच्चा गुणमें अधिक होता है ॥ ५८ ॥ दाखवेल आमले इत्यादिकोंके फल सूखेहुवे गुणमें अधिक होते हैं. अथ कपित्थ (कैथी) नामगुणाः. कपित्थस्तु दधित्थः स्यात्तथा पुष्पफलः स्मृतः ॥ ५९ ॥ कपिप्रियो दधिफलस्तथा दन्तशठोऽपि च । कपित्थमामं संग्राहि कषायं लघु लेखनम् ॥ ६० ॥ पकं गुरु तृषाहिक्काशमनं वातपित्तजित् । स्यादल्पं तुवरं कण्ठशोधनं ग्राहि दुर्जरम् ॥ ६१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ हरीतक्यादिनिर्घटे टीका - कपित्थ, दधित्थ, पुष्पफल, यह कैथके नाम ॥ ५९ ॥ और कपि - प्रिय, दधिफल, तथा दन्तशठ, यहभी कैथके नामहैं. कच्चा कैथ काविज, कसेला, हलका, रेचन, होता है ॥ ६० ॥ और पका हुवा भारी, होता है और तृषा, हिचकी इनका शमन करनेवाला, वातपित्तकों हरता है ॥ ६१ ॥ अथ नारंगी तथा तेंदुकनामगुणाः. नारङ्गो नागरङ्गः स्यात्त्वक्सुगन्धः सुखप्रियः । नारङ्गो मधुराम्लः स्याद्रेोचनं वातनाशनम् ॥ ६२ ॥ अपरं त्वम्लमत्युष्णं दुर्जरं वातहत् सरम् । तिंदुकः स्फूर्जकः कालस्कन्धश्च सितकारकः ॥ ६३॥ स्यादामं तिंदुकं ग्राहि वातलं शीतलं लघु । पक्कं पित्तप्रमेहास्त्रश्लेष्मलं मधुरं गुरु ॥ ६४ ॥ टीका - नारंग नागरंग खक्सुगंध सुखप्रिया ये नामहैं और यह मोठी है खट्टी है रोचक है और वातको नाश करती है ॥ ६२ ॥ और दूसरे प्रकारकी नारंगी खट्टी है अतिगरम वा दुर्जर है वातकों नाश करती है तिन्दुक स्फूर्जक कालस्कन्ध सितकारक ये नाम हैं ॥ ६३ ॥ और इस्का कच्चाफल कुब्ज करहै बातकों पैदा करता है और शीतल होता है हलका है और पका हुआ फल पित्त प्रमेह रक्तदोष पथरी इनोंकों नाश करता है मीठा है और भारी है यह तेंदुट्टक्ष दीर्घपत्तोंवाला जलके देशमें होता है ॥ ६४ ॥ अथ कुपीलुः तिन्दुकभेदः. ( तस्य फलं कुचिलाइति लोके मधुरतेंदु इति च । ) तिन्दुको यस्तु कथितो जलदो दीर्घपत्रकः । कुपीलुः कुलकः कालस्तिदुकः काकपीलुकः ॥ ६५॥ काकेन्दुर्विषतिन्दुश्च तथा मर्कटतिन्दुकः । कुपील शीतलं तिक्तं वातलं मदल्लघु ॥ ६६ ॥ परं व्यथाहरं ग्राही कफपित्तास्त्रनाशनम् । अथ कपील वृक्षविशेष इसका फल कुचला होता है कुपील कुलक काकतिन्दुक कालपीलुक ॥ ६५ ॥ काकेन्दु विषतिन्दुक मर्कटतिन्दुक ये नाम है और यह शीतल For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः। १६५ होताहै कटुआहै वातवालाहै मद करै है हलका है अत्यन्त पीडाको नाश करदेताहै ॥ ६६ ॥ कुल करै है और कफ पित्त रक्त इनकों नाश करताहै ॥ अथ फलेंद्रा तथा जामुनीगुणाः. फलेंद्रा कथिता नन्दो राजजम्बूमहाफला ॥ ६७ ॥ तथा सुरभिपत्रा च महाजम्बूरपि स्मृता । राजजम्बूफलं स्वादु विष्टम्भि गुरु रोचनम् ॥ ६८॥ क्षुद्रा जम्बूः सूक्ष्मपत्रा नादेयी जलजम्बुका । जम्बू संग्राहिणी रूक्षा कफपित्तास्त्रदाहनुत् ॥ ६९ ॥ फलेंद्रा अनन्दा राजजंबू महाफला ॥ ६७ ॥ सुरभिपत्रा महाजंबू ये नामहैं और यह स्वादिष्ठहै विष्टंभकारकहै भारी होता है रोचन होताहै ॥ ६८ ॥ क्षुद्रजम्बू सूक्ष्मपत्रा नादेयी जलजम्बुका ये नामहैं और यहजामन कुब्ज करतीहै रूखी होती है और कफपित्त रक्त दाह इनोंकों नाश करतीहै ॥ ६९॥ पुंसि स्त्रियां च कर्कन्धूर्बदरी कोलमित्यपि । फेनिलं कुवलं घोण्टा सौवीरं बदरं च तत् ॥ ७० ॥ अजाप्रिया महाकोली विषमोभयकण्टकः। टीका-कर्कन्धू बदरी कोली फेनिल कुवल छोटा सौवीर ॥ ७० ॥ अजप्रिया महाकोली विषमीभयकंटका ये नाम हैं । पच्यमानं सुमधुरं सौवीरं बदरं महत् ॥७१॥ सौवीरं बदरं शीतं भेदनं गुरु शुक्रलम् । बृंहणं पित्तदाहास्त्रक्षयतृष्णानिवारणम् ॥७२॥ सौवीराल्लघु संपकं मधुरं कोलमुच्यते । कोलं तु बदरं ग्राही रुच्यमुष्णं च वातहत् ॥७३॥ कफपित्तकरं चापि गुरु सारकमीरितम् । कर्कन्धूः क्षुद्रबदरं कथितं पूर्वसूरिभिः ॥७४॥ अम्लं स्यात् क्षुद्रबदरं कषायं मधुरं मनाक् । For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे स्त्रिन्धं गुरु च तिक्तं च वातपित्तापहं स्मृतम् ॥ ७५ ॥ शुष्कं भेद्यग्निकृत्सर्वं लघु तृष्णाकमास्त्रजित् । कोल वेरका वीज रुचिकों करनेवाला गरम वातकों करनेवाला है ॥ ७३ ॥ और कफ, पित्तकों करनेवाला भारी सारक कहा है. पहिले विद्वानोंनें छोटेवेरकों कर्कन्धू ऐसा कहा है ॥ ७४ ॥ छोटा वेर खट्टा, कसेला, और थोडा मीठा होता है और चिकना, भारी, तिक्त, वातपित्तकों हरता कहाहै ॥ ७५ ॥ तथा सूखा भेदनकरनेवाला और अग्निकों करनेवाला है और सब इसके होते है तथा तृषा, कृमि, रक्त, इनकों हरनेवाला है. अथ प्राचीनामलक तथा लवलीनामागुणाः. प्राचीनामालकं लोके प्राचीनामलकं स्मृतम् ॥ ७६ ॥ प्राचीनामलकं दोषत्रयजिद् ज्वरघाति च । सुगन्धमूला लवली पाण्डुः कोमलावल्कला ॥ ७७ ॥ लवलीफलमइमार्शः कफपित्तहरं गुरु । विशदं रोचनं रूक्षं स्वाद्वम्लं तुवरं रसे ॥ ७८ ॥ टीका - प्राचीनामालककों लोकमें प्राचीनामलक कहा है || ७६ || प्राचीनामलक त्रिदोषकों हरनेवाला और ज्वर हरता है. अब हरफरे बडी ये सुगन्धमूला लवली पांडुकोमल वल्कला येह हरफारे बडीके नाम हैं ॥ ७७ ॥ हरफरीका फल पथरी और ववासीर, कफ, पित्त, इनको हरता भारी विशद, रोचन, रूखा, मधुर, खट्टा, और कसैला, रसमें होता है ॥ ७८ ॥ अथ करमर्द ( करोंदा) नामगुणाः. करमर्दः सुषेणः स्यात्कृष्णपाकफलस्तथा । तस्माल्लघुफला या तु सा ज्ञेया करमर्दका ॥ ७९॥ करमर्दद्वयं त्वाममम्लं गुरु तृषाहरम् । उष्णं रुचिकरं प्रोक्तं रक्तपित्तकफप्रदम् ॥ ८० ॥ तत्पक्कं मधुरं रुच्यं लघुपित्तसमीरजित् । टीका -- करमर्द, सुषेण, कृष्णपाकल, यह करोंदा के नाम हैं और छोटेकों For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६७ आम्रादिफलवर्गः। करमर्दिका कहतेहैं ॥ ७९ ॥ दोनों करोंदे खट्टे भारी, तृषाहरताहैं और उष्ण, रु. चिकों करनेवाला तथा रक्तपित्तकफकों देनेवाले कहेहैं ॥ ८०॥ वोह पकाहुवा मधुर रुचिकों करनेवाला हलका और वात पित्तको हरनेवाला है. ___ अथ प्रियाल(चिरौंजी)नामगुणाः. प्रियालस्तु खरस्कन्धश्वारो बहुलवल्कलः ॥ ८१ ॥ राजादनस्तापसेष्टः सन्नकट्ठर्धनुष्पटः । चारः पित्तकफास्त्रघ्नस्तत्फलं मधुरं रुगु ॥ ८२॥ स्नग्धं सरं मरुत्पित्तदाहज्वर तृषापहम् । प्रियालमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः ॥ ८३ ॥ हृद्योऽतिदुर्जरः स्निग्धो विष्टम्भी चामवर्धनः। टीका–प्रियाल, खरस्कन्ध, चार, बहुलवल्कल ॥ ८१ ॥ राजादन, तापसेष्ट, सन्नकद्रु, यह चिरोंजीके नामहैं. चिरोंजी पित्त, कफ, रक्त, इनकों हरतीहै और उस्का फल मधुर, भारी ॥ ८२ ॥ चिकना सरहोता है और पित्त, वात, दाह, ज्वर, तृषा, इनकों हरताहै. चिरौंजीकी गिरी मधुर, शुक्रकों करनेवाली, पित्तवातकों हरता ॥ ८३ ॥ हृद्य अतिदुर्जर, स्निग्ध, विष्टंभी, आमको बढानेवालीहै. अथ राजादननामगुणाः. राजादनः फलाध्यक्षो राजन्या क्षीरिकापि च ॥८४ ॥ क्षीरिकायाः फलं वृष्यं बल्यं स्निग्धं हिमं रुगु। तृष्णामूर्छामदभ्रान्तिक्षयदोषत्रयास्त्रजित् ॥ ८५॥ टीका-राजादन, फलाध्यक्ष, राजन्या, यह खिरनीके नाम हैं, ॥ ८४॥ खिरनीका फक शुक्रकों करनेवाला, बलकों देनेवाला, चिकना, शीतल, भारी होताहै और मूर्छा, मद, भ्रांति, क्षय, त्रिदोष, रक्त, इनको हरनेवालाहै ॥ ८५॥ अथ विकंकत, पद्मबीज, माषान्ननामगुणाः. विकङ्कतः स्त्रुवावृक्षो ग्रन्थिलः स्वादुकण्टकः । स एव यज्ञवृक्षश्च कण्टकी व्यघ्रपादपि ॥ ८६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६८ हरीतक्यादिनिघंटे विकङ्कतफलं पक्कं मधुरं सर्वदोषजित् । पद्मवीजं तु पद्माक्षं गालोड्यं पद्मकर्कटी ॥ ८७॥ पद्मबीजं हिमं स्वादु कषायं तिक्तकं गुरु । विष्टम्भ वृष्यं रूक्षं च गर्भसंस्थापकं परम् ॥ ८८ ॥ कफवातकरं बल्यं ग्राहि पित्तास्रदाहनुत् । माषानं पद्मबीजाभं पानीयफलमित्यपि ॥ ८९ ॥ माषानं पद्मवीजस्य गुणैस्तुल्यं विनिर्दिशेत् । टीका - विकङ्कत, खुवावृक्ष, ग्रन्थिल, स्वादुकंटक, यज्ञवृक्ष, कंटकी, व्याघ्रपाद, यह कंटाई के नाम || ८६ || कंटाईका पका फल मधुर और सबदोषों हरनेवाला है. पद्मबीज, पद्माक्ष, गालोड्य, पद्मकर्कटी, यह कमलगट्टाके नामहै ॥ ८७ ॥ कमलगट्टा शीतल, मधुर, कसेला, तिक्त भारी विष्टंभी, शुक्रकों करनेवाला, रूखा, गर्भकों स्थापन करनेवाला है ॥ ८८ ॥ और कफवातकों करनेवाला, बलके हित, काविज, रक्त पित्त और दाह, इनकों हरता है मापान, पद्मबीजाभ, पानीयफल यह मखानेके नाम है ॥ ८९ ॥ मषान्न कमलगट्टेके समान गुणमें जानना चाहिये ॥ अथ सिंघाडा, पद्मबीज, मधुकनामगुणाः. शङ्गाटकं जलफलं त्रिकोणफलमित्यपि ॥ ९० ॥ शृङ्गाटकं हिमं स्वादु गुरु वृष्यं कषायकम् । ग्राहि शुक्रानिलश्लेष्मप्रदं पित्तास्रदाहनुत् ॥ ९१ ॥ उक्तं कुमुदवीजं तु बुधैः कैरविणीफलम् । भवेत्कुमुद्वतीबीजं स्वादु रूक्षं हिमं गुरु ॥ ९२ ॥ मधुको गुडपुष्पः स्यान्मधुपुष्पो मधुस्रवः । वानप्रस्थो मधुष्ठीलो जलजेत्र मधूलकः ॥ ९३ ॥ मधूकपुष्पं मधुरं शीतलं गुरु बृंहणम् । बलशुक्रकरं प्रोक्तं वातपित्तविनाशनम् ॥ ९४ ॥ फलं शीतं गुरु स्वादु शुकलं वातपित्तनुत् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः । अहृद्यं हन्ति तृष्णास्त्रदाहश्वासक्षतक्षयान् ॥ ९५ ॥ टीका - श्रृंगाटक, जलफल, त्रिकोणफल, यह सिंघाडेके नाम हैं ॥ ९० ॥ सिंघाडा शीतल, मधुर, भारी, शुक्रकों करनेवाला, कसेला काविज, और शुक्र, वात, कफ, इनकों देनेवाला तथा पित्तरक्त, दाह, इनकों हरताहै ॥ ९१ ॥ कुमुके बीजकों कैरिविणीफल ऐसा पंडितोंनें कहा है कुमुद्वतीका बीज, मधुर, रूखा, शीतल होताहै ॥ ९२ ॥ मधुक, गुडपुष्प, मधुपुष्प, मधुस्रव, वानप्रस्थ, मधुष्ठील, जलज, मधूलक, ॥ ९३ ॥ यह महुवेके नाम है. महुवा मधुर, शीतल, भारी, पुष्ट, बल शुक्रकों करनेवाला और वातपित्तकों हरता कहाहै ॥ ९४ ॥ उस्का फल शीतल, भारी, मधुर, शुक्रकों करनेवाला, वातपित्तकों हरता, और अहृद्य होता है तथा तृषा, रक्त, दाह, श्वास, क्षतक्षय, इनकों हरता है ॥ ९५ ॥ अथ परूपक तथा तृतानामगुणाः. परूषकं तु परुषमल्पास्थि च परापरम् । पुरूषकं कषायाम्लमामं पित्तकरं लघु ॥ ९६ ॥ तत्पक्कं मधुरं पाके शीतं विष्टम्भ बृंहणम् । हृद्यं तु पित्तदाहास्त्रज्वरक्षयसमीरहृत् ॥ ९७ ॥ तूतः स्थूलश्च पूगश्च क्रमुको ब्रह्मदारु च । तूतं पक्कं गुरु स्वादु हिमं पित्तानिलापहम् ॥ ९८॥ तदेवामं गुरु सरमम्लोष्णं रक्तपित्तकृत् । टीका - परूषक, परुष, अल्पास्थि, परापर यह फालसेके नाम है. फालसा कसेला खट्टा पित्तकों करनेवाला, हलका, होता है ॥ ९६ ॥ वह पकाहुवा पाकमें मधुर, शीतल, विष्टम्भी, पुष्ट होता है और हृद्य, पित्त, दाह, रक्त, ज्वर, क्षय, वात, इनकों हरता है ॥ ९७ ॥ तूत, स्थूल, पूग, क्रमुक, ब्रह्मदाह, यह तूतके नाम हैं पकाहुवा तूत भारी, मधुर, शीतल, पित्तवातकों हरता है ॥ ९८ ॥ वोही कच्चा भारी सर, खट्टा, उष्ण, रक्तपित्तकों करनेवाला है. अथ दाडिम (अनार) नामगुणाः. दाडिमः करको दन्तबीजो लोहितपुष्पकः ॥ ९९ ॥ तत्फलं त्रिविधं स्वादु स्वाद्वम्लं केवलाम्लकम् । २२ For Private and Personal Use Only १६९ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० हरीतक्यादिनिघंटे तत्तु स्वादु त्रिदोषघ्नं तृड्दाहज्वरनाशनम् ॥ १०॥ हृत्कण्ठमुखगन्धघ्नं तर्पणं शुक्रलं लघु । कषायानुरसं ग्राहि स्निग्धं मेधाबलापहम् ॥ १०१॥ स्वादम्लं दीपनं रुच्यं किंचित्पित्तकरं लघु। अम्लं तु पित्तजनकमम्लं वातकफापहम् ॥ १०२॥ टीका-दाडिम, करक, दन्तबीज, लोहितपुष्पक, यह अनारके नाम हैं ॥१९॥ उस्का फल तीनप्रकारका होता है मधुर मधुरयुक्त खट्टा, और केवलखट्टा, उनमें मधुर त्रिदोष हरता और तृषा, दाह, ज्वर, इनकों हरता है ॥ १०० ॥ हृदय, कण्ठ, मुखगंध, इनकों हरता, तर्पण, शुक्रकों करनेवाला, हलका, होता है. पीछेसें कसेला, काविज, चिकना, होता है और मेधा, बल, इनकों हरता है ॥ १०१ ॥ और खट्टा, मीठा, दीपन, रुचिकों करनेवाला, हलका, होता है. खट्टा पित्तकों करनेवाला और वातकफकों हरता है ॥ १०२ ॥ अथ बहुवार तथा कतकनामगुणाः. बहुवारस्तु शीतः स्यादुद्दालो बहुवारकः । शेतुः श्लेष्मातकश्चापि पिच्छिलो भूतवृक्षकः ॥ १०३ ॥ बहुवारो विषस्फोटव्रणवीसर्पकुष्ठनुत् । मधुरस्तुवरस्तिक्तः केश्यश्च कफपित्तहृत् ॥ १०४ ॥ फलमामं तु विष्टंभि रूक्षं पित्तकफास्त्रजित् । तत्पक्कं मधुरं स्निग्धं श्लेष्मलं शीतलं गुरु ॥ १०५॥ पयः प्रसादि कतकं कतकं तत्फलं च तत् । कतकस्य फलं नेत्र्यं जलनिर्मलताकरम् ॥ १०६॥ वातश्लेष्महरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु । टीका-बहुवार शीत, उद्दाल, बहुवारक, शेलु, श्लेष्मातक, पिच्छिल, भूतवृक्षक, यह बहुवारके नाम हैं ॥ १०३ ॥ बहुवार विष, विस्फोट, व्रण, वीसर्प, कुष्ठ, इनकों हरता है. और मधुर, कसेला, तिक्त, केशको हित कफ पित्तकों हरता है ॥ १०४॥ कच्चा फल रूखा, विष्टम्भ करनेवाला, पित्त, कफरक्तकों For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः। १७१ हरनेवाला है. और वह पका हुवा मधुर, चिकना, कफकों करनेवाला शीतल, भारी है ॥ १०५॥ पयःप्रसादि, कतक, और उस्का फलभी कतक है. निर्मलीका फल नेत्रके हित और जलकी निर्मलता करनेवाला है ॥ १०६॥ और वात कफकों हरनेवाला शीतल मधुर कसेला भारी है. अथ द्राक्षानामगुणाः. द्राक्षा स्वादुफला प्रोक्ता तथा मधुरसापि च ॥ १०७ ॥ मृद्दीका हारहरा च गोस्तनी चापि कीर्तिता। द्राक्षा पक्का सरा शीता चक्षुष्या वृंहणी गुरुः॥ १०८॥ स्वादुपाकरसा स्वर्या तुवरा स्पृष्टमूत्रविट् । कोष्ठमारुतद् वृष्या कफपुष्टिरुचिप्रदा ॥ १०९॥ हन्ति तृष्णाज्वरश्वासवातपित्तास्त्रकामलाः। कृच्छ्रास्वपित्तसंमोहदाहशोषमदात्ययान् ॥ ११०॥ आमा स्वल्पगुणा गुर्वी सैवाम्ला रक्तपित्तकत्। वृष्या स्याद्गोस्तनी द्राक्षा गुर्वी च कफपित्तनुत् ॥ १११ ॥ टीका-द्राक्षा, स्वादुफला, मधुरसा ॥ १०७ ॥ मृद्वीका, हारहूरा, गोस्तनी, यह दाखके नाम हैं. पकीहुवी दाख सर, शीतल, नेत्रको हितकरनेवाली, पुष्ट, भारी होता है ॥ १०८ ॥ और पाकरसमें मधुर स्वरकों अच्छा करनेवाला कसेला मलमूत्रकों करनेवाला है. और कोष्ठ, वातकों करनेवाली, शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली, तथा कफ, पुष्टि, रुचि, इनकों देनेवाली है ॥ १०९॥ और तृषा, ज्वर, श्वास, वात, रक्त, कामला इनकों हरती है. और मूत्रकृच्छ्र, रक्तपित्त, मोह, दाह, शोष, मदात्यय, इनकोंभी हरती है ॥ ११० ॥ और कच्ची उस्सें अल्पगुणवाली, भारी, होती है और वोही खट्टी, रक्तपित्तकों करनेवाली है. गोस्तनी दाख, शुक्रकों उत्पन्नकरनेवाली, भारी और कफपित्तकों हरती है ॥ १११ ॥ गोस्तनी (मनुका) इति लोके. अबीजान्या स्वल्पसेधा गोस्तनीसहशी गुणैः । द्राक्षा पर्वतजा लघ्वी साम्ला श्लेष्माम्लपित्तरुत् । For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ हरीतक्यादिनिघंटे द्राक्षा पर्वतजा याहकतादृशी करमर्दिका ॥ ११२॥ टीका-गोस्तनीको मनुका लोकमें कहतेहैं. दूसरी बीजसेंरहित बहुतछोटी मुनकाके समान गुणमें होतीहै. पहाडीदाख हलकी होतीहै और कुछ खट्टी होतीहै तथा कफ अम्लपित्तकों करनेवाली है ॥११२॥ जिसप्रकारकी पहाडीदाख होतीहै वैसीही करोंदी होतीहै ॥ __ अथ भूमिखर्जूरिकानामगुणाः. भूमिखर्जूरिका स्वादी दुरारोहा मृदुच्छदा । तथा स्कन्धफला काककर्कटी स्वादुमस्तका ॥ ११३॥ पिण्डखजूंरिका त्वन्या सा देशे पश्चिमे भवेत् । खर्जुरी गोस्तनाकारा परद्वीपादिहागता ॥ ११४॥ जायते पश्चिमे देशे सा च्छोहारेति कीर्त्यते । खर्जूरीत्रितयं शीतं मधुरं रसपाकयोः । स्निग्धं रुचिकरं हृद्यं क्षतक्षयहरं गुरु ॥ ११५ ॥ तर्पणं रक्तपित्तघ्नं पुष्टिविष्टम्भशुक्रदम् । कोष्ठमारुतहबल्यं वान्तिवातकफापहम् । ज्वरातिसारक्षुत्तृष्णाकासश्वासनिवारकम् ॥ ११६ ॥ मदमूर्छामरुत्पित्तमद्योद्भूतगदान्तकृत् । महतीभ्यां गुणैरल्पा स्वल्पखर्जूरिका स्मृता ॥ ११७॥ खर्जूरीतरुतोयं तु मदपित्तकरं भवेत् । वातश्लेष्महरं रुच्यं दीपनं बलशुक्ररुत् ॥ ११८॥ सुलेमानी तु मृदुला दलहीनफला च सा । सुलेमानी श्रमभ्रान्तिदाहमूर्छास्त्रपित्तहत् ॥ ११९॥ टीका-भूमिखर्जूरिका, स्वाद्वी, दुरारोहा, मृदुच्छदा, स्कंधफला, काककर्कटी, स्वादुमस्तका, यह खजूरके नाम हैं ॥ ११३ ॥ और दूसरी पिण्डखजूर, वोह पश्चिममें होतीहै. सुनकाके समान जो खजूर होतीहै वोह और द्वीपसे यहां आई For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः । १७३ है ॥ ११४ ॥ और पश्चिमदेशमें होती है उस्कों छुहारा ऐसा कहते हैं. तीनों खजूर शीतल, रसपाकर्मे मधुर, होती है और चिकनी, रुचिकों करनेवाली, हृद्य, क्षत, क्षय, इनकों हरनेवाली, भारी, ॥ ११५ ॥ तर्पण, रक्तपित्तकों हरती, पुष्टि, विष्टम्भ, शुक्रकों करनेवाली, कुष्ठवातकों हरती, बलकों देनेवाली वमन, वात, कफ, इनकों हरती, ज्वर, अतिसार, क्षुधा, तृषा, कास, श्वास, इनकों हरनेवाली ॥ ११६ ॥ मद मूर्च्छा, वात, पित्त, और मद्यके सेवनसें उत्पन्न हुवे रोगोंकों हरनेवाली है बड़ी खजूरोंसें छोटी खजूर गुणमें न्यून कही है ॥ ११७ ॥ खजूरके वृक्षका जल, मद, पित्त, इनकों करनेवाला है और वातकफकों, हरता रुचिकों देनेवाला, दीपन, वलशुक्रकों करनेवाला है ॥ ११८ ॥ सुलेमानी, मृदुला, दलहीनफला, यह सुलेमानी खजूरके नाम हैं. सुलेमानी खजूर, श्रम, भ्रान्ति, दाह, रक्तपित्त, इनकों हरनेवालाहै ॥ ११९ ॥ अथ वादामसेव, तथा अमृतफलनामगुणाः. वातादो वातवैरी स्यान्नेोपमफलस्तथा । वाताद उष्णः सुस्निग्धो वातघ्नः स च शुक्रकृत् ॥ १२० ॥ वातादमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः । स्निग्धश्व कफन्नेटो रक्तपित्तविकारिणाम् ॥ १२१ ॥ मुष्टिप्रमाणं बदरं सेवं सिवितिकाफलम् । सेवं समीरपित्तघ्नं बृंहणं कफकगुरु । रसे पाके च मधुरं शिशिरं रुचिशुक्रकृत् ॥ १२२ ॥ अमृतफलं लघुवृष्यं सुखदंद्वौ त्रीन्हरेद्दोषान् । देशेषु मुगलानां बहुलं तल्लभ्यते लोकैः ॥ १२३ ॥ वाताद वातवैरी नेत्रोपमफल यह बदामके नामहैं बदाम उष्ण, स्निग्ध, वातहरता, शुक्रकों करनेवाला भारी होताहै ॥ १२० ॥ बदामकी गिरी मधुर, शुक्रकों करनेवाली, पित्तवातकों हरती स्निग्ध उष्ण कफकरनेवाली होती है और रक्तपित्तके रोगवालोंकों हित नहीं होती ॥ १२१ ॥ मुष्टिप्रमाण बदर सेव सिवितिकाफल, यह सेवके नाम हैं सेव वातपित्तकों हरता, पुष्ट कफकों करनेवाला भारी होता है और रसपाका में मधुर शीतल रुचि और शुक्रकों करनेवाला है || १२२ || अमृतफल For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ हरीतक्यादिनिघंटे हलका शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला, मधुर होताहै और तीनों दोषोंकों हरताहै मु. गलोंके देशोंमें यह विशेषकरके मिलताहै ॥ १२३ ॥ अथ पीलुगुणाः, पीलुर्गुडफलः संत्री तथा शीतफलोऽपि च । पीलः श्लेष्णसमीरघ्नं पित्तलं भेदि गुल्मनुत् ॥ १२४ ॥ स्वादु तिक्तं च यत्पीलु तन्नात्युष्णं त्रिदोषहृत् । पीलुः शैलभवोऽक्षोटः कर्परालश्च कीर्तितः॥ अक्षोटकोऽपि वातामसदृशः कफपित्तहत् ॥ १२५ ॥ टीका-पीलु गुडफल स्रंसी तथा शीतफल यह पीलूके नाम हैं पीलू कफवातकों हरता पित्तकों करनेवाला, भेदन करनेवाला, वायगोलाकों हरता है ॥ १२४॥ और जो पीलू मधुर, तिक्त होताहै वोह बहुत गरम नहीं होता और त्रिदोषकों हरताहै अक्षोटभी बदामके समान गुणमें होताहै और कफपित्तकों करनेवाला है ॥ २२५॥ अथ बीजपूर(बिजोरा)नामगुणाः. बीजपूरो मातुलङ्गो रुचकः फलपूरकः । बीजपूरफलं स्वादु रसेऽम्लं दीपनं लघु ॥ १२६ ॥ रक्तपित्तहरं कण्ठजिह्वाहृदयशोधनम् । श्वासकासारुचिहरं हृद्यं तृष्णाहरं स्मृतम् ॥ १२७ ॥ टीका-बीजपूर, मातुलुङ्ग, रुचक, फलपूरक यह विजोरेके नाम हैं. विजोरेका फल रसमें मधुर और अम्ल होताहै दीपन, हलका, होताहै ॥ १२६ ॥ रक्तपितकों हरता है, कण्ठ, जिह्वा, हृदय, इनका शोधन तथा श्वास, कास, अरुचि, इनकों हरता हृद्य और तृषाकों हरता कहागयाहै ॥ १२७ ॥ अथ जंबीरभेदाः. बीजपूरोऽपरः प्रोक्तो मधुरो मधुकर्कटी ॥ १२८॥ मधुकर्कटिका स्वाही रोचनी शीतला गुरुः। रक्तपित्तक्षयश्वासकासहिक्काभ्रमापहा ॥ १२९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः। स्याजम्बीरी दन्तशठा जम्भजम्भीरजम्भलाः। जंबीरमुष्णं गुर्वम्लं वातश्लेष्मविबन्धनुत् ॥ १३० ॥ शूलकासकफोकेशर्दितृष्णामदोषजित् । आस्यवैरस्यहृत्पीडावह्निमान्द्यरूमीन्हरेत् ॥ १३१॥ स्वल्पजम्बीरिका तद्वत्तृष्णाछर्दिनिवारिणी। टीका-अब विजोरेका भेद मधुककडी और किस्मके विजोरेको मधुककडी कहतेहैं मधुककडी मधुर रुचिकों करनेवाली शीतल भारी रक्तपित्त क्षय श्वास कास हिचकी भ्रम इनकों हरतीहै ॥ १२९ ॥ अथ दोनों किस्मके जंबीरीनींबू जंबीर दन्तशठ जम्भ जम्भीर जम्भल यह जंबीरी नींबूके नाम हैं जंबीर उष्ण भारी खट्टा वात कफ निबन्ध इनकों हरता ॥ १३० ॥ और शूल कास कफ मतली वमन तृषा और आमदोष इनको हरनेवालीहै और मुखकी विरसता हृदयपीडा अग्निमान्य कृमि इनकों हरता है ॥ १३१॥ नींबू मीठानींबू तथा कर्मरंगगुणाः. निम्बू स्त्री निम्बुकं क्लीबे निम्बूकमपि कीर्तितम्। निम्बूकमम्लं वातघ्नं दीपनं पाचनं लघु ॥ १३२ ॥ निम्बुकं कमिविमोहनाशनं तीक्ष्णमम्लमुदरग्रहापहम् । वातपित्तकफशूलिने हितं कष्टनष्टरुचिरोचनं परम् ॥ १३३ ॥ त्रिदोषवह्निक्षयवातरोगनिपीडितानां विषविह्वलानाम् । मन्दानले बदगुदे प्रदेयं विषूचिकायां मुनयो वदन्ति॥१३४॥ मिष्टं निम्बूफलं स्वादु गुरु मारुतपित्तनुत् । गररोगविषध्वंसि कफोत्क्लेशि च रक्तहृत् ॥ १३५॥ शोषारुचितृषाछर्दिहरं बल्यं च बृंहणम् । कर्मरङ्गं हिमं ग्राहि स्वादम्लं कफवातहत् ॥ १३६ ॥ टीका-छोटी जंबीरी उसीके समान गुणमें होती है और तृषा वमनकों नाश करनेवालीहै नींबू ये स्त्रीलिंगमें और नपुंसकलिंगमें निंबुक और निंबूकभी कहागयाहै नीबू खट्टा वातहरता दीपन पाचन हलका होताहै ॥ १३२ ॥ नीबू कृमि मोह For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६ हरीतक्यादिनिघंटे इनकों हरता तीखा खट्टा होताहै और फुनेहुवे पेटकों हरताहै और वात पित्त कफ इनके शूलमें हित तथा कष्टसाध्य और नष्ट ऐसी अरुचिरोगमें अत्यन्त रुचिकों करनेवालाहै ॥ १३३ ॥ त्रिदोष अग्निक्षय वातरोग इनसे पीडित और विषसे विह्वल इनकों और मन्दाग्निमें बद्धगुदमें तथा विचिकामें देना चाहिये ऐसा मुनियोंने कहा है ॥ १३४ ॥ मधुर भारी वातपित्तकों हरता है और गररोग विष इनकों हरता कफकों उखेडनेवाला रक्तकों हरता ॥ २३५ ॥ शोष अरुचि तृषा वमन इनकों हरता बलका हित और पुष्ट होताहै कर्मरंग यह कमरखका नाम है कमरख शीतल काविज मधुर खट्टा कफवातकों हरता है ॥ १३६ ॥ अथ अम्बिली तथाम्लवेसगुणाः. अम्लिका चुकिकाम्ली च चुक्रा दन्तशठापि च । अम्ला च चविका चिञ्चातिन्तिडीका च तिन्तिडी॥१३७॥ अम्लिकाम्ला गुरुर्वातहरी पित्तकफास्त्ररूत् । पक्का तु दीपनी रूक्षा सरोष्णा कफवातनुत् ॥ २३८ ॥ स्थादम्लवेतसश्चक्रःशतवेधी सहस्रनुत् । अम्लवेतसमत्यम्लं भेदनं लघु दीपनम् ॥ १३९॥ हृद्रोगशूलगुल्मन्नं पित्तलं लोमहर्षणम् । रूक्षं विण्मूत्रदोषघ्नं प्लीहोदावर्तनाशनम् ॥ १४०॥ हिक्कानाहारुचिश्वासकासाजीर्णवमिप्रणुत् । कफवातामयध्वंसि छागमांसं द्रवत्वकत् ॥ १४१ ॥ चणकाम्लगुणं ज्ञेयं लोहसूचीद्रवत्वात् ॥ टीका-अम्लिका चुक्रिका अम्ली चुक्रा दन्तशा अम्ला चविका चिंचा तितिडीका तितिडी यह इमलीके नाम हैं ॥१३७॥ इमली खट्टी भारी वातकों हरती पित्त कफरक्तकों करनेवाली है और पकीहुवी दीपन रूखी सर उष्ण कफवातकों हरतीहै ॥१३८॥ अम्लवेतस चुक्र शतवेधी सहस्रनुत् यह अमलवेतके नाम हैं अमलवेत बहुत खट्टा भेदन हलका दीपन होताहै ॥ १३९ ॥ और हृदयरोग शूल वायगोला इनकों हरता पित्तकों करनेवाला और रोमांचकों करनेवाला रूखा मलमूत्रदोषकों हरता और पिलही उदावर्त इनकोंभी हरता है ॥ १४० ॥ और हिचकी अफारा अरुचि For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आम्रादिफलवर्गः। १७७ श्वास कास अजीर्ण वमन इनको हरता तथा कफवातके रोगोंको हरनेवाला और बकरीके मांसकों गलानेवाला है ॥ १४१ ॥ चणकाम्लके समान गुणमें है और लोहेकी सुईको गलानेवाला है. अथ रक्षाम्लनामगुणाः. वृक्षाम्लं तिन्तिडीकं च चुकं स्यादम्लवृक्षकम् ॥ १४२ ॥ वृक्षाम्लमाममम्लोष्णं वातघ्नं कफपित्तलम् । पक्कं तु गुरु संग्राहि कटुकं तुवरं लघु ॥ १४३ ॥ अम्लोष्णं रोचनं रूक्षं दीपनं कफवातरुत् । तृष्णार्थीग्रहणीगुल्मशूलहृद्रोगजन्तुजित् ॥ १४४ ॥ अम्लवेतसवृक्षाम्लहजम्बीरनिम्बुकैः । चतुरम्लं हि पञ्चाम्लं बीजपूरयुतैर्भवेत् ॥ १४५॥ टीका-वृक्षाम्ल तितिडीक चुक्र अम्लक्षक यह विषाम्बिलके नाम हैं ॥१४२॥ विषाम्बिल कच्ची खट्टी उष्ण वात हरती कफपित्तकों करनेवाली होतीहै और पकीहुवी भारी काविज कडवी और कसेली हलकी ॥ १४३ ॥ खट्टी गरम अरुचिकों करनेवाली रूखी दीपन कफवातकों हरनेवाली और तृषा ववासीर संग्रहणी वायगोला शूल हृदयरोग कृमि इनको हरनेवाली है ॥ १४४ ॥ चतुरम्ल और पश्वाम्ल इनदोनोंका लक्षण कहतेहै अमलवेत वृक्षाम्ल और बडा जंबीरनींबू इनसे चतुराम्ल होता है और विजोरेके मिलानेसें पञ्चाम्ल होताहै ॥ १४५ ॥ फलेषु परिपक्वं यद्गुणवत्तदुहाहृतम्। बिल्वादन्यत्र विज्ञेयमामं तद्विगुणाधिकम् ॥ १४६ ॥ फलेषु सरसं यत्स्याद्गुणवत्तदुदाहृतम् । द्राक्षाबिल्वशिवादीनां फलं शुष्कं गुणाधिकम् ॥ १४७ ॥ फलतुल्यगुणं सर्वं मजानमपि निर्दिशेत् । फलं हिमाग्निदुर्वातव्यालकीटादिदूषितम् । अकालजं कुभूमिजं पाकातीतं न भक्षयेत् ॥ १४८॥ २३ For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७८ हरीतक्यादिनिघंटे इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे आम्रादिफलवर्गः ॥ टीका - फलोंमें जो पकाहुवा है वोह गुणवाला कहा गया है बेलके सिवाय जानना चाहिये कच्चा बेल गुणमें अधिक होता है ॥ १४६ ॥ फलोंमें रसके सहित जो होता है वह गुणमें अधिक कहाहै परन्तु दाखवेल आंवले इनके फल सूखे हुवे गुणमें अधिक होतेहैं || १४७ || सबके मज्जाओंका गुण फलके समान होता है हिम अनि दुष्टवात सर्प कीट आदिसें दुःखित और वे ऋतुका फल कुत्सित भूमिका वेपकाहुवा ऐसे फलकों भक्षण नहीं करें ॥ १४८ ॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे फलवर्गः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे धातूपधातुरसोपरसरत्नोपरत्नविषोपविषवर्गः। तत्र धातूनां लक्षणानि गुणाश्च. स्वर्णं रूप्यं च तानं च रङ्गं यसदमेव च । सीसं लोहं च सप्तैते धातवो गिरिसम्भवाः॥१॥ वलीपलितखालित्यकार्याबल्यजरामयान् । निवार्य देहं दधति नृणां तद्धातवो मताः ॥ २ ॥ टीका-धातु उपधातु रस उपरस रत्न उपरत्न और विष उपविष इनका वर्ग उसमें धातुवोंका लक्षण और गुण कहतेहैं सोना रूपा तांबा रांग जस्त शीसा लोहा यह सात पहाडसें उत्पन्न होनेवाले धातु हैं ॥ १ ॥ भुरियांवालोंकी सुफेदी गंजापन कृशता और दुर्बलता बुढापा इनरोगोंकों दूर करके जो मनुष्योंके शरीरकों धारण करतेहैं वोह धातु कहेगयेहैं ॥२॥ (अथ तत्रादौ सुवर्णस्योत्पत्तिलक्षणं गुणाश्च.) पुरा निजाश्रमस्थानां सप्तर्षीणां जितात्मनाम् । पत्नीविलोक्य लावण्यलक्ष्मीसम्पन्नयौवनाः॥३॥ कन्दर्पदर्पविध्वंसचेतसो जातवेदसः ।। पतितं यद्वराष्टष्ठे रेतस्तद्धेमतामगात् ॥ ४ ॥ मरीचिरगिरा अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठश्चेति सप्तैते कीर्तिताः परमर्षयः ॥ ५॥ कृत्रिमं चापि भवति तद्रसेन्द्रस्य वेधनात् । स्वर्णं सुवर्णं कनकं हिरण्यं हेम हाटकम् ॥ ६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे तपनीयं च गाङ्गेयं कलधौतं च काञ्चनम् । चामीकरं शातकुम्भं तथा कार्तस्वरं च तत् ॥ ७ ॥ जाम्बूनदं जातरूपं महारजत इत्यपि । दाहे रक्तं सितं च्छेदे निकषे कुङ्कुमप्रभम् ॥ ८ ॥ टीका- इनमें पहले सुवर्णकी उत्पत्ति नाम लक्षण और गुण कहते हैं पहिले निजआश्रम में रहनेवाले जितेन्द्रिय सप्तऋषियोंकी लावण्य लक्ष्मी इनकरके युक्त यौवनवाली स्त्रीयोंकों देखकर || ३ || कंदर्पके दर्पसें ध्वस्त होगया है चित्त जिस्का ऐसे अग्निका जो पृथ्वीपर शुक्र गिरा वोह सोना होगया ॥ ४ ॥ मरीचि अंगिरा अत्री पुलस्त्य पुलह क्रतु वसिष्ठ यह सातमहर्षि कहेगये हैं ॥ ५ ॥ कृत्रिमभी सुवर्ण होता है वोह पारेके भेदसें स्वर्ण सुवर्ण ककन हिरण्य हेम हाटक तपनीय गांगेय कलधौत कांचन चामीकर शातकुम्भ तथा कार्तस्वर ॥ ७ ॥ जाम्बूनद जातरूप महारजत यह सुवर्णके नाम हैं दाहमें लाल काटने में सफेद और कसोटी में केसरके समान होता है ॥ ८ ॥ तारशुल्बजितं स्निग्धं कोमलं गुरु हेम सत् । तच्छ्रुतं कठिनं रूक्षं विवर्ण समलं दलम् । दा छे सितं श्वेतं कषे त्याज्यं लघु स्फुटम् ॥ ९ ॥ सुवर्ण शीतलं वृष्यं बल्यं गुरु रसायनम् । स्वादु तिक्तं च तुवरं पाके च स्वादु पिच्छिलम् ॥ १० ॥ पवित्रं बृंहणं नेत्र्यं मेधास्मृतिमतिप्रदम् । हृद्यमायुः करं कान्तिवाग्विशुद्धिस्थिरत्वत् ॥ ११ ॥ विषय क्षयोन्मादत्रिदोषज्वरशोषजित् । बलं सवीर्यं हरते नराणां रोगव्रजान् शोषयतीह काये । आसौख्यकर्ता च सदा सुवर्णमशुद्धमेतन्मरणं च कुर्यात् ॥ १२ ॥ असम्यङ्मारितं स्वर्णं बलं वीर्यं च नाशयेत् । करोति रोगान् मृत्युं च तदन्याद्यत्नतस्ततः ॥ १३॥ टीका - और चांदी तांबेकों जीतनेवाला चिकना कोमल भारी ऐसा सुवर्ण For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरबविषवर्गः। १८१ बहुत अच्छा है और जो कठिन रूखा विवर्ण समदल दलवाला दाहमें और काटनेमें श्वेत हलका अलग होनेवाला है जो श्वेतहै वोह त्यागनेयोग्यहै ॥ ९॥ दलजोर इसप्रकार लोकमें कहतेहैं सोना शीतल शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला बलकारी रसायन मधुर तिक्त कसेला और पाकमेंभी मधुर पिच्छिल ॥ १०॥ पवित्र पुष्ट करनेवाला नेत्रकों हित मेधा स्मृति बुद्धि इनको देनेवाला हृद्य अयुको करनेवाला कान्ति वाणीकी शुद्धि स्थिरता इनकों करनेवाला ॥ ११ ॥ संसर्ग विषकों हरनेवाला उन्माद त्रिदोष ज्वर शोष इनको हरनेवाला अशुद्ध स्वर्ण मनुष्योंका बल वीर्यके सहित हरता है और बहुतसे रोगोंकों करता है और कायाकों सुकाता है तथा क्लेशकों करनेवाला होता है तथा मरणकोंभी करता है ॥ १२ ॥ अच्छीतरह नफूकाहुवा सोना वलवीर्यकों हरताहै और रोगोंकों तथा मृत्युकोंभी करता है उसवास्ते यनसें फूके ॥ १३ ॥ अथ रूप्यस्योत्पत्तिनामलक्षणगुणाश्च. त्रिपुरस्य वधार्थाय निनिमिषैर्विलोचनैः। निरीक्षयामास शिवः क्रोधेन परिपूरितः ॥ १४ ॥ अग्निस्तत्कालमपतत्तस्यैकस्माद्विलोचनात् । ततो रुद्रः समभवद्वैश्वानर इव ज्वलन् ॥ १५॥ द्वितीयादपतन्नेत्रादश्रुबिन्दुस्तु वामकात् । तस्माद्रजतमुत्पन्नमुक्तकर्मसु योजयेत् ॥ १६ ॥ कृत्रिमं च भवेत्तद्धि वङ्गादिरसयोगतः। रूप्यं तु रजतं तारं चन्द्रकान्तिसितप्रभम् ॥ १७॥ गुरु स्निग्धं मृदु श्वेतं दाहे छेदे घनक्षमम् । वर्णाढयं चन्द्रवत्स्वच्छं रूप्यं नवगुणं शुभम् ॥ १८॥ कठिनं कृत्रिम रूक्षं रक्तं पीतदलं लघु। दाहच्छेदधनैर्नष्टं रूप्यं दुष्टं प्रकीर्तितम् ॥ १९॥ टीका-चांदीकी उत्पत्ति नाम और लक्षण गुण त्रिपुरासुरके मारनेके अर्थ क्रोधसें भरेहुवे शिवजीने निमेषरहित नेत्रोंसें देखा ॥ १४ ॥ उसीकाल उनके एकनेत्रसें अग्नि निकाला अग्निके समान जाज्वल्यमान उस्सें रुद्र हुवा ॥ १५॥ दू For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ हरीतक्यादिनिघंटे सरी बांई आंख जो आंसू गिरी उस्सें चांदी उत्पन्न हई उस्कों कहे हुवे काममें योजना करे || १६ | और वोह रजत और पारा आदिकी योजनासें कृत्रिमभी होती है रूप्य रजत तार चंद्रकान्ति सितप्रभ ॥ १७ ॥ यह चांदी के नाम हैं चांदी भारी चिकनी मुलायम दाहमें और काटनेमें श्वेत और चोट सहनेवाली और चांदीके समान श्वेत स्वच्छ यह चांदी के तो गुण शुभ है || १८ || और कृत्रिम कठिन रूखी लालपीले परदोंसें युक्त हलकी दाहमें काटनेमें और चोटमें नष्ट होनेवाली इसप्रकारकी चांदी खराब होती है ॥ १९ ॥ रूप्यं शीतं कषायाहं स्वादुपाकरसं सरम् | वयसः स्थापनं स्निग्धं लेखनं वातपित्तजित् ॥ २० ॥ प्रमेहादिकरोगांश्च नाशयत्यचिराद्भुवम् । तारं शरीरस्य करोति तापं विद्धं घनं यच्छति शुक्रनाशनम् २१ वीर्यं बलं हन्ति तनोश्च पुष्टिं महागदान शोषयति शुद्धम् । टीका - चांदी शीतल कसेली खट्टी और रसपाक में मधुर सर वयकों स्थापन करनेवाली चिकनी लेखन वातपित्तकों करनेवाली है || २० | और प्रमेह आदि रोगोंकों निश्चय नाश करती है विनाशोधी चांदी शरीर में ताप करती है और वधे हुए तथा गाढे शुक्रकों हरती है || २१ || और वीर्य बल तथा शरीरकी पुष्टिकों हरती है और बडेरोगोंकों सुखाती है ॥ अथ ताम्रस्य उत्पत्तिर्नामलक्षणगुणाश्च. शुक्रं यत्कार्तिकेयस्य पतितं धरणीतले । तस्मात्तात्रं समुत्पन्नमिदमाहुः पुराविदः ॥ २२ ॥ ताम्रमोदुंबरं शुल्बमुदुंबरमपि स्मृतम् । रविप्रियं म्लेच्छमुखं सूर्यपर्यायनामकम् ॥ २३ ॥ जपाकुसुमसङ्काशं स्निग्धं मृदु घनक्षमम् । लोहनागोज्झितं ताम्रं मारणाय प्रशस्यते ॥ २४ ॥ कृष्णं रुक्षमतिस्तब्धं श्वेतं चापि घनासहम् । लोहनागयुतं चेति शुल्वं दुष्टं प्रकीर्तितम् ॥ २५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। १८३ तानं कषायं मधुरं च तिक्तमम्लं च पाके कुटु सारकं च । पित्तापहं श्लेष्महरं च शीतं तद्रोपणं स्याल्लघु लेखनं च ॥२६॥ पाण्डूदरार्थीज्वरकुष्ठकासश्वासक्षयान् पीनसमम्लपित्तम् । शोथं कमि शूलमपाकरोति प्राहुः परे हणमल्पमेतत् ॥२७॥ एको दोषो विषे ताने त्वसम्यङ्मारितेऽष्ट ते। दाहः स्वेदो रुचिर्मूर्छा क्लेदो रेको वमिर्धमः ॥ २८॥ टीका-तांबेकी उत्पत्ति नाम लक्षण और गुणकों कहतेहै कार्तिकेयका जो शुक्र पृथ्वीपर गिरा उस्से तांबा उत्पन्न हुवा ऐसा पहिले लोगोंने कहाहै ॥ २२ ॥ ताम्र औदुम्बर शुल्ब उदुंबर रविप्रिय म्लेच्छमुख और सूर्य के पर्याय नाम यह तांबेके नाम हैं ॥ २३ ॥ जवाफूलके सदृश वर्ण चिकना मुलायम चोटको सहनेवाला लोहा शीसा इनसे रहित तांबवा फूकनेकेवास्ते अच्छा होताहै ॥ २४ ॥ काला रूखा अतिश्वेत और चोटकों सहनेवाला लोहशीसोंसे युक्त ऐसा तांबा खराब कहाहै ॥ २५ ॥ तांबा कसेला मधुर तिक्त अम्ल पाकमें कटु और सारक तथा पित्तकों हरता कफहरता शीतल होता है और वोह रोपण और हलका लेखनभी होताहै ॥ २६ ॥ और पाण्डुरोग उदररोग ज्वर कुष्ठ कास श्वास क्षय पीनस अम्लपित्त शोथ कृमि शूल इनकों हरताहै और आचार्य उस्कों अल्प बृंहणभी कहतेहैं ॥२७॥ विषमें एकदोष और अच्छीतरह नफुकेहुवेमें आठ दोष होते हैं दाह खेद अरुचि मूर्छा क्लेद वमन विरेचन भ्रम यह आठ दोषहैं ॥ २८ ॥ अथ वङ्गस्य नामलक्षणगुणाः. रक्तं वङ्गं त्रपु प्रोक्तं तथा पिच्चटमित्यपि । खुरकं मिश्रकं चापि द्विविधं वङ्गमुच्यते ॥ २९ ॥ उत्तमं खुरकं तत्र मिश्रकं त्ववरं मतम् । रङ्गं लघु सरं रूक्षमुष्णं मेहकफल्मीन् ॥ ३०॥ निहन्ति पाण्डं सश्वासं चक्षुष्यं पित्तलं मनाक् । सिंहो यथा हस्तिगणं निहन्ति तथैव वङ्गोऽखिलमेहवर्गम् । देहस्य सौख्यं प्रबलेन्द्रियत्वं नरस्य पुष्टिं विदधाति नूनम्३१ For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८४ हरीतक्यादिनिघंटे यसदं रङ्गसदृशं रीतिहेतुश्च तन्मतम् । यसदं तुवरं तिक्तं शीतलं कफपित्तहत् । चक्षुष्यं परमं मेहान्पाण्डं श्वासं च नाशयेत् ॥ ३२॥ टीका-रांगके नाम लक्षण और गुण कहतेहै लालरांगेकों त्रषु तथा पिचटभी कहते हैं खुरक और मिश्रक ऐसा दोपकारका रांग होताहै ॥ २९ ॥ उस्में उत्तम खुरक और मिश्रक खराब होताहै रांग हलका सर रूखा गरम होताहै और प्रमेह कफ कृमि इनको हरताहै ॥ ३० ॥ और पाण्डुरोग श्वास इनकोंभी हरता है तथा नेत्रको हित और अल्पपित्त करनेवाला होताहै जैसे सिंह गजगणोंकों हरताहै वैसे रांगा सम्पूर्ण प्रमेहवर्गको हरताहै और देहका सौख्य इन्द्रियकी प्रबलता और पुष्टिकोंभी निश्चयसें करता है ॥ ३१॥ यसद रंगसदृश रीतिहेतु अर्थात् पीतलका कारण उस्कों कहाहै जस्त कसेला तिक्त शीतल कफपित्तकों हरता परमनेत्रके हित प्रमेह पाण्डुरोग श्वास इनकोभी हरताहै ॥ ३२ ॥ अथ सीसस्योत्पत्तिर्नामगुणाश्च. दृष्ट्वा भोगिसुतां रम्यां वासुकिस्तु मुमोच यत् । वीर्य जातस्ततो नागः सर्वरोगापहो नृणाम् ॥ ३३ ॥ सीसं ब्रनं च वप्रं च योगेष्टं नागनामकम् । सीसं रङ्गगुणं ज्ञेयं विशेषान्मेहनाशनम् ॥ ३४ ॥ नागस्तु नागशततुल्यबलं ददाति व्याधि विनाशयति जीवनमातनोति ॥ वहिं प्रदीपयति कामबलं करोति मृत्युं च नाशयति सन्ततसेवितः सः ॥ ३५ ॥ पाकेन हीनौ किल वङ्गनागौ कुष्ठानि गुल्मांश्च तथातिकष्टान् । कण्डूं प्रमेहानलसादशोथभगन्दरादीन्कुरुतः प्रभुक्तौ ॥३६॥ टीका-अब शीसेकी उत्पत्ति नाम और गुण कहतेहै वासुकीने सुंदर नागकन्याओंकों देखकर वीर्यकों छोडा उस्से मनुष्योंके सब रोंगोंकों हरता शीसा उत्पन्न हुवा ॥ ३३ ॥ शीस ब्रन व योगेष्ट नागनामक अर्थात् सांपके नामवाला यह शीसेके नाम हैं शीसा गुणमें रांगके समान होताहै और विशेषकरके प्रमेहकों हरताहै ॥ ३४ ॥ शीसा सौ हाथीके समान बलकों देताहै और रोगोंकों हरता है तथा जी For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः । १८५ नकों देता है और अग्निकों दीपन करता है तथा कामबलकों देता है निरंतर सेवन करनेसें वोह मृत्युकों हरता है || ३५ || अच्छीतरह न फुकेहुवे नाग और वंगोंकों खानेसें वोह कुष्ठ वायगोला तथा अतिकष्ट खुजली प्रमेह अग्निमान्द्य सूजन भगन्दर आदियोंकों करता है || ३६ ॥ अथ लोहस्योत्पत्तिर्नामलक्षणगुणाश्च. पुरा लोभिनदैत्यानां निहतानां सुरैर्युधि । उत्पन्नानि शरीरेभ्यो लोहानि विविधानि च ॥ ३७ ॥ लोहोऽस्त्री शस्त्रकं तीक्ष्णं पिण्डं कालायसायसी । गुरुता दृढतोलेदः कश्मलं दाहकारिता ॥ ३८ ॥ अश्मदोषः सुदुर्गघ्नो दोषाः सप्तायसस्य तु । लोहं तिक्तं सरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु ॥ ३९ ॥ रूक्षं वयस्यं चक्षुष्यं लेखनं वातलं जयेत् । कफं पित्तं गरं शूलं शोथार्शः लीहपाण्डुताः ॥ ४० ॥ मेदो मेहमी कुष्ठं तत्किद्वं तद्वदेव हि । पाण्डुत्वकुष्ठामयमृत्युदं भवेद्धृद्रोगशूलौ कुरुतेऽइमरी च । नानारुजानां च तथा प्रकोपं करोति हल्लासमशुद्धलोहम् ४१ जीवहारि मदकारि चायसं देहशुद्धिमदसंस्कृतं ध्रुवम् । पाटवं न तनुते शरीरके दारुणां हृदि रुजं च यच्छति ॥४२॥ कूष्माण्डं तिलतैलं च माषान्नं राजिकां तथा । मद्यमम्लरसं चापि त्यजेल्लोहस्य सेवकः ॥ ४३॥ टीका - लोहकी उत्पत्ति नाम लक्षण और गुण कहते हैं देवताओंकी लढाईमें मारेहुवे लोभिनदैत्योंके शरीरोंमेंसें नानाप्रकारके लोह उत्पन्न हुवे ॥ ३७ ॥ लोह aar तीक्ष्णपिण्ड कालायस यह लोहके नामहैं यह भारीपन दृढता मतली करना कास दाह करना ॥ ३८ ॥ अश्मरीदोष मृग दुर्गन्धता यह सात दोष लोहे के हैं लोह तिक्त सर शीतल मधुर कसेला भारी || ३९ ॥ रूखा रसायन नेत्रके हित लेखन और वातल है और कफ पित्त विष शूल सूजन ववासीर प्लीही पाण्डुरोग २४ For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ “हरीतक्यादिनिघंटे ॥ ४० ॥ मेद प्रमेह कृमि कुष्ठ इनकों हरता है और उस्का कीटभी उसीके समान होता है अशुद्ध लोहा पांडुता कुष्ठरोग और मृत्यु इनकों करनेवाला है और हृदय - रोग शूल अश्मरी इनकोंभी करता है तथा अनेकतरहकी पीडाओंका प्रकोप और हल्लास इनकोंभी करता है ॥ ४१ ॥ विनशुद्ध कियालोह जीवनको हरता मद करनेवाला और वमन विरेचन करनेवाला निश्चय है और शरीरमें चैतन्यता नहीं करता तथा हृदयमें दारुण पीडाभी करता है ॥ ४२ ॥ पेठा तिलतैल उडद राई मदिरा खट्टाई इनकों लोहका सेवन करनेवाला त्यागदेवै ॥ ४३ ॥ तत्र सारलोहस्य लक्षणं गुणाश्च. क्षमाभृच्छिखराकारान्यङ्गान्यम्लेन लेपयेत् । लोहे स्युर्यत्र सूक्ष्माणि तत्सारमभिधीयते ॥ ४४ ॥ लोहं साराह्वयं हन्याद्रहणीमतिसारकम् । अर्धं सर्वाङ्गजं वातं शूलं च परिणामजम् ॥ ४५ ॥ छर्दि च पीनसं पित्तं श्वासं कासं व्यपोहति ॥ ४६ ॥ टीका - उसमें सारलोहके लक्षण और गुण कहते हैं पहाड वा शिखराकार अंगोंकों खटाईसें लेप करें उस लोहेमेंसें जो सूक्ष्म अंश होते हैं उसको सार कहते है ४४ सारनमक लोह संग्रहणी अतीसार और अर्धाङ्ग तथा सर्वाङ्गवात तथा परिणामशूल इनकों हरता है ॥ ४५ ॥ और वमन पीनस पित्त श्वास कास उनकोभी हरताहै ॥ ४६ ॥ अथ कान्तलोहस्य लक्षणं गुणाश्च. यत्पात्रेण प्रसरति जले तैलबिन्दुः प्रतप्तैहिङ्गुर्गन्धं त्यज्यति च निजं तिक्ततां निम्बवल्कः । तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नैति भूमिं कृष्णाङ्गः स्यात्सजलचणकः कान्तलोहं तदुक्तम् ॥ ४७ ॥ गुल्मोदरार्शःशूलाममामवातं भगन्दरम् । कामलाशोथ कुष्ठानि क्षयं कान्तमयो हरेत् ॥ ४८ ॥ प्लीहानमम्लपित्तं च यच्चापि शिरोरुजम् । For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः । सर्वान्रोगान्विजयते कान्तलोहं न संशयः ॥ ४९॥ बलं वीर्यं वपुः पुष्टिं कुरुतेऽग्निं विवर्धयेत् । ध्मायमानस्य लोहस्य मलं मण्डूरमुच्यते । लोहसिंघानिक किट्टी सिंघानं च निगद्यते ॥ ५० ॥ लोहं गुणं प्रोक्तं तत्किमपि तद्गुणम् । टीका - कान्तलोहका लक्षण और गुण कहते हैं जिस जलके भरेहवे पात्रमें तेलकी बून्द नहीं फैलती और तपानेमें हींगसी गन्ध निकलती है तथा नीमकी छालसी कडुवी होती है और जिसमें गरम दूध शिखरके आकार ऊंचा होता है परन्तु जमीनपर नहीं गिरता और जलके सहित चने काले होजातेहैं उस्कों कान्तलोह कहा है ॥ ४७ ॥ कान्तलोह वायगोला उदररोग बवासीर शूल आम और आमवात भगं - दर कामला सूजन कुष्ठ और क्षय इनकों हरता है ॥ ४८ ॥ और पिलही अम्लपित्त यकृत् शिरकी पीडा तथा सवरोग इनकों कान्तलोह हरता है इसमें कोई संशय नहीं ॥ ४९ ॥ और बल वीर्य शरीरकी पुष्टि करता है तथा अग्निकों बढाता है तपायेहुवे लोहेका जो कीट है उस्कों मंडूर कहते हैं सिंघानिका किट्टीसिंघानभी कहते हैं ॥५०॥ जो लोहा जिसगुणवाला कहा गया है उस्का कीट उसीके गुणसमान होता है | उपधातूना लक्षणं गुणाश्च. सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकम् । तुत्थं कांस्यं च रीतिश्च सिन्दूरश्च शिलाजतु ॥ ५१ ॥ उपधातुषु सर्वेषु तत्तद्धातुगुणा अपि । सन्ति किं तेषु तेऽत्रोना तत्तदंशाल्पभावतः ॥ ५२ ॥ स्वर्णमाक्षिकमाख्यातं तापीजं मधुमाक्षिकम् । ताप्यं माक्षिकधातुश्च मधुधातुश्च स स्मृतः ॥ ५३ ॥ किञ्चित्सुवर्णसाहित्यात्स्वर्णमाक्षिकमीरितम् । उपधातुः सुवर्णस्य किञ्चित्स्वर्णगुणान्वितः ॥ ५४ ॥ तथाच काञ्चनाभावे दीयते स्वर्णमाक्षिकम् । किन्तु तस्यानुकंपत्वात् किञ्चिदूनगुणास्ततः ॥ ५५ ॥ For Private and Personal Use Only १८७ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८८ हरीतक्यादिनिघंटे न केवलं स्वर्णगुणा वर्तन्ते स्वर्णमक्षिके । द्रव्यान्तरस्य संसात् सन्त्यन्येऽपि गुणाथत् ॥ ५६ ॥ सुवर्णं माक्षिकं स्वदु तिक्तं वृष्यं रसायनम् । चक्षुष्यं वस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरान् ॥ ५७ ॥ अर्शः शोथं विषं कण्डूं त्रिदोषमपि नाशयेत् । मन्दानलत्वं बलहानिमुनां विष्टम्भितां नेत्रगदान्सकुष्ठान् । तथैव मालीव्रणपूर्विकां च करोति तापीजमशुद्धमेतद् ५८ टीका-उपधातु उस्कों कहतेहै उस्में उपधातुवोंका लक्षण और गुण कहते है सोनामाखी रूपामाखी लीलाथोथा कांसा पीतल सिंदूर शिलाजीत यह सात उपधातु हैं ॥ ५१ ।। सब उपधातुवोंमें उनउन धातुवोंकेभी गुण हैं तो क्या उनमें वो घटकेहै क्योंकी उनउनके अंश अल्पहोनेसें ॥५२॥ उनमें सोनामाखीके नाम और गुण कहतेहै सुवर्णमाक्षिक तापीज मधुमाक्षिक ताप्य माक्षिक धातु मधुधातु यह उस्के नाम हैं ॥ ५३ ॥ कुछ एक सोनके मिलेहोनेसे सोनामांखी कही गईहै सोनेकी उपधातु कुछ एक सोनेके गुणसे युक्त होतीहै ॥ ५४॥ वैसेही स्वर्णके अभावमें सोनामाखी दीजातीहै क्योंकी उस्से पीद्धे कहनेसें उस्से कुछ एक गुणमें न्यून है ॥५५॥५६॥ केवल सुवर्णके गुण सोनामाखी मधुर तिक्त शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली रसायन नेत्रहित है वस्तिकी पीडा कुष्ठ पाण्डुरोग प्रमेह विष उदररोग ॥ ५७ ॥ ववासीर शोथ विष कंडू त्रिदोष इनकोंभी हरतीहै विनासोधा सोनामाखी मन्दाग्नि बलकी हानि अत्यन्त विष्टम्भक होती नेत्ररोग कुष्ठ वैसेही गंडमाला इनकों करतीहै ॥ ५८॥ अथ तारमाक्षिकस्य लक्षणं गुणाश्च. तारमक्षिकमन्यत्तु तद्भवेद्रजतोपमम् ।। किश्चिद्रजतसाहित्यात्तारमाक्षिकमीरितम् ॥ ५९॥ अनुकल्पं तथा तस्य ततो हीनगुणाः स्मृताः। न केवलं रूप्यगुणा यतः स्यात्तारमाक्षिकम् ॥६० ॥ स्वादु पाके रसे किञ्चित्तिक्तं वृष्यं रसायनम् । चक्षुष्यं बस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरम् ॥ ६१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः । अर्श: शोथं क्षयं कहूं त्रिदोषमपि नाशयेत् । मन्दानत्वं बलहानिमुग्रां विष्टम्भितां नेत्रगदान्सकुष्ठान् । तथैव मालां व्रणपूर्विकां च करोति तापीजमिदं च तद्वत् ॥ ६२ ॥ १८९ टीका - रूपामाखी कण्डके नाम और गुण दूसरी रूपामाखी चांदी के समान होतीहै कुछेक चांदी मिलनेसें रूपामाखी कही है ॥ ५९ ॥ उसके पीछे कहने सें हीनगुण कही गई है केवल चांदीके गुण रूपामाखीमें नहीं हैं ॥ ६० ॥ जैसे पाकमें मधुर रसमें कुछ तिक्त शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली रसायन नेत्र केहित है और पेcar रोग औe कुष्ठ पाण्डुरोग प्रमेह विष उदररोग || ६१ ॥ ववासीर सूजन क्षय कंडू विषदोष इनकों हरती है बिनसोधीहुई रूपामाखी मन्दाग्नि बलहानि विष्टम्भता नेत्ररोग कुष्ठ गंडमाला इनकों करती है ।। ६२ ।। अथ तुत्थ ( तूतिया ) नामगुणाः. तुत्थं वितुन्नकं चापि शिखिग्रीवं मयूरकम् । तुत्थं ताम्रोपधातुर्हि किञ्चित्ताम्रेण तद्भवेत् ॥ ६३ ॥ किञ्चिताम्रगुणं तस्माद्वक्ष्यमाणगुणं च तत् । तुत्थकं कटुकं क्षारं कषायं वामकं लघु ॥ ६४ ॥ लेखनं भेदनं शीतं चक्षुष्यं कफपित्तहृत् । विषाश्मकुष्ठकण्डूनं खर्परं चापि तत्स्मृतम् ॥ ६५ ॥ For Private and Personal Use Only टीका - तुत्थ वितुनक शिखिग्रीव मयूरक यह नीलेथोथेके नाम हैं नीलाथोथा तांant उपधातु और थोडे तांबे से होता है ॥ ६३ ॥ इसवास्ते थोडेसे ताम्बेके गुण और कहुवे गुण होते हैं नीलाथोथा कडवा क्षार कसेला वमन करनेवाला हलका ||६४|| लेखन भेदन शीतल नेत्रके हित कफ पित्तकों हरता है और विष अश्मरी कुष्ठ कण्डू इनकों हरता है और खपरियाभी उसीके समान गुणमें है ॥ ६५ ॥ अथ कांस्यनामगुणाः. ताम्रत्र पुजमाख्यातं कांस्यं घोषं च कंसकम् । उपधातुर्भवेत् कांस्यं द्वयोस्तरणिरङ्गयोः ॥ ६६ ॥ कांसस्य तु गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः 1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १९० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः ॥ ६७ ॥ कांस्यं कषायं तिक्तोष्णं लेखनं विशदं सरम् । गुरु नेत्रहितं रूक्षं कफपित्तहरं परम् ॥ ६८ ॥ टीका - तांबे और रांगासे उत्पन्न हुवा कांस्य प्रसिद्ध है घोष कंसक यह कांसेके नाम हैं कांसा तांबा और रांगों का उपधातु है ॥ ६६ ॥ कांसेके गुण अपकरण के समान जानना चाहिये संयोगज प्रभावसें उसके औरभी गुण कहे हैं ६७ कांसा कसेला तिक्त उष्ण लेखन सर विशद भारी नेत्रके हित रूखा कफपित्तकों हरताहै ॥ ६८ ॥ तथा पित्तल (काँचीपीतरी) गुणाः. पित्तलं त्वारकूटं स्यादारी रीतिश्च कथ्यते । राजरीतिर्ब्रह्मरीतिः कपिला पिङ्गलापि च ॥ ६९ ॥ रीतिरप्युपधातुः स्यात्ताम्रस्य यसदस्य च । पित्तलस्य गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः ॥ ७० ॥ संयोगजप्रभावेण तस्याप्यन्ये गुणाः स्मृताः । रीतिकायुगलं रूक्षं तिक्तं च लवणं रसे ॥ ७१ ॥ शोधनं पाण्डुरोगघ्नं कृमिघ्नं नातिलेखनम् । टीका - पित्तल आरकूट आरी रीति यह पीतलके नामहैं और राजरीत ब्रह्मta afपला पिंगला यह कच्चे पीतलके नाम गुणहैं ॥ ६९ ॥ पीतलभी तांबा और जस्ता उपधातु कहा है पीतलके गुण अपने कारणके सदृश जानने चाहिये ॥७०॥ संयोगके प्रभाव से उसके और गुण कहते हैं दोनों पीतल रूखे तिक्त लवण रसमें हैं ॥ ७१ ॥ और शोधन पाण्डुरोगकों हरते कृमि हरनेवाले न बहुत लेखन हैं || अथ सिन्दूरनामगुणाः. सिन्दूरं रक्तरेणुश्च नागगर्भश्च सीसजम् ॥ ७२ ॥ सीसोपधातुः सिन्दूरगुणैस्तत्सीसवन्मतम् । संयोगजप्रभावेण तस्याप्यन्ये गुणाः स्मृताः ॥ ७३ ॥ सिन्दूरमुष्णं वीसर्पकुष्ठकण्डूविषापहम् । For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। भग्नसंधानजननं व्रणशोधनरोपणम् ॥ ७४ ॥ ठीका-सिंदूर रक्तरेणु नागगर्भ सीसज यह सिन्दूरके नाम हैं ॥ ७२ ॥ सिन्दूर सीसेका उपधातु है और गुण सीसेके समान हैं तथा संयोगज प्रभावसे उस्केभी और गुण कहे हैं ॥ ७३ ॥ सिंदूर गरम विसर्प कुष्ठ खुजली इनकों हरता और टूटेहुवेको जोडनेवाला व्रणशोधन और रोपण है ॥ ७४ ॥ अथ शिलाजतुतदुत्पत्तिर्नामलक्षणगुणाश्च. निदाघे धर्मसन्तता धातुसारं धराधराः । निर्यासवत्प्रमुञ्चन्ति तच्छिलाजतु कीर्तितम् ॥ ७५ ॥ सौवर्णं राजतं ताम्रमायसं तच्चतुर्विधम् । शिलाजत्वद्रिजतु च शैलनिर्यास इत्यपि ॥ ७६ ॥ गैरेयमइमजं चापि गिरिजं शैलधातुजम् । शिलाजं कटु तिक्तोष्णं कटुपाकं रसायनम् ॥ ७७ ॥ छेदि योगवहं हन्ति कफमेदाइमशर्कराः । मूत्रकृच्छ्रे क्षयं श्वासं वाताासि च पाण्डुताम् ॥ ७८ ॥ अपस्मारं तथोन्मादं शोथकुष्टोदरकमीन् ॥ ७९ ॥ सौवर्णं तु जवापुष्पवर्णं भवति तद्रसात् । मधुरं कटु तिक्तं च शीतलं कटुपाकि च ॥ ८० ॥ राजतं पाण्डुरं शीतं कटुकं स्वादुपाकि च । तानं मयूरकण्ठाभं तीक्ष्णमुष्णं च जायते ॥ ८१ ॥ लौहं जटायूपक्षाभं तत्तिक्तलवणं भवेत्। विपाके कटुकं शीतं सर्वश्रेष्ठमुदाहृतम् ॥ ८२॥ टीका-उस्की उत्पत्ति नाम लक्षण गुण ग्रीष्ममें संतप्तहुवे पर्वत धातुके सारकों गोंदके समान छोडतेहैं उस्कों शिलाजीत कहतेहैं ॥ ७५ ॥ सोनेका चांदीका तांबेका और लोहेका एसे चार प्रकारका होताहै शिलाजतु अद्रिजतु शैलनिर्यास ॥ ७६ ॥ गैरेय अश्मज गिरिज शैलधातुज यह शिलाजीतके नाम हैं शिला For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९२ हरीतक्यादिनिघंटे जीत कडुबा तीखा उष्ण पाकमें कटु रसायन है ॥ ७७ ॥ और छेदन करनेवाला तथा योगवाही है और कफ मेद अश्मरी शर्करा इनकों हरता है तथा मूत्रकृच्छ्र क्षय श्वास वातकी ववासीर पाण्डुता ॥ ७८ ॥ मिरगी उन्माद शोथ कुष्ठरोग उदररोग कृमि इनकों हरता है ॥ ७९ ॥ सौवर्ण शिलाजीत वर्ण में जवाफूलके समान होता है और रसमें मधुर कटुतिक्त शीतल पाकमें कटु होता है ॥ ८० ॥ चांदीके मैलका शिलाजीत वर्ण में श्वेत शीतल कटु पाकमें मधुर होता है तांबेका वर्ण में मोरके कंके समान तीखा उष्ण होता है ॥ ८१ ॥ लोहेका रंग गिद्धके पंखके समान हो - ता तथा पाक कटु शीतल और सबमें श्रेष्ठ कहा है ॥ ८२ ॥ अथ रसस्य पारदस्य च निरुक्तिः. रसायनार्थिभिर्लोकैः पारदो रस्यते यतः । ततो रस इति प्रोक्तः स च धातुरपि स्मृतः ॥ ८३॥ शिवाङ्गात्प्रच्युतं रेतः पतितं धरणीतले । तद्देहसारजातत्वाच्छुक्कमच्छमभूच्च तत् ॥ ८४ ॥ क्षेत्रभेदेन विज्ञेयं शिववीर्यं चतुर्विधम् । श्वेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं तत्तु भवेत्क्रमात् ॥ ८५ ॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्व खलु जातितः । श्वेतं शस्तं रुजां नाशे रक्तं किल रसायनम् ॥ ८६ ॥ धातुवेधे तु तत्पीतं खगतौ कृष्णमेव च । पारदो रसधातुश्च रसेंद्रश्च महारसः ॥ ८७ ॥ चपलः शिववर्यं च रसः सूतः शिवाह्वयः । पारदः षड्रसः स्निग्धस्त्रिदोषघ्नो रसायनः ॥ ८८ ॥ योगवाही महावृष्यः सदा दृष्टिबलप्रदः । सर्वामयहरः प्रोक्तो विशेषात्सर्वकुष्ठनुत् ॥ ८९ ॥ स्वस्थ रसो भवेद्ब्रह्मा बद्धो ज्ञेयो जनार्दनः । रञ्जितः कामितश्चापि साक्षादेवो महेश्वरः ॥ ९० ॥ मूच्छितो हरिति रुजं बन्धन मनुभूय खे गतिं कुरुते । For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। १९३ अजरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकरः सूतात् ॥९१॥ टीका-और उस्की निरुक्ति जिसकारण रसायन चाहनेवाले लोग पारा खातेहैं उस कारण रस इस प्रकारसे कहाहै और वोह धातुभी कहागयाहै ॥ ८३ ॥ पारेकी उत्पत्ति नाम लक्षण गुण कहते हैं शिवजीके अंगसे निकलाहुवा वीर्य पृथ्वीपर गिरा उनके देहसारसे उत्पन्न होनेसें वोह श्वेत और स्वच्छ हुवा ॥८४॥ पारा क्षेत्रभेदसें चारप्रकारका जानना चाहिये सफेद लाल पीला काला ॥ ८५॥ क्रमसें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र इनजातसें होताहै श्वेत रोगोंके हरनेमें प्रशस्त है और लाल रसायन ॥ ८६ ॥ धातुवेधमें पीला और आकाशगमनमें काला प्रशस्तहै पारद रसधातु रसेन्द्र महारस ॥ ८७॥ चपल शिववीर्य रस सूत शिवनाम यह पारेके नाम हैं पारा छहरसोंसे युक्त चिकना त्रिदोष हरता रसायन ॥ ८८॥ योगवाही अत्यन्त शुक्रकों करनेवाला और दृष्टिबलकों देनेवाला है तथा सबरोगोंकों हरता और विशेषकरके कुष्ठहरता कहा है ॥ ८९ ॥ स्वस्थ रस ब्रह्मा होताहै और बद्धाहुवा पारा विष्णु होताहै रंजित तथा कामित साक्षात् महादेवहै ॥ ९०॥ मूच्छित पारा रोगोंकों हरताहै और बन्धनकों जानकर आकाशमें गतिकों करताहै तथा मराहुवा अजर करता है इसवास्ते पारेसें सिवाय और कौन करुणाकरहै ॥ ९१ ॥ असाध्यो यो भवेद्रोगो यस्य नास्ति चिकित्सितम् । रसेन्द्रो हन्ति तं रोगं नरकुञ्जरवाजिनाम् ॥ ९२ ॥ मलं विषं वह्निगिरित्वचापलं नैसर्गिकं दोषमुशन्ति पारदे । उपाधिजौ द्वौ त्रपुनागयोगजौ दोषो रसेन्द्रे कथितो मुनीश्वरैः ९३ मलेन मूर्छा मरणं विषेण दाहोऽग्निना कष्टतरः शरीरे । देहस्य जाड्यं गिरिणा सदा स्याचाञ्चल्यतो वीर्यहृतिश्च पुंसाम् ९४ वङ्गेन कुष्ठं भुजगेन षण्ढो भवेदतोऽसौ परिशोधनीयः। वह्निर्विषमलं चेति मुख्या दोषास्त्रयो रसे ॥ ९५ ॥ एते कुर्वन्ति सन्तापं मृति मूछौं नृणां क्रमात् । अन्येऽपि कथिता दोषा भिषग्भिः पारदे यदि ॥९६ ॥ तथाप्यते त्रयो दोषा हरणीया विशेषतः। संस्कारहीनं खल्लु सूतराजं यः सेवते तस्य करोति बाधाम् । For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९४ हरीतक्यादिनिघंटे देहस्य नाशं विदधाति नूनं कष्टांश्च रोगाअनयेन्नराणाम् ९७ टीका-जो रोग असाध्य होजाताहै और जिसकी दवा नहीं है उसरोगकों और मनुष्य घोडा हाथी इनके रोगोंकों पारा हरताहै ॥ ९२ ॥ मल विष वन्हि गुरुख चपलता ये पारेमें नैसर्गिक दोष कहेहैं दो उपाधि सीसा और रांगा इनके योगसे उत्पन्नहुवे दोष पारेमें मुनीश्वरोंने कहाहै ॥ ९३ ॥ मलसें मूर्छा विषसें मरण अग्निसे शरीरमें अत्यन्त कठिन दाह गिरिसें देहमें सदा जडता होतीहै और चंचलतासें मनुष्योंके वीर्यकों हरताहै ॥ ९४ ॥ रांगेसें कोड सीसेसें नपुंसकता होती है इसवास्ते यह पारा शोधनेयोग्य है पारेमें तीन दोष मुख्य हैं वन्हि विष और मल ॥ ९५ ॥ यह दोष मनुष्योंकों क्रमसे सन्ताप मृत्यु मूर्छा करतेहैं यदि औरभी दोष वैद्योंने पारेमें कहे हैं ॥ ९६ ॥ तथापि यह तीन दोष विशेषकरके दूरकरने चाहिये संस्कारहीन पारेकों जो सेवन करताहै उस्कों वाधा करताहै और मनुष्योंके देहकों हरताहै तथा अत्यन्त कष्टसाध्य रोगोंकोंभी करताहै ॥९७॥ अथोपरसानां लक्षणम्. गन्धो हिङ्गुलमभ्रतालकशिलाः स्रोतोञ्जनं टङ्कणं राजावर्तकचुम्बकः स्फटिकया शङ्ख खटी गैरिकम् । कासीसं रसके कपर्दसिकता बोलाश्च कष्टकं सौराष्ट्री च मता अमी उपरसाः सूतस्य किञ्चिद्गुणैः ९८ टीका-गन्धक सिंगरफ अभ्रक हरताल मनसिल सुरमा सुहागा लोहचुम्बक पत्थर विल्लौर शंख खडिया माटी गेरू हिराकसीस रसकपूर कौडी रेत बोल इसकों फूलसखभी कहतेहैं पहाडीमट्टी सौरठीमाटी यह उपरस कहेगयेहैं पारेका कुछ एकगुण इनमें होताहै ॥ ९८॥ हिडलस्य नामानि लक्षणं गुणाश्च. हिङ्गुलं दरदं ल्मेच्छमिङ्गुलं पूर्णपारदम् । दरदस्त्रिविधः प्रोक्तश्चारः शुकतुण्डकः ॥ ९९ ॥ हंसपादस्तृतीयः स्याद्गुणवानुत्तरोत्तरम् । चारः शुक्लवर्णः स्यात्सपीतः शुकतुण्डकः ॥१०॥ जवाकुसुमसङ्काशो हंसपादो महोत्तमः । For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। तिक्तं कषायं कटु हिलङ्गु स्यान्नेत्रामयघ्नं कफपित्तहारि १०१ हृल्लासकुष्ठज्वरकामलांश्च प्लीहामवातौ च गरं निहन्ति । ऊर्ध्वपातनयुक्त्या तु डमरुयन्त्रपाचितम् ॥ १०२ ॥ हिडलं तस्य सूतं तु शुद्धमेवं न शोधयेत्। टीका-सिंगरफके नाम और गुण हिंगुल दरद म्लेच्छ इंगुल पूर्णपारद यह शिंगरफके नाम हैं शिंगरफ तीनप्रकारका होताहै चार शुक्रतुण्डक ॥ ९९ ॥ और तीसरा हंसपाद यह उत्तरोत्तर गुणमें अधिक चार सफेद होताहै और पिलहीके सहित शुकतुण्डक होताहै ॥ १०० ॥ हंसपाद जवाफूलके समान होताहै वोह बहुत उत्तम है तिक्त कसेला कडवा हिंगुल होताहै और नेत्ररोगकों हरता तथा कफपितकों हरताहै ॥ १०१ ॥ और हल्लास कुष्ठ ज्वर कामला इनकों तथा पिलही आमवात और विष इनकोंभी हरताहै ऊर्ध्वपातनकी युक्ति अथवा डमरुयंत्रसें पकायाहुवा ॥ १०२ ॥ हिंगुल उस्का पारा इसप्रकार सिद्ध होताहै इस्को शोधन न करै. अथ गन्धकस्योत्पत्तिर्नामलक्षणगुणाश्च. श्वेतद्वीपे पुरा देव्याः क्रीडन्त्या रजसाप्लुतम् । दुकूलं तेन वस्त्रेण स्नातायाः क्षीरनीरधौ ॥ १०३ ॥ प्रसृतं यद्रजस्तस्माद्गन्धकः समभूत्ततः। गन्धको गन्धिकश्चापि गन्धपाषाण इत्यपि ॥ १०४॥ सौगन्धिकश्च कथितो बलिबलरसादि च। चतुर्धा गन्धकः प्रोक्तो रक्तः पीतः सितोऽसितः ॥१०५॥ रक्तो हेमक्रियासूक्तः पीतश्वेतौ रसायने । व्रणादिलेपने श्वेतः कृष्णः श्रेष्ठः सुदुर्लभः ॥ १०६ ॥ गन्धकः कटुकस्तिक्तो वीर्योष्णस्तुवरः सरः। पित्तलः कटुकः पाके कण्डूवीसर्पजन्तुजित् ॥ १०७ ॥ हन्ति कुष्ठक्षयलीहकफवातान् रसायनः । अशोधितो गन्धक एष कुष्ठं करोति तापं विषमं शरीरे॥१०८॥ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ हरीतक्यादिनिघंटे शोषं च रूपं च नलं तथोजः शुक्र निहन्त्येव करोति चास्त्रम् । टीका-गन्धककी उत्पत्ति और नाम लक्षण गुणोंकों कहतेहै श्वेतद्वीपमें पहिले क्रीडा करती हुई पार्वतीजीका कपडा रजसे मल गयाथा उस कपडेसें ॥ १०३ ॥ क्षीरसागरमें स्नान करती हुईके उससांठीसें जो रज फेला उस्से गन्धक हुवा गन्धक गन्धिक गन्धपाषण ॥ १०४ ॥ सौगन्धिक बलि बलरस यह गन्धकके नाम, गन्धक चारप्रकारका होताहै लाल पीला मुफेद काला ॥१०५॥ लाल सुवर्ण क्रियामें काम आताहै और पीला मुफेद रसायनमें कहाहै और घाव आदिके लेपमें मुफेद तथा काला श्रेष्ठ होताहै वोह दुर्लभहै ॥१०६॥ श्रेष्ठ सुवर्ण क्रियामें सबजगहमें प्रशस्ततर है गन्धक कटु तिक्त वीर्यमें उष्ण कसेला सर होताहै पित्तकों करनेवाला पाकमें कटु और खुजली वीसर्प कृमि इनको हरनेवालाहै ॥ १०७॥ और कुष्ठ क्षय पिलही कफ वात इनको हरताहै तथा रसायनहै विनासोधाहुवा यह गन्धक कुष्ठकों और विषम सन्तापकों शरीरमें करताहै ॥ १०८ ॥ शोप रूप बल तथा औज शुक्र इनकों हरताहै और रक्तकों करताहै. अथाभ्रकस्योत्पत्तिनामलक्षणगुणाश्च. पुरा वधाय वृत्रस्य वञिणो वज्रघाततः। विस्फुलिङ्गास्ततस्तस्य गगने परिसर्पिताः ॥ १०१ ॥ ते निपेतुर्घनध्वानाच्छिखरेषु महीभृताम् । तेभ्य एव समुत्पन्नं तत्तद्दिरिषु चाभ्रकम् ॥ ११० ॥ तहजं वज्रपातत्वादभ्रमभ्ररवोद्भवात् । गगनात्स्खलितं यस्माद्गगनं च ततो मतम् ॥ १११॥ विप्रक्षत्रियविट्शद्रभेदात्तत्स्याच्चतुर्विधम् । टीका-अभ्रककी उत्पत्ति नाम लक्षण और गुणको कहतेहैं पहले इन्द्रने वृत्रासुरकों मारनेकेवास्ते वज्र उठाया उस्से चंगारे आकाशमें फैलगये ॥ १०९ ॥ वह वादलके गरजसे पहाडोंकी चोटीपर गिरे उसीसें उनउन पहाडोंमें अभ्रक उत्पन्न हुवा ॥११०॥ वोह वज्रसे उत्पन्न होनेसें और अभ्र वादलोंके गरजसे उत्पन्न होनेसें तथा आकाशसें गिरनेसें गगन माना है ॥ १११ ॥ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इनमे दोसें वोह चारप्रकारका होताहै. क्रमेणैवासितं रक्तं पीतं कृष्णं च वर्णतः ॥ ११२॥ For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। प्रशस्यते सितं तारं रक्तं तत्तु रसायने । पीतं हेमनि कृष्णं तु गदेषु द्रुतयेऽपि च ॥ ११३ ॥ पिनाकं दुर्दुरं नागं वनं चेति चतुर्विधम्। मुञ्चत्यग्नौ विनिक्षिप्तं पिनाकं दलसञ्चयम् ॥ ११४ ॥ अज्ञानाद्भक्षणं तस्य महाकुष्ठप्रदायकम् । दईरं त्वग्निनिःक्षिप्तं करुते दर्दुरध्वनिम् ॥ ११५॥ गोलकान्बहुशः कृत्वा स स्यान्मृत्युप्रदायकः । टीका-क्रमसें सफेद लाल पीला काला इन चार वर्णोंसें चार जातिका है ॥११२॥ श्वेत चांदीमें प्रशस्तहै और रक्त रसायनमें प्रशस्तहै तथा पीला सोनेमें और काला रोगमें तथा गलानेमेंभी प्रशस्तहै ।। ११३ ॥ पिनाक दर्दुर नाग वज्र ऐसे चार प्रकारका अभ्रक होताहै पिनाक आइमें डालनेसें पत्रपत्र अलग होजाताहै ॥११४॥ विनाजाने उस्के खानेसें महाकुष्ठ उत्पन्न होताहै दर्दुर आगमें डालनेसें दर्दुरशब्दकों करताहै बहुतसे गोलकोंकरके वोह मृत्युदायक होताहै नाग अभ्रक सर्वके समान अग्निमें फूत्कारशब्दोंकों करता ॥ ११५ ॥ उस्कों खानेसें अवश्य भगंदर होताहै नागं तु नागवदन्हौ फूत्कारं परिमुञ्चति। तद्भक्षितमवश्यं तु विदधाति भगन्दरम् ॥ ११६ ॥ वनं तु वज्रवत्तिष्ठेतन्नानौ विकृतिं व्रजेत् । सदाभ्रके सेविते तु व्याधिवार्धक्यमृत्युहत् ॥ ११७ ॥ अभ्रमुत्तरशैलोत्थं बहुसत्वं गुणाधिकम् । दक्षिणाद्रिभवं स्वल्पसत्यमल्पगुणप्रदम् ॥ ११८॥ अभ्रं कषायं मधुरं सुशीतमायुष्करं धातुविवर्धनं च । हन्यात्रिदोषं व्रणमेहकुष्ठप्लीहोदरं ग्रन्थिविषकमीश्च ॥११९॥ रोगान्हन्ति द्रढयति वपुर्वीर्यवृद्धि विधत्ते तारुण्याढ्यं रमयति शतं योषितां नित्यमेव ॥ दीर्घायुष्कान्जनयति सुतान्विक्रमैः सिंहतुल्यान्मृत्योभीतिं हरति सततं सेव्यमानं मृताभ्रम् ॥ १२०॥ For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ हरीतक्यादिनिघंटे पीडां विधत्ते विविधां नराणां कुष्ठं क्षयं पाण्डुगदं च शोथम् । हृत्पार्श्वपीडां च करोत्यशुद्धमभ्रं त्वसिद्धं गुरुताप्रदं स्यात् १२१ टीका-चाग्री अग्निमें वज्रके समान ठहरताहै वोह अग्निमें विकारकों नहीं प्राप्त होता सब अभ्रमें वज्र श्रेष्ठ है वोह रोग बुढापा और मृत्यु इनकों हरताहै ॥ ११६ ॥ उत्तरदिशाके पहाडोंमें उत्पन्न हुवा अभ्रक अधिक सत्वसे युक्त गुणमें अधिक होताहै दक्षिणके पहाडोंमे उत्पन्न हुवा थोडे सत्ववाला और अल्पगुणकों दैनेवाला है ॥ ११७ ॥ अभ्रक कसेला मधुर शीतल आयुकों करनेवाला धातुकों बढानेवाला होताहै और त्रिदोष व्रण प्रमेह कुष्ठ प्लीहोदर ग्रन्थि विष कृमि इनकों हरताहै ॥ ११८ ॥ सेवन कियाहुवा अभ्रकका भस्म रोगोंको हरताहै शरीरकों दृढ करता है और शुक्रकी वृद्धिकों करता है ॥ ११९ ॥ तारुण्यसें भरीहुई सौस्त्रियोका भोग करताहै इसके सेवन करनेवाला मनुष्य वृद्धभी तारुण्यकों प्राप्त होताहै सिंहके समान पराक्रमवाले और दीर्घआयुवाले पुत्रोंकों उत्पन्न करता है और मृत्युके भयकों दूर करता है ॥ १२० ॥ विनासुधाहुवा और असिद्ध अभ्रक मनुष्योंकों नानाप्रकारकी पीडाको करताहै और कुष्ठ वात पांडुरोग सूजन हृदय पसलीकी पीडा इनकों करताहै तथा भारीपन और सन्ताप इनकोंभी करनेवालाहै १२१ अथ हरितालस्य नामानि लक्षणगुणाश्च. हरितालं तु तालं स्यादालं तालकमित्यपि । हरितालं द्विधा प्रोक्तं पत्राख्यं पिण्डसंज्ञकम् ॥ १२२ ॥ तयोरायं गुणैः श्रेष्ठं ततो हीनगुणं परम् । स्वर्णवर्णं गुरु स्निग्धं सपत्रं चाम्रपत्रवत् ॥ १२३ ॥ पत्राख्यं तालकं विद्याद्गुणाढ्यं तद्रसायनम् । निष्पत्रं पिण्डसदृशं स्वल्पसत्वं तथा गुरु ॥ १२४ ॥ स्त्रीपुष्पहारकं स्वल्पगुणं तत्पिण्डतालकम् । हरितालं कटु स्निग्धं कषायोष्णं हरेविषम् ॥ १२५ ॥ कण्डूकुष्ठास्यरोगास्त्रकफपित्तकचव्रणान् । हरति च हरितालं चारुतां देहजातां सृजति च बहुतापामङ्गसङ्कोचपीडाम् । For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्या दिदम शितमशुद्ध मारितं चाप्यसम्यक् ॥ १२६ ॥ टीका-हरितालके नाम और लक्षणोंकों करतेहै हरिताल ताल आलतालक यह हरितालके नामहैं हरिताल दो प्रकारका होताहै एक वरकी दूसरा गोवरिया१२२ उनमें पहिला गुणमें श्रेष्ठहै और दूसर हीनगुणहै रंगमे सोनेकेसमान भारी चि. कना और वरककेसहित अभ्रकके वरककेसमान जो होताहै ॥ १२३ ॥ उस्कों वरकी हरिताल जानना चाहिये वोह गुणमें अधिक और रसायन है वे वरक पिंडकेसमान थोडे सत्ववाला तथा भारी ॥१२४ ॥ स्त्रीके रजकों हरता वोह पिण्ड हरिताल गुणमें न्यून होताहै हरिताल कडवी चिकनी कसैली गरम होतीहै और विष ॥ १२५ ॥ खुजली कुष्ठं मुखरोग रक्तपित्त कफ कच व्रण इनको हरताहै अशुद्ध और अच्छीतरह फुका हुआ हरताल खाईहुई देहकी सुन्दरताको हरताहै और अधिक सन्ताप शरीरका संकोच पीडा इनकों करताहै कफ वात बढके कुष्ठरोगकों करतेहै ॥ १२६ ॥ अथ मनःशिलानामानि गुणाश्च. मनःशिला मनोगुप्ता मनोहा नागजिबिका। नेपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौषधिः स्मृता॥१२७॥ मनःशिला गुरुर्वा सरोणा लेखनी कटुः । तिक्ता स्निग्धा विषश्वासकासभूतकफास्त्रनुत् ॥ १२८ ॥ मनःशिला मन्दबलं करोति जन्तुं ध्रुवं शोधनमन्तरेण । मलानुबन्धं किल मूत्ररोधं सशक्करं कृच्छ्रगदं च कुर्यात् ॥१२९॥ टीका-मनशिलके नाम और गुण कहतेहैं मनःशिला मनोगुप्ता मनोव्हा ना. गजिहिका नेपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौषधि यह मैनसिलके नाम हैं ॥१२७॥ मनसिल भारी वर्णकों अच्छा करनेवाली सर उष्ण लेखनी तिक्त चिकनी होतीहै और विष श्वास कास भूत कफ रक्त इनको हरनेवालीहै ॥ १२८ ॥ शोधनकेविना मनसिल बलको कम करतीहै और निश्चय कृमिकों करतीहै तथा कवजियत मूत्रका न होना शर्कराकेसहित मूत्रकृच्छ्रकों करतीहै ॥ १२९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०. हरीतक्यादिनिघंटे अथ सुरमा सौवीरनामगुणाः. अञ्जनं यामुनं चापि कापोताञ्जनमित्यपि । तत्तु स्रोतोञ्जनं कृष्णं सौवीरं श्वेतमीरितम् ॥ १३०॥ वल्मीकशिखराकारं भिन्नमञ्जनसन्निभम् । घृष्टं तु गैरिकाकारमेतत्त्रोतोञ्जनं स्मृतम् ॥ १३१ ॥ स्रोतोञ्जनसमं ज्ञेयं सौवीरं तत्तु पाण्डुरम् । स्रोतोञ्जनं स्मृतं स्वादु चक्षुष्यं कफपित्तनुत् ॥ १३२॥ कषायं लेखनं स्निग्धं ग्राहि छर्दिविषापहम् । सिध्मक्षयात्रहच्छ्रीतं सेवनीयं सदा बुधैः १३३॥ स्रोतोञ्जनगुणाः सर्वे सौवीरेपि मता बुधैः। किन्तु द्वयोरञ्जनयोः श्रेष्ठं स्रोतोञ्जनं स्मृतम् ॥ १३४ ॥ टीका-अंजन यामुन कापोतांजन यहभी सुरमेके नाम हैं उस्में काले सुरमेको स्रोतोंजन और सफेदकों सौवीर कहाहै ॥ १३० ॥ वमईसें शिखराकारभिन्न काजलकेसमान होताहै और घिसनेसें गेरुके आकार होताहै इस्को स्रोतोंजन कहाहै ॥ १३१ ॥ स्रोतोंजनकेसमान सौवीरकों जानना चाहिये यह सफेद होताहै काला सुरमा मधुर नेत्रके हित कफपित्तकों हरता ॥ १३२ ॥ कसेला लेखन चिकना काविज वमन विषकों हरताहै और सिध्म क्षय रक्तकों दूर करनेवाला शीतल होताहै और विद्वानोंकेद्वारा सदा सेवन करनेके योग्य है ॥ १३३ ॥ काले सुरमेके सब गुण सफेद सुरमेमेंभी पंडितोंने मानेहैं परन्तु दोनों अंजनोंमें काला अंजन श्रेष्ठ कहाहै ॥ १३४॥ अथ सुहागानामगुणाः. टङ्कणोऽग्निकरो रूक्षः कफनो वातपित्तत् ॥ १३५॥ स्फटी च स्फटिका प्रोक्ता श्वेता शुभ्रा च रङ्गादा। दृढरङ्गा रङ्गदा च दृढा रङ्गापि कथ्यते ॥ १३६ ॥ स्फटिका तु कषायोष्णा वातपित्तकफव्रणान् । निहन्ति श्वित्रवीसर्पान्योनिसङ्कोचकारिणी ॥ १३७॥ For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः । २०१ टीका - सुहागा अग्निकों करनेवाला रूखा कफकों हरता वातपित्तकों करनेवाला है इस्कों उपरस होनेसें फिर कहा ॥ १३५ ॥ स्फटी स्फटिका श्वेता शुभ्रा रंगदा दृढरङ्गा रङ्गदाभा और दृढा तथा रंगाभा यह फिटकरीके नाम हैं ॥ १३६ ॥ फिटी कसेली गरम होती है और वात पित्त कफ व्रण इनकों हरती है तथा श्वित्र विसर्पकभी हरती है और योनिका सङ्कोच करनेवाली है ॥ १३७ ॥ अथ राजावर्तचुम्बक सुवर्णगेरूनामगुणाः. राजावर्त्तः कटुस्तिक्तः शिशिरः पित्तनाशनः । राजावर्त्तः प्रमेहनछर्दिहिक्कानिवारणः ॥ १३८ ॥ चुम्बकः कान्तपाषाणो यः कान्तो लोहकर्षकः । चुम्बको लेखनः शीतो मेदोविषगरापहः ॥ १३९॥ गैरिकं रक्तधातुश्च गैरेयं गिरिजं तथा । सुवर्णगैरिकं त्वन्यत्ततो रक्ततरं हि तत् ॥ १४० ॥ गैरिकद्वितयं स्निग्धं मधुरं तुवरं हिमम् । चक्षुष्यं दाहपित्तास्रकफहिक्काविषापहम् ॥ १४१ ॥ टीका- राजावर्त कडवी तिक्त शीतल पित्त हरता है राजावर्त प्रमेह हरता और वमन हिचकी इनकों हरनेवाला है || १३८ || चुम्बक कान्तपाषाण कान्त लोहकर्षक यह लोहचुम्बकके नाम हैं चुम्बक लेखन शीतल मेद विष गर इनकों हरता है ॥ १३९ ॥ गैरिक रक्तधातु गैरेय गिरिज यह गेरूके नाम हैं सोनागेरू उस्सें दूसरा होता है और वोह बहुत लाल होता है ।। १४० ॥ दोनों गेरू चिकने मधुर कसेले शीतल नेत्रके हित और दाह पित्त रक्त कफ हिचकी विष इनकों हरता है ॥ १४१ ॥ अथ खटीगौरखटी तथा वाळूनामगुणाः. खटिका कटिनी चापि लेखनी च निगद्यते । खटिका दाहजिच्छीता मधुरा विषशोथजित् ॥ १४२॥ लेपादेतगुणा प्रोक्ता भक्षिता मृत्तिकासमा । खटी गौरखटी द्वे च गुणैस्तुल्ये प्रकीर्त्तिते ॥ १४३॥ २६ For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २०२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे वालुका सिकता प्रोक्ता शर्करा रेतजापि च । वालुका लेखनी शीता व्रणोरःक्षतनाशिनी ॥ १४४॥ टीका - खटिका खटिनी लेखनी यह खडियाके नाम हैं खडिया दाहकों हरनेवाली शीतल मधुर और विष शोथकों हरनेवाली है ।। १४२ || लेपसे यह कहुवे गुण होते हैं और खानेसें मट्टीके समान होती है खडिया और सफेद खडिया दोनों गुणमें समान कहे हैं ।। १४३ ॥ वालुका सिकता शर्करा रेतजा यह वालूके नाम हैं बालू लेखन शीतल है और व्रण उरःक्षत इनको हरनेवाली है ।। १४४ ।। अथ खर्परीकासीस तथा सौराष्ट्रगुणाः. खर्परी तुत्थकं तुत्थादन्यत्तद्रसकं स्मृतम् । ये गुणास्तुत्थके प्रोक्तास्ते गुणा रसके स्मृताः ॥ १४५ ॥ कासीसं धातुकासीसं पांसुकासीसमित्यपि । तदेव किंचित्पीतं तु पुष्पकासीसमुच्यते ॥ १४६ ॥ कासीसमम्लमुष्णं च तिक्तं च तुवरं तथा । वातश्लेष्महरं केश्यं नेत्रकण्डूविषप्रणुत् ॥ १४७ ॥ मूत्रकृच्छ्राश्मरीश्वित्रनाशनं परिकीर्त्तितम् । सौराष्ट्री तुवरी काक्षी मृत्तालकसुराष्ट्रजे ॥ १४८ ॥ आढकी चापि साख्याता मृत्स्ना च सुरमृत्तिका । स्फटिकाया गुणाः सर्वे सौराष्ट्र्यमपि कीर्त्तिताः ॥ १४९ ॥ टीका - खपरिया यह लीलाथोथेका भेद है खर्परी तुत्थक है इस्सें दूसरीकों रसक कहा है जो गुण लीलेथोथे में कहें हैं वोही गुण खपरिया में कहें हैं ॥ १४५ ॥ कासीस धातुकासीस पांशुकासीस यह कासीसके नामहैं वोही कुछ एक पीलीकों पुष्पकासीस कहते हैं ॥ १४६ ॥ कासीस खट्टी गरम तिक्त तथा कसेली और वात पित्त कफकों हरता केशके हित तथा नेत्रकी खुजली विष इनकों हरती है || १४७॥ और मूत्र पथरी श्वित्र कुष्ठ इनकी नाशक कही गई है सौराष्ट्री तुवरी काक्षी मृत्तालक मुराष्ट्रज ॥ १४८ ॥ आढकी भी वोह कही गई है और मृत्स्ना तथा सुरमृत्तिका यहभी उस्के नाम हैं स्फटिकाके सब गुण सोरठीमें कहे हैं ॥ १४९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। अथ कर्दम तथा बोलगुणाः. कर्दमो दाहपित्तातिशोथनः शीतलः सरः । बोलगन्धरसप्राणः पिण्डगोपरसाः समाः ॥ १५०॥ बोलं रक्तहरं शीतं मेध्यं दीपनपाचनम् । मधुरं कटु तिक्तं च दाहस्वेदत्रिदोषजित् ॥ १५१ ॥ ज्वरापस्मारकुष्टघ्नं गर्भाशयविशुद्धिकत् । टीका-कीचड दाह पित्त पीडा सूजन इनकों हरती शीतल सर है बोल गन्धरस प्राण पिण्डगोपरस यह बोलके नाम हैं ॥ १५० ॥ बोल रक्तहरता शीतल मेधाकों करनेवाला दीपन पाचन मधुर कटु तिक्त और दाह पसीना तथा त्रिदोष इनको हरनेवाला है ॥१५१॥ ओज ज्वर मिरगी कुष्ट इनकों हरता और गर्भाशयकों शुद्ध करनेवाला होताहै. अथ कङ्गुष्ठोत्पत्तिलक्षणनामगुणाः. हिमवत्पादशिखरे ककुष्ठमुपजायते ॥ १५२ ॥ तत्रैकं रक्तकालं स्यात्तदन्यदण्डकं स्मृतम् । पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठं ककुष्ठमादिशेत् ॥ १५३ ॥ श्यामं पीतं लघु त्यक्तसत्वं नेष्ठं तथाण्डकम् । कष्ठं काककुष्टं च वराङ्ग कोलकाकुलम् ॥ १५४ ॥ कङ्गुष्ठं रेचनं तिक्तं कटूष्णं वर्णकारकम् । कमिशोथोदराध्मानगुल्मानाहकफापहम् ॥ १५५॥ टीका-कंकुष्ठ यह एक किस्मकी पहाडी मट्टीहै उस्की उत्पत्ति लक्षण नाम गुण कहतेहैं हिमाचलपर कंकुष्ठ होताहै ॥१५२॥ उस्में एक रक्त काला होताहै और उस्से दूसरा अंडक कहागया है पीला भारी चिकना ऐसेको श्रेष्ठ कंकुष्ठ कहते है ॥१५३॥ और काला पीला हलका और बेसत्त्व यह अच्छा नहीं इस्को अंडक कहतेहैं कंकुष्ठ काककुष्ठ वराङ्ग कोलकाकुल यह कंकुष्ठके नाम हैं ॥१५४॥ कंकुष्ठ रेचन तिक्त कटु उष्ण वर्णको करनेवाला और कृमि सूजन उदर आध्मान वायगोला अ. फारा कफ इनको हरताहै ॥ १५५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २०४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ रत्ननिरुक्तिस्तथा निरूपणं. धनार्थिनो जनाः सर्वे रमन्तेऽस्मिन्नतीव यत् । ततो रत्नमिति प्रोक्तं शब्दशास्त्रविशारदैः ॥ १५६ ॥ रत्नं की मणिः पुंसि स्त्रियामपि निगद्यते । तत्तु पाषाणभेदोऽस्ति मुक्तादि च तदुच्यते ॥ १५७ ॥ रत्नं गारुत्मतं पुंस्यं रागो माणिक्यमेवच । इन्द्रनीलश्व गोमेदस्तथा वैडूर्यमित्यपि ॥ १५८ ॥ मौक्तिकं विद्रुमश्चेति रत्नान्युक्तानि वै नव । विष्णुधर्मोत्तरेऽपि नवरत्ननिरूपणम् । मुक्ताफलं हीरकं च वैडूर्यं पद्मरागकम् । पुष्परागं च गोमेदं नीलं गारुत्मतं तथा । प्रवालयुक्तान्येतानि महारत्नानि वै नव ॥ १५९ ॥ टीका - धनार्थी सबलोग जिसमें अधिककरके रमते हैं इसवास्ते व्याकरणके पंडितोंनें रत्न ऐसा कहा है || १५६ || अब रत्नके नाम और लक्षण निरूपण रत्न नपुंसक और मणिपुल्लिंगमें तथा स्त्रीलिंगमेंभी होता है वोह पाषाणका भेद है अब मुक्तादिकों कहता हूं ।। १५७ ॥ रत्नादिकोंका निरूपण रत्न गारुत्मत पुष्पराग और माणिक्यभी नील गोमेद तथा वैडूर्य यह ॥ १५८ ॥ और मोती मूंगा इसप्रकार यह नवरत्न कहैं रत्न हीरा गारुत्मत पन्ना सानीक नीलम विष्णुधर्मोत्तरमेंभी नवरत्न कहे हैं मोती हीरा वैडूर्य माणिक पुष्पराज गोमेद नील पन्ना और मूंगा यह नव महारत्न हैं ।। १५९ ।। अथ हीरकनामलक्षणगुणाश्च. हीरकः पुंसि वोऽस्त्री चन्द्रो मणिवरश्व सः । स तु श्वेतः स्मृतो विप्रो लोहितः क्षत्रियः स्मृतः ॥ १६० ॥ पीतो वैश्योऽसितः शूद्रश्वतुर्वर्णात्मकश्च सः । रसायने मतो विप्रः सर्वसिद्धिप्रदायकः ॥ १६१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरबविषवर्गः। २०५ क्षत्रियो व्याधिविध्वंसी जरामृत्युहरः स्मृतः। वैश्यो धनप्रदः प्रोक्तस्तथा देहस्य दाढर्यकत् ॥ १६२॥ शूद्रो नाशयति व्याधीन्वयस्तम्भं करोति च। पुंस्त्रीनपुंसकानीह लक्षणीयानि लक्षणैः ॥ १६३ ॥ सुवृत्ताः फलसम्पूर्णास्तेजोयुक्ता वृहत्तराः। पुरुषास्ते समारख्याता रेखाबिन्दुविवर्जिताः ॥ १६४ ॥ रेखाबिन्दुसमायुक्ताः षडरास्ते स्त्रियः स्मृताः। त्रिकोणाश्च सुदीर्घास्ते विज्ञेयाश्च नपुंसकाः। तेषु स्युः पुरुषाः श्रेष्ठा रसबन्धनकारिणः ॥ १६५॥ स्त्रियः कुर्वन्ति कायस्य कान्ति स्त्रीणां सुखप्रदाः। नपुंसकास्त्ववीर्याः स्युरकामाः सत्ववर्जिताः ॥ १६६ ॥ स्त्रियः स्त्रीभ्यः प्रदातव्याः क्लीबं क्लीने प्रयोजयेत् । सर्वेभ्यः सर्वदा देयाः पुरुषा वीर्यवर्धनाः ॥ १६७ ॥ अशुद्धं कुरुते वज्नं कुष्टं पार्श्वव्यथां तथा । पाण्डुतां पङ्गुलत्वं च तस्मात्संशोध्य मारयेत् ॥ १६८॥ टीका-उस्में हीरक हीरा इसप्रकार लोकमें प्रसिद्ध है उस्के नाम लक्षण और गुण कहतेहैं हीरक पुल्लिंगमें और वज्र नपुंसकमें होता है चंद्रमणिवर यह हीरेके नाम हैं वोह श्वेत ब्राह्मण कहागया है और लाल क्षत्रिय कहाहै ॥ १६० ॥पीला वैश्य और काला शूद्र ऐसे हीरा चार वर्णका होताहै रसायनमें ब्राह्मण और सबसिद्धियोंकों देनेवाला है ॥ १६१ ॥ क्षत्रिय रोग हरता और बुढापा तथा मृत्युकों हरता वैश्य धनदेनेवाला कहा है तथा शरीरकी दृढता करनेवाला है ॥ १६२ ॥शूद्र रोगोंकों हरता है और वयकों स्थापन करताहै इसमें स्त्री पुरुष और नपुंसक इनके लक्षण होतेहैं ॥ १६३ ॥ अच्छे गोल सब फलवाले तेजोयुक्त बहुत बड़े और रेखा बिंदुसे रहित ऐसे हीरे पुरुष कहेगयेहैं ॥ १६४ ॥ और रेखा बिंदुसे युक्त छकोनवाले वे स्त्री कहेगयेहैं त्रिकोण और अच्छे लम्बे वे नपुंसक जानने चाहिये उनमें पुरुष श्रेष्ठहैं और वे पारेको बांधनेवाले हैं ॥ १६५ ॥ स्त्रीजातिके हीरे शरीरकी का For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ हरीतक्यादिनिघंटे न्तिकों करतेहैं और स्त्रियोंकों सुख देनेवाले हैं नपुंसक अवीर्य होतेहैं और अकाम सबसे रहित होते हैं ॥ १६६ ।। स्त्रीजातिके हीरे स्त्रियोंकों देनेचाहिये और नपुंसककों नपुंसक देवै और सबको सर्वदा वीर्यकों बढानेवाला पुरुषजातिको देनेचाहिये ॥ १६७ ॥ विना शोधावा कोढ तथा पसलीकी पीडा पांडुता और लुलापन इनकों करता है इसवास्ते शोधकर फूंके ॥ १६८॥ मारितवजहरिन्मणिमाणिक्यपुष्परागइंद्रनीलगोमेद. आयुः पुष्टिं बलं वीर्य वर्णं सौख्यं करोति च । सेवितं सर्वरोगघ्नं मृतं वज्यं न संशयः ॥ १६९ ॥ गारुत्मतं मरकतमश्मगर्भो हरिन्मणिः। माणिक्यं पद्मरागः स्याच्छोणरत्नं च लोहितम् ॥ १७ ॥ पष्परागो मञ्जमणिः स्याद्वाचस्पतिवल्लभः । नीलं तथेन्द्रनीलं च गोमेदः पीतरत्नकम् ॥ १७१ ॥ टीका-हीरेके भस्मका गुण आयु पुष्टि बल वीर्य वर्ण सौख्य इनकों करता है और हीरेका भस्म सेवन करनेसें सबरोगोंकों हरताहै इसमें कोई संशय नहीं है॥१६९॥ गारुत्मत मरकत अश्मगर्भ हरिन्मणि यह पन्नेके नाम हैं माणिक्य पद्मराग शोणरत्न लोहित यह माणिकके नामहैं पुष्पराग मंजुमणि वाचस्पतिवल्लभ यह पुष्पराजके नामहैं ॥ १७० ॥ नील तथा इन्द्रनील यह नीलमके नाम हैं और गोमेद तथा पीतरत्नक यह गोमेदके नामहैं ॥ १७१ ॥ वेदूर्यमौक्तिकप्रवालादिरत्नानां गुणाः. वैदूर्यं दूरज रत्नं स्यात्केतुग्रहवल्लभम् । मौक्तिकं शौक्तिकं मुक्ता तथा मुक्ताफलं च तत् । शुक्तिः शङ्खो गजकोडः फणी मत्स्यश्च दर्दुरः ॥ १७२ ॥ वेणुरेते समाख्यातास्तज्ज्ञैौक्तिकयोनयः। मौक्तिकं शीतलं वृष्यं चक्षुष्यं बलपुष्टिदम् ॥ १७३ ॥ पुंसि क्कीबे प्रवालः स्यात्पुमानेव तु विद्रुमः। रत्नानि भक्षितानि स्युर्मधुराणि सराणि च ॥ For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातुरसरत्नविषवर्गः। २०७ चक्षुष्याणि च शीतानि विषनानि तानि च ॥ १७४ ॥ मङ्गल्यानि मनोज्ञानि ग्रहदोषहराणि च । टीका-वैदूर्य दूरज रत्नकेतु ग्रहवल्लभ यह वैदूर्यके नाम हैं मौक्तिक शौक्तिक मुक्ता तथा मुक्ताफल यह मोतीके नाम, शीप शंख हाती शूकर सर्प मछली मेंडक ॥ १७२ ॥ और वांस यह उसके जाननेवालोंने मोतीके उत्पत्तिस्थान कहेहैं मोती शीतल शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला नेत्रके हित और वल पुष्टिको देनेवाला है ॥ १७३ ॥ पुल्लिंग और नपुंसकमें प्रवाल होताहै और विद्रुम पुल्लिंगमें ही होताहै रत्नभक्षण कियेहुवे मधुर और सर होते हैं तथा नेत्रके हित शीत विष हरताहै और धारण किये हुवे ॥१७॥ मङ्गलके करनेवाले मनोज्ञ तथा ग्रहदोषकों हरतेहैं. अथ ग्रहप्रियरत्नउपरत्नगुणाः. माणिक्यं तरणेः सुजातममलं मुक्ताफलं शीतगो हेयस्य तु विद्रुमो निगदितः सौम्यस्य गारुत्मतम् । देवेज्यस्य च पुष्परागमसुराचार्यस्य वज्नं शने लं निर्मलमन्ययोर्निगदिते गोमेदवैडूर्यके ॥ १७५ ॥ उपरत्नानि काचश्च कर्पूराश्मा तथैवच । मुक्ता शुक्तिस्तथा शङ्ख इत्यादीनि बहून्यपि ॥ १७६ ॥ गुणा यथैव रत्नानामुपरत्नेषु ते तथा। किन्तु किश्चित्ततो हीना विशेषोऽयमुदाहृतः ॥ १७७॥ कौनसा रत्न किसग्रहके प्रीतिकर होनेसें दोषनाशक होता है इस प्रश्नमें उस्का उत्तर कहतेहैं रत्नमालामें सूर्यका माणिक चंद्रका मोती मङ्गलका मूंगा बुधका पन्ना कहाहै बृहस्पतिका पुष्पराज शुक्रका हीरा शनीका निर्मल नीलमणि और राहुका गोमेद केतुका वैडूर्य यह कहाहै ॥ १७५ ॥ काच कापूरीपत्थर और मोतीकी सीप इत्यादि शंख बहुतसे उपरत्न हैं ॥ १७६ ॥ उपरत्न अर्थात् गौणरत्न कर्पूरीपत्थर मोतीकी सीप हत्नोंके जैसे गुणहैं वैसेही उपरत्नोंमेंभी गुण कहे परन्तु कुछ उनसे कमहैं विशेष यह कहाहै ॥ १७७॥ वत्सनाभहारिद्रसक्तुकप्रदीपनस्वरूप. विषं तु गरलः क्ष्वेडस्तस्य भेदानुदाहरे। For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २०८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे वत्सनाभः सहारिद्रः सक्तकश्च प्रदीपनः ॥ १७८ ॥ सौराष्ट्रकः शृङ्गिकश्च कालकूटस्तथैवच । हालाहलो ब्रह्मपुत्रो विषभेदा अमी नव ॥ १७९ ॥ सिन्दुवारसपत्रो वत्सनाभ्यारुतिस्तथा । यत्पार्श्वेन तरोवृद्धिर्वत्सनाभः स भाषितः ॥ १८० ॥ हरिद्रातुल्यमूलो यो हारिद्रः स उदाहृतः । यद्रन्थिः सकुकेनैव पूर्णमध्यः स सक्कुकः ॥ १८१ ॥ वर्णतो लोहितो यः स्याद्दीप्तिमान् दहनप्रभः । महादाहकरः पूर्वैः कथितः स प्रदीपनः ॥ १८२ ॥ टीका - विष गरल वेड यह विषके नामहैं उनके भेदोंकों कहते हैं वत्सनाभ हारिद्र सक्क प्रदीपन ॥ १७८ ॥ सौराष्ट्रिक शृंगिक तथा कालकूट हालाहल ब्रह्मपुत्र यह ९ विषके नाम हैं ॥ १७९ ॥ उसमें बचनागका निरूपण लाल कचनार के समान पत्ते तथा छडेके नाभिके आकर और जो एक तरफसें वृक्षकी वृद्धि होती है उस्कों बचनाग कहते हैं || १८० ॥ जो हरदीकी जडके समान होता है उसें हारिद्र कहा है जो गांठ बीचमें सक्से भरी हुईके समान होती है वोह सक्छुक है || १८१ ॥ जो रंगत में लाल होता है और अङ्गारेके समान दीप्तिमान होता है तथा बहुत दाहकों करनेवाला ऐसेकों प्राचीन लोगोंने प्रदीपन कहा है ।। १८२ ॥ अथ सोराष्ट्रिकशृंगीकालकूटहालाहलस्वरूपाणि. स्वराष्ट्रविषये यः स्यात्स सौराष्ट्रिक उच्यते । यस्मिन् गोशृङ्गके बद्धे दुग्धं भवति लोहितम् । स शृङ्गिक इति प्रोक्तो द्रव्यतत्त्वविशारदैः ॥ १८३ ॥ देवासुररणे देवैर्हतस्य पृथुमालिनः । दैत्यस्य रुधिराज्जातस्तरुरश्वत्थसन्निभः ॥ १८४ ॥ निर्यासः कालकूटोsस्य मुनिभिः परिकीर्त्तितः । सोपि क्षत्रे शृङ्गवेरे कोङ्कणे मलये भवेत् ॥ १८५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ २०९ धातुरसरत्नविषवर्गः। गोस्तनाभफलो गुच्छस्तालपत्रच्छदस्तथा । तेजसा यस्य दह्यन्ते समीपस्था द्रुमादयः॥ १८६ ॥ असौ हालाहलो ज्ञेयः किष्किंधायां हिमालये। दक्षिणाब्धितटे देशे कोङ्कणेऽपि च जायते ॥ १८७॥ टीका-सुराष्ट्रदेशमें जो होताहै वो सौराष्ट्रिक कहाहै सिंगियाका स्वरूप जिसकों गायके सींगमें बांधनेसें दुग्ध लाल होताहै उस्कों द्रव्यके तत्वोंके जाननेवालोंने शृङ्गिक कहाहै ॥ १८३ ॥ देवता और दानवके युद्धमे देवताओंसें मारेगये पृथुमालीनामदैत्यके रुधिरसे पीपलके समान वृक्ष उत्पन्न हुवा ॥ १८४ ॥ इस्के गोंदकों कालकूट ऐसा मुनिओंने कहाहै वोह शृङ्गवेर क्षेत्रमें और कोङ्कणदेश तथा मलयाचलमें होताहै ॥१८५॥ गायके स्तनकेसे फलोंके गुच्छे तथा तालपत्रके समान पत्र होतेहैं और जिसके तेजसें पासके वृक्षादिक जलजातेहैं ॥ १८६ ॥ इस्कों हालाहल जानना चाहिये और यह किष्किन्धामें हिमालयमें दक्षिणसमुद्रके किनारेपरके देशोंमें और कोङ्कणदेशमेंभी उत्पन्न होताहै ॥ १८७॥ अथ ब्रह्मपुत्रस्य स्वरूपम् । वर्णतः कपिलो यः स्यात्तथा भवति सारतः। ब्रह्मपुत्रः स विज्ञेयो जायते मलयाचले ॥ १८८ ॥ ब्राह्मणः पाण्डुरस्तेषु क्षत्रियो लोहितप्रभः। वैश्यः पीतः सितः शूद्रो विष उक्तश्चतुर्विधः ॥ १८९ ॥ रसायने विषं विप्रं क्षत्रियं देहपुष्टये । वैश्यं कुष्ठविनाशाय शूद्रं दद्याधाय हि ॥ १९०॥ विषं प्राणहरं प्रोक्तं व्यवायि च विकाशि च । आग्नेयं वातकफहृद्योगवाहि मदावहम् ॥ १९१ ॥ टीका-जो रंगसें कपिल सथा सारसे कपिल होताहै उस्कों ब्रह्मपुत्र जानना चाहिये वोह मलयाचलमें होताहै १८८ उस्में ब्राह्मणजातिका श्वेत लाल क्षत्रिय पीला वैश्य और काला शूद्र ऐसे विष चारप्रकारका कहाहै ॥ १८९ ॥ रसायनमें सफेद शरीरकी पुष्टिके अर्थ लाल पीला कुष्ठनाशके अर्थ और काला मरणके अर्थ देवै For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१० हरीतक्यादिनिघंटे ॥ १९० ॥ विष प्राणहर कहा है और व्यवायि तथा विकाशि और अग्निगुणवाला वातकफकों हरता योगवाही तथा मद करनेवाला है ॥ १९१ ॥ व्यवायि सकलकायगुणव्यापनपूर्वकं पाकगमनशीलं । विकाशि ओजःशोषणपूर्वकं सन्धिबन्धशिथिलीकरणशीलम् आग्नेयम् अधिकाम्यं योगवाहि सङ्गिगुणग्राहकं मदावहम् । तमोगुणाधिक्येन बुद्धिविध्वंसकम् । तदेव युक्तियुक्तं तु प्राणदायि रसायनम् । योगवाहि त्रिदोषघ्नं बृंहणं वीर्यवर्धनम् ॥ १९२ ॥ ये दुर्गुणा विषेऽशुद्धे ते स्युहीना विशोधनात् । तस्माद्विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत् ॥ १९३ ॥ अर्कक्षीरं स्नुहीक्षीरं लागली करवीरकः । गुञ्जाहिफेनो धत्तूरः सप्तोपविषजातयः ॥ १९४ ॥ इति श्रीहरतक्यादिनिघंटे धातूपधातुरसोपरसर नोपरत्नविषोपविषवर्गः।। टीका-संपूर्ण शरीरगुण व्यापनपूर्वक होनेवाला व्यवायि है ओजका शोषणपूर्वक जोडोंके बन्धनकों शिथिल करनेवाला आग्नेय अर्थात् बहुत गरम योगवाही अर्थात् संगवालेके गुणको ग्रहण करनेवाला तमोगुणकी अधिकतासे बुद्धिकों हरता वोही युक्तिपूर्वक योजना कियाहुवा पाणदेनेवाला रसायन योगवाही त्रिदोष हरता बृंहण वीर्यकों बढानेवालाहै ।। १९२॥ जो दुर्गुण अशुद्ध विषमें है वोह यशोधनसें हीन हो जाता है ॥१९३॥ आकका दूध थूहरका दूध करिहारी कनेर चिरमिठी अफीम धतूरा यह सात जात उपविषकी हैं उपविष अर्थात् गौणविष इनका गुण वहां वहांपर देखलेना ॥ १९४ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे धातु उपधातु रस उपरस रत्न उपरत्न विप उपविषवर्गः समाप्तः For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे अथ धान्यवर्गः। तत्र धान्यानां भेदाः. शालिधान्यं व्रीहिधान्यं शूकधान्यं तृतीयकम् । शिम्बीधान्यं क्षुद्रधान्यमित्युक्तं धान्यपञ्चकम् ॥ १॥ शालयो रक्तशाल्याद्या व्रीहयः षष्टिकादयः । यवादिकं शुकधान्यं मुद्गाद्यं शिम्बिधान्यकम् ॥ २ ॥ कङ्ग्वादिकं क्षुद्रधान्यं तृणधान्यं च तत्स्मृतम् । रक्तशालिः सकलमः पाण्डुकः शकुनाहृतः । सुगन्धकः कर्दमको महाशालिश्च दूषकः ॥ ३॥ पुष्पाण्डकः पुण्डरीकस्तथा महिषमस्तकः । दीर्घशूकः काञ्चनको हायनो लोध्रपुष्पकः ॥ ४ ॥ इत्याद्याः शालयः सन्ति बहवो बहुदेशजाः। ग्रन्थविस्तरभीतेस्ते समस्ता नात्र भाषिताः॥५॥ टीका- उस्में धान्योंके भेद शालिधान्य त्रीहिधान्य तीसरा शूकधान्य शिम्बीधान्य क्षुद्रधान्य इसप्रकार सात धान्य कहेहैं ॥१॥ लाल धान्य शालिधान्य और साठी आदि व्रीहिधान्य जव आदिक शूकधान्य मूंग आदि शिम्बीधान्य ॥२॥ और कंगुनीआदि क्षुद्रधान्य तथा उस्से तृणधान्यभी कहते हैं उस्में शालिधान्यका लक्षण और गुण विनाकूटे सुफेद और हेमन्तमें होनेवाले शालिधान्य कहेगये हैं लालधान्य कलमीधान्य पांडुक शकुनाहत सुगन्धक कर्दमक महाशाली दूषक ॥ ३ ॥ पुष्पांडक पुण्डरीक तथा महिषमस्तक दीर्घशूक कांचनक हायन लोध्रपुष्पक ॥४॥ इतने प्रकारके धान्य हैं और बहुतप्रकारके बहुतसे देशोंमें होतेहैं ग्रन्थ बढजानेके भयसें सब यहां पर नहीं कहे ॥ ५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ हरीतक्यादिनिघंटे अथ तेषां गुणाः. शालयो मधुराः स्निग्धा बल्या बहाल्पवर्चसः। कषाया लघवो रुच्याः स्वर्या वृष्याश्च बृंहणाः ॥ ६ ॥ अल्पानिलकफाः शीताः पित्तला मूत्रलास्तथा । शालयो दग्धमृजाताः कषाया लघुपाकिनः ॥७॥ सृष्टमूत्रपुरीषाश्च रूक्षाः श्लेष्मापकर्षणाः।। कैदारा वातपित्तना गुरवः कफशुक्रलाः ॥ ८॥ कषाया अल्पवर्चस्का मेध्याश्चैव बलावहाः। टीका-धान मधुर चिकने बल करनेवाले मलकों बांधनेवाले और थोडा तेज करनेवाले कसेले हलके रुचिकों करनेवाले स्वरकों अच्छा करनेवाले शुक्रकों अच्छा करनेवाले पुष्ट ॥ ६॥ अल्पवात कफकों करनेवाले शीतल पित्त हरता तथा मूत्रकों करनेवाले होतेहैं दग्धभूमिमें उत्पन्न हुवे धान कसेले लघुपाकवाले होतेहैं ॥ ७॥ मलमूत्रकों करनेवाले रूखे कफकों घटानेवालेहैं केदार वातपित्तके नाशक भारी कफ शुक्रकों करनेवालेहैं ॥ ८ ॥ कसेले अल्पमलकों करनेवाले मध्य बलकों करनेवालेहैं. कैदाराः कष्टक्षेत्रजा उप्ताः, स्थलजा अकृष्टभूमिजाताः । स्थलजाः स्वादवः पित्तकफना वातपित्तदाः । किञ्चित्तिक्ताः कषायाश्च विपाके कटुका अपि ॥ ९॥ वापिता मधुरा वृष्या बल्याः पित्तप्रणाशनाः । श्लेष्मलाश्वाल्पवर्चस्काः कषाया गुरवो हिमाः ॥ १० ॥ वापितेभ्यो गुणैः किंचिद्धीनाः प्रोक्ता अवापिताः । रोपितास्तु नवा वृष्याः पुराणा लघवः स्मृताः । तेभ्यस्तु रोपिता भूयः शीघ्रपाका गुणाधिकाः ॥ ११॥ च्छिन्नरूढा हिमा रूक्षा बल्याः पित्तकफापहाः । बदविट्काः कषायाश्च लघवश्वाल्पतिक्तकाः ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः। रक्तशालिवरस्तेषु बल्यो वर्ण्यस्त्रिदोषजित् । चक्षुष्यो मूत्रलः स्वर्यः शुक्रलस्तृड्ज्वरापहः ॥ १३ ॥ विषव्रणश्वासकासदाहनुदन्हिपुष्टिदः ।। तस्मादल्पान्तरगुणाः शालयो महदादयः ॥ १४ ॥ टीका-कैदार अर्थात् जोतेहुवे खेतमें वोयेहुवे स्थलमें उत्पन्न हुवे मधुर पित्तकफकों हरते वातपित्तकों करनेवाले कुछ एक तिक्त और कसेले विपाकमेंभी कटु होतेहैं ॥ ९॥ स्थलज अर्थात् विनाजोतेहुवे जमीनमें हुवे स्वयं उत्पन्न हुवे वोये हुवे मधुर शुक्रकों करनेवाले बलकों देनेवाले पित्तहरतेहैं कफकों करनेवाले थोडे मलकों करनेवाले कसेले शीतल भारी होतेहैं ॥ १०॥ वोयेहुवे जोते खेतमें और बेजोते खेतमें वोये हुवोंसे कुछ गुणमेंही नयेवोयेहुवे कहेहैं जोतेहुवे खेतमें अथवा बेजोतेहुवे खेतमें वोयेहुवे नये शुक्रकों करनेवालेहैं और पुराने हलके कहहैं उनसे बेवोयेहुवे शीघ्रपाकवाले और गुणमें अधिक कहेहैं ॥ ११॥ कोमल कटेहुवे शीतल रूखे बलकों करनेवाले पित्त कफको हरते मलकों बांधनेवाले कसेले हलके थोडे तिक्त होतेहैं ॥ १२ ॥ उनमें लालधान श्रेष्ठहै बलकों और वर्णकों करनेवाले शुक्रकों करनेवाले तृषा ज्वरकों हरतेहैं ॥ १३ ॥ और विष व्रण श्वास कास दाह इनकों हरते अग्नि और पुष्टिकों देनेवाले हैं उससे अल्पान्तरगुण महाशालि आदिमें है लालधान इस्को लोकमें दाउदखानी इसप्रकार कहते हैं यह मगधदेशमें प्रसिद्धहै ॥११॥ अथ व्रीहिधान्यस्य लक्षणं गुणाश्च. वार्षिकाः कण्डिताः शुक्ला व्रीहयश्चिरपाकिनः । कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटाण्डक इत्यपि । शालामुखो जतुमुख इत्याद्या व्रीहयः स्मृताः ॥ १५ ॥ कृष्णव्रीहिः स विज्ञेयो यकृष्णतुषतण्डुलः। पाटलः पाटलापुष्पवर्णको व्रीहिरुच्यते ॥ १६ ॥ कुक्कुटाण्डारूतिर्कीहिः कुक्कुटाण्डक उच्यते । शलामुखः कृष्णशूकः कृष्णतण्डुल उच्यते ॥ १७ ॥ लाक्षावर्णं मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः। For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ हरीतक्यादिनिघंटे व्रीहयः कथिताः पाके मधुरा वीर्यतो हिताः ॥१८॥ अल्पाभिष्यन्दिनो बद्धवर्चस्काः षष्टिकैः समाः । कृष्णव्रीहिर्वरस्तेषां तस्मादल्पगुणाः परे ॥ १९॥ टीका-वरसाती कुटेहुवे भुक्त आरदेरमें पकनेवाले व्रीहि धान कहेगयेहैं १५ काला धान उसे जानना चाहिये जो काले छिलकेके चावलहैं पाटलाके फूल समानवर्णवालीको पाटलत्रीहि कहतेहैं ॥ १६ ॥ मुरगेके अण्डेके आकारवाली वी. हीकों कुक्कुटाण्डक कहतेहैं शालामुख कृष्णशूक कृष्णतण्डुल येभी उस्के नाम हैं।।१७।। लाखके समान वर्ण जिसके मुखका हो उसे जतुमुख कहतेहैं धान पाकमें मधुर वीयसें हित कहेगयेहैं ॥ १८ ॥ और अभिष्यन्दन करनेवाले मलकों बांधनेवाले सां. ठीके समान होतेहैं उनमें काला धान श्रेष्ठहै और बाकी सब उसे गुणमें थोडेहैं १९ अथ षष्टिकानां लक्षणं गुणाश्च. गर्भस्था एव ये पाकं यान्ति ते षष्टिका मताः। षष्टिकः शतपुष्पश्च प्रमोदकमुकुन्दकौं ॥ २०॥ महाषष्टिक इत्याद्याः षष्टिकाः समुदाहृताः। एतेऽपि व्रीहयः प्रोक्ता व्रीहिलक्षणदर्शनात् ॥ २१ ॥ षष्टिका मधुराः शीता लघवो बद्दवर्चसः। वातपित्तप्रशमनाः शालिभिः सदृशा गुणैः ॥ २२ ॥ षष्टिका प्रवरा तेषां लध्वी स्निग्धा त्रिदोषजित् । स्वाही मृदी ग्राहिणी च बलदा ज्वरहारिणी ॥ २३ ॥ रक्तशालिगुणैस्तुल्या ततः स्वल्पगुणाः परे । यवस्तु शितशूकः स्यान्निःशूकोऽतियवः स्मृतः ॥ २४ ॥ तोक्यस्तद्वत्सहरितस्ततश्चाल्पश्च कीर्तितः । यवः कषायो मधुरः शीतलो लेखनो मृदुः ॥ २५ ॥ व्रणेषु तिलवत्पथ्यो रूक्षो मेधाग्निवर्धनः । कटुपाकोऽनभिष्यन्दी स्वयों बलकरो गुरुः ॥ २६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः । बहुवातमलो वर्ण स्थैर्यकारी च पिच्छिलः । कण्ठत्वगामय श्लेष्मपित्तमेदप्रणाशनः ॥ २७ ॥ पीनसश्वासकासोरुस्तम्भलोहिततृट्प्रणुत् । अस्मादतियवो न्यूनस्तोक्यो न्यूनतरस्ततः ॥ २८ ॥ टीका-सांठीके लक्षण और गुणकों कहते हैं जो गर्भमें रहतेहुवेही पाककों प्राप्त होते हैं वोह सांठी हैं षष्टिक शतपुष्प प्रमोदक मुकुन्दक || २० || महाषष्टिक इत्यादिक षष्टिक कहे गये हैं धान के लक्षण देखनेसें यह धान कहें हैं ॥ २१ ॥ साठी मधुर शीतल हलके मलकों बांधनेवाले वातपित्तकों शमन करनेवाले और धानोंके समान गुण में होते हैं || २२ || उन्में साठी बहुत श्रेष्ठ हलकी चिकनी त्रिदोषकों जीतनेवाली मधुर मृदु काविज वलकों देनेवाली ज्वर हरती है || २३ || लाल धानके समान गुणमें होती है उस्सें और गुणमें स्वल्प होती है उसको लोकमें साठी ऐसा कहते हैं शुकधान्य उन्में जब प्रसिद्ध है अतियव अतिशुक कृष्ण और अरुणवर्ण यव तोक्य हरित निःशुक स्वल्पयव यह सब इसनामसें प्रसिद्ध हैं उनके नाम और गुण कहते हैं जब नोंवाले होतेहैं और बेनोंकवाले अतियव कहे गये हैं ॥ २४ ॥ तथा तोक्य उसीके समान और हरित उस्सें अल्पगुण कहागया है जब कसेला मधुर शीतल लेखन मुलायम || २५ || और व्रणमें तिलकेसमान पथ्य रूक्ष मेघा और अग्निकों बढानेवाला हैं पाकमें कटु अभिष्यन्दन करनेवाला स्वरकों अच्छा करनेवाला बलकारक भारी ॥ २६ ॥ बहुत बात मलकों करनेवाला और वर्णस्थिरताकों करनेवाला पिच्छिल है और कंठरोग त्वचाके रोग कफ पित्त मेद इनकों हरता है २७ तथा पीनस श्वास कास ऊरुस्तम्भ रक्त तृषा इनकों हरता है इस्सें अतियव गुणमें न्यून है और तोक्य उस्सेंभी गुणमें न्यून हैं ॥ २८ ॥ अथ गोधूमस्य नामानि लक्षणं गुणाश्च. गोधूमः सुमनोऽपि स्यात्रिविधः स च कीर्तितः । महागोधूम इत्याख्यः पश्चाद्देशात्समागतः ॥ २९॥ माधूली तु ततः किञ्चिदल्पा सा मध्यदेशजा । निःशुको दीर्घगोधूमः क्वचिन्नन्दीमुखाभिधः ॥ ३० ॥ गोधूमो मधुरः शीतो वातपित्तहरो गुरुः । For Private and Personal Use Only २१५ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २१६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे कफशुक्रप्रदो बल्यः स्निग्धः सन्धानकत्सरः ॥ ३१ ॥ जीवनो बृंहणो वर्ण्यो व्रण्यो रुच्यः स्थिरत्वकत् । पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलभागिति ॥ ३२ ॥ टीका - अब गेहूं के नाम लक्षण और गुण कहते हैं गोधूम सुमनभी गहूंके नाहैं वह तीनप्रकारका कहा है बडा गेहूं इसनामसें पश्चिमदेश में होता है || २९ ॥ महागोधूम वडेगोधूम इसनामसें लोकमें प्रसिद्ध हैं मधूलीभी उस्सें कुछ अल्पगुणमें होती है वह मध्यदेश में होनेवाली है वेनोंक लंबा गेहूं कहींपर नंदिमुख नाम है ॥ ३० ॥ गेहूं मधुर शीतल वातपित्तकों हरता भारी कफशुक्रकों करनेवाला बलकों करनेवाला चिकना सन्धान करनेवाला सर जीवन पुष्ट वर्णकों अच्छा करनेवाला - rat रुचिकों करनेवाला और स्थिरताकों करनेवाला है ॥ ३१ ॥ कफकों करनेवाला नवीननकी पुराना जव गंहूं मधु हरिण आदियोंके मांसका कवाल इनका सेवन करनेवाला होता है ।। ३२ ।। वाग्भटेन वसन्ते गृहीतत्वात् । मधूली शीतला स्निग्धा पित्तघ्नी मधुरा लघुः । शुकला बृंहणी पथ्या तद्वन्नन्दीमुखः स्मृतः ॥ ३३ ॥ शमीजा: शिम्बिजाः शिम्बीभवाः सर्याश्च वैदलाः । वैदला मधुरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः ॥ ३४ ॥ वातलाः कफपित्तघ्ना बद्धमूत्रमला हिमाः । ऋते मुद्रमसूराभ्यामन्ये त्वाध्मानकारिणः ॥ ३५॥ टीका - वाग्भटनें वसन्तमें लिया है इसवास्ते मधूली अर्थात् न बहुत बडा ऐसे गेहूं शीतल पित्तहरता मधुर होते हैं ।। ३३ ।। शुक्रकों करनेवाले पुष्ट पथ्य अर्थात् हित होते हैं और उसीके समान नन्दीमुख कहेगये हैं शिम्बीधान्य अर्थात जो सैममें होता है उस्के पर्यायोंकों कहते है शमीज शिम्बीज शिम्बीभव सर्य वैदल यह शिम्बीधानके नाम हैं || ३४ ॥ उनके गुण शिम्बीधान्य मधुर रूखे कसेले पाकमें कटु बातकों करनेवाले कफपित्तकों हरते मलमूत्रकों रोकनेवाले शीतल होते हैं मूंग मसूरकों छोड़के बाकी सब पेटकों फुलाते हैं ।। ३५ ।। For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः। मुद्गस्य गुणाः. मुद्गमसूरयोराध्मानकारित्वमन्यवैदलापेक्षया नतु सर्वथा एतयोरपि किञ्चिदाध्मानकारित्वात् । मुद्गो रूक्षो लघुर्याही कफपित्तहरो हिमः । स्वादुरल्पानिलो नेत्र्यो ज्वरघ्नो वनजस्तथा ॥ ३६ ॥ मुद्गो बहुविधः श्यामो हरितः पीतकस्तथा । श्वेतो रक्तश्च तेषां तु पूर्वः पूर्वो लघुः स्मृतः ॥ ३७॥ सुश्रुतेन पुनः प्रोक्तो हरितः प्रवरो गुणैः। चरकादिभिरप्युक्त एष एव गुणाधिकः ॥ ३८॥ टीका-मूंग मसूरकों आध्मानकारित्व और दालोंकी अपेक्षासें है सर्वथा इनमेंभी कुछ आध्मानकारिख होनेसें उस्में मूंगके गुण कहतेहै मुद्ग रूखा हलका काविज कफपित्तकों हरता शीतल मधुर अल्पवातकों करनेवाला नेत्रके हित ज्वर हरताहै वैसेही वनमूग होता है ॥३६॥ मूंग हरप्रकारके होते हैं काले हरे पीले सुफेद लाल उन्में पहिले हलके कहे हैं ॥ ३७॥ जो सुश्रुतने कहेहैं की हरा मूंग गुणमें अधिक होताहै और चरकादिमुनियों ने भी कहाहै येही गुणमें अधिक होताहै ॥३०॥ अथ माषराजमाषनामगुणाः. माषो गुरुः स्वादुपाकः स्निग्धो रुच्योऽनिलापहः । खंसनस्तर्पणो बल्यः शुक्रलो वृंहणः परः ॥ ३९ ॥ भिन्नमूत्रमलस्तन्यो मेदःपित्तकफप्रदः। गुदकीलार्दितः श्वासपंक्तिशूलानि नाशयेत् ॥ ४०॥ कफपित्तकरा माषाः कफपित्तकरं दधि। कफपित्तकरा मत्स्या वृन्ताकं कफपित्तकृत् ॥४१॥ राजमाषो महामाषश्चपलश्चवलः स्मृतः। राजमाषो गुरुः स्वादुस्तुवरस्तर्पणः सरः ॥ ४२ ॥ रूक्षो वातकरो रुच्यः स्तन्यभूरिबलप्रदः । २८ For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिर्घटे श्वेतो रक्तस्तथा कृष्णस्त्रिविधः स प्रकीर्तितः ॥ ४३ ॥ यो महांस्तेषु भवति स एवोक्तो गुणाधिकः । टीका - माष अर्थात् उडद भारी पाकमें मधुर चिकना रुचिकों करनेवाला वातहरा संसन तर्पण बलकेहित शुक्रकों करनेवाला पुष्ट होता है ॥ ३९ ॥ और मलमूत्रकों करनेवाला दुग्धकों करनेवाला भेद और पित्तकों करनेवाला है और गुद अर्दित श्वास पंक्तिशूल इनकों हरता है ॥ ४० ॥ उडद कफपित्तकों करनेवाला है और दही कफपित्तकों करनेवाली है और मछलियां कफपित्तकों करनेवाली हैं तथा बैंगन कफपित्तकों करनेवाला है ॥ ४१ ॥ वोडा यह नाम बनारस में प्रसिद्ध है और वेरातरा लोविया इननामोंसें भी कईक शहरोंमें प्रसिद्ध हैं राजमाष महामाष चपल चवल येह लोवियाके नाम कहें हैं लोविया भारी मधुर कसेला तृष्टिकों करनेवाला सर ॥ ४२ ॥ रूखा वातकारी रुचिकों करनेवाला दुग्ध और 'बहुत बल्कों देनेवाला है सफेद लाल तथा काला ऐसे वोह तीनप्रकारका कहाहै ॥ ४३ ॥ उन्में जो बडा है वोह गुणमें अधिक होता है. अथ निष्पावमकुष्ठमसूरतुवरीनामगुणाः. निष्पावो राजशिम्बिः स्याद्वलकः श्वेतशिम्बिकः । निष्पावो मधुरो रूक्षो विपाकेऽम्लो गुरुः सरः ॥ ४४ ॥ कषायस्तन्यपित्तास्त्रमूत्रवातविबन्धकत् । विदाद्युष्णो विषश्लेष्मशोथहृच्छुक्रनाशनः ॥ ४५ ॥ मकुष्ठो वनमुद्गः स्यान्मकुष्ठकमुकुष्ठकौ । कुष्ठ वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः ॥ ४६ ॥ वन्हि जन्मधुरः पाके रूमिकज्ज्वरनाशनः । मंगल्यको मसूरः स्यान्मंडल्या च मसूरिका ॥ ४७ ॥ मसूरो मधुरः पाके संग्राही शीतलो लघुः । कफपित्तास्रजिद्र्क्षो वातलो ज्वरनाशनः ॥ ४८॥ आढकी तुवरी चापि सा प्रोक्ता शणपुष्पिका । आढकी तुवरा रूक्षा मधुरा शीतला लघुः ॥ ४९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः। ग्राहिणी वातजननी वा पित्तकफास्त्रजित् ।। टीका-निष्पाव इसकों दक्खनमें पावटा कहतेहैं और पूर्वमें भटवांसभी कहतेहैं यह बडीसैम काविजहै निष्पाव राजशिम्बी वल्लक श्वेतशिम्बिक यह सैमके बीजके नाम, सैम काविज मधुर रूखा विपाकमें खट्टा भारी सर ॥ ४४ ॥ कसैला और दुग्ध रक्तपित्त मूत्र वात विबन्ध इनकों करनेवाला है तथा विदाही गरम विष कफ सूजन इनकों हरता और शुक्रकों हरताहै ॥ ४५ ॥ मकुष्ठ वनमुद्ग मकुष्ठक मुकुठक यह मोठके नाम, मोठ वातकों करनेवाला काविज कफपित्तकों हरता हलका होताहै ॥ ४६ ॥ अग्निकों हरनेवाला पाकमें मधुर कृमिको करनेवाला ज्वर हरताहै ॥४७॥ मंगल्यक मसूर और मङ्गल्या मसूरिका येह मसूरके नाम, मसूर पाकमें मधुर और काविज हलका शीतल होतीहै ॥ ४८ ॥ तथा कफ रक्तपित्त इनकों हरनेवाली वातकों करनेवाली ज्वरहरती है आढकी तुवरी शणपुष्पिका यह हररीके नाम, रहरी कसेली रूखी मधुर शीतल हलकी ॥ ४९ ॥ काविज वातकों करनेवाली वर्णको अच्छा करनेवाली पित्त कफ रक्तको हरनेवालीहै. अथ चणककलायत्रिपुटनामगुणाः. चणको हरिमन्थः स्यात्सकलप्रिय इत्यपि ॥ ५० ॥ चणकः शीतलो रूक्षः पित्तरक्तकफापहः । लघुः कषायो विष्टम्भी वातलो ज्वरनाशनः ॥५१॥ स चाङ्गारेण सम्भृष्टस्तैलमृष्टश्च तद्गुणः । आर्द्रभृष्टो बलकरो रोचनश्च प्रकीर्तितः ॥ ५२ ॥ शुष्कभृष्टोऽतिरूक्षश्च वातकुष्ठप्रकोपनः। स्विन्नः पित्तकर्फ हन्यागुडः क्षोभकरो मतः ॥ ५३॥ आद्रोऽतिकोमलो रुच्यः पित्तशुकहरो हिमः । कषायो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः ॥ ५४ ॥ कलायो वर्तुलः प्रोक्तः सतीनश्च हरेणुकः । कलायो मधुरः स्वादुः पाके रूक्षश्च शीतलः ॥ ५५ ॥ त्रिपुटः खण्डकोऽपि स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ । For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० हरीतक्यादिनिघंटे त्रिपुटो मधुरस्तिक्तस्तुवरो रूक्षणो भृशम् ॥ ५६ ॥ कफपित्तहरो रुच्यो ग्राहकः शीतलस्तथा। किन्तु खञ्जत्वपङ्गुत्वकारी वातातिकोपनः ॥ ५७ ॥ टीका-चणक हरिमन्थ और सकलप्रिय यह चनेके नामहै ॥ ५० ॥ चना शीतल रूखा पित्त कफ रक्त इनकों हरताहै और हलका कसेला विष्टम्भी वातकों करनेवाला ज्वरहरताहै वोह अंगारेसें भुनाहुवा तथा तेलसें भुनाहुवा वोही गुणवालाहै ॥ ५१ ॥ गीला भूना हुवा बल करनेवाला और रुचिकों करनेवाला कहाहै सूखा भूनाहुवा बहुत रूखा वात कुष्ठका प्रकोप करनेवालाहै पकीहुई इस्की दाल पित्त कफकों हरतीहै ॥५२॥ और क्षोभकों करनेवाली कहीहै अतिगीली अतिकोमल रुचिकों देनेवाली पित्तशुक्रकों हरतीहुई कहीहै ॥५३ ॥ और कसेली वातकों करनेवाली काविज कफपित्तको हरती हलकी है ॥ ५४॥ कलाय वर्तुल सतीन हरेणुक यह मटरके नामहैं मटर मधुर और पाकमें मधुर रूखा शीतलहै ५५ त्रिपुट खंडिक येह खेसारीके नाम, अब उस्के गुण कहतेहैं खेसारी मधुर तिक्त कसेली अत्यन्त रूखी ॥५६॥ कफ पित्तकों हरती रुचिकों करनेवाली काविज तथा शीतल होतीहै किन्तु खञ्जा पङ्गुला करनेवाली और अधिक वातकों करनेवालीहै ५७ अथ कुलत्थि तथा तिलनामगुणाः. कुलत्थिका कुलत्थश्च कथ्यन्ते तद्गुणा अथ । कुलत्थः कटुकः पाके कषायः पित्तरक्तरुत् ॥ ५८ ॥ लघुर्विदही वीर्योष्णः श्वासकासकफानिलान् । हन्ति हिकाश्मरीशुक्रदाहानाहान्विनाशयेत् ॥ ५९॥ स्वेदसंग्राहको मेदोज्वरकमिहरः परः। तिलः कृष्णः सितो रक्तः सवयोऽल्पतिलः स्मृतः ॥६॥ तिलो रसे कटुस्तिक्तो मधुरस्तुवरो गुरुः । विपाके कटुकः स्वादुः स्निग्धोष्णः कफपित्तनुत् ॥ ६१॥ बल्यः केश्यो हिमस्पर्शस्त्वच्यः स्तन्योः व्रणे हितः । दन्त्योऽल्पमूत्रद्धाही वातघ्नोऽग्निमतिप्रदः ॥ ६२॥ For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः । कृष्णः श्रेष्ठतमस्तेषु शुकलो मध्यमः सितः । अन्ये हीनतराः प्रोक्तास्तज्ज्ञै रक्तादयस्तिलाः ॥ ६३ ॥ For Private and Personal Use Only २२१ टीका - कुलत्थका कुलत्थ यह कुलथी के नाम हैं और अब इसके गुण कहते हैं कुलथी पाकमें कडवी कसेली पित्तरक्तकों करनेवाली है ॥ ५८ ॥ और हलकी वि दाही वीर्यमें उष्ण श्वास कास कफ वात इनकों हरती है और हिचकी पथरी शुक्र दाह अफारा पथरी इनकों हरती है ॥ ५९ ॥ पसीनोंकों रोकनेवाली मेद ज्वर कृमि इनकों हरती है तिलकाला सफेद लाल वर्ण्य और अल्पतिल ऐसा कहा है ॥ ६० ॥ तिल रसमें कटुतिक्त मधुर कसेला भारी विपाकमें कटु मधुर चिकना गरम कफपित्तकों हरता है ॥ ६१ ॥ और बलके हित केशकों अच्छा करनेवाला शीतल रूपशेवाला खचाके हित दुग्धकों करनेवाला व्रणमें हित दांतोंकों हित अल्पमूत्रकों करनेवाला काविज वातहरता अग्नि और मतिकों देनेवाला है ॥ ६२ ॥ उनमें काला बहुत श्रेष्ठ है और शुक्रकों करनेवाला मध्यश्वेत और लाल आदिक तिल उनके जाननेवालों अत्यन्तही गुण कहे हैं ॥ ६३ ॥ अथातसीतुवरीसर्षपनामगुणाः. अतसी नीलपुष्पी च पर्वती स्यादुमा क्षुमा । अतसी मधुरा तिक्ता स्निग्धा पाके कटुर्गुरुः । उष्णा शुक्रवातघ्नी कफपित्तविनाशिनी ॥ ६४ ॥ तुवरी ग्राहिणी प्रोक्ता लघ्वी कफविषास्त्रजित् । तीक्ष्णोष्णा वह्निदा कण्डुकुष्ठकोष्ठकमिप्रणुत् ॥ ६५॥ सर्षपः कटुकः स्नेहस्तुन्तुभव कदम्बकः । गौरस्तु सर्षपः प्राज्ञैः सिद्धार्थ इति कथ्यते ॥ ६६ ॥ सर्षपस्तु रसे पाके कटुः स्निग्धः सतिक्तकः । तीक्ष्णोष्णः कफवातघ्नो रक्तपित्ताग्निवर्धनः ॥ ६७ ॥ रक्षोहरो जयेत्कण्डू कुष्ठकोष्ठकमिग्रहान् । यथा रक्तस्तथा गौरः किन्तु गौरो वरो मतः ॥ ६८ ॥ राजी तु राजिका तीक्ष्णगन्धा कुञ्जनिकासुरी | Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ हरीतक्यादिनिघंटे क्षवः क्षुताभिजनकः कृमिककृष्णसर्षपः ॥ ६९ ॥ राजिका कफपित्तनी तीक्ष्णोष्णा रक्तपित्तकत् । किञ्चिद्भक्षाग्निदा कण्डूकुष्ठकोष्ठकमीन् हरेत् ॥ ७० ॥ अतितीक्ष्णा विशेषेण तद्वत्कृष्णापि राजिका । टीका-अतसी नीलपुष्पी पार्वती उमा क्षुमा यह अतसीके नामहैं अतसी मधुर चिकनी तिक्त पाकमें कटु भारी गरम होती है और दृष्टी शुक्र वात इनको हरती और कफ पित्त इनकों हरतीहै ॥ ६४ ॥ तोरी इसको तोडिस इसप्रकार कहतेहैं तोरीका बीज हलका कफ विष रक्त इनको हरनेवालाहै ॥६५॥ तीखा उष्ण अग्निकों करनेवालाहै और खुजली कुष्ठ कोष्ठ कृमि इनकों हरताहै सर्षप कटुक स्नेह तुंतुभ कदंबक यह लाल सरसोंके नामहैं पीली सरसोंकों बुद्धिवानोंने सिद्धार्थ ऐसा कहाहै ॥ ६६ ॥ सरसों रस और पाकमें कटु चिकना कुछ तिक्त तीखा उष्ण कफ वातकों हरता और रक्तपित्त अग्नि इनको बढानेवालाहै ॥ ६७ ॥ राक्षसोंकों हरताहै कण्डू कोष्ठ कृमि ग्रह इनकों हरताहै जैसा लाल वैसा पीला किन्तु पीला श्रेष्ठ कहाहै ॥ ६८ ॥ राजी राजिका तीक्ष्णगन्धा कुञ्जनिका सुरी यह राईके नाम हैं छींक और घावकों करनेवाली कृमिकों करनेवाली काली सरसों होती है ॥ ६९ ॥ राई कफपित्तकों हरती तीखी गरम रक्तपित्तकों करनेवाली कुछेक रूखी अग्निदीपन खुजली कुष्ठ कोष्ठ कृमि इनकों हरतीहै ॥ ७० ॥ बहुत तीखी इसविशेपणसें उसीके सदृश काली राई होतीहै. अथ क्षुद्रधान्यकङ्गुचीनाकश्यामाकगुणाः. क्षुद्रधान्यं कुधान्यं च तृणधान्यमिति स्मृतम् । क्षुद्रधान्यमनुष्णं स्यात्कषायं लघु लेखनम् ॥ ७१ ॥ मधुरं कटुकं पाके रूक्षं च क्लेदशोषकम् । वातवद्धविट्कं च पित्तरक्तकफापहम् ॥ ७२ ॥ स्त्रियां कङ्गुप्रियङ्ग् द्वे कृष्णा रक्ता सिता तथा । पीता चतुर्विधा कङ्गुस्तासां पीता वरा स्मृता ॥७३॥ कमुस्तु भग्नसन्धानवातकढुंहणो गुरुः । रूक्षा श्लेष्महरातीव वाजिनां गुणकदृशम् ॥ ७४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धान्यवर्गः। २२३ चीनाकः कङ्गुभेदोऽस्ति स ज्ञेयः कङ्गवद्गुणैः। श्यामाकः शोषणो रूक्षो वातलः कफपित्तहत् ॥७५॥ टीका-क्षुद्रधान्य कुधान्य तृणधान्य यह छोटे धानके नाम, क्षुद्रधान शीतल कसेला हलका लेखन ॥ ७१ ॥ मधुर पाकमें कटु रूखा कफकों सुखानेवाला वातकों करनेवाला और मलकों बांधनेवाला पित्त रक्त और कफकों हरताहै ॥७२॥ उनमें स्त्रीलिंगमें कङ्गु प्रियङ्गु ये दोनों होते हैं काली लाल सुफेद तथा पीली ऐसी चार प्रकारकी कङ्गुनी होतीहै उन्में पीली श्रेष्ठ कहीहै ॥ ७३ ॥ कंगुनी टूटेहाडकों जोडनेवाली वातकृत्पुष्ट भारी रूखी कफकी अत्यन्त नाशकहै और घोडोंकों अत्यन्तही गुण करनेवालीहै ॥ ७४ ॥ चीना कांगुनीका भेदहै उस्कों गुणमे कंगुनीके समान जानना चाहिये सांवा शोषण रूखा वातकों करनेवाला कफपित्तकों हरताहै ॥ ७५ ॥ अथ कोद्रवरुचकवंशभवकुसुंभवीजगुणाः. कोद्रवः कोरदूषः स्यादुद्दालो वनकोद्रवः। कोद्रवो वातलो ग्राही हिमपित्तकफापहः ॥ ७६ ॥ उद्दालस्तु भवेदुष्णो ग्राही वातकरो भृशम् । चारुकः सरबीजः स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ ॥ ७७ ॥ चारुको मधुरो रूक्षो रक्तपित्तकफापहः । शीतलो लघु वृष्यश्च कषायो वातकोपनः ॥७८ ॥ यवा वंशभवा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः। बद्धमूत्राः कफनाश्च वातपित्तकराः सराः ॥ ७९ ॥ कुसुम्भबीजं वरटा सैव प्रोक्ता वराटिका। वरटा मधुरा स्निग्धा रक्तपित्तकफापहा ॥ ८॥ कषाया शीतला गुर्वी सा स्यादृष्यानिलापहा । टीका-कोद्रव कोरदूष यह कोदोंके नामहैं और वनकोद्रव उद्दाल यह वनकोदोंके नाम, कोदों वातकों करनेवाला काविज शीतल कफकों हरताहै ॥ ७६॥ वनकोदो उष्ण काविज और अत्यन्त वातको करनेवालाहै चारुक सरवीजका नामहै For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ हरीतक्यादिनिघंटे अब उस्का गुण कहते हैं सरबीज मधुर रूखा रक्त पित्त कफ इनको हरता है ॥७७॥ और शीतल हलका शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला कसेला वातकों करनेवाला है ॥७८॥ वांसके बीज रूखे कसेले और कटुपाकवाले हैं मूत्रकों रोकनेवाले कफ हरता वातपित्तकों करनेवाले सर होता हैं ॥ ७९ ॥ कुसुंभबीज वरटा और वही वरट्टिकाभी कहा है वा मधुर चिकना और रक्तपित्त कफकों हरता है ॥ ८० ॥ और कसेला शीतल भारी शुक्रकों करनेवाला वात हरता है. अथ गवेधुकाप्रसाधिकापवननामगुणाः. गवेधुका तु विद्वद्भिर्गवेधुः कथिता स्त्रियाम् । गवेधुः कटुका स्वी कार्श्यत्कफनाशिनी ॥ ८१ ॥ प्रसाधिका तु नीवारस्तृणान्नमिति च स्मृतम् । नीवारः शीतलो ग्राही पित्तघ्नः कफवातकृत् ॥ ८२ ॥ पवनो लोहितः स्वादुर्लोहितः श्लेष्मपित्तजित् । अवृष्यस्तुवरो रूक्षः क्लेदकृत्कथितो लघुः ॥ ८३॥ धान्यं सर्वं नवं स्वादु गुरु श्लेष्मकरं स्मृतम् । तत्तु वर्षोषितं पथ्यं यतो लघुतरं हितम् ॥ ८४ ॥ वर्षोषितं सर्वधान्यं गौरवं परिमुञ्चति । नतु त्यजति वीर्यं स्वं क्रमान्मुञ्चत्यतः परम् ॥ ८५ ॥ एतेषु यवगोधूमतिलमाषा नवा हिताः । पुराणा विरसा रूक्षा न तथा गुणकारिणः ॥ ८६॥ पुराणा वर्षद्वयादुपरिस्थिता यवादयो नवाः स्वास्थ्यान्प्रति हिताः पथ्याशिनां तु पुराणा हिताः ॥ पुराणा यवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्य भुगिति वासन्ते वाग्भटेनोक्तत्वात् । इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे धान्यवर्गः ॥ टीका - गवेधुकाकों विद्वानोंने गवेधु ऐसा स्त्रीलिंग में कहा है इसको देवधान कहते है देवधान कडुवा मधुर कृशताकों करनेवाला कफपित्तकों हरता है ॥ ८१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २९ धान्यवर्गः । २२५ प्रसाधिका नीवार और तृणान्न यह नाम हैं ये तीनी शीतल काविज पित्त हरती कफवातकों करनेवाली है || ८२ ॥ पवना लोहित यह पुनेराके नामहैं पुनेरा लाल मधुर कफपित्तकों हरनेवाला है और शुक्रकों हरता कसेला ग्लानिकों करनेवाला हलका कहाहै || ८३ || सब नयाधान मधुर भारी और कफकों रोकनेवाला कहा है वोह ऊपरसें बरसात निकलाहुवा हित होता है क्योंकी वोह बहुत हलका होता है ॥ ८४ ॥ ऊपरसें वरसात गुजरजानेपर सबधान भारीपनको छोड देते हैं परन्तु अपने वीर्यकों नहीं छोड़ते इसके उपरान्त क्रमसें छोडदेतें हैं ॥ ८५ ॥ इनमें जब गेहूं तिल उडद ये नये हितहें पुराने बेरस रूखे और वैसे गुणकारी भी नहीं है || ८६ ॥ पुराने अर्थात् दोवरससे ऊपर के जब आदिक नये निरोगियोंकों हितहैं और पथ्यभोजन करनेवालोंकों तो पुराने हितहैं पुराने जब गेहूं मधुहरिण आदियों के मांसका कवाव इनकों भोजन करनेवाला इसप्रकार वसन्तऋतु में वाग्भटनें कहा है ॥ ८७ ॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे धान्यवर्गः समाप्तः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे अथ शाकवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्र शाकनिरूपणं गुणाश्च. पत्रं पुष्पं फलं नालं कन्दं संस्वेदजं तथा । शाकं षडिधमुद्दिष्टं गुरु विद्याद्यथोत्तरम् ॥ १ ॥ प्रायः शाकानि सर्वाणि विष्टम्भीनि गुरूणि च । रूक्षाणि बहुवचसि सृष्टविष्मारुतानि च ॥ २ ॥ शाकं भिनत्ति वपुरस्थिनिहन्ति नेत्रं, वर्णं विनाशयति रक्तमथापि शुक्रम् । प्रज्ञाक्षयं च करुते पलितं च नूनं हन्ति स्मृतिं गतिमिति प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ ३ ॥ शाकेषु सर्वेषु वसन्ति रोगास्ते हेतवो देहविनाशनाय । तस्माद्बुधः शाकविवर्जनं तु कुर्यात्तथाम्लेषु स एव दोषः ॥ ४ ॥ एतानि शाकनिन्दकानि वचनानि सामान्यानि । अथ शाकेषु विशिष्टानि वचनानि तत्र पत्रशाकानि । तत्रापि वास्तूकद्वयस्य नामानि गुणाश्च । वास्तुकं वास्तुकं च स्यात्क्षारपत्रं च शाकराट् । तदेव तु बृहत्पत्रं रक्तं स्याद्गौडवास्तुकम् ॥ ५ ॥ प्रायशो यवमध्ये स्याद्यवशाकमतः स्मृतम् । वास्तूकद्वितयं स्वादु क्षारं पाके कटूदितम् ॥ ६ ॥ दीपनं पाचनं रुच्यं लघुशुक्रबलप्रदम् । For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः। सरं प्लीहास्त्रपित्ताश कमिदोषत्रयापहम् ॥७॥ टीका-पत्र फूल फल नाल कन्द तथा संखेदज इसप्रकार छह प्रकारका साग कहाहै उनमें यथोत्तर भारी जानने ॥१॥ अब शाकोंके गुण प्रायसें सब शाक विष्टम्भी और भारीहैं तथा रूखे बहुत मलकों करनेवाली हैं ॥२॥ साग शरीर अ. स्थिकों भेदन करताहै और नेत्रकों हरताहै तथा वर्णकों हरताहै और रक्त तथा शुक्रकोंभी हरताहै बुद्धिका क्षयभी करताहै सिरके वालधौलेभी होतेहैं और स्मृति तथा मतिकोंभी हरताहै ऐसा उस्के जतनेवालोंने कहाहै ॥ ३ ॥ सब सागोंमें रोग वसतेहैं वेह देहनाशके कारण हैं इसवास्ते बुद्धवान् साग न सेवन करै वैसेही अम्लमेंभी वोही दोष है ॥ ४॥ यह सागकी निन्दाके सामान्य वचनहै अब शाकमें विशेषवचनकों कहतेहैं उस्में पत्रशाक उनमेंभी दोनों वथुनीके और गुण कहतेहैं वास्तूक और वास्तुकभी होताहै क्षारपत्र शाकराट् यह वथुवेके नामहैं वोही बडेपत्तेका लाल होताहै उस्कों गौडवास्तुक कहते हैं ॥५॥ प्रायः जवके वीचमें होताहै इ. सवास्ते जक्शाक कहाहै दोनों वथुवे मधुर क्षार पाकमें कडवे कहेहै ॥ ६ ॥ और दीपन पाचन रुचिकों करनेवाले हलका शुक्र बलकों दैनेवाले हैं सर पिलही रक्तपित्त ववासीर कृमि तीनोंदोष इनकों हरताहै ॥ ७ ॥ __ अथ पोतकीनामगुणाः. पोतक्युपोदिका सा तु मालवामृतवल्लरी । पोतकी शीतला स्निग्धा श्लेष्मला वातपित्तनुत् ॥ ८॥ अकण्ठ्या पिच्छिला निद्रा शुक्रदा रक्तपित्तजित् । बलदा रुचिरुत्पथ्या बृंहणी तृप्तिकारिणी ॥ ९॥ मारिषो बाष्पको मार्षः श्वेतो रक्तश्च स स्मृतः । मारिषो मधुरः शीतो विष्टम्मो पित्तनुद्गुरुः ॥१०॥ वातश्लेष्मकरो रक्तपित्तनुद्विषमाग्निजित् । रक्तमाषो गुरु ति सक्षारो मधुरः सरः ॥ ११ ॥ श्लेष्मलः कटुकः पाके स्वल्पदोष उदीरितः। टीका-पोतकी उपोदिका मालवा अमृतवल्लरी यह पोईके नामहैं पोई शीतल चिकनी कफकों करनेवाली वातपित्तकों हरतीहै ॥ ८॥ कंठके हित पिच्छिल निद्रा For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ हरीतक्यादिनिघंटे और शुक्रकों करनेवाली तथा रक्तपित्तकों हरनेवाली है और बलकों देनेवाली है रुचिकों करनेवाली पथ्य पुष्ट तथा तृप्तिकों करनेवाली है ॥ ९ ॥ सुफेद मरसा और सालमरसा नवडा इसप्रकारभी कहते हैं मारिष वृष्यक मार्ष यह मरसेके नाम हैं। वोह लाल और सफेद कहा है मरसा मधुर शीतल विष्टंभ करनेवाला पित्तकों हरता भारी है ॥ १० ॥ वातकफकों करनेवाला रक्तपित्तकों हरता विषम अग्निकों हरनेवाला है लाल मरसा बहुत भारी नहीं होता और क्षीरके सहित मधुर सर होताहै ॥ ११॥ और कफकों करनेवाला पाकमें कटु और अल्पदोष करनेवाला कहा है ॥ अथ तण्डुलीय तथा पलक्यानामगुणाः. तण्डुलीयो मेघनादः काण्डेरस्तण्डुलेरकः ॥ १२ ॥ भण्डीरस्तण्डुलीबीजो विषघ्नश्चाल्पमारिषः । तण्डुलीयो लघुः शीतो रूक्षः पित्तकफास्रजित् ॥ १३ ॥ सृष्टमूत्रमलो रुच्यो दीपनो विषहारकः । पानीयं तण्डुलीयं तु कचटं समुदाहृतम् ॥ १४॥ कचटं तितकं रक्तपित्तानिलहरं लघु । पलक्या वास्तुकाकाराच्छुरिका चीरितच्छदा ॥ १५॥ पलक्या वातला शीता श्लेष्मला भेदिनी गुरुः । विष्टम्भिनी मदश्वासपित्तरक्तकफापहा ॥ १६॥ टीका - छोटा मरुसा इसप्रकार कहते हैं तंडुलीय मेघनाद काण्डेर तंडुलेरक मंडीर तंडुलीवीज विपन अल्पमारिष येह चवराईके नामहैं । १२ ॥ चवराई हलकी शीतल रूखी पित्त कफ रक्त इनकों हरनेवाली है और मल मूत्रकों करनेवाली रुचिकों करनेवाली दीपन विषहरती है ॥ १३ ॥ दूसरे किस्मकी चवराई पनियाचवराई शास्त्रमें कट इसनामसें प्रसिद्ध है पानीय तंडुलीयक कचट इसप्रकार कहा है पनीया चवराई तिक्त रक्त पित्त और वात इनकों हरती हलकी होती है ॥ १४ ॥ पलक्या वास्तुकाकारा अर्थात् वथुवेकीसी च्छुरिका चीरितच्छदा यह पालकके नामहैं पालक वातकों करनेवाला शीतल कफकों करनेवाला भेदन भारी है ॥ १५ ॥ और विष्टम्भकों करनेवाला तथा मद श्वास पित्त रक्त कफ इनकों हरता है || १६॥ For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः । अथ नाडिकापट्टशाककलंबीलोकिकागुणाः. नाडिकं कालशाकं च श्राद्धशाकं च कालकम् ॥ १७ ॥ कालशाकं सरं रुच्यं वातकृत्कफशोथहृत् । बल्यं रुचिकरं मेध्यं रक्तपित्तहरं हिमम् ॥ १८ ॥ पट्टशाकस्तु नाडीको नाडीशाकश्च स स्मृतः । नाडीको रक्तपित्तघ्नो विष्टम्भी वातकोपनः ॥ १९ ॥ कलम्बी शतपर्वी च कथ्यन्ते तद्गुणा अथ । कलम्बी स्तन्यदा प्रोक्ता मधुरा शुक्रकारिणी ॥ २० ॥ लोणा लोणी च कथिता बृहल्लोणी तु घोटिका । लोणी रूक्षा स्मृता गुर्वी वातश्लेष्महरी पटुः ॥ २१ ॥ अर्शोघ्नी दीपनी चाम्ला मन्दाग्निविषनाशिनी । घोटिकाम्ला सरा चोष्णा वातकृत्कफपित्तहृत् ॥ २२ ॥ वाग्दोषव्रणगुल्मी श्वासकासप्रमेहनुत् । शोथलोचनरोगे च हिता तज्ज्ञैरुदाहृता ॥ २३ ॥ For Private and Personal Use Only २२९ टीका - इस्कों कालासागभी कहते हैं नाडीक कालशाक श्राद्धशाक कालक यह कालेसागके नामहैं || १७ || काला साग रुचिकों करनेवाला सर वायुकों करनेवाला और कफ शोथकों हरता है तथा बलकों करनेवाला रुचिकर कान्तिकों करनेवाला रक्तपित्तकों हरता शीतलहै || १८ || पट्टशाक नाडीक नाडीशाक येह पटुवाके नाम हैं पटुवा रक्तपित्तकों हरता विष्टम्भ करनेवाला वातकोपन है ॥ १९ ॥ कलंबी शतपर्वी यह कलगीसाग के नामहैं कलगी दुग्धकों करनेवाली कही है और मधुर शुक्रकों करनेवाली कही है || २० || लोडा लोडी यह नोंनियाके नाम हैं और बडीनोनियाकों घोटिका कहते हैं नोंनिया रूखी कही है और भारी वातकफकों हरती नमकीन होती है || २१ || और ववासीरकों हरती दीपन खट्टी होती है तथा मन्दाग्नि विष pani हरती है बडी नोनिया खट्टी सर गरम वातकों करनेवाली कफपित्तकों हरती है || २२ || वाणीका दोष व्रण वायगोला इनकों हरता है तथा श्वास कास प्रमेह इनकों हरती तथा सूजन और नेत्ररोगमें हित है ऐसा उसके जाननेवालोंनें कहाहै ॥ २३ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ चाङ्गेरीचुक्रकगुणाः. चाङ्गेरी चुक्रिका दन्तशठाम्बष्ठाम्ललोणिका । अश्मन्तकस्तु शफरी पिसली चाम्लपत्रकः ॥ २४ ॥ चाङ्गेरी दीपनी रुच्या रूक्षोष्णा कफवातनुत् । पित्तलाम्ला ग्रहण्यर्शःकुष्टातीसारनाशिनी ॥२५॥ चुक्रिका स्यात्तु पत्राम्ला रोचनी शतवेधिनी। चुका त्वम्लतरा स्वाद्वी वातघ्नी कफपित्तत् ॥ २६ ॥ रुच्या लघुतरा पाके वृन्ताके नातिरोचनी। चिञ्चा चञ्चुश्चञ्चुकी च दीर्घपत्रा सतिक्तका ॥ २७ ॥ चुञ्चुः शीता सरा रुच्या स्वाही दोषत्रयापहा । धातुपुष्टिकरी बल्या मेध्या पिच्छिलका स्मृता ॥ २८॥ ब्राह्मी शङ्खधरा चारी ब्राह्मी च हिलमोचिका । शोथं कुष्ठं कर्फ पित्तं हरते हिलमोचिका ॥ २९ ॥ शितवारः शितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः । श्रीवारकः सूचिपत्रः पणीकः कुक्कुटः शिखी ॥ ३०॥ चांगेरीसदृशः पत्रैश्चतुर्दल इतीरितः। शाको जलान्विते देशे चतुःपत्रीति चोच्यते ॥ ३१ ॥ सुनिषण्णो हिमो ग्राही मोहदोषत्रयापहः । अविदाही लघुः स्वादुः कषायो रूक्षदीपनः ॥ ३२ ॥ वृष्यो रुच्यो ज्वरश्वासमेहकुष्ठभ्रमप्रणुत् । टीका-अथ चाङ्गेरी यह चूकका भेदहै चांगेरी चुक्रिका दन्तशठा अम्बष्ठा अम्ललोणिका यह चंगेरीके नामहैं और अश्मन्तक शफरी पिसली अम्लपत्रक यहभी उस्के नामहैं ॥ २४ ॥ चांगेरी दीपनी रुचिकों करनेवाली रूखी उष्ण कफवातकों हरती पित्तकों करनेवाली है खट्टी होतीहै और संग्रहणी बवासीर कुष्ठ अतीसार इनकों हरती है ॥ २५ ॥ चुत्रिका पत्राम्ला रोचनी शतवेधिनी यह चूकके For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्ग: । २३१ नामहैं चूक बहुत खट्टी मधुर कफपित्तकों करनेवाली ॥ २६ ॥ रुचिकों करनेवाली पाक में बहुत हलकी बैंगन में बहुत रुचिकों करनेवाली नहीं होती चिञ्चा चञ्चु चंचुकी दीर्घपत्रा सतिक्ता यह चावुनाके नाम हैं || २७ || चावुना शीतल सर रुचिकों करनेवाला मधुर तीनों दोषोंकों हरता है धातुपुष्ट करनेवाला बलकों करनेवाला का - न्तिकों करनेवाला पिच्छिल कहा है || २८ ॥ ब्राह्मी शंखधरा चारी ब्राह्मी हिलमोचिका यह हुरहुर के नाम हैं हुरहुर सूजन कुष्ठ कफ पित्त इनकों हरता है ॥ २९ ॥ शितिवार शितिवर स्वस्तिक सुनिषण्णक श्रीवारक सूचिपत्र पणीक कुक्कुट शिखी यह शिरिआरीके नाम हैं || ३० ॥ यह चंगेरीके समान पत्र चौपत्ती कहागया है यह साग जलान्वित देश में चौपत्ती ऐसा कहते हैं ॥ ३१ ॥ शिरिआरी शीतल काविज होती है और मोह तथा तीनों दोष इनकों हरती है और अविदाही हलकी मधुर कसेली रूखी दीपन है ॥ ३२ ॥ और शुक्रकों करनेवाली और रुचिकों करनेवाली हैं और ज्वर श्वास प्रमेह कुष्ट भ्रम इनको हरती है || अथ मूलकयवानीचवकसे हुण्डनामगुणाः. पाचनं लघु रुच्योष्णं पत्रं मूलकजं नवम् । स्नेहसिद्धं त्रिदोषनं प्रसिद्धं कफपित्तकृत् ॥ ३३ ॥ द्रोणपुष्पीदलं स्वादु रूक्षं गुरु च पित्तकृत् । भेदनं कामलाशोथमे हज्वरहरं कटु ॥ ३४ ॥ यवानीशाकमाग्नेयं रुच्यं वातकफप्रणुत् । उष्णं कटु च तिक्तं च पित्तलं लघु शूलहृत् ॥ ३५ ॥ दनपत्रं दोषघ्नमम्लं वातकफापहम् । कण्डूकासक्रमिश्वासदद्रुकुष्ठप्रणुलघु ॥ ३६ ॥ सेहुण्डस्य दलं तीक्ष्णं दीपनं रोचनं हरेत् । आध्मानाष्ठीलिका गुल्मशूलशोथोदराणि च ॥ ३७ ॥ टीका - नयेमूली के पत्ते पाचन हलके रुचिकों करनेवाले उष्ण होतेहैं और चिकनाई में सिद्ध किये हुवे त्रिदोषनाशक और कच्चे कफपित्तकों करनेवाले हैं ॥ ३३ ॥ गुम्माका पत्र मधुर रूखा भारी पित्तकों करनेवाला है और भेदन कामला सूजन मेह ज्वर इनकों हरता कडुहै || ३४ || अजवाइनका साग गरम रुचिकों करनेवाला For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ हरीतक्यादिनिघंटे वातकफकों हरताहै और उष्ण कटु तिक्त पित्तकों करनेवाला है हलका और शूलकों हरनेवाला है ॥ ३५ ॥ चकवडका पत्र दोषहरता खट्टा और वात कफकों हरता है और खुजली कास कृमि श्वास दाद कंडू इनको हरता है ॥ ३६ ॥ सेहुंडकेपत्ते तीखे दीपन रोचन होतेहैं और आध्मान अष्ठीला वायगोला शूल मूजन और उदररोग इनको हरताहै ॥ ३७॥ अथ पर्पटगोजिव्हपटोलगुडूचीकासमर्दगुणाः. पर्पटो हन्ति पित्तास्त्रज्वरतृष्णाकफभ्रमान् । संग्राही शीतलस्तिक्तो दाहनुद्वातलो लघुः ॥ ३८ ॥ गोजिह्वा कुष्ठमेहास्त्रकच्छ्रज्वरहरो लघुः । पटोलपत्रं पित्तघ्नं दीपनं पाचनं लघु ॥ ३९ ॥ स्निग्धं वृष्यं तथोष्णं च ज्वरकासमिप्रणुत् । गुडूचीपत्रमाग्नेयं सर्वज्वदरं हरं लघु। कषायं कटु तिक्तं च स्वादुपाकं रसायनम् ॥ ४०॥ बल्यमुष्णं च संग्राहि हन्यादोषत्रयं तृषाम् । दाहप्रमेहवातामुक्कामलाकुष्ठपाण्डुताम् ॥ ४१ ॥ कासमर्दोऽरिमर्दश्च कासारिः कर्कशस्तथा । कासमर्ददलं रुच्यं वृष्यं कासविषास्त्रनुत् ॥ ४२ ॥ मधुरं कफवातघ्नं पाचनं कण्ठशोधनम् । विशेषतः कासहरं पित्तघ्नं ग्राहकं लघु ॥ ४३ ॥ टीका-पित्तपापडा रक्तपित्त ज्वर तृषा कफ भ्रम इनकों हरताहै और का. विज शीतल तिक्त दाह इनकों हरता वातकों करनेवाला हलका होताहै ।। ३८ ॥ गोभी कोढ प्रमेह रक्त मूत्रकृच्छ्र ज्वर इनकों हरती हलकी चिकनी शुक्रकों करनेवाली ॥ ३९॥ तथा उष्ण ज्वर कास कृमि इनकों हरती कहीगईहै गिलोयके पत्र गरम सबज्वरको हरते हलके कसैले कडवे तिक्त पाकमें मधुर रसायन ॥ ४०॥ब. लकों करनेवाले उष्ण काविज होतेहैं और तीनोंदोष तथा तृषा इनकों हरतेहैं और दाह प्रमेह वातरक्त कामला कुष्ठ पाण्डुरोग इनकोंभी हरतेहैं ॥ ४१ ॥ कासमर्द अ For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः । २३३ रिमर्द कासार तथा कर्कश यह कसौंदीके नाम हैं कसौंदीके पत्र रुचिकों करनेवाले शुक्रकों करनेवाले और कास विष रक्त इनकों हरते हैं || ४२ || और मधुर कफ वातकों हरता पाचन कण्ठके शोधन है विशेषकरके कास हरता पित्तकोंभी हरता है और काविज हलके हैं ॥ ४३ ॥ अथ चणककलायसर्षप. रुच्यं चणकशाकं स्याद्दुर्जरं कफवातकृत् । अम्लं विष्टम्भजनकं पित्तद्दन्तशोथहृत् ॥ ४४ ॥ कला शाकं भेदि स्याल्लघु तिक्तं त्रिदोषजित् । कटुकं सार्षपं शाकं बहुमूत्रमलं गुरु ॥ ४५ ॥ अम्लपार्क विदाहि स्यादुष्णं रूक्षं त्रिदोषजित् । सक्षारं लवणं तीक्ष्णं स्वादु शाकेषु निन्दितम् ॥ ४६ ॥ टीका - चनेका साग रुचिकों करनेवाला है और दुर्जर कफवातकों करने - वाला और खट्टा विष्टंभ करनेवाला पित्त हरता दांतोंकी सूजनकों दूर करनेवाला है || ४४ || मटरका साग भेदन करनेवाला हलका तिक्त त्रिदोषकों हरनेवाला है सरसोंका साग कडवा बहुत मूत्र मलकों करनेवाला भारी || ४५ ॥ पाकमें अम्ल विदाही उष्ण रूखा त्रिदोषकों हरनेवाला है क्षारके सहित नमकीन तीखी मधुर और सागोंमें निन्दित है ॥ ४६ ॥ अथ अगस्तिपुष्पकदलीपुष्पशिग्रुपुष्पशाम्लली पुष्पगुणाः. अगस्तिकुसुमं शीतं चातुर्थकनिवारणम् । नक्तान्ध्यनाशनं तिक्कं कषायं कटुपाकि च ॥ ४७ ॥ पीनसश्लेष्मपित्तघ्नं वातघ्नं मुनिभिर्मतम् । कदल्याः कुसुमं स्निग्धं मधुरं तुवरं गुरु ॥ ४८ ॥ वातपित्तहरं शीतं रक्तपित्तक्षयप्रणुत् । शिग्रोः पुष्पं तु कटुकं तीक्ष्णोष्णं स्नायुशोधकृत् ॥ ४९ ॥ asarai विद्रधिप्लीहगुल्मजित् । मधुशियोस्त्वक्षिहितं रक्तपित्तप्रसादनम् ॥ ५० ॥ For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे शाल्मलीपुष्पशाकं तु घृतसैन्धवसाधितम् । प्रदरं नाशयत्येव दुःसाध्यं च नसंशयः ॥ ५१ ॥ रसे पाके च मधुरं कषायं शीतलं गुरु । कफपित्तास्रजिद्राहि वातलं च प्रकीर्तितम् ॥ ५२ ॥ टीका - अब पुष्पशाकोंकों कहते हैं उन्में अगस्तिके फूलका गुण कहते हैं अगftaar फूल शीतल और चौथैयाको हरनेवाला है और रतौंधीकों हरता तिक्त कसैला पाकमें कटु कहा है || ४७|| और पीनस कफ पित्तकों हरता वातहरता है ऐसा मुनियोंनें कहा है केले का फूल चिकना मधुर कसैला भारी ॥ ४८ ॥ वातपित्तकों हरता शीतल और रक्त पित्त क्षय इनकों हरता है सोहांजनेका फूल कडुवा तिखा उष्ण स्नायु शोथकों करनेवाला ।। ४९ ।। कृमिकों हरता कफवातकों हरता और विद्रधि पिलही वायगोला इनकों हरनेवाला है लाल संहिजना नेत्र केहित रक्तपित्तकों अच्छा करनेवाला है || ५० || सेमलके फूलका साग घृत सैन्धवसें सिद्ध कियाहुवा कष्टसाध्य प्रदरक भी हरता है इसमें कोई संदेह नहीं ॥ ५१ ॥ रस और पाकमें कटु मधुर कसैला शीतल भारी होता है और कफ रक्तपित्त इनकों हरनेवाला है ॥ ५२ ॥ अथ अलाबूकटुतुंतीकर्कटीराणाः. कूष्माण्डं स्यात्पुष्पफलं पीतपुष्पं बृहत्फलम् । कूष्माण्डं बृंहणं वृष्यं गुरु पित्तास्रवातनुत् ॥ ५३ ॥ वालं पित्तापहं शीतं मध्यमं कफकारकम् । वृद्धं नातिहिमं स्वादु सक्षारं दीपनं लघु ॥ ५४ ॥ वस्तिशुद्धिकरं चेतोरोगहृत्सर्वदोषजित् । कूष्माण्डी तु भृशं लघ्वी कर्कारुरपि कीर्तितम् | कर्करुग्रहिणी शीता रक्तपित्तहरा गुरुः ॥ ५५ ॥ पक्का तिक्ताग्निजननी सक्षारा कफवातनुत् | अलाबूः कथिता तुम्बी द्विधा दीर्घा च वर्तुला ॥ ५६ ॥ मिष्टतुम्बीदलं हृद्यं पित्तश्लेष्मापहं गुरु । वृष्यं रुचिकरं प्रोक्तं धातुपुष्टिविवर्धनम् ॥ ५७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३५ शाकवर्गः। इक्ष्वाकुः कटुतुंबी स्यात्सा तुम्बी च महाफला । कटुतुम्बी हिमा हृद्या पित्तकासविषापहा ॥ ५८ ॥ तिक्ता कटुर्विपाके च वातपित्तज्वरान्तकत् । एर्वारुः कर्कटी प्रोक्ता कथ्यन्ते तद्गुणा अथ ॥ ५९ ॥ कर्कटी शीतला रूक्षा ग्राहिणी मधुरा गुरुः। रुच्या पित्तहरा सामा पक्का तृष्णाग्निपित्तहत् ॥ ६॥ टीका-फलशाक उनमें पेठेके नाम और गुण कहतेहै कूष्माण्डका पुष्प और फल पीतपुष्प बृहत्फल यह पेठेके नाम, पेठा पुष्ट शुक्रकों करनेवाला भारी रक्त पित्त और वात इनकों हरताहै ॥ ५३ ॥ छोटा पित्तहरता और शीतल होताहै और मध्यम कफ करनेवाला तथा बडा बहुत शीतल नहीं होता और मधुर क्षारके सहित दीपन हलका ॥ ५४ ॥ बस्तिकों शुद्ध करनेवाला मानसिक रोगोंकों हरता और सब दोषोंकों हरनेवाला है छोटा पेठा बहुत हलका होताहै और इस्कों कर्कारुभी कहतेहैं छोटा पेठा काविज शीतल रक्तपित्तकों हरता और भारी होताहै ५५ पक्का तिक्त अग्निकों करनेवाला क्षारकेसहित कफवातकों हरताहै अलाबू तुम्बी यह लोकीके नामहैं यह दोपकारकी होतीहै लंबी और गोल ॥ ५६ ॥ मीठी तुम्बीके पत्र हृद्य पित्तकफकों हरते भारी होतेहैं और शुक्रकों करनेवाला रुचिकर धातुपुष्टिको बढानेवाला है ॥ ५७ ॥ इक्ष्वाकु कटुतुम्बी यह तिलोकीके नाम, वोह बडे फूलवाली होतीहै कडवी तुम्बी शीतल हृद्य पित्त कास विष इनकों हरताहै ॥५०॥ तिक्त विपाकमें कटु होतीहै और वात पित्त ज्वर इनकों हरतीहै ॥ ५९॥ एर्वारु कर्कटी यह काकडीके नामहैं अब उस्के गुण कहतेहैं कडवी रूखी शीतल काविज मधुर भारी रुचिकों करनेवाली पित्तहरती कच्ची होतीहै और पकीहुई तृषा अग्नि पित्त इनकों करनेवालीहै ।। ६० ।। अथ चिचिण्डाकारवेल्लमहाकोशातकीधामार्गवगुणाः. जिचिण्डः श्वेतराजिः स्यात्सुदीर्घो गृहकूलकः । चिचिण्डो वातपित्तनो बल्यः पथ्यो रुचिप्रदः ॥ ६१ ॥ शोषिणोऽतिहितः किञ्चिद्गुणै!नः पटोलतः । कारवेल्लं कठिल्लं स्यात्कारवेल्ली ततो लघुः ॥ ६२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ हरीतक्यादिनिघंटे कारवेल्लं हिमं भेदि लघु तिक्तमवातलम् । ज्वरपित्तकफास्त्रघ्नं पाण्डुमेहकमीन्हरेत् ॥ ६३ ॥ तद्गुणा कारवेल्ली स्याविशेषाद्दीपनी लघुः । महाकेशातकी प्रोक्ता सैव हस्तिमहाफला ॥६४॥ धामार्गवो घोषकश्च हस्तिपर्णश्च स स्मृतः । महाकेशातकी स्निग्धा रक्तपित्तानिलापहा ॥ ६५ ॥ धामार्गवः पीतपुष्पो जातिनी कृतवेधना। राजकेशातकी चेति तथोक्ता राजिमत्फला ॥ ६६ ॥ राजकेशातकी शीता मधुरा कफवातला। पित्तघ्नी दीपनी श्वासज्वरकासहमिप्रणुत् ॥ ६७ ॥ टीका-चिचेंडा श्वेतराजि मुदीर्घ गृहकूलक येह चिचिंडेके नाम, चिचिंडा वातपित्तको हरता बलके हित पथ्य रुचिकों देनेवालाहै ॥ ६१॥ मुकानेवाले अतिहित और पखलसें कुष्ठ एक गुणमें न्यून होताहै कारवेल्ल कठिल्ल येह करेलेके नाम हैं और करेली उस्से छोटी होतीहै ॥ ६२॥ करेला शीतल भेदन करनेवाला हलका तिक्त वातकों करनेवालाहै और ज्वर पित्त कफ रक्त इनको हरताहै और पाण्डुरोग प्रमेह कृमि इनको हरताहै ॥ ६३ ॥ करेली उसीके समान गुणमें होतीहै विशेषकरके दीपन हलकी है महाकेशातकी हस्तिघोपा महाफला धामार्गव घोष हस्तिपर्ण यह घियातोरेके नामहैं ॥ ६४ ॥ घियातोरै चिकनी रक्त पित्त वात इनकों हरतीहै ॥६५॥ धामार्गव पीतपुष्प जालिनी कृतवेधना राजकेशातकी यह तोरईके नामहैं तथा लकीरोंसे युक्त फल होताहै ॥६६॥ तुरई शीतल मधुर कफवातकों करनेवाली पित्तनाशक दीपन होतीहै और श्वास कास ज्वर कृमि इनकों हरतीहै ।। ६७ ॥ अथ पटोलबिंबीनामगुणाः. पटोलः कूलकस्तिक्तः पाण्डुकः कर्कशच्छदः । राजीफलः पाण्डुफलो राजेयश्चामृताफलः ॥ ६८॥ बीजगर्भः प्रतीकश्च कुष्ठहा कासभञ्जनः । पटोलं पाचनं हृद्यं वृष्यं लघ्वग्निदीपनम् ॥ ६९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः। २३७ स्निग्धोष्णं हन्ति कासास्त्रज्वरदोषत्रयकमीन् । पटोलस्य भवेन्मूलं विरेचनकरं सुखात् ॥ ७॥ नालं श्लेष्महरं पत्रं पित्तहारि फलं पुनः । दोषत्रयहरं प्रोक्तं तदत्तिक्ता पटोलिका ॥ ७१ ॥ बिम्बी रक्तफला तुण्डी तुण्डकेरी च बिम्बिका। ओष्ठोपमफला प्रोक्ता पीलुपर्णी च कथ्यते ॥ ७२ ॥ बिम्बीफलं स्वादु शीतं गुरु पित्तास्त्रवातजित् । स्तम्भनं लेखनं रुज्यं विबन्धाध्मानकारकम् ॥ ७३ ॥ टीका-पटोल कूलक तिक्त पाण्डुक कर्कशच्छद राजीफल पाण्डुफल राजेय अमृताफल ॥ ६८ ॥ बीजगर्भ प्रतीक कुष्ठहा कासभञ्जन यह परवलके नाम, परवल पाचन हृद्य शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला हलका अग्निदीपन ॥ ६९॥ चिकना उष्णहै और कास श्वास ज्वर तीनों दोष कृमि इनको हरताहै पखलकी जड सुखसे विरेचन करनेवाली है ॥ ७० ॥ नाल कफहरता पत्र पित्तहरता और फल त्रिदोष हरता कहाहै उसीप्रकार तिक्त पटोलिका है ॥ ७१ ॥ बिम्बी रक्तफला तुण्डिकेरी विम्बिका ओष्ठोपमफला पीलुपी यह कुन्दुरूके नामहैं ॥ ७२ ॥ कुन्दुरुफल मधुर शीतल भारी रक्त पित्त वात इनको हरनेवाला है स्तंभन लेखन रुचिकों करनेवाला विबन्ध और आध्मान करनेवाला है ॥ ७३ ॥ अथ शिंबीसौभांजनठंताकगुणाः. शिम्बिः शिम्बी पुस्तशिम्बी तथा पुस्तकशिम्बिका। शिम्बीद्वयं च मधुरं रसे पाके हिमं गुरु ॥ ७४ ॥ बल्यं दाहकरं प्रोक्तं श्लेष्मलं वातपित्तजित् । कोलशिम्बिः कृष्णफला तथा पर्यङ्कपट्टिका ॥ ७५॥ कोलशिम्बिः समीरनी गुर्युष्णा कफपित्तरुत् । शुक्राग्निसादकत्प्रोक्तो रुचिदा बद्धविड्गुरुः ॥ ७६ ॥ सौभांजनफलं स्वादु कषायं कफपित्तनुत् । . For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे शूलकुष्ठक्षयश्वासगुल्महद्दीपनं परम् ॥ ७७॥ वृन्ताकं स्त्री तु वार्ताकुर्भण्टाकी भाण्टिकापि च । वृन्ताकं स्वादु तीक्ष्णोष्णं कटुपाकमपित्तलम् ॥ ७८ ॥ ज्वरवातबलासघ्नं दीपनं शुक्रलं लघु । तद्वालं कफपिसुघ्नं वृद्ध पित्तकरं लघु ॥७९॥ तृन्ताकं पित्तलं किञ्चिदङ्गारपरिपाचितम् । कफमेदोनिलामनमत्यर्थं लघु दीपनम् ॥ ८० ॥ तदेव च गुरु स्निग्धं सतैलं लवणान्वितम् । अपरं श्वेतवन्ताकं कुक्कुटाण्डसमं भवेत् ॥ ८१ ॥ तदर्शःसु विशेषेण हितं हीनं च पूर्ववत् । टीका-शिम्बि शिम्बी पुस्तशिम्बी तथा पुस्तकशिम्बिका यह सैमके नाम हैं दोनों सैम मधुर रस और पाकमें और शीतल भारी है । ७४ ॥ बलके हित दाहकर कफकों करनेवाले और वातपित्तको हरनेवाले है सुवरासैम इसकों आलकुशीभी कहतेहैं ॥ ७५ ॥ कालशिम्बी कृष्णफला तथा पर्यङ्कपट्टिका यह आलकुशीके नाम, आलकुशी वातहरती भारी उष्ण कफपित्तकों करनेवाली है और शुक्र अग्निमान्य इनकों करनेवाली शुक्रकों करनेवाली रुचिकों करनेवाली मलकों बांधनेवाली भारी है ॥ ७६ ॥ सहिजनेका फल मधुर कसेला कफपित्तकों हरताहै और शूल कुष्ठ क्षय श्वास वायगोला इनकों हरता और और अत्यंत दीपन है ॥ ७७ ॥ वृन्ताक वारीक भंटाकी भाण्टिका यह बैंगनके नाम, बैंगन मधुर तीखा उष्ण पाकमें कटु और पित्तकों न करनेवाला है ॥ ७८॥ और ज्वर वात कफ इनकों हरताहै दीपन शुक्रकों करनेवाला हलका है वैसेही कच्चा कफ पित्तको हरता और बडा पित्तकों करनेवाला हलका होताहै ॥ ७९ ॥ अंगारेपर पकाहुवा कुछक पित्तकों करनेवाला है और कफ मेद वात आम इनकों हरता अत्यन्त दीपन हलका है ॥ ८०॥ वोही भारी चिकना तेल और लवणके युक्त होता है दूसरा सफेद बैंगन मुरगेके अण्डेके समान होताहै ॥ ८१ ॥ वह बवासीरमें विशेषकरके हितहै और पूर्ववत् हीनभीहै. अथ डिण्डिशपिण्डारकर्कोटकीविषमुष्टिकंटकारीगुणाः, डिण्डिशो रोमशफलो मुनिनिर्मित इत्यपि ॥८२॥ For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः। डिण्डिशो रुचिकद्भेदी पित्तश्लेष्मापहः स्मृतः। सुशीतो वातलो रूक्षो मूत्रलश्वाश्मरीहरः ॥ ८३॥ पिण्डारं शीतलं बल्यं पित्तघ्नं रुचिकारकम् । पाके लघु विशेषेण विषशान्तिकरं स्मृतम् ॥ ८४॥ कर्कोटी पीतपुष्पा च महाजालीति चोच्यते । कर्कोटी मलहत्कुष्ठहल्लासारुचिनाशिनी ॥ ८५॥ श्वासकासज्वरान्हन्ति कटुपाका च दीपनी। डोडिका विषमुष्टिश्च डोडीत्यपि सुमुष्टिका ॥८६॥ डोडिका पुष्टिदा वृष्या रुच्या वह्निप्रदा लघुः । हन्ति पित्तकफाऑसि कमिगुल्मविषामयान् ॥ ८७ ॥ कण्टकारीफलं तिक्तं कटुकं दीपनं लघु । रूक्षोष्णं श्वासकासघ्नं ज्वरानिलकफापहम् ॥ ८८॥ तीक्ष्णोष्णं सार्षपं नालं वातश्लेष्मव्रणापहम् । कण्डूवमिहरं दद्रूकुष्ठघ्नं रुचिकारकम् ॥ ८९ ॥ टीका-डिंडिश रोमशफल मुनिनिर्मित यह टिठेके नामहैं ॥ ८२ ॥ टिढा रु. चिकों करनेवाला भेदन पित्तकफकों हरता कहाहै और शीतल वातकों करनेवाला रूखा मूत्रको करनेवाला अश्मरी हरताहै ॥ ८३ ॥ पिंडार शीतल बलकों करनेवाला पित्तहरता रुचिकों करनेवाला पाकमें हलका और विशेषकरके विषकी शान्तिकों करनेवाला कहाहै ॥ ८४ ॥ कर्कोटकी पीतपुष्पा महाजाली यह खेखसेके नाम, खेखसा मलकों हरता और कुष्ठ हल्लास अरुचि इनकों हरताहै ॥ ८५॥ और श्वास कास ज्वर इनकों हरता है तथा पाकमें कडवा दीपन है डोडिका विषमुष्टि डोडी सुमुष्टिका ॥ ८६ ॥ यह करेरुआके नाम, करेरुआ पुष्टि करनेवाली अग्निदीपन हलकी होतीहै और पित्त कफ ववासीर कृमि वायगोला विषरोग इनकों हरतीहै ॥ ८७ ॥ कठेरीका फल तिक्त कटु दीपन हलका रूखा उष्ण है और श्वास कास इनकों हरता तथा ज्वर वात कफ इनकों हरताहै ॥ ८८ ॥ उनमें सरसोंका नाल तीखा गरम होताहै और वात व्रण कफ इनकों हरताहै और खुजली वमन इनकों हरता तथा दाद कुष्ठ खुजली इनकों हरता तथा रुचिकों करनेवालाहै ॥८॥ For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० २४० हरीतक्यादिनिघंटे अथ सूरणस्यआलुककंदस्यनामानिगुणाश्च, सूरणः कन्दओलश्च कन्दलोऽशोघ्न इत्यपि। सूरणो दीपनो रूक्षः कषायः कण्डुकृत्कटुः ॥ ९० ॥ विष्टम्भी विशदो रुच्यः कफाकन्तनो लघुः। विशेषादर्शसे पथ्यः प्लीहागुल्मविनाशनः ॥ ९१ ॥ सर्वेषां कन्दशाकानां सूरणः श्रेष्ठ उच्यते । दद्दूणां रक्तपित्तिनां कुष्ठिनां न हितो हि सः ॥ ९२ ॥ सन्धानयोगं सम्प्राप्तः सूरणो गुणवत्तरः। आरुकमप्यालूकं तत्कथितं वीरसेनश्च ॥ ९३ ॥ काष्ठालुकशंखालुकहस्त्यालुकानि कथ्यन्ते । पिण्डालुकसप्तालुकरक्ताद्यकानि चोक्तानि ॥ ९४ ॥ आलुकं शीतलं सर्वं विष्टम्भि मधुरं गुरु । सृष्टमूत्रमलं रूक्षं दुर्जरं रक्तपित्तनुत् ॥ ९५ ॥ कफानिलकरं वल्यं वृष्यं स्वल्पाग्निवर्धनम् । रक्तालुभेदे पटिका तन्वी च प्रथिताल्लुकी ॥ ९६ ॥ आलुकी बलकस्निग्धा गुर्वी हत्कफनाशिनी । विष्टम्भकारिणी तैले तलितातिरुचिप्रदा ॥ ९७ ॥ ठीका-उनमें सूरनके नाम और गुण सूरणकन्द अलुकन्द अर्शोघ्न यह सूरनके नाम हैं सूरन दीपन रूखा कसेला खाज करनेवाला कटु होताहै ॥ ९० ॥ और विष्टम्भ करनेवाला विशद रुचिकों करनेवाला कफ बवासीरकों हरता और हलकाहै विशेषकरके बवासीरमें पथ्यहै और पिलही वायगोला इनकों हरताहै ॥ ९१॥ सब कन्दशाकोंमें सूरण श्रेष्ठ कहाहै दादवाले और रक्तपित्तवाले तथा कुष्टवाले इनकों वोह हितहै ॥ ९२ ॥ सन्धान योगमें प्राप्त हुवा सुरण अधिक गुणवाला होताहै आरुक आलूक यह आलूके नाम, वीरसेननेभी कठियाआलु संखालु हस्त्यालु कहेहैं ॥ ९३ ॥ पिंडीलू सप्तालुक रक्तालु यह कहाहै काष्ठालुक काठिन्ययुक्त कढारु शङ्खालक श्वेततायुक्त शङ्खारु हस्त्यालक दीर्घतायुक्त बडा पिंडालु गोल सुथनी स For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः। २४१ तालुक मधुरतायुक्त रोमोंकरकेयुक्त लंबी सुथनी होतीहै ॥ ९४ ॥ रक्तालू अर्थात् शकरकन्द सब आलू शीतल विष्टम्भ करनेवाले मधुर भारी मलमूत्रकों करनेवाले रूखे दुर्जर रक्तपित्तकों हरतेहैं ॥ ९५ ॥ कफवातकों करनेवाले बलकेहित शुक्रकों करनेवाले अल्प अग्निकों बढानेवाले हैं अथ अरुई रक्तालुका भेद छीलनेमें पतला छिलका होताहै वोह अरुईहै । ९६ ॥ अरुई बलकों करनेवाली चिकनी और भारी हृदयके कफकों हरतीहै तेलमें भुनीहुई विष्टम्भ करनेवाली और रुचिकों देनेवाली है ॥ ९७ ॥ अथ मूलकरंजनकदलीवाराहीगुणाः. मूलकं द्विविधं प्रोक्तं तत्रैकं लघु मूलकम् । शालमर्कटकं विस्त्रं शालेयं मरुसम्भवम् ॥ ९८॥ चाणक्यं मूलकं तीक्ष्णं तथा मूलकपोतिका । नेपालमूलकं चान्यत्तद्भवेद्गजदन्तवत् ॥ ९९ ॥ लघुमूलं कटूष्णं स्याद्रुच्यं लघु च पाचनम् । दोषत्रयहरं स्वयं ज्वरश्वासविनाशनम् ॥ १० ॥ नासिकाकण्ठरोगनं नयनामयनाशनम् । महत्तदेव रूक्षोष्णं गुरु दोषत्रयप्रदम् ॥ १०१॥ स्नेहसिद्धं तदेव स्याद्दोषत्रयविनाशनम् । गाजरं गृञ्जनं प्रोक्तं तथा नारङ्गवर्णकम् ॥ १०२॥ गाजरं मधुरं तीक्ष्णं तिक्तोष्णं दीपनं लघु । संग्राहि रक्तपित्तामॆग्रहणीकफवातजित् ॥ १०३॥ शीतलः कदलीकन्दो बल्यः केश्योऽम्लपित्तजित् । वह्निकद्दाहहारी च मधुरो रुचिकारकः ॥ १०४ ॥ मानकः स्यान्महापत्रः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ। मानकः शोथहृच्छीतः पित्तरक्तहरो लघुः॥ १०५॥ वाराही पित्तला बल्या कट्टी तिक्ता रसायनी । आयुःशुक्राग्निकन्मेहकफकुष्ठानिलापहा ॥ १०६॥ For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - मूली दोप्रकारकी कही है उसमें एक छोटी मूली शालमर्कटक विस्र शालेय मरुसंभव ॥ ९८ ॥ चाणक्य मूलक तीक्ष्ण तथा मूलकपोतिका यह मूलीके नाम हैं और दूसरी नैपाली मूली तथा उसका भेद हाथी के दांतके समान होती है ९९ छोटी मूली कडवी गरम होती है और रुचिकों करनेवाली हलकी पाचन होती है और तीनों दोषोंकों हरती स्वरकों अच्छा करनेवाली और ज्वर श्वासकों हरती है १०० और नासिकारोग तथा कण्ठरोग इनकों हरती है और नेत्ररोगकों हरती है वोही बडी रूखी गरम भारी तीनों दोषोंकों छेदनेवाली है ॥ १०१ ॥ स्नेहसिद्ध वोही तीनों दोषोंकों हरती है गाजर गुंजन नारंगवर्णक यह गाजर के नाम हैं ।। १०२ ॥ गाजर मधुर तीखा उष्ण दीपन हलका होता है और काविज रक्त पित्त ववासीर संग्रहणी कफवात इनकों हरनेवाला है ॥ १०३ ॥ केलाका कन्द शीतल वलकों देनेवाला केशके हित अम्लपित्तकों हरनेवाला अग्निदीपन दाहकों हरता मधुर रुचिकों करनेवाला है || १०४ ॥ अथ मानकंद मानक महापत्र होते हैं अब इस्के गुण कहते हैं मानकंद शोथकों हरता शीतल पित्तरक्तकों हरता हलका होता है १०५ इस्कों ठोंठी इसप्रकार लोकमें कहतेहैं वाराहीकन्द पित्तकों करनेवाला बलकेहित कडवा तिक्त रसायन और आयु शुक्रकों और अग्निकों करनेवाला और प्रमेह कफ कुष्ठ वात इनकों हरता है ॥ १०६ ॥ अथ हस्तिकर्णामुककसेरुगुणाः. गजकर्णा तु तिक्तोष्णा तथा वातकफान्जयेत् । शीतज्वरहरी स्वादुः पाके तस्यास्तु कन्दकः ॥ १०७॥ पाण्डुशोथकमिप्लीहगुल्मानाहोदरापहः । ग्रहण्यशविकारघ्नो वनसूरणकन्दवत् ॥ १०८ ॥ केमुकं कटुकं पाके तिक्तं ग्राहि हिमं लघु । दीपनं पाचनं हृद्यं कफपित्तज्वरापहम् ॥ १०९ ॥ कुष्ठकासप्रमेहास्वनाशनं वातलं कटु । कसेरु द्विविधं तत्तु महद्राजकसेरुकम् ॥ ११० ॥ मुस्ताकतिर्लघु स्यायत्तच्चिचोढमिति स्मृतम् । कसेरुकद्वयं शीतं मधुरं तुवरं गुरु ॥ १११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकवर्गः । पित्तशोणितदाहनं नयनामयनाशनम् । ग्राहि शुक्रानिलश्लेष्मारुचिस्तन्यकरं स्मृतम् ॥ ११२ ॥ टीका - हस्तिकर्णी तिक्त उष्ण तथा वात कफ इनकों हरती है और शीतज्वरकों हरती पाकमें मधुर होती है उसका कन्द ॥ १०७ ॥ पाण्डुरोग सूजन कृमि toint वायगोला आनाह उदररोग इनकों हरता है और संग्रहणी ववासीर विकारकों हरता है यह वनसूरणके समान होता है ॥ १०८ ॥ केमुक कडवा पाकमें तिक्त काविज शीतल हलका होता है दीपन पाकमें हृद्य कफ पित्त ज्वर इनकों हरता है ॥ १०९ ॥ और कुष्ठ कास प्रमेह रक्त इनकों हरता वातकों करनेवाला कटु होता है कसेरु दोप्रकारका होताहै उसमें बडा राजकसेरुक ॥ ११० ॥ और मोथेके आकार छोटा जो होता है उस्कों चिचोड ऐसा कहा है दोनों कसेरू शीतल मधुर कसेले भारी ॥ १११ ॥ पित्त रक्त दाह इनकों हरता और नेत्ररोगोंकों हरता है काविज शुक्र वात कफ अरुचि दुग्ध इनकों करनेवाला कहाहै ॥ ११२ ॥ अथ पद्मादिकंदनामगुणाः. पद्मादिकन्दः शालूकं करहाटश्च कथ्यते । मृणालमूलं भिसाण्डं लज्जाशुकं च कथ्यते ॥ ११३ ॥ शालूकं शीतलं वृष्यं पित्तदाहास्त्रनुगुरु | 1 दुर्जरं स्वादुपाकं च स्तन्यानिलकफप्रदम् ॥ ११४॥ संग्राहि मधुरं रूक्षं भिसाण्डमपि तद्गुणम् । बालं नार्तवाजीर्णे व्याधितः क्रिमिभक्षितम् ॥ ११५ ॥ कन्दं विवर्जयेत्सर्वं यद्वाऽयादिविदूषितम् । अतिजीर्णमकालोत्थं रूक्षं सिद्धमदेशजम् ॥ ११६ ॥ कर्कशं कोमलं चाति शीतव्यालादिदूषितम् । संशुष्कं सकलं शाकं नाश्रीयान्मूलकं विना ॥ ११७॥ टीका - पद्म आदियोंके कन्दोंकों शालूक और करहाट कहते हैं मृणालमूल भिसाण्ड लज्जाशुक यहभी कमल ककडीके नाम हैं ॥ ११३ ॥ कमलककडी शीतल शुक्रकों करनेवाली पित्त दाह रक्त इनकी नाशक भारी है और दुर्जर पाकमें मधुर दुग्ध वात कफ इनकों करनेवाली है ॥ ११४ ॥ तथा काविज मधुर रूखी भिसा For Private and Personal Use Only २४३ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४४ हरीतक्यादिनिघंटे ण्डभी उसीके समान गुणमेंहै कच्चा अनार्तव अजीर्ण व्याधित कीडोंने खायाहुवा ॥११५ ॥ ऐसा सब कन्द त्यागदेवै अथवा जो अग्नि आदिसें दूषित बहुत जीर्ण वे मौसमका रूखा सिद्धकिया अदेशज ॥११६ ॥ अतिकर्कश अतिकोमल और शीतल सर्पआदिसें दूषित वहुत सूखाहुवा सब शाकमूलीके विना न सेवन करै ११७ अथ स्वदेशजशाकानि तेषां नामानि गुणाश्च. उक्तं संस्वेदजं शाकं भूमिछन्नं शिलीन्ध्रकम् । क्षितिगोमयकाष्ठेषु वृक्षादिषु तदुद्भवेत् ॥ ११८ ॥ सर्वे संस्वेदजाः शीता दोषलाः पिच्छिलाश्च ते। गुरवश्छद्यतीसारज्वरश्लेष्मामयप्रदाः ॥ ११९ ॥ श्वेतशुभ्रस्थलीकाष्ठवंशगोव्रणसंभवाः । नातिदोषकरास्ते स्युः शेषास्तेभ्यो विगर्हिताः ॥ १२०॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे शाकवर्गः समाप्तः । टीका-तेलआदिसें न सिद्धहुवा रूक्ष शुभस्थान हुवा अब संवेदज शाक उनके नाम और गुण कहतेहैं संस्वेदज शाक उसे कहतेहैं जो दवीपडीहुवी जमीनसें होताहै उसे शिलीन्ध्रक कहतेहैं पृथ्वी गोवर काष्ठ वृक्ष आदिमेंभी उत्पन्न होताहै उसे कुकुर मुसा कहतेहैं ॥११८ ।। सबसे स्वेदज शीतल दोषकों उत्पन्न करनेवाला पिच्छिल जो होतेहैं वे भारी होते हैं और वमन अतिसार ज्वर कफके रोग इनकों करनेवाले हैं ॥ ११९ ॥ श्वेत और शुभ्र बेवनी हुई जमीन काष्ठवास गोव्रण इनसे उत्पन्न अतिदोष करनेवाले नहींहैं बाकी उनसें निन्दितहैं संस्वेदज इस्कों छाता इसप्रकार लोकमें कहते हैं ॥ १२०॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे शाकवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे अथ मांसवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्र मांसस्य नामानि गुणाश्च. मांसं तु पिशितं क्रव्यमामिषं पललं पलम् । मांसं वातहरं सर्वं बृंहणं बलपुष्टिकृत् ॥ १ ॥ प्रीणनं गुरु हृद्यं च मधुरं रसपाकयोः । मांसवर्गों द्विधा ज्ञेयो जाङ्गलाऽनुपभेदतः ॥ २॥ मांसवर्गोऽव जगाला विलस्थाश्च गुहाशयाः । तथा पर्णमृगा ज्ञेया विष्किराः प्रतुदोऽपि च ॥ ३ ॥ प्रसहाश्चाप्यथ ग्राम्या अष्टौ जाङ्गलजातयः । जाङ्गला मधुरा रूक्षास्तुवरा लघवस्तथा ॥ ४ ॥ बल्यास्ते बृंहणा वृष्या दीपना दोषहारिणः । मूकतां मिन्मिनात्वं च गद्गदत्वार्दिते तथा ॥ ५॥ बाधिर्यमरुचिच्छर्दिप्रमेहं मुखजान्गदान् । श्लीपदं गलगण्डं च नाशयत्यनिलामयान् ॥ ६ ॥ कूलेचराः प्लवाश्वापि कोशस्थाः पादिनस्तथा । मत्स्या एते समाख्याताः पञ्चधाऽनूपजातयः ॥ ७ ॥ आनूपा मधुराः स्निग्धा गुरवो वह्निसादनाः । श्लेष्मलाः पिच्छलाश्चापि मांसपुष्टिप्रदा भृशम् ॥ ८ ॥ तथाभिष्यन्दिनस्ते हि प्रायः पथ्यतमाः स्मृताः । हरिणैण कुरङ्गयष्टषतन्यङ्कुसम्बराः ॥ ९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ हरीतक्यादिनिघंटे राजीवोऽपि च मुण्डी चेत्याद्या जङ्घालसंज्ञकाः। हरिणस्ताम्रवर्णः स्यादेणः कृष्णः प्रकीर्तितः ॥ १०॥ . टीका-मांसके नाम कहते हैं मांस पिशित क्रव्य आमिष पलल पल यह मांसके नाम हैं सव मांस वात हरते बृंहण बल पुष्टिको करनेवाले हैं ॥ १ ॥ और प्रीणन भारी हृद्य रस और पाकमेंभी मधुर अब उनके भेद कहतेहैं मांसवर्ग दोपकारका जानना चाहिये जाङ्गल और आनूप इन भेदोंसें ॥ २॥ उनमें जाङ्गलका लक्षण और गुण यहांपर मांसवर्ग जंगलमें रहनेवाले बिलमें रहनेवाले गुहामें रहनेवाले तथा पर्णमृग विष्किर और प्रतुद ॥३॥ प्रसह और ग्राम्य यह आठ मांसकी जातीहै जांगल मधुर रूखे कसेले तथा हलके ॥ ४ ॥ बलकों देनेवाले पुष्ट शुक्रकों उत्पन्न करनेवाले दीपन दोष हरते गृङ्गापन मिनमिनापन गद्गदता तथा अर्दित ५ बहिरापन अरुचि वमन प्रमेह मुखके रोग श्लीपद गलगंड और वातके रोग इनकों रहतेहैं ॥ ६ ॥ आनूपमांसका लक्षण और गुण कहतेहैं कूलेचर प्लव कोशस्थ पादिन तथा मत्स्य यह पांच प्रकारकी आनूपजाति कहींहै ॥ ७॥ आनूप मधुर चिकने भारी अग्निमान्द्य करनेवाला कफकारी पिच्छिल और अत्यन्त मांस पुष्टिकों करनेवालेहै ॥ ८ ॥ तथा अभिष्यन्दी और प्रायः पथ्यतम कहे हैं अनन्तर जांगलोंकी गणना और विशेष गुण हरिण कुरंग ऋष्य पृषत न्यंकु सम्बर ॥ ९॥ राजीव मुण्डी इत्यादि यह जाङ्गलनाम हरिणके भेदहैं लालरंगका हरिण और काला एण कहाहै ॥ १०॥ कुरङ्ग ईषत्ताम्रः स्यादेणतुल्याकतिर्महान् । ऋष्यो नीलाङ्गको लोके सरोह्य इति कीर्तितः॥ ११ ॥ पृषतश्चन्द्रबिन्दुः स्यादरिणात्किञ्चिदल्पकः । न्यकुर्बहुविषाणोऽथ शम्बरो गवयो महान् ॥ १२ ॥ राजीवस्तु मृगो ज्ञेयो राजीभिः परितो तृतः । यो मृगो भृङ्गहीनः स्यात्स मुण्डीति निगद्यते ॥ १३ ॥ जंघालाः प्रायशः सर्वे पित्तश्लेष्महराः स्मृताः। किञ्चिद्वातकराश्चापि लघवो बलवर्धनाः ॥ १४ ॥ टीका-कुछ एक लाल कुरंग होता है एणके समान अकृति बडा होता है नीलाङ्गक इस्को लोकमें सरोहि इसप्रकार कहाहै ॥ ११ ।। पृषत सफेद बुन्दकी For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः । २४७ वाला हरिणसें कुछ एक छोटा होता है बहुत सिङ्गवाला न्यंकु साबर महान् गवय होता है || १२ || जो मृग बहुतसी लकीरोंसें युक्त हो इस्कों राजीव मृग जानना चाहिये जो मृग बेसिङ्गका होता है उसको मुण्डी ऐसा कहते हैं ।। १३ ॥ सब प्रायः पित्तकफकों हरते कहेहैं अल्प वातकों करनेवाले हलके और बलकों बढानेवाले हैं ॥ १४ ॥ अथ बिलेशयानां गुहाशयानां च गुणाः. गोधाशशभुजङ्गाखुशलक्याद्या बिलेशयाः । बिलेशया वातहरा मधुरा रसपाकयोः ॥ १५ ॥ वृंहणा बद्धविण्मूला वीर्योष्णाश्च प्रकीर्त्तिताः । सिंहव्याघ्रवृका ऋक्षतरक्षुद्वीपिनस्तथा ॥ १६ ॥ बभ्रुजम्बूकमार्जारा इत्याद्याः स्युर्गुहाशयाः । स्थूलपुच्छो रक्तनेत्रो बभ्रुदेहः स नाकुलः ॥ १७ ॥ गुहाशया वातहरा गुरूष्णा मधुराश्च ते I स्निग्धा बल्या हिता नित्यं नेत्रामयविकारिणाम् ॥ १८ ॥ टीका – बिल में रहनेवालोंकी गणना और गुण कहते हैं गोह खरगोश साप चूहा साहि आदि यह बिलेशय हैं बिलेशय वात हरता और रसपाकमें मधुर है १५ तथा पुष्ट मलमूत्रकों बांधनेवाले और वीर्यमें उष्ण कहेहैं अब गुहाशयोंकी गणना और गुण शेरभेडिया रीछ तेन्दुवा वाघ चीता तथा ।। १६ ।। नउला गीदड बिलाव इत्यादि येह गुहाशय हैं तरक्षु हउहा इसप्रकार लोकमें कहते हैं चीता व्याघ्र इसप्रकार लोकमें कहते हैं मोटी पुच्छ लाल आंखों पिंगल शरीर वोह नेउला है || १७ ॥ गुहाशय वातहरता भारी उष्ण मधुर चिकने बलकों करनेवाले और सदा नेत्र लिंरोग वालोंकों हित है ॥ १८ ॥ वनौको वृक्षमार्जारो वृक्षमर्कटिकादयः । एते पर्णमृगाः प्रोक्ताः सुश्रुताद्यैर्महर्षिभिः ॥ १९ ॥ वनौकां वानरो वृक्षमार्जारो वृक्षविडालः । स्मृताः पर्णमृगा वृष्याश्चक्षुष्याः शोषिणे हिताः ॥ २०॥ For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ हरीतक्यादिनिघंटे श्वासार्शःकासशमनाः सृष्टमूत्रपुरीषिकाः। वर्तकालाववर्तारकपिञ्जलकतित्तिराः ॥ २१ ॥ कुलिङ्गकुक्कुटाद्याश्च विष्किराः समुदाहृताः। विकीर्य अक्षयन्त्येते यस्मात्तस्मादि विष्किराः ॥२२॥ कपिञ्जल इति प्राज्ञैः कथितो गौरतित्तिरिः। विष्किरा मधुराः शीताः कषायाः कटुपाकिनः ॥ २३॥ बल्या वृष्यास्त्रिदोषनाः पथ्यास्ते लघवः स्मृताः। टीका-चन्दर वृक्षमार्जार वृक्षमर्कटिका आदिक येह पर्णमृग सुश्रुतादि महर्षियोंने कहेहैं ॥ १९॥ वानर वृक्षबिडाल रूखी इसप्रकार लोकमें कहतेहैं पर्णमृग शुक्रकों करनेवाले नेत्रके शोषवालेको हित ॥ २० ॥ और श्वास ववासीर कास इनकों हरते मलमूत्रकों करनेवाले हैं अथ विष्किरोंकी गणना और गुण जंगली विडाल वातटेर सफेद तीतर ॥२१॥ चिडे मुरगा आदिक यह विष्किर कहेहैं जो छितराके खातेहै इसवास्ते वे विष्किर हैं ॥ २२ ॥ सुफेद तीतरकों बुद्धिवानोंने कपिञ्जल ऐसा कहाहै गवरैआ इसप्रकार लोकमें कहते हैं विष्किर मधुर शीतल कसेले पाकमें कटु ॥ २३ ॥ बलकों करनेवाले त्रिदोषहरते पथ्य और ये हलके हैं. अथ प्रतुदानां प्रसहानां च गुणाः. हरीतो धवलः पाण्डुश्चित्रपक्षो बृहच्छकः ॥ २४ ॥ पारावतः खञ्जरीटः पिकाद्याः प्रतुदाः स्मृताः। प्रतुद्य भक्षयन्त्येते तुण्डेन प्रतुदास्ततः ॥ २५ ॥ कपोतो धवलः पाण्डुः शतपत्रो बृहच्छकः । प्रतुदा मधुराः पित्तकफन्नास्तुवरा हिमाः ॥ २६ ॥ लघवो बद्धवर्चस्काः किञ्चिद्वातकराः स्मृताः। काको गृध्र उलूकश्च चिल्लश्च शशघातकः ॥ २७ ॥ चाषो भासश्च कुरर इत्याद्याः प्रसहाः स्मृताः। भासो गृध्रविशेषः स्यात्कुररश्च निगद्यते ॥ २८॥ For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४९ मांसवर्गः। प्रसहाः कीर्तिता एते प्रसह्याच्छिद्य भक्षणात् । प्रसहाः खरवीर्योष्णास्तन्मांस भक्षयन्ति ये ॥ २९ ॥ ते शोषभस्मकोन्मादशुक्रक्षीणा भवन्ति हि। टीका-प्रतुदोंकी गणना और गुण हरीत कठफोर वा जंगली तीतर पहाडी तोता ॥ २४ ॥ पारवा खंजन कोइल इत्यादिक यह प्रतुद कहेहैं जो अपनी चोंचसें तोडकर खातेहैं इसवास्ते प्रतुद हरील इसप्रकार लोकमें कहतेहैं ॥२५॥ कपोत धवल पाण्डु शतपत्र बृहच्छुक दार्वाघाट इसप्रकार अमरमें कहाहै कठपारवा इसप्रकार लो. कमें कहतेहैं प्रतुद मधुर पित्त कफकों हरता कसेला शीतल ॥२६॥ हलका मलकों बाधनेवाला और कुछ एक वातकों करनेवाला कहा हैं अथ प्रसहोंकी गणना और गुण कौव्वा गिद्ध उल्लू ॥ २७ ॥ चील वाज नीलकंठ भास यह गिद्धका भेदहै कुरीर इत्यादि यह पक्षी प्रसह कहेहैं वाज इसप्रकार लोकमें कहते हैं येह गिद्धके किस्म में हैं कराकुर इसप्रकार लोकमें कहतेहैं ॥ २८ ॥ यह जबरदस्ती काटकर खातेहैं इसवास्ते प्रसह हैं प्रसह वीर्यमें उष्ण है उनके मांसकों जो भक्षण करतेहैं ॥ २९ ॥ वे शोष भस्मक उन्मादयुक्त और शुक्रक्षीण होजातेहैं. अथ ग्राम्याणां कूलेचराणां प्लवानां कोशस्थानां च गुणाः. छागमेषवृषाश्चाश्वा ग्राम्याः प्रोक्ता महर्षिभिः ॥ ३०॥ ग्राम्या वातहराः सर्वे दीपनाः कफपित्तलाः । मधुरा रसपाकाभ्यां वृंहणा बलवर्धनाः ॥ ३१ ॥ लुलायगण्डवाराहचमरीवारणादयः । एते कूलचराः प्रोक्ता यतः कूले चरन्त्यपाम् ॥ ३२ ॥ कूलेचरा मरुत्पित्तहरा वृष्या बलावहाः। मधुराः शीतलाः स्निग्धा मूत्रलाः श्लेष्मवर्धनाः ॥ ३३॥ हंससारसकारण्डबकक्रौञ्चसरारिकाः। नन्दीमुखी सकादम्बा बलाकाद्याः प्लवाः स्मृताः ॥३४॥ प्लवन्ति सलिले यस्मादेते तस्मात्लवाः स्मृताः। स्थूला कठोरा वृत्ता च यस्याश्चञ्चूपरि स्थिता ॥ ३५॥ For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५० हरीतक्यादिनिघंटे गुटिका जम्बूसदृशी प्रोक्ता नन्दीमुखीति सा । लवाः पित्तहराः स्त्रिग्धा मधुरा गुरवो हिमाः ॥ ३६ ॥ शङ्खः शङ्खनखश्वापि शुक्तिशम्बूककर्कटाः । जीवा एवंविधाश्वान्ये कोशस्थाः परिकीर्तिताः ॥ ३७ ॥ कोशस्था मधुराः स्निग्धा वातपित्तहरा हिमाः । बृंहणा बहुवर्चस्का वृष्याश्च बलवर्धनाः ॥ ३८ ॥ टीका - अथ ग्राम्योंकी गणना और गुण बकरी मेंढा बैल घोडा इनकों महर्षियोंने ग्राम्य कहा है ॥ ३० ॥ सब ग्राम्य वातकों हरते दीपन कफपित्तकों करनेवाले हैं और रसपाक में मधुर पुष्ट बलकों बढानेवाले हैं ॥ ३१ ॥ अथ कूलेचरों की गणना और गुण भैंस गैंडा सूकर चवर गाय हाथी आदिक यह कूलेचर हैं क्योंकी जलके किनारे विचरतें हैं || ३२ ॥ भैंस गैंडा चवर पुच्छ गौ कूलेचर वातपित्तकों हरते शुक्रकों करनेवाले बलकारी मधुर शीतल चिकने सूत्रकों करनेवाले और arat बढानेवाले हैं ॥ ३३ ॥ अथ प्लवोंकी गणना और गुण हंस सारस कुरंड बगला टींक आडी नन्दीमुखी यह वोह जानवर हैं जिसके चोंचपर जामनके सम गुठली होती है और बतकसा होता है करवा वगुला आदि ये प्लव कहें हैं ||३४|| यह जलमें रहतेहैं इसवास्ते इनकों प्लव कहा है करडुवा ढींक आडी इति स्थूलकठोर गोल जिसके चोंचपर रहता है जामुनके गुठली के समान वो नन्दीमुखी कहा है ॥ ३५ ॥ करवा इसप्रकार लोकमें कहते हैं लव पित्त हरते चिकने मधुर भारी शीतल वातकफकों करनेवाले और शुक्रकों करनेवाले सरहै || ३६ || अनन्तर कोशथोंकी गणना और गुण कहते हैं शंख छोटा शंख सीप घोंघा केकडा इसप्रकारके जीव और कोशस्थ कहें हैं ॥ ३७ ॥ कोशस्थ मधुर चिकने वातपित्तकों हरते शीतल पुष्ट बहुत मलकों करनेवाले शुक्रकों करनेवाले और बलकों बढानेवाले हैं ॥ ३८ ॥ अथ पादिनां मत्स्यानां जंघालानां च गुणाः. कुम्भीरकूर्मनकाश्च गोधामकरशङ्कवः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घण्टिकः शिशुमारश्चेत्यादयः पादिनः स्मृताः ॥ ३९ ॥ पादिनोऽपि च ये ते तु कोशस्थानां गुणैः समाः । मत्स्यो मीनो विकारच उपो वैसारिणोऽण्डजः ॥ ४० ॥ For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः । शाकुलः पृथुरोमा च स सुदर्शन इत्यपि । रोहिताद्यास्तु ये जीवास्ते मत्स्याः परिकीर्तिताः ॥ ४१ ॥ मत्स्याः स्निग्धोष्णमधुरा गुरवः कफपित्तलाः । वातघ्ना बृंहणा वृष्या रोचका बलवर्धनाः ॥ ४२ ॥ मद्यव्यवायसक्तानां दीप्ताग्नीनां च पूजिताः । हरिणः शीतलो बद्धविण्मूत्रो दीपनो लघुः ॥ ४३ ॥ रसे पाके च मधुरः सुगन्धिः सन्निपातहा । एणः कषायो मधुरः पित्तास्रुक्कफवातहृत् ॥ ४४ ॥ संग्राही रोचनो बल्यो ज्वरप्रशमनः स्मृतः । For Private and Personal Use Only २५१ टीका - अनन्तर पादियोंकी गणना और गुण यह मगरका भेद है कछु आनाका गोही मगर साकुच घडियाल सूस इत्यादि यह पादी कहें हैं ।। ३९ ॥ यह मारक जलजीव हैं कछुवा नाका गोही मगर साकुच घरिआल सूस जो पादि हैं भी कोशस्थोंके समान गुणमें हैं मछलियोंके नाम और गुण मत्स्य मीन विकार उष वैसारिण अंडज ॥ ४० ॥ शकुल पृथुरोमा और सुदर्शन यह मछलियोंके नाहैं रोहू आदिक जो जीव हैं वे मत्स्य कहें हैं ॥ ४१ ॥ मत्स्य चिकने उष्ण मधुर भारी कफपित्तकों करनेवाले हैं और वात हरते पुष्ट शुक्रकों करनेवाले रोचक कवलकों बढानेवाले हैं ॥ ४२ ॥ तथा मद्य मैथुनमें आसक्तोंकों और दीप्तानियोंकोंभी हित है अनन्तर जांगल आदियोंके नाम गुण उनमें हरिणके गुण हरिण शीतल सूत्रों बढानेवाला दीपन हलका ॥ ४३ ॥ रस और पाकमें मधुर सुगन्धि सन्निपातकों हरता है अनन्तर काला हरिण एण कसैला मधुर रक्त पित्त कफवात इनकों हरता है ।। ४४ ।। और काविज रोचन बलके हित ज्वरकों हरनेवाला कहा है. अथ कुरङ्गतित्तिरवाराहसांबर सेधानामगुणाः. कुरंगो बृंहणो बल्यः शीतलः पित्तहृद्गुरुः । मधुरो वातग्राही किञ्चित्कफकरः स्मृतः ॥ ४५ ॥ ऋष्यो तीलाण्डकचापि गवयो रोध इत्यपि । गवयो मधुरो बल्यः स्निग्धोष्णः कफपित्तलः ॥ ४६ ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २५२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे पृषतस्तु भवेत्स्वादुर्ग्राहिकः शीतलो लघुः । दीपनो रोचनः श्वासज्वरदोषत्रयास्त्रजित् ॥ ४७ ॥ न्यः स्वादुर्लघुर्बल्यो वृष्यो दोषत्रयापहः । सावरं पललं स्निग्धं शीतलं गुरु च स्मृतम् ॥ ४८ ॥ रसे पाके च मधुरं कफदं रक्तपित्तहृत् । राजीवस्तु गुणैर्ज्ञेयः पृषतेन समो जनैः ॥ ४९ ॥ मुण्डी तु ज्वरकासाम्लक्षयश्वासापहो हिमः । लम्बकर्णः शराः शूली लोमकर्णो बिलेशयः ॥ ५० ॥ शशः शीतो लघुग्रही रूक्षः स्वादुः सदा हितः । वह्निरुत्कफवातघ्नो वातसाधारणः स्मृतः ॥ ५१ ॥ ज्वरातीसारशोषास्त्रश्वासामयहरश्च सः । सेधा तु शल्यकः श्वावित्कथ्यन्ते गुणा अथ ॥ ५२ ॥ शल्यकः श्वासकासास्त्रशोषदोषत्रयापहः । टीका - कुरंग बृंहण बलके हित शीतल पित्तहरता भारी मधुर वात हरता काविज और कुछ फक करनेवाला कहा है ॥ ४५ ॥ ऋष्य नीलाण्डक गवय रोऊ यह नील गायके नाम हैं नीलगाय मधुर बलके हित चिकनी उष्ण कफपित्तकों करनेवाली है ॥ ४६ ॥ चित्तरि मधुर काविज शीतल हलका दीपन रोचन है और श्वास ज्वर तीनों दोष रक्त इनको हरनेवाली है ॥ ४७ ॥ वाराहसिंगा मधुर हलका बलके हित शुक्रकों करनेवाला तीनों दोषोंकों हरता है सावरका मांस चिकना शीतल भारी कहा है रसपाकमें मधुर कफकों करनेवाला रक्तपित्तकों हरता है ॥ ४८ ॥ राया चित्तरिके समान लोग गुणमें जानने पीठी ज्वर कास रक्त क्षय श्वास इनकों हरता शीतल होता है ॥ ४९ ॥ अव बिलेशयो में शश होता है लम्बकर्ण शश शूली लोमकर्ण बिलेशय यह खरगोशके नामहैं खरगोश शीतल हलका || ५० ॥ काविज रूखा मधुर सदा शीतल अग्निदीपन कफवातकों हरता साधारण कफवातकों करनेवाला कहा है ॥ ५१ ॥ और ज्वर अतीसार शोष रक्त श्वासरोग इनकों हरता वोह है सेधा शल्यक श्वावित यह साहीके नाम हैं ५२ उसके गुण कहते है साही श्वास कास रक्त चोष और त्रिदोष इनकों हरता है For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५३ मांसवर्गः। अथ पक्षिनामानि गुणाश्च. पक्षी खगो विहङ्गश्च विहगश्च विहङ्गमः ॥ ५३ ॥ शकुनिर्विः पतत्री च विष्किरो विकिरोऽण्डजः। धान्याः कुरचरायेऽत्र तेषां मांसं लघूत्तमम् ॥ ५४ ॥ आनूपं बलकन्मांसं स्निग्धं गुरुतरं स्मृतम्। वर्तीको वर्त्तकश्चित्रस्ततोऽन्या वर्तकाः स्मृताः ॥ ५५॥ वर्तकोऽग्निकरः शीतो ज्वरदोषत्रयापहः । सुरुच्यः शुक्रदो बल्यो वर्तकाल्पगुणास्ततः ॥ ५६ ॥ लावा विष्किरवर्गेषु ते चतुर्धा मता बुधैः। पांशुलो गौरकोऽन्यस्तु पौण्डरीकोदरस्तथा ॥ ५७ ॥ लावा वह्निकराः स्निग्धा गरना ग्राहिका हिताः। पांशुलः श्लेष्मलस्तेषु वीर्यो ह्यनिलनाशनः ॥ ५८ ॥ गौरो लघुतरो रूक्षो वह्निकारी त्रिदोषजित् । पौण्ड्रकः पित्तकत्किञ्चिल्लधुर्वातकफापहः ॥ ५९॥ दमेरो रक्तपित्तनो हृदामयहरो हिमः । टीका-अब पक्षियोंके नाम और गुण पक्षी खग विहंग विहग विहंगम शकुनी वि पतत्री विष्किर विकिर अंडज यह पक्षियोंके नामहैं ॥ ५३ ॥ धान्य और कुरचर जो इस्में हैं उनके मांस हलके और अच्छेहैं ॥ ५४ ॥ आनूपमांस बलकारी चिकना गुरुतर कहाहै उनविष्किरोंमें वटेर वटई वर्तीक वत्तिक यह वटेरके नाम हैं ॥५५॥ और उस्सें दूसरा वर्तक कहाहै वटेर अग्निदीपन शीतल ज्वर और तीनोंदोष इनकों हरताहै और अच्छा रुचिकों करनेवाला शुक्रकों करनेवाला बलके हित होताहै और वटई उस्से गुणमें अल्प है ॥५६॥ विष्करवर्गमें वोह चारप्रकारका पंडितोंने मानाहै पंशुल गौरक और दूसरा पौण्डरीक उदर यह लवाके भेद हैं।॥५७॥ लवा अग्निकों करनेवाला चिकना विषहरता काविज और पथ्यहै और उन्में पांशुल कफकारी शुक्रकों करनेवाला वातहरताहै ॥ ५८ ॥ गौर बहुत हलका रूखा दीपन और त्रिदोषको हरनेवाला है पौंड्रक पित्तकों करनेवाला कुछ हलका वातकफको हरताहै ॥ ५९॥ दमेर रक्तपित्तकों हरता और हृदयरोगकों हरता शीतल है. For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ हरीतक्यादिनिघंटे अथ वालीकतित्तिराचटककुक्कुटनामगुणाः. वालीकवर्ती चटको वार्ताकश्चैव स स्मृतः ॥६०॥ वालीको मधुरः शीतो रूक्षश्च कफपित्तनुत् । तित्तिरिः कृष्णवर्णः स्याच्चित्रोऽन्यो गौरतित्तिरिः ॥६१॥ तित्तिरिर्वलदो ग्राही हिक्कादोषत्रयापहः । श्वासकासज्वरहरस्तस्माद्दौराधिको गुणैः ॥ ६२ ॥ चटकः कलविङ्कः स्यात्कुलिङ्गः कालकण्टकः । कुलिङ्गः शीतलः स्निग्धः स्वादुः शुक्रकफप्रदः ॥ ६३॥ सन्निपातहरो वेश्म चटकश्वातिशुक्रलेः। कुकुटः रुकवाकुः स्यात्कलयश्चरणायुधः ॥ ६४ ॥ ताम्रचूडस्तथा दक्षो पातर्णादी शिखण्डिकः । कुक्कुबो बृंहण स्निग्धो वीर्योष्णोऽनिलद्गुरुः ॥ ६५॥ चक्षुष्यः शुक्रकफरुहल्यो वृष्यकषायकः। आरण्यकुक्कुटः स्निग्धो वृंहणः श्लेष्मलो गुरुः ॥ ६६ ॥ वातपित्तक्षयवमिविषमज्वरनाशनः । टीका-चालीकवर्ती चटक वार्ताक यह वगेराके नाम हैं ॥६० ॥ वगैरा मधुर शीतल रूखा कफपित्तकों हरता है अनन्तर सुफेद तीतर काला तीतर चित्र और दूसरा सफेद तीतर होता है ॥ ६१॥ तीतर बलकों देनेवाला काविज है और हिचकियां तीनों दोष ज्वर इनकों हरता है उस्से सफेद तीतर गुणमें अधिक है ॥६२॥ चटक कलविक कालकण्ठक यह गवरैआके नाम हैं गवरैआ शीतल चिकना मधुर शुक्र और कफकों करनेवाला ॥६३ ॥ तथा सन्निपातकों हरता और घरकी गवरैआ बहुत शुक्रकों करनेवाला है कुकुट कुकवाकु कलय चरणायुध ॥६४॥ ताम्रचूड तथा दक्ष पातर्णादी शिखिण्डिक यह मुरगेके नाम हैं मुरगा पुष्ट चिकना वीर्यमें उष्ण वातहरता भारी है ॥६५॥ और नेत्रके हित शुक्र कफकों करनेवाला बलके हित शुक्रकों करनेवाला कसैला है वनमुरगा चिकना पुष्ट कफकों करनेवाला भारी है ॥६६॥ और वात पित्त क्षय वमन विषमज्वर इनकों हरता है ॥ For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः। २५५ अथ हारीतमयूरपारावतनामगुणाः. हारीतो रक्तपित्तः स्याद्धरितोऽपि स कथ्यते । हारीतो रूक्ष उष्णश्च रक्तपित्तकफापहः ॥ ६७ ॥ स्वेदस्वरकरः प्रोक्त ईषद्वातकरश्च सः। पाण्डस्तु विविधो ज्ञेयश्चित्रपक्षः कलध्वनिः ॥ ६८ ॥ द्वितीयो धवलः प्रोक्तो सकपोतः स्फुटस्वनः । चित्रपक्षः कफहरो वातघ्नो ग्रहिणीप्रणुत् । धवलः पाण्डुरुद्दिष्टो रक्तपित्तहरो हिमः ॥ ६९ ॥ मयूरश्चन्द्रकी केकी मेघरावो भुजङ्गभुक् । शिखी शिखावलो बहीं शिखण्डी नीलकण्ठकः ॥७० ॥ शुक्लोपाङ्गः कलापी च मेघनादः कलाप्यपि । रसे पाके च मधुरः संग्राही वातशान्तिकत् ॥ ७१ ॥ पारावतः कलरवः कपोतो रक्तवर्धनः। पारावतो गुरुः स्निग्धो रक्तपित्तानिलापहः॥ ७२ ॥ संग्राही शीतलस्तज्ज्ञैः कथितो वीर्यवर्धनः। टीका-हारीत रक्तपीत होता है और हरितभी यह उस्का नाम है इस्को हरील इसप्रकार लोकमें कहते है हारील रूखा गरम रक्त पित्त कफकों हरता है और खेद खरकों करनेवाला कहा है तथा अल्पवातकों करनेवाला कहा है ॥६७॥ पाण्डु और धवल पाण्ड पिंडुका दो प्रकारका होता है चित्रपक्ष और कलध्वनि ॥ ६८॥ दूसरा धवल कहा है कपोत स्फुटस्वन ये पेडकीके नाम हैं चित्रपक्ष कफ हरता वात हरता और संग्रहणीकों हरता है धवल और पाण्डु रक्तपित्तकों हरता शीतल कहा है ॥६९॥ अनन्तर रमोर चन्द्रकी केकी मेघाराव भुजङ्गमुक् शिखी शिखावल बी शिखण्डी नीलकण्ठक ॥ ७० ॥ शुक्लापाङ्ग कलापी मेघनाद यह मोरके नाम हैं मोर रसपाकमें मधुर काविज वात करनेवाला है ॥ ७१ ॥ अनन्तर कबूतर परेवा पारावत कलरव कपोत रक्तवर्धन यह कबूतरके नाम हैं कबूतर भारी चिकना रक्त पित्त वातकों हरता है ॥ ७२ ॥ और काविज शीतल उसको जाननेवालोंने वीर्यका बढानेवाला कहा है. For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ हरीतक्यादिनिघंटे अथ पक्ष्यण्डछागनामगुणाः. नातिस्निग्धानि वृष्याणि स्वादुपाकरसानि च ॥७३॥ वातघ्नान्यपि शुक्राणि गुरूण्यण्डानि पक्षिणाम् । छागलो वर्करइछागो वस्तोजः क्षेत्रकः स्तुभः ॥ ७४ ॥ अजा छागी स्तुभा चापि छेलिका च गलस्तनी । छागमांसं लघु स्निग्धं स्वादुपाकं त्रिदोषनुत् ॥७५ ॥ नातिशीतमदाहि स्यात्स्वादु पीनसनाशनम् । परं बलकरं रुच्यं बृंहणं वीर्यवर्धनम् ॥ ७६ ॥ अजाया अजसूताया मांसं पीनसनाशनम् । शुष्ककासेऽरुचौ शोषे हितमग्नेश्च दीपनम् ॥ ७७ ॥ अजासुतस्य वालस्य मांसं लघुतरं स्मृतम् । हृद्यं ज्वरहरं श्रेष्ठं सुखदं बलदं भृशम् ॥ ७८ ॥ मांसं निष्कासिताण्डस्य छागस्य कफगुरु । स्रोतःशुद्धिकरं बल्यं मांसदं वातपित्तनुत् ॥ ७९ ॥ वृद्धस्य वातलं रूक्षं तथा व्याधिमृतस्य च । ऊर्ध्वजत्रुविकारघ्नं छागलाण्डं रुचिप्रदम् ॥ ८॥ टीका-अनन्तर पक्षियोंके अंडोंका गुण न बहुत चिकने शुक्रकों करनेवाले रस और पाकमें मधुर ॥ ७३ ॥ वात हरता अतिशुक्रकों करनेवाले भारी ऐसे पक्षीयोंके अंडे होते हैं ग्राम्यमें बकरीका ॥ ७४ ॥ छागल वर्कल छागवस्त ओजक्षेलक स्तुभ यह बकरेके नाम हैं और अजा छागी स्तुभा छेलिका गलस्तनी यह बकरीके नाम छागमांस हलका चिकना पाकमें मधुर त्रिदोष हरता ॥ ७५ ॥ न बहुत शी. तल अविदाही मधुर होताहै और पीनसकों हरताहै अत्यन्त बलकों करनेवाला रुचिकों करनेवाला पुष्ट वीर्यको बढानेवालाहै ॥ ७६ ॥ विनवचोंको दीहुई बकरीका मांस पीनस हरताहै सूकीखांसीमें अरुचिमें शोषमें हितहै और अग्निदीपन है ॥७७॥ बकरीके बच्चेका मांस लघुतर कहाहै हृद्य ज्वर हरता श्रेष्ठ सुखकों देनेवाला और अत्यन्त बलकों देनेवाला है ॥ ७८ ॥ आंड निकाले हुए बकरेका मांस कफकों For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः । २५७ करनेवाला भारी है और स्रोतोंकों शुद्ध करनेवाला बलके हित मांसकों करनेवाला वातपित्तकों हरता कहा है || ७९ ॥ वृद्धछागका मांस वातल रूखा तथा रोगसें मरे - हुवेका मांसभी वैसेही होता है बकरीका शिर जत्रुके ऊपर होनेवाले रोगकों हरता और रुचिकों करनेवाला है ॥ ८० ॥ अथ मेषटुंबांडक. मेट्रो मेढो हुंडमेष उरणोऽप्येडकोऽपि च । अविवृष्टिस्तथोर्णायुः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ ॥ ८१ ॥ मेषस्य मांसं पुष्टं स्यात्पित्तश्लेष्मकरं गुरु । तस्यैवाण्डविहीनस्य मांसं किंचिल्लघु स्मृतम् ॥ ८२ ॥ डुम्बाण्डः पृथु शृङ्गः स्यान्मेदः पुच्छस्तु डुम्बकः । ष्टथुश्टङ्गः एडकस्य पलं ज्ञेयं मेषामिषसमं गुणैः ॥ ८३ ॥ मेदः पुच्छोद्भवं मांसं हृद्यं वृष्यं भ्रमापहम् । पित्तश्लेष्मकरं किंचिद्वातव्याधिविनाशनम् ॥ ८४ ॥ टीका - मेदू मेढ हुड मेष उरणाण्डकभी अविदृष्टी तथा ऊर्णायु यह मेsh नाम है अब उस्के गुण कहते हैं ॥ ८१ ॥ मेंढेका मांस पुष्ट होता है और पित्तकफकों करनेवाला भारी है अंडरहित उस्का मांस किंचित हलका कहा है ॥ ८२ ॥ दुम्बाण्डक पृथुशृङ्ग मेदपुच्छदुम्बक यह दुम्बेके नामहैं दुम्बेका मांस मेंढके मांस के समान गुणमें जानना चाहिये ॥ ८३ ॥ उसके दुम्बका मांस हृद्य शुक्रकों उत्पन करनेवाला श्रम हरता है और पित्त कफकों करनेवाला तथा कुछएक वातके रोhi हरता है || ८४ ॥ अथ बलीवर्दाश्वमहिषनामगुणाः, बलीवर्दस्तु वृषभ ऋषभश्च तथा वृषः । अनड्डान् सौरभेयोल्पगौरूक्षाभद्र इत्यपि ॥ ८५॥ सुरभिः सौरभेयी च माहेयी गौरुदाहृता । गोमांसं तु गुरु स्निग्धं पित्तश्लेष्मविवर्धनम् ॥ ८६ ॥ बृंहणं वातहृद्दल्यमपथ्यं पीनसप्रणुत् । ३३ For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २५८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे घोटके पीतितुरगतुरङ्गाच तुरङ्गमाः ॥ ८७ ॥ वाजिवाहार्वगन्धर्वयहसैन्धवसतयः । अश्वमांसं तु तुवरं वह्नित्कफपित्तलम् ॥ ८८ ॥ वातबृंहणं बल्यं चक्षुष्यं मधुरं लघु I महिषो घोटकारिः स्यात्कासरश्च रजस्वलः ॥ ८९ ॥ पीनस्कन्धः कृष्णकायो लुलायो यमवाहनः । महिषस्यामिषं स्वादु स्निग्धोष्णं वातनाशनम् ॥ ९० ॥ निद्राशुक्रप्रदं वल्यं तनुदाढर्यकरं गुरु । वृष्यं च सृष्टविण्मूत्रं वातपित्तास्रनाशनम् ॥ ९१ ॥ टीका - बलीवर्द वृषभ ऋषभ तथा वृष अनवान सौरभेय अल्पगौ उक्षाभद्र यह बैलके नाम हैं ॥ ८५ ॥ सुरभी सौरभेयी माहेयी गौ यह गायके नाम हैं गौमांस भारी चिकना पित्तकफकों बढानेवाला है || ८६|| और पुष्ट वातहरता बलकों करनेवाला अहित और पीनसकों हरता है घोडाके नाम कहते हैं घोटक पीति तुरग तुरङ्गम ॥ ८७ ॥ वाजि वाह अर्व गंधर्व यह सैन्धव सप्ति यह घोडेके नाम हैं घोडेका मांस सेला दीपन कफपित्तकों करनेवाला है ॥ ८८ ॥ वात हरता बृंहण बलके हित नेत्रके हित मधुर हलका है भैंसा के नाम कहते हैं महिप घोटकारि कासार रजस्वल८९ पीनस्कन्ध कृष्णकाय लुलाय यमवाहन यह भैंसके नाम हैं भैंसाका मांस मधुर चिकना गरम वातहरता है ॥ ९० ॥ और निद्रा शुक्रकों करनेवाला बलके हित शरीरकों दृढ करनेवाला भारी शुक्रकों करनेवाला और मलमूत्रकों करनेवाला वात रक्त पित्त इनकों हरता है ॥ ९१ ॥ अथ मण्डूककच्छपगुणाः. मण्डूकः लवगो भेको वर्षाभूर्दर्दुरो हरी । मण्डूकः श्लेष्मलो नातिपित्तलो बलकारकः ॥ ९२ ॥ कच्छपो गूढपात्कूर्मः कमठो दृढष्टष्ठकः । कच्छपो बलदो वातपित्तनुत्पुंस्त्वकारकः ॥ ९३ ॥ सद्योहतस्य मांसं स्यात् व्याधिघाति यथाऽमृतम् । For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः। वयस्यं बृंहणं सात्म्यमन्यथा तद्विवर्जयेत् ॥ ९४ ॥ स्वयं मृतस्य चापल्यमतीसारकरं गुरु। बृद्धानां दोषलं मांसं बालानां बलहल्लघु ॥ ९५ ॥ सर्पदष्टस्य तु प्रोक्तं शुष्कमांसं त्रिदोषकत् । व्यालदृष्टं च दुष्टं च शुष्कं शूलकारं परम् ॥ ९६ ॥ विषाम्बुरुङ्मृतस्यैतन्मृत्युदोषरुजाकरम् । क्लिन्नमुत्क्लेशजनकं कशवातप्रकोपनम् ॥ ९७ ॥ तोयपूर्ण शिराजालं मृतमप्सु त्रिदोषकत् । विडङ्गेषु पुमान् श्रेष्ठः स्त्री चतुष्पदजातिषु ॥ ९८ ॥ पराधों लघुपुंसां स्यात्स्त्रीणां पूर्वार्धमादिशेत् । देहमध्यं गुरुपायं सर्वेषां प्राणिनां स्मृतम् ॥ ९९ ॥ पक्षक्षेपादिहङ्गानां तदेव लघु कथ्यते। टीका-मंडूक ल्पवग भेक वर्षाभू दर्दुर हरी यह मंडूकके नाम हैं मंडूक कफकरनेवाला और बहुत पित्तकों करनेवाला नहीं है तथा बल करनेवाला है ॥९२॥ कच्छप गूढपात् कूर्म कमठ दृढपृष्ठक यह कछुवेके नाम हैं कच्छुवा बलकों देनेवाला वातपित्तकों हरता पुरुषत्वकों करनेवाला है ॥ ९३ ॥ तत्कालके मारेहुवेका मांस रोगहरता जैसे अमृत वयके हित पुष्ट सात्म्य होताहै और इस्सें विरुद्ध उस्को त्याग देवे ॥ ९४ ॥ आपही मरेहुवेका मांस बलहरता अतीसारको करनेवाला भारी होता है वृद्ध और बालका मांस वृद्धोंका मांस दोषकारक और बच्चोंका मांस बलकों देनेवाला हलका होता है ॥ ९५ ॥ सांपके काटेहुवेका मांस और सूका मांस त्रिदोषकारकहै सांपके काटेहुवेका मांस और दुष्ट तथा मूका मांस परम शूलकारक है ॥ ९६ ॥ विष जल और रोग इनसे मरेहुवेका मांस मृत्यु दोष रोग इनकों करनेवाला है और सडा उत्क्लेशकों करनेवाला कृश वातके प्रकोपको करनेवाला है ॥ ९७ ॥ जलमें मराहुवा जलसे भरा शिराजालवाला ऐसा मांस त्रिदोषकों करनेवाला है पक्षियोंमें नर श्रेष्ठ और चौपायोंमें स्त्री श्रेष्ठ है ॥ ९८॥ नरोंका पिछला हिस्सा हलका होता है और स्त्रीयोंका अगला हिस्सा हलका सब जीवोंका मध्यदेह प्रायः भारी कहाहै ॥ ९९ ॥ पक्षक्षेपसें परिन्दोंका वोही हलका कहाहै. For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ अण्डादिगुणाः. गुरुण्यण्डानि सर्वेषां गुर्वी ग्रीवा च पक्षिणाम् ॥ १०० ॥ उरः स्कन्धोदरं कुक्षी पादौ पाणी कटी तथा । पृष्ठत्वग्यरुदन्त्राणि गुरूणीह यथोत्तरम् ॥ १०१ ॥ लघु वातकरं मांसं खगानां धान्यचारिणाम् । मत्स्याशिनां पित्तकरं वातघ्नं गुरु कीर्तितम् ॥ १०२ ॥ पलाशिनां श्लेष्मकरं लघु रूक्षमुदीरितम् । बृंहणं गुरु वातघ्नं तेषामेवं पलाशिनाम् ॥ १०३ ॥ तुल्यजातिश्वापदेहा महादेहेषु पूजिताः । अल्पदेहेषु शस्यन्ते तथैव स्थूलदेहिनः ॥ १०४॥ रक्तोदरो रक्तमुखो रक्ताक्षो रक्तपक्षतिः । कृष्णपुच्छो झषश्रेष्ठो रोहितः कथितो बुधैः ॥ १०५ ॥ रोहितः सर्वमत्स्यानां वरो वृष्योऽर्दितार्त्तिजित् । कषायानुरसः स्वदुर्वातघ्नो नातिपित्तकृत् ॥ १०६॥ टीका - सर्व पक्षियोंके अंडे भारी और गरदनभी भारी होती है और छाती कन्धा उदर कूख पाम हाथ तथा कमर पीठ त्वचा यकृत आंत यह यथोत्तर भारी है ॥ १०१ ॥ धान चरनेवाले पक्षियोंका मांस हलका और वात करनेवाला है और मछली खानेवालोंका पित्त वात हरता भारी कहाहै ॥ १०२ ॥ मांस खानेवालोंका कफ करनेवाला हलका रूखा कहा है उन्हीके मांस खानेवालोंका मांस पुष्ट भारी वात हरता है || १०३ || समान जातिवाले बडे देहवालोंमें अल्पदेहवाले श्रेष्ठ हैं उसीप्रकार अल्पशरीरवालोंमें स्थूलदेहवाले प्रशस्त हैं ॥ १०४ ॥ मछलियोंमें रोहका मांस लाल उदर लाल मुख लाल पैर काली पूछ मछलियों में श्रेष्ठ पंडितोंनें कहा है ॥ १९५ ॥ रोह सब मछलियोंमें श्रोष्ठ शुक्रकों करनेवाली अर्दितरोगकों हरनेवाली पीछे कसैली मधुर वातहरती न बहुत पित्तकों करनेवाली है || १०६ ॥ रोहका शिर गले के ऊपरके रोगोंकों हरता है. For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः। २६१ अथ शिलींध्रमोचकाशृंगीहिल्लसगुणाः, ऊर्ध्वजत्रुगतानोगान्हन्याद्रोहितमुण्डकम् । सिलीन्ध्रः श्लेष्मलो बल्यो विपाके मधुरो गुरुः ॥ १०७॥ वातपित्तहरो हृद्य आमवातकरश्च सः। भक्कुरो मधुरः शीतो वृष्यः श्लेष्मकरो गुरुः ॥ १०८॥ विष्टम्भजनकश्चापि रक्तपित्तहरः स्मृतः । मोचका वातबल्या बृंहणी मधुरा गुरुः ॥ १०९ ॥ पित्तहृत्कफरुद्रुच्या वृष्या दीप्तानये हिता। पाठिनः श्लेष्मलो बल्यो निद्रालुः पिशिताशनः॥११०॥ दूषयेद्रुधिरं पित्तकुष्ठरोगं करोति च । श्रृंगी तु वातशमनी स्निग्धा श्लेष्मप्रकोपनी ॥ १११ ॥ रसे तिक्ता कषाया च लध्वी रुच्या स्मृता बुधैः । इल्लसो मधुरः स्निग्धो रोचनो वन्हिवर्धनः ॥ ११२ ॥ पित्तहत्कफळत्किञ्चिल्लघुर्वृष्योऽनिलापहः।। टीका-सिलन्ध कफकों करनेवाली बलके हित विपाकमें मधुर भारी ॥१०७॥ वातपित्तकों हरती हृद्य और वोह आमवातकों करनेवालीहै भुक्कुर मधुर शीतल शुक्रकों करनेवाली कफकारक भारी होतीहै ॥१०८॥ और विष्टम्भजनक तथा रक्तपित्तकों हरतीभी वहींहै मोचिका वात हरती बलकों करनेवाली पुष्ट मधुर भारी ॥ १०९॥ पित्तहरती कफकों करनेवाली और दीप्ताग्निवालेको हितहै पोठियावोरी मठना कफकों करनेवाली बलके हित निद्राको करनेवाली है और मांस खानेवालेके रुधिरको बिगाडतीहै ॥ ११० ॥ तथा पित्त और कुष्ठरोगकोंभी करतीहै सींगी वातकों शमन करनेवाली चिकनी कफप्रकोप करनेवाली रसमें तिक्त कसेली रुचिकों करनेवाली पंडितोंने कहीहै ॥१११॥ हीलसा मधुर चिकनी रुचिकों करनेवाली दीपन ॥११२॥ पित्तहरती कफकों करनेवाली कुछ हलकी शुक्रकों करनेवाली वातहरतीहै. अथ सौरीआदिअनेकमत्स्यनामगुणाः. शष्कुली ग्राहिणी हृद्या मधुरा तुवरा स्मृताः ॥ ११३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ हरीतक्यादिनिघंटे गर्गरः पित्तलः किंचिदातजित्कफकोपनः । कविका मधुरा स्निग्धा कफना रुचिकारिणी ॥ ११४॥ किञ्चित्पित्तकरी वातनाशिनी वन्हिवर्धिनी। वर्मिमत्स्यो हरेद्वातं पित्तं रुचिकरो लघुः ॥ ११५॥ दण्डमत्स्यो रसे तिक्तः पित्तं रक्तं कर्फ हरेत् । वातसाधारणः प्रोक्तः शुक्रलो बलवर्धनः ॥ ११६ ॥ एरङ्गी मधुरः स्निग्धो विष्टम्भी शीतलो लघुः। शिशिरो मधुरो रुग्यो वातसाधारणः स्मृतः ॥ ११७ ॥ गरनी मधुरा तिक्ता तुवरा वातपित्तहत् । कफनी रुचिकल्लघ्वी दीपनी बलवीर्यकत् ॥ ११८॥ मद्गुरी वातहबल्यो वृष्यः कफकरो लघुः । सपादमत्स्यो मेधाऊन्मेहक्षयकरश्च सः ॥ ११९ ॥ वातपित्तकरश्चापि रुचिरुत्परमो मतः। प्रोष्ठी तिक्ता कटुः स्वादुः शुक्रनी कफवातजित् ॥ १२०॥ स्निग्धास्यकण्ठरोगनी रोचनी च लघुः स्मृता। क्षुद्रा मत्स्याः स्वादुरसा दोषत्रयविनाशनाः ॥ १२१ ॥ लघुपाका रुचिकरा बलदास्ते हिता मताः । अतिसूक्ष्माः पुंस्त्वहरा रुच्याः कासानिलापहाः॥ १२२॥ टीका-सौरी काविज हृद्य मधुर कसेली कहीहै ॥ ११३ ॥ गर्गरा पित्तकों करनेवाली कुछ एक वातकों हरनेवाली कफकों कुपित करनेवाली है कवई मधुर चिकनी कफहरती रुचिकों करनेवाली ॥ ११४ ॥ कुछएक पित्तकों करनेवाली वातहरती अग्निकों बढानेवाली है जाम्बीमली वातपित्तकों हरतीहै और रुचिकों करनेवाली हलकीहै ॥ ११५॥ दण्डारी मछली रसमें तिक्त और पित्त रक्त कफ इनकों हरतीहै तथा साधारण वातकों करनेवाली शुक्रकों करनेवाली और बलकों बढानेवाली कहीहै ॥ ११६ ॥ अरंगी मधुर चिकनी विष्टम्भकों करनेवाली शीतल हलकी होतीहै अथ पापता तिक्त पित्तकफकों हरती शीतल मधुर रुचिकों करनेवाली सा For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांसवर्गः । २६३ धारण वातकों करनेवाली कही है ॥ ११७ ॥ अथ गरई मधुर तिक्त कसेली वातपित्तकों हरती कफ हरती रुचिकों करनेवाली दीपन बलवीर्यकों करनेवाली है ॥ ११८ ॥ मगुरी वातहरती बलकेहित शुक्रकों करनेवाली कफकारक हलकी है टेंगरा कान्तिकों करनेवाली और प्रमेहकों हरती है ।। ११९ ।। तथा वातपित्तकर और परम रुचिकों करनेवाली कहीहै अथ पोठी तिक्त कडवी मधुर शुक्रकों करनेवाली है और कफवातकों हरनेवाली है ॥ १२० ॥ चिकनी मुख कंठ इनके रोगोंकों हरती रुचिकों करनेवाली हलकी कही है अथ छोटी मछलियां रसमें मधुर तीनों दोषोंकों हरती ।। १२१ ॥ पाकमें हलकी रुचिकों करनेवाली बलकों देनेवाली वे हित है अथ बहुत छोटी पुरुपलकों हरती रुचिकों करनेवाली कास वातकों हरती है ॥ १२२ ॥ अथ मत्स्याण्डादिमत्स्यानां गुणाः. मत्स्यगर्भो भृशं वृष्यः स्निग्धः पुष्टिकरो लघुः । कफमेहप्रदो बल्यो ग्लानिरुन्मेहनाशनः ॥ १२३ ॥ शुष्कमत्स्या नवा बल्या दुर्जरा विविबन्धिनः । दग्धमत्स्यो गुणैः श्रेष्ठः पुष्टिकद्दलवर्धनः । कौपमत्स्याः शुक्रमूत्र कुष्ठ श्लेष्मविवर्धनाः ॥ १२४ ॥ सरोजा मधुराः स्निग्धा बल्या वातविनाशनाः । नादेया वृंहणा मत्स्या गुरवोऽनिलनाशनाः ॥ १२५ ॥ रक्तपित्तकरा वृष्याः स्निग्धोष्णाः स्वल्पवर्चसः । चौञ्जाः पित्तकराः स्निग्धा मधुरा लघवो हिमाः ॥ १२६॥ ताडागा गुरवो वृष्याः शीतला बलमूत्रदाः । ताडागावक्षिप्तजाता बलायुर्मतिदृक्कराः ॥ १२७ ॥ हेमन्ते कूपजा मत्स्याः शिशिरे सारसा हिताः । वसंते ते तु नादेया ग्रीष्मे चौअसमुद्भवाः ॥ १२८ ॥ तडागजाता वर्षासु तास्वपथ्या नदीभवाः । नैर्झराः शरदि श्रेष्ठा विशेषोऽयमुदाहृतः ॥ १२९ ॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे मांसवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ हरीतक्यादिनिर्घटे टीका - मछली अंडे अत्यन्त शुक्रकों करनेवाले चिकने पुष्टिकों करनेवाले roha और कफ प्रमेहकों करनेवाले बलकों हित ग्लानिकों करनेवाले प्रमेह हरतेहैं ॥ १२३ ॥ सूकी मछली नई बलकों देनेवाली दुर्जर मलकों बांधनेवाली है दग्ध मछली गुण श्रेष्ठ पुष्टों करनेवाली बलकों बढानेवाली है अथ कुवेकी मछलियां शुक्र मूत्र कुष्ठ कफ इनको बढानेवाली है ॥ १२४ ॥ सरोवरकी मछलियां मधुर चिकनी बलकों करनेवाली बातकों हरती है नदीकी मछलियां पुष्ट भारी वातहरती है ।। १२५ ।। और रक्त पित्तकों करनेवाली चिकनी उष्ण अल्प मलकों करनेवाली है गढईकी मछलियां पित्तकों करनेवाली चिकनी मधुर हलकी शीतल होती है। ।। १२६ ।। तालावकी मछलियां भारी शुक्रकों करनेवाली शीतल बल मूत्रकों देनेवाली है तालाव और सावलीकी मछलियां बल आयु मति दृष्टी इनकों करनेवाली है ।। १२७ ।। अथ ऋतुविशेषसें मत्स्यविशेष हेमन्तमें कुबेकी मछली शिशिर में सरो वरकी वसन्तमें नदीकी ग्रीष्म में गढईकी ॥ १२८ ॥ वरसातमें तलावकी हित होती और वरसात नदीकी अहित होती है झरनेकी शरद् में श्रेष्ठ होती है यह विशेष कहाहै ॥ १२९ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे मांसवर्गः समाप्तः || For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे कृतान्नवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्रान्नानां साधनप्रकार: सिद्धानां गुणाश्च. समवायिनि तौ ये मुनिभिर्गणिता गुणाः । कार्येऽपि तेऽखिला ज्ञेयाः परिभाषेति भाषिता ॥ १ ॥ कचित्संस्कारभेदेन गुणभेदो भवेद्यतः । भक्तं लघु पुराणस्य शालेस्तच्चिपिटो गुरुः ॥ २ ॥ कचिद्योगप्रभावेन गुणान्तरमपेक्ष्यते । कदन्नं गुरु सर्पिश्च लघूक्तं सुहितं भवेत् ॥ ३ ॥ अथ भक्तस्य नामानि साधनं सिद्धजा गुणाः । भक्तमन्नं तथान्धश्च क्वचित्कूरं च कीर्तितम् ॥ ४॥ aarisar स्त्रियां भस्सा दिविदः पुंसि भाषितः । सुधौतास्तण्डुलाः स्फीतास्तोये पञ्चगुणे पचेत् ॥ ५॥ तद्भक्तं प्रस्रुतं चोष्णं विशदं गुणवन्मतम् । भक्तं वह्निकरं पथ्यं तर्पणं रोचनं लघु ॥ ६ ॥ अधौतमश्रुतं शीतं गुर्वरुच्यं कफप्रदम् । दलितं शिम्बीधान्यं तु दालिर्दाली स्त्रियामुभे ॥ ७ ॥ दाली तु सलिले सिद्धा लवणार्द्रकहिङ्गुभिः । संयुक्ता सूपनानी स्यात्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ ॥ ८ ॥ सूपो विष्टम्भको रूक्षः शीतस्तु स विशेषतः । निस्तुषो भृष्टसंसिद्धो लाघवं सुतरां व्रजेत् ॥ ९॥ ३४ For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - अब अन्नोंके बनानेका प्रकार और बनेहुएके गुण परिभाषा समवाईकारणमें जो गुण मुनियोंनें माने हैं वे सब कार्यमें भी जानने चाहिये इसप्रकार परिभाषा कही है ॥ १ ॥ कहींपर संस्कारभेदसें गुणभेद होता है जैसे पुराने चावलोंका भात हलका और उसका चिडवा भारी होता है || २ || कहींपर योगके प्रभावसें गुणान्तर होजाता है कदन भारी सघृत हलका कहा है वोह हित होता है ॥ ३ ॥ अथ भातके नाम साधन और गुण भक्त अन्न अन्ध और कहींपर कहा है ॥ ४ ॥ नपुंसकमें ओदन स्त्रीलिंग भिस्सा दिविद पुल्लिंग में कहा है अच्छीतरह धोयेहुवे चावल बढायेहुवे पांचगुने पानी में पकावै ॥ ५ ॥ वोह पसेया हुवा गरम विशद गुणयुक्त भात कहा है भात दीपन पथ्य तर्पण रोचन हलका होता है || ६ || और बिनधोया तथा बिनपसेया शीतल भारी अरुचिकों देनेवाला और कफकारी होता है शिबीधान्य दाल यह दोनों रूप स्त्रीलिंग में होते हैं || ७ || दाल जलमें सिद्ध और लवण आर्द्रक हिङ्ग इनसें युक्तका सूप नामहै अब उसके गुण कहते हैं ॥ ८ ॥ दाल विष्टम्भ करनेवाली रूखी शीतल होती है विशेषसें वेछिलकेकी भूनके सिद्ध की हुई बहुत हलकी होजाती है ॥ ९ ॥ अथ खिचडीगुणाः. तण्डुला दालिसंसिना लवणार्द्रकहिङ्गुभिः । संयुक्त सलिले सिद्धा कशरा कथिता बुधैः ॥ १० ॥ कशरा शुकला बल्या गुरुः पित्तकफप्रदा । दुर्जरा बुद्धिविष्टम्भमलमूत्रकरी स्मृता ॥ ११ ॥ घृते हरिद्रासंयुक्ते माषजां भर्जयेद्वटीम् । तण्डुलांश्चापि निर्धोतान्सहैव परिभर्जयेत् ॥ १२ ॥ सिद्धयोग्यं जलं तत्र प्रक्षिप्य कुशलः पचेत् । लावणाई कहिंगूनि मात्रया तत्र निःक्षिपेत् ॥ १३ ॥ एषा सिद्धिः समानज्ञा प्रोक्ता तापहरी बुधैः । भवेत्तापहरी बल्या वृष्या श्लेष्माणमाचरेत् ॥ १४॥ बृंहणी तर्पणी रुच्या गुर्वी पित्तहरा स्मृता । टीका - दाल मिलेहुवे चावल लवण आर्द्रक हींगसें युक्त जलमें सिद्धकों पंडि For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तामवर्गः । २६७ तनें कुसरा कहा है || १० || खिचडी शुक्रकों करनेवाली बलके हित भारी पित्त कफकों देनेवाली और दुर्जर बुद्धि विष्टंभ मलकों करनेवाली कही है ॥ ११ ॥ हरदीके साथ घृतमें उडदकी वडियोंकों भूनेविनधोय चावलोकोंभी साथही भूने ॥ १२ ॥ उस्में पकनेके अंदाजसें जल डालकर चतुर पकावै लवण आर्द्रक हींग उस्में हिसाबसें डालै ॥ १३ ॥ इस सिद्धहईकों पंडितोंनें तायरी कहा है तायरी बaai देनेवाली शुक्र करनेवाली है और कफकों करती है ॥ १४ ॥ बृंहण तपण रुचि करनेवाली भारी पित्त हरती है. अथ क्षीर तथा सवयीमंडगुणाः. पायसं परमान्नं स्यात्क्षीरिकापि तदुच्यते । शुद्धेऽर्धपके दुग्धे तु घृताक्तांस्तण्डुलान्पचेत् ॥ १५ ॥ ते सिद्धा क्षीरिका ख्याता स सिताज्ययुतोत्तमा । क्षीरका दुर्जरा प्रोक्ता बृंहणी बलवर्धिनी ॥ १६ ॥ नालिकेरं तुनूत्य च्छिन्नं पयसि गोः क्षिपेत् । सितागव्याज्यसंयुक्ते तत्पचेन्मृदुनाऽग्निना ॥ १७॥ नारीरोद्भवा क्षीरी स्निग्धा शीतातिपुष्टिदा । गुर्वी सुमधुरा वृष्या रक्तपित्तानिलापहा ॥ १८ ॥ समितां वर्त्तिकां कृत्वा सूक्ष्मां तु यवसन्निभाम् । शुष्का क्षीरेण संसाध्या भोज्या घृतसितान्विता ॥ १९ ॥ सेविका तर्पणी बल्या गुर्वी पित्तानिलापहा । ग्राहिणी सन्धिकच्या तां खादेन्नातिमात्रया ॥ २०॥ गोधूमा धवला धौताः कुट्टिताः शोषितास्ततः । प्रोक्षिता यन्त्रनिष्पिष्टाश्चालिताः समिताः स्मृताः ॥ २१ ॥ वारिणां कोमला कृत्वा समितां साधु मर्दयेत् । हस्तलालनया तस्या लोप्त्रीं सम्यक् प्रसारयेत् ॥ २२ ॥ अधोमुखघटस्यैतद्विस्तृतं प्रक्षिपेद्वहिः । For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ हरीतक्यादिनिघंटे मृदुना वह्निना साध्यः सिद्धो मण्डक उच्यते ॥ २३ ॥ दुग्धेन साज्यखण्डेन मण्डकं भक्षयेन्नरः। अथवा सिद्धांसेन सत्तक्रवटकेन वा ॥ २४ ॥ मण्डको बृंहणो वृष्यो बल्यो रुचिकरो भृशम् । पाकेऽपि मधुरो ग्राही लघुर्दोषत्रयापहः ॥ २५ ॥ टीका-पायस परमान्न क्षीरिका यह क्षीरके नाम, शुद्ध अधओंटे दूध घृतयुक्त चावलोंकों पकावै ॥ १५॥ वोह शुद्ध क्षीरिका चीनी घृतसे युक्त उत्तम कहीहै दुर्जर खीर पुष्ट बलको बढानेवालीहै ॥ १६ ॥ नारियलकों छीलके गायके दूध डालै चीना गायकों घृतसे युक्त उस्को मन्दी आंचसे पकावै ॥ १७ ॥ नारियलकी खीर जिकनी शीत अतिपुष्टिकों करनेवाली भारी मधुर शुक्रकों करनेवाली और रक्त पित्त वात इनको हरतीहै ॥१८॥ सूक्ष्मजवके समान बराबर वत्तीकों करके सुकाकर दूधसें पकावै और घृत चीनीके साथ खावै ॥ १९॥ सेवई तर्पणी बलकों देनेवाली भारी पित्तवातकों हरती काविज सन्धि करनेवाली रुचिकों करनेवाली होतीहै उसको बहुत न खावै ॥ २० ॥ अब मंड मुफेड धोये कुटेहुवे और मुकायेहुवे गेहूंकों प्रोक्षित करके चकीसें पिसेहुवे तथा चलनीसें छानेहुवेकों समिता अर्थात मैदा कहाहै ॥ २१ ॥ मैदेको पानीमें घोलकरकै अच्छीतरह मर्दन करै हाथकी लालनासें उस्कों लोई अच्छीतरहसे करै ॥ २२ ॥ नीचेमुख उपर यह फैली हुईकों डालै मन्द अग्निसें सिद्ध हुईको मंड कहतेहैं ॥ २३ ॥ लोई इसप्रकार कहते हैं दूध घृत खांड इनसे मनुष्य मंडेकों खावै अथवा सिद्ध मांससे वादहीके बडेसें खावे ॥ २४ ।। मंडा शुक्रकों करनेवाला और बलके हित अत्यन्त रुचिको करनेवालाहै पाकमेंभी मधुर काविज हलका दोषत्रयको हरताहै ॥ २५ ॥ अथ पर्पटिका तथा लप्सीरोटीगुणाः. कुर्यात्समितयाऽऽतीव तन्वी पर्पटिका ततः । स्वेदयेत्तप्तके तां तु पोलिकां जगदुर्बुधाः ॥ २६ ॥ तां खादेल्लप्सिकायुक्तां तस्या मण्डकवद्गुणाः । समितां सर्पिषाभृष्टां शर्करां पयसि क्षिपेत् ॥ २७ ॥ तस्मिन् घनीकते न्यस्येल्लवङ्ग मरिचादिकम् । For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः। २६९ सि?षा लप्सिका ख्याता गुणास्तस्या वदाम्यहम् ॥२८॥ लप्सिका बृंहणी वृष्या बल्या पित्तानिलापहा । स्निग्धा श्लेष्मकरी गुर्वी रोचनी तर्पणी परम् ॥ २९ ॥ शुष्कगोधूमचूर्णेन किञ्चित्पुष्टां च पोलिकाम् । तप्तके स्वेदयेकत्वा भूर्यङ्गारेऽपि तां पचेत् ॥ ३० ॥ सि?षा रोटिका प्रोक्ता गुणं तस्याः प्रचक्ष्महे । रोटिका बलरुद्रुच्या बृंहणी धातुवर्धनी ॥ ३१ ॥ वातघ्नी कफरुगुर्वी दीप्तानीनां प्रपूजिता। टीका-मैदेसें अतीव सूक्ष्म पपडी करे उस्के अनन्तर उस्का तवेपर सेकै उसकों पोलिका विद्वानोंने कहाहै ॥ २६ ॥ उसको लपसीके साथ खावै उसका गुण मंडके समान है तप्तक तवा इसप्रकार लोकमें कहतेहैं मैदेकों घृतसें भूनकर शर्कराके साथ दूधमें डाले ॥२७॥ वह गाढा होजानेपर लोंग मिरच आदि डालै यह सिद्धहुई लप्सी कहीहै उस्के गुणोंकों कहतेहैं ॥ २८॥ लप्सी पुष्ट शुक्रकों करनेवाली बलकों करनेवाली पित्तवातकों हरती चिकनी कफकारी भारी रोचनी तर्पणीहै ॥ २९॥ सूके गेहूंके आटेसें कुछ मोटी रोटीकों तवेपर सेकै और सेककै उस्कों बहुतसे अंगारोंपर पकावै ॥ ३० ॥ इसको सिद्धरोटिका कहीहै उसके गुण कहतेहैं रोटी बलकों करनेवाली रुचिके हित पुष्ट धातुकों बढानेवाली ॥ ३१॥ वातहरती कफकों करनेवाली भारी दीप्ताग्निवालोंकों श्रेष्ठ है. अंगारकर्कटीरोटीमाषचणकादिपोलिकागुणाः. शुष्कगोधूमचूर्णं तु साम्बु गाढं विमर्दयेत् ॥ ३२ ॥ विधाय वटकाकारं नि मेऽनौ शनैः पचेत् । अङ्गारकर्कटी ह्येषा बृंहणी शुकला लघुः ॥३३॥ दीपनी कफबल्या पीनसश्वासकासजित्। यवजा रोटिका रुच्या मधुरा विशदा लघुः ॥ ३४ ॥ मलशुक्रानिलकरी बल्या हन्ति कफामयान् । माषानां दालयस्तोये स्थापितास्त्यक्तकञ्चकाः ॥ ३५॥ For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २७० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे आतपे शोषिता यन्त्रे पिष्टास्ता धूमसी स्मृता । धूमसी रचिता चैव प्रोक्ता झर्झरिका बुधैः ॥ ३६ ॥ झर्झरी कफपित्तघ्नी किञ्चिद्वातकरी स्मृता । चणक्या रोटिका रूक्षा श्लेष्मपित्तास्रनुद्गुरुः ॥ ३७ ॥ विष्टम्भिनी न चक्षुष्या तद्गुणा चातिशष्कुली । दालिः संस्थापिता तोयेततोपहृतकञ्चुका ॥ ३८ ॥ शिलायां साधु सम्पिष्टा पिष्टिका कथिता बुधैः । माषपिष्टिकया पूर्णा गर्भी गोधूमचूर्णतः ॥ ३९ ॥ रचता रोटिका सैव प्रोक्ता वेढमिका बुधैः । भवेढमिका बल्या वृष्या रुच्याऽनिलापहा ॥ ४० ॥ उष्मसन्तपर्णी गुर्वी बृंहणी शुक्रला परम् । भिन्नमूत्रमला स्तन्यमेदः पित्तकफप्रदा ॥ ४१ ॥ गुदकीलार्दितः श्वासं पङ्गिशूलानि नाशयेत् । टीका – सूके गेहूं के आटेकों जलके साथ गाढा ओसने ॥ ३२ ॥ वटकाकार करकै निर्धूम अग्निमें धीरेधीरे पकावै यह अंगारककडी पुष्ट शुक्रकों करनेवाली हलकी कही है || ३३ ॥ और दीपनी कफकों करनेवाली बलके हित और पीनस श्वास कास इनको हरनेवाली है जबकी रोटी रुचिकों करनेवाली मधुर विशद हलकी ॥ ३४॥ मल शुक्र वातकों करनेवाली बलके हित होती है और कफके रोगोंकों हरती है ॥ ३५ ॥ उड़द की दालकों पानीसें भिगोयकै छिलके निकाली हुईकों धूपमें सुकावै और चकी में पी उस्को धूमसी कही है धूमसी सेवनी हुई वोही झर्झरिका कहीं है || ३६ || झर्झरी कफपित्तकों हरती कुछ एक वातकों करनेवाली कहीं है चनेकी रोटी रूखी और कफ रक्तपित्त इनकों हरती भारी ॥ ३७ ॥ विष्टम्भ करनेवाली नेत्र केहित और उसीके गुण अतिशष्कुली है दालकों पानी में भिगोय के और उस्का छिलका निकालकर ॥ ३८ ॥ सिलपर अच्छी तरह पीसी हुईको पिट्टी पंडितोंनें कही है उडदकी पिठ्ठीकों आटेके भीतर भरके ॥ ३९ ॥ बनाई हुईकों वेटई पंडितोंनें कहा है बेडई बलकों करनेवाली शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली रुचिकों करने वाली वातहरती ||४०|| गरम सन्तर्पणी भारी पुष्ट शुक्रकों करनेवाली है मलमूत्रकों करनेवाली दुग्ध मेद पित्त कफ इनकों देनेवाली है ॥ ४१ ॥ और गुदकील अर्दित श्वास पक्तिशूल इनकों हरती है. For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः। २७१ अथ पापडपूरीवटकादिगुणाः. धूमणी रचिता हिङ्गुहरिद्रालवणैर्युता ॥ ४२ ॥ जीरकस्वर्जिकाभ्यां च तनूकत्य च वेल्लिता। पर्पटास्ते सदाङ्गारभृष्टाः परमरोचिकाः ॥४३॥ दीपनाः पाचना रूक्षा गुरवः किश्चिदीरिताः। मौद्गाश्च तद्गुणाः प्रोक्ता विशेषाल्लघवो हिताः ॥ ४४ ॥ चणकस्य गुणैर्युक्ताः पर्पटाश्चणकोद्भवाः । स्नेहभृष्ट्रास्तु ते सर्वे भाषेयुर्मध्यमा गुणैः ॥ ४५ ॥ माषाणां पिष्टिका पूज्या लवणाकहिङ्गुभिः । तया पिष्टिकया पूर्णा समिता कतपोलिका ॥ ४६॥ ततस्तैलेन पक्का सा पूरिका कथिता बुधैः । रुच्या स्वाही गुरुः स्निग्धा बल्या पित्तास्त्रदूषिका ॥ ४७ ॥ चक्षुस्तेजोहरी चोष्णा पाके वातविनाशिनी । तथैव घृतपक्कापि चक्षुष्या रक्तपित्तहृत् ॥४८॥ मषाणां पिष्टिका युक्ता लवणाकहिङ्गुभिः । कृत्वा विदध्याहटकास्तास्तैलेषु पचेच्छनैः ॥ ४९ ॥ विशुष्का वटका बल्या बृहणी वीर्यवर्धनी। वातामयहरी रुच्या विशेषादर्दितापहा ॥ ५० ॥ विबन्धभेदिनी श्लेष्मकारिणीऽत्यग्निपूजिता । संचूर्ण्य निक्षिपेत्तके भृष्टं जीरकहिङ्गुभिः ॥ ५१ ॥ लवणं तत्र वटकान् सकलानपि मजयेत् । शुक्रलस्तन वटको बलकद्रोचनो गुरुः ॥५२॥ विबन्धहृद्विदाही च श्लेष्मलः पवनापहः। राज्यक्तपातिनो वान्यान् पाचनांस्तांस्तु अक्षयेत् ॥ ५३॥ For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७२ हरीतक्यादिनिघंटे: मन्थनी नूतना धार्या कटुतैलेन लेपिता । निर्मलेनाम्बुनापूर्य तस्यां चूर्णं विनिः क्षिपेत् ॥ ५४ ॥ राजिकां जीरलवणहिङशुण्ठीनिशाकृतम् । निःक्षिपेटकांस्तत्र भाण्डस्यास्यं च मुद्रयेत् ॥ ५५ ॥ ततो दिनतयादूर्ध्वमम्लाः स्युर्वटका ध्रुवम् । काञ्जिको वटको रुच्यो वातघ्नः श्लेष्मकारकः ॥ ५६ ॥ शीतदाहशूलाजीर्ण हरते दृयुजापहः । टीका - पूर्वोक्त धूमसीसें हींग हलदी लवणको मिलाकै बनाया हुवा ॥ ४२ ॥ और जीरा सज्जी इनकों मिलाकै बारीक करके वेलाहुवा पापड है वे पापड अङ्गारेसें भूने हुए परम रोचक ॥ ४३ ॥ दीपन पाचन रूखे कुछ भारी कहें हैं और मूंhi उसीके समान गुणमें कहे हैं विशेष करके हलके हित होते है ॥ ४४ ॥ चनेके पापड चने के गुणके समान होते हैं वे सब तेलके भूनेहुवे गुण मध्यम ॥ ४५ ॥ उडदकी पिट्ठी लवण अद्रक हींगसें युक्त करके उस पिट्टीसें पूर्ण मैदाकी की हुई पोलिका || ४६ ॥ वो तेलसें पकीकों पूरिका पंडितोंनें कहीं है रुचिकों करनेवाली म धुर भारी चिकनी बलकेहित रक्तपित्तकों बिगाडनेवाली कहींहै ॥ ४७ ॥ नेत्रकी तेजीकों हरनेवाली गरम पाकमें वातकों हरनेवाली वैसेही घीकी पकी हुई भी नेत्रके हित रक्तपित्तकों हरती है ॥ ४८ ॥ अथ वडा उडदोंकी पिठ्ठी लवण अद्रक हींग इससें युक्त करके वडे बनावै उनकों तेलमें धीरेधीरे पकावै ॥ ४९ ॥ सुकेहुवे वडे बलकों करनेवाले पुष्ट धातुकों बढानेवाले वातरोगोंकों हरते रुचिकों करनेवाले विशेकरके अर्दितरोग नाशक हैं ॥ ५० ॥ विबन्धकों भेदन करनेवाली कफकों न करनेवाली अति अग्निमें पूजित है चूराकरके जीरा हींगके साथ मेठमें डाले ॥ ५१ ॥ और लवण उसमें सब वडौंकों डुबावे उस्मैका वडा शुक्रकों करनेवाला बलकों करनेवाला रोचन भारीहै ।। ५२ ।। विबन्धकों हरता विदाही कफकों करनेवाला वातहरता राइता घोला हुआ वा और कुछ पाचन उनकों खावै ॥ ५३ ॥ राइता इसप्रकार लोक में कहते हैं नवीन मन्थनी कटुतैलसें लेपित रख्खे उस्में निर्मल जल भरके यह चूर्ण डाले || ५४ ॥ राई जीरा लवण हींग सोंठ हल्दी इनसें किया हुवा उसमें वडे डाले और इस वरतनका मुख ठक देवै ॥ ५५ ॥ उस्से तीन दिनके वाद ds for खट्टे होते हैं कांजी बडा रुचिकों करनेवाला वातकों हरता कफकारक५६ शीत दाह शूल अजीर्ण इनकों हरता है और दृष्टिरोगमें अहित. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः। २७३ अथ अम्लिकामुद्माषकूष्मांडवटकगुणाः. अम्लिका स्वेदयित्वा तु जलेन सह मर्दयेत् । तन्नीरे कृतसंस्कारे वटकान्मजयेत्पुनः ॥ ५७ ॥ अम्लिकावटिकास्ते तु रुच्या वह्निप्रदीपनाः । वटकस्य गुणैः पूर्वैरेषोऽपि च समन्वितः ॥ ५८ ॥ मुद्गानां वटकास्तके भर्जिता लघवो हिमाः। संस्कारजप्रभावेन त्रिदोषशमना हिताः ॥ ५९ ॥ माषाणां पिष्टिका हिङ्गुलवणार्द्रकसंस्कृताः। तया विरचिता वस्त्रे वटिकाः साधुशोषिताः ॥ ६॥ भर्जितास्तप्ततैलैस्ता अथवाम्बुप्रयोगतः। वटकस्य गुणैर्युक्ता ज्ञातव्या रुचिदा भृशम् ॥ ६१॥ कूष्माण्डकवटी ज्ञेया पूर्वोक्तवटिकागुणा । विशेषात्पित्तरक्तघ्नी लघ्वी च कथिता बुधैः ॥ ६२ ॥ मुद्गानां वटिका तद्वद्रचिता साधिता तथा । पथ्या रुच्या तथा लघ्वी मुद्गसूपगुणा स्मृता ॥ ६३ ॥ टीका-इमलीकों गरम करके जलके साथ मले मसाला डाले हुवे उस जलमें वडोंकों डालदेवै ॥ ५७ ॥ वे इमलीके वडे रुचिकों करनेवाले अग्निदीपन पहिले वडोंके गुणके समानहैं ॥ ५८ ॥ मूंगकी वडियां भूनीहुई हलकी शीतल है और संस्कारके प्रभावसें त्रिदोषशमन तथा हित होतीहै ।। ५९ ॥ उडदकी पिढी हिंग लवण आईक इनसें संस्कार कीहुई उस्से बनीहुई कपडेपर अच्छीतरह सुकाय ६० गरम तेलसें भूने अथवा जलमें पकावै इस्कों वडेके गुणके समान जानना चाहिये और अत्यन्त रुचिकों करनेवालीहै ॥६१॥ कोहडौरी पूर्वोक्त वटिकाके गुण समानहै विशेषकरके पित्तरक्तकों हरती हलकी पंडितोंने कहीहै ।।६२॥ अनन्तर मूगकीवडी मूंगकी वटिका बनाईहुई और साधित पथ्य रुचिकों करनेवाली तथा हलकी मूंगकी दालके समान गुणमें कहीहै ॥ ६३ ॥ ३५ For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७४ हरीतक्यादिनिर्घटे अथ वटकभेदाः क्वथिकारणाश्च. माषपिष्टिकया लिप्तं नागवल्लीदलं महत् । तत्तु संस्वेदयेद्युक्तत्या स्थाल्यामास्तारकोपरि ॥ ६४॥ ततो निष्कास्य तं पण्ड्यं ततस्तैलेन भर्जयेत् । अलीकमत्स्य उक्तोऽयं प्रकारः पाकपण्डितैः ॥ ६५ ॥ तं वृन्ताकभटित्रेण वास्तूकेन च भक्षयेत् । स्थाल्यां घृते वा तैले वा हरिद्राहिङ्गुभर्जयेत् ॥ ६६॥ अवलेहनसंयुक्तं तकं तत्रैव निक्षिपेत् । एषा सिद्धा समरिचा कथिता कथिका बुधैः ॥ ६७ ॥ afथिका पाचनी रुच्या लघ्वी वह्निप्रदीपनी । कफानिलविबन्धघ्नी किञ्चित्पित्तप्रकोपिनी ॥ ६८ ॥ अलीकमत्स्याः शुष्का वा किंवा कथितया पुनः । बृंहणा रोचना वृष्या बल्या वातगदापहाः ॥ ६९ ॥ कोष्ठशुद्धिकरा et किञ्चित्पित्तप्रकोपनाः । अर्दिते सहनुस्तम्भे विशेषेण हिताः स्मृताः ॥ ७० ॥ टीका - उदकी पिट्ठीसें लिप्त बडा नागवेलका पान उस्कों तसलेमें कपडेकेऊपर युक्तिसें पकावै ॥ ६४ ॥ उसें निकालकर उसके टुकडे करके तेलके साथ भूनें टुकडा अर्थात् टुकडेकरके युक्त अलीकमत्स्यका येह प्रकार कहा है पाकपंडितोंने६५ इसकों भटेके भरतेके साथ अथवा वधुवेके साथ खावै तसलेमें घृत अथवा तेलमें हलदी हींग भूनें || ६६ || अवलेहनके साथ मठेकों उसीमें डालै यह सिद्ध मरि के साथ औटाईदुईको पण्डितोंने कही कही है ॥ ६७ ॥ हरिइन इसप्रकार लोकमें कहते हैं कढी पाचन रुचिकों करनेवाली हलकी दीपन कफ वात विबन्धकी नाशक कुछएक पित्तके प्रकोपकों करनेवाली है ॥ ६८ ॥ अलीकमत्स्य सूके अर्थात फिरसें औटाने से होते हैं पुष्ट रोचन शुक्रकों करनेवाले बलके हित वातरोगकों हरते हैं ।। ६९ ।। कोष्ठ शुद्धि करनेवाले शुक्तिके साथ कुछ पित्तप्रकोप करनेवाले कहे हैं अर्दित सहनुस्तंभ में विशेषकरके हित कहें हैं ॥ ७० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतानवर्गः। २७५ अथान्ये वटकप्रकाराः. मुद्गपिष्टाविरचितान्वटांस्तैलेन पाचितान् । हस्तेन चूर्णयेत्सम्यक् तस्मिंश्चूर्णे विनिःक्षिपेत् ॥ ७१ ॥ भृष्टं हिङग्वार्द्रकं सूक्ष्मं मरीचं जीरकं तथा। नीम्बूरसं जवानी च युक्त्या सर्व विमिश्रयेत् ॥ ७२ ॥ मुद्गपिष्टिं पचेत्सम्यक्स्थाल्यामास्तारकोपरि । तस्यास्तु गोलकं कुर्यात्तन्मध्ये पूरणं क्षिपेत् ॥ ७३ ॥ तैले तान् गोलकान्पक्त्वा क्वथिकायां निमजयेत् । गोलकाः पाचकाः प्रोक्तास्ते त्वाकवटा अपि ॥ ७४ ॥ मुद्गाकवटा रुच्या लघवो बलकारकाः । दीपनास्तर्पणाः पथ्यास्त्रिषु दोषेषु पूजिताः ॥ ७५॥ दालयश्चणकानां तु निस्तुषा यन्त्रपेषिताः । तन्नृण बेसनं प्रोक्तं पाकशास्त्रविशारदैः ॥ ७६ ॥ वटिका बेसनस्यापि कथिकायां निभर्जिता। रुच्या विष्टम्भजननी बल्या पुष्टिकरी स्मृता ॥ ७७ ॥ टीका-मुंगकी पिट्टीसें बनी वडीकों तेलसें पकावै उस्कों हाथसें अच्छीतरह चूर्ण करै उसचूरेमें इनकों डालै ॥ ७१ ॥ भूनी हींग अद्रक मिरच तथा जीरा इनकों पीसके डाले और नींबूका रस अजवायन इनकों युक्तिसे सबकों मिलावै ॥ ७२ ॥ तसलेमें कपडेके ऊपर मुद्गकी पिट्ठीकों अच्छीतरह पकावै उसका गोलक करके उसके बीचमें पूरण भरे ॥ ७३ ॥ इनगोलकोंकों तैलमें पकाके कढीमें डुबादेवै गोलक पाचक है और अक वटभी उसीकों कहतेहैं ॥ ७४ ॥ मूंगके आईवटक रुचिकों करनेवाले हलके बलकारक है और दीपन तर्पण पथ्य और तीनों दोषोंको अच्छेहैं ॥ ७६ ॥ चनेआदियोंकी दालोंकों वेछिलके करके चक्कीमें पीसै उस चूर्णकों बेसन पाकशास्त्रके जाननेवालोंने कहाहै ॥ ७६ ॥ बेसनकी वटिका भूनकै कढीमें पकीहुई रुचिकों करनेवाली विष्टंभको करनेवाली बलकेहित पुष्टिकों करनेवाली कहींहै ॥ ७७॥ For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २७६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ शुद्धमांसप्रकाराः. पाके पात्रे घृतं दद्यात्तैलं च तदभावतः । तत्र हिंगु हरिद्रां च भर्जयेत्तदनन्तरम् ॥ ७८ ॥ छागादेरस्थिरहितं मासं तत्खण्डितं ध्रुवम् । धौतं निर्गालितं तस्मिन्घृते तद्भर्जयेच्छनैः ॥ ७९ ॥ सिद्धयोग्यं जलं दत्त्वा लवणं तु पचेत्ततः । सिद्धे जलेन संपिष्य वेसवारं परिक्षिपेत् ॥ ८० ॥ द्रव्याणि वेसावारस्य नागवल्लीदलानि च । तण्डुलाश्च लवङ्गानि मरिचानि समासतः ॥ ८१ ॥ अनेन विधना सिद्धं शुद्धमांसमिति स्मृतम् । शुद्धमांसं परं वृष्यं बल्यं रुच्यं च बृंहणम् ॥ ८२ ॥ त्रिदोषशमकं श्रेष्ठं दीपनं धातुवर्धनात् । टीका - उस्सें शुद्धमांस सुधवा इसप्रकार लोकमें कहते है पकानेके वरतनमें घृत डाले उस्के अभावमें तेल डालै उसमें हींग हलदीकों भूनें और वाद ॥ ७७ ॥ बकरे आदिका बेहड्डीका मांस टुकड़े कियाहुवा और धोकै साफ कियाहुवा उस धीमें उसको धीरेधीरे भूने ॥ ७८ ॥ उसमें पकनेके योग्य जल देकर और लवण देकर पावै उसके अनन्तर सिद्धहुवेमें पानीसें गरम मसाला पीसकर उसमें डालै ७९ मसालेकी वस्तु पान चावल लवंग मरिच ये संक्षेपसें है ॥ ८० ॥ इसविधिसें सिद्ध कियाहवा शुद्धमांस ऐसा कहा है शुद्ध मांस परम शुक्रकों करनेवाला बलकारी रु चिकों करनेवाला पुष्ट || ८१ ।। ८२ ।। त्रिदोषका शमक श्रेष्ठ दीपन धातुबढानेसें है. अथ सेहुण्डकं अखनीनामगुणाः. छागादेर्मांसमूर्वादेः कुट्टितं खण्डितं पुनः ॥ ८३ ॥ शुद्ध मांसविधानेन पचेदेतत्सहार्द्रकम् । सहार्द्रकं गुणैर्ग्रन्थे शुद्धमांसगुणं स्मृतम् ॥ ८४ ॥ पाकपात्रे घृतं दत्त्वा हरिद्राहिङ्गुभर्जयेत् । For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७७ कृतान्नवर्गः। छागादेः सकलस्यापि खण्डान्यपि च भर्जयेत् ॥ ८५॥ सिद्धयोग्यं जलं दत्वा पचेन्मृदुतरं तथा। जीरकादियुते तके मांसखण्डानि तारयेत् ॥ ८६ ॥ तक्रमांसं तु वातघ्नं लघु रुच्यं बलप्रदम् । कफघ्नं पित्तलं किञ्चित्सर्वाहारस्य पाचनम् ॥ ८७॥ पाकपात्रे तु बृहती मांसखण्डानि निःक्षिपेत् । पानीयं प्रचुर सर्पिः प्रभूतं हिड जीरकम् ॥ ८८ ॥ हरिद्रामाकं शुण्ठी लवणं मरिचानि च । तण्डुलांश्चापि गोधूमान् जम्बीराणां रसान बहून् ॥ ८९॥ यथा सर्वाणि वस्तूनि सुपक्कानि भवन्ति हि। यथा पचेत्तु निपुणो बहुमांसं क्षितिर्यथा ॥९०॥ एषा हरीसा बलकद्वातपित्तापहा गुरुः । शीतोष्णा शुक्रदा स्निग्धा सरा सन्धानकारिणी ॥ ९१॥ टीका-सहर्वासु ऐसा लोकमें कहतेहैं बकरे आदिके जांघ आदिका मांस कुटाहुवा अलग अलग टुकड़े कियेहुवे ॥ ८३ ॥ इसकों शुद्धमांसकी विधीसें पकावै यह सहाद्रकहै सहद्रके निघंटमें शुद्धमांसके समान गुणमें कहाहै ॥ ८४ ॥ पकानेके पात्रमें घृत डालकर हलदी और हींगकों भूनें और बकरे आदिके सबके मांसके टुकडोंकोंभी भूनें ॥८६॥ पकनेके योग्य जल देकर मन्दआंचसे पकावै जीरा आदिकसे युक्त महेमें मांसके टुकडोंकों डालै॥८६॥ यह तक्रमांस वातहरता हलका रुचिकों करनेवाला बलकों देनेवाला कफहरता पितकों करनेवाला कुछ सब आहारका पाचकहै॥८७॥ पकानेके वरतनमें वेडे मांसके टुकडे डालै पानी बहुतसा घृत बहुत हीङ्ग जीरा ८८ अद्रक हलदी सोंठ लवण मिरच चावल और गेहूं जम्बीरीका बहुत रस ॥ ८९॥ जिसमें सब मांस अच्छीतरह पकजावै वैसे सब वस्तुवोंकों निपुण पकावै जैसे बहुत मांसमें क्षिति ॥ ९० ॥ यह हरीसा बलकों करनेवाला वातपित्तकों हरता भारी शीत उष्ण शुक्रकों करनेवाला चिकना सर सन्धान करनेवाला है ॥ ९१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७८ हरीतक्यादिनिघंटे अथ तलितमांसगुणाः शुद्धमांसविधानेन मांसं सम्यक्प्रसाधितम् । पुनस्तदाज्ये सम्भृष्टं तलितं प्रोच्यते बुधैः ॥ ९२ ॥ तलितं बलमेधाग्निमांसौजः शुक्रवृद्धिरुत् । तर्पणं लघु सुस्निग्धं रोचनं दृढताकरम् ॥ ९३ ॥ कालखण्डादिमांसानि ग्रन्थितानि शलाकया । घृतं सलवणं दत्वा निर्धूमे दहने पचेत् ॥ ९४॥ तत्तु शुल्यमिदं प्रोक्तं पाककर्मविचक्षणैः । शूल्यं पलं सुधातुल्यं रुच्यं वह्निकरं लघु ॥ ९५ ॥ कफवातहरं बल्यं किञ्चित्पित्तकरं हि तत् । शुद्धमांसं तनूकृत्य कर्त्तितं स्वेदितं जले ॥ ९६ ॥ लवङ्गहिङ्गुलवणमरिचार्द्रकसंयुतम् । एलाजीरकधान्याकनिम्बूरससमन्वितम् ॥ ९७ ॥ घृते सुगन्धे तद्दृष्टं मांसं शृंगाटकोच्यते । मांसं शृंगाटकं रुच्यं वृंहणं बलगुरु ॥ ९८ ॥ वातपित्तहरं वृष्यं कफघ्नं वीर्यवर्धनम् । सिद्धमांसरसो रुच्यः श्रमश्वासक्षयापहः ॥ ९९॥ प्रीणनो वातपित्तघ्नः क्षीणानामल्परेतसाम् । विश्लिष्ट भग्नसन्धीनां शुद्धानां शुद्धिकाङ्क्षिणाम् ॥ १०० ॥ स्मृत्योजोबलहीनानां ज्वरक्षीणक्षतोरसाम् । शस्यते स्वरहीनानां दृष्ट्वायुः श्रवणार्थिनाम् ॥ १०१ ॥ प्रकाराः कथिताः सन्ति बहवो मांससम्भवाः । ग्रन्थविस्तारभतेस्ते मया नात्र प्रकीर्त्तिताः ॥ १०२ ॥ टीका - शुद्धमांसकी विधिसें मांसकों अच्छीतरह पका करकै फिरसें उसकों Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः । २७९ घृतमें भूनें उसको तलितमांस कहते हैं ।। ९२ ।। तलाहुवा मांस बल कान्ति मांस और शुक्र इनकों बढानेवाला तर्पण हलका बहुत स्निग्ध राचन दृढता करनेवालाहै ॥ ९३ ॥ कालखण्डादि मांसोंकों सीखमें लगाकर निमक घी देकर निर्धूम अग्निमें पावै ९४ उसको शूल्य ऐसा कहा है पाककर्ममें चतुर पुरषोंनें शूल्यमांस अमृतके समान रुचिकों करनेवाला दीपन हलका ।। ९५ ।। कफवातकों हरता बलकों करनेवाला कुछ पित्तकों करनेवाला वोह होता है शुद्धमांस बारीक करके जलमें पकावै ॥ ९६ ॥ लोंग होंग लवण मरिच और आर्द्रक इनसें युक्त तथा इलायची जीरा धनियां नीम्बूका रस इनसें युक्त ॥ ९७ ॥ अच्छे घृतमें उस्कों भूने उसकों मांस शृंगाटक कहते है ॥ ९८ ॥ मांसशृंगाटक रुचिकों करनेवाला पुष्ट बल करनेवाला भारी होताहै और वातपित्तकों हरता शुक्रकों करनेवाला कफहरता वीर्यकों बढानेवाला है सिद्धमांसका रस रुचिकों करनेवाला श्रम श्वास क्षय इनकों हरता है ॥ ९९ ॥ और प्रीणन वातपित्तकों हरता और क्षीण तथा अल्प शुक्रवाले इनकों और विश्लिष्ट भग्नसन्धीवाले शुद्धचाहनेवाले ॥१००॥ स्मृति ओज बल इनसें हीन ज्वर क्षीण क्षत उरवाले इनकों हितहै और हीनखरवाले तथा दृष्टि आयु श्रवणार्थियोंकोंभी हित है ॥ १०१ ॥ मांसकी बहुतसी किस्म बनाने की है परन्तु ग्रन्थ बढजानेके डरसें उनकों मैनें यहांपर नहीं कहा है ॥ १०२ ॥ अथ शाकनां प्रकारः. हिङ्गुजीरयुते तैले क्षिपेच्छाकं सुखण्डितम् । लवणं चाम्लचूर्णादिसिद्धे हिंगूदकं क्षिपेत् ॥ १०३॥ इत्येवं सर्वशाकानां साधनोऽभिहितो विधिः । समितामर्दयेदन्यजलेनापि च सन्नयेत् ॥ १०४॥ तस्यास्तु वटिकां कृत्वा पचेत्सर्पिषि नीरसम् । एलालवङ्गकर्पूरमरीचाद्यैरलङ्कृते ॥ १०५ ॥ मज्जयित्वा सितापाके ततस्तं च समुद्धरेत् । अयं प्रकारः संसिद्धो मठ इत्यभिधीयते ॥ १०६॥ मठस्तु बृंहणो वृष्यो बल्यः सुमधुरो गुरुः । पित्तानिलहरो रुच्यो दीप्ताग्नीनां सुपूजितः ॥ १०७॥ For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० हरीतक्यादिनिघंटे समिताः शर्करासपिर्निर्मिता अपरेऽपि ये । प्रकारा अमुना तुल्यास्तेऽपि चेत्तद्गुणाः स्मृताः ॥ १०८॥ पर्पट्यः साज्यसमिताःनिर्मिता घृतभर्जिताः। कुहिताश्चालिताः शुद्धशर्कराभिर्विमर्दिताः॥ १०९॥ तत्र चूर्णं क्षिपेदेलालवङ्गमरिचानि च। नालिकेरं सकर्पूरं चारबीजान्यनेकधा ॥ ११०॥ टीका हींग जीराके सहित तेलमें अच्छी तरह बनाईहुई शाकको डाले ॥ १०३ ॥ लवण आमचूरआदि सिद्धहुवेमें होगका पानी डाले इसमकार सब शाकोंके बनानेकी विधि इष्ट है ॥ १०४ ॥ मैदेकों मलै और पानीसें सानै उस्की वटिका करके घृतमें नीरस पकावै इलायची लवंग कपूर मरिचआदिसें युक्त ॥१०५॥ इस्कों चीनीके पाकमें डालै अनन्तर उस्कों निकालै इसतरहपर सिद्धहुवेकों मठडी ऐसा कहतेहैं ॥ १०६ ॥ मठडी पुष्ट शुक्रको करनेवाली बलकेहित अच्छी मधुर भारी पित्तवातकों हरती रुचिकों करनेवाली दीप्ताग्निवालोकों अच्छीहै ॥ १०७॥ औरभी जो मैदा शकर घी इनसें बनायेहुवे पदार्थ इसीके समान गुणमें है वेभी उसीके समान गुणवाले कहेहैं ॥ १०८ ॥ घृतके सहित मैदेसें बनायेहुवे रोट घीमें भूनेहुवे ॥ १०९ ॥ उस चूर्णमें इलायची लवंग मरिच नारियल कपूर चिरोंजी और अनेक प्रकार ॥ ११० ॥ अथ कर्पूरनालिकेलीगुणाः. घृताक्तसमिता पुष्टरोटिका रचिता ततः । तस्यान्तः पूरणं तस्य कुर्यान्मुद्रां दृढां सुधीः ॥ १११॥ सर्पिषि प्रचुरे तां तु सुपचेन्निपुणो जनः। प्रकारज्ञैः प्रकारोऽयं सम्पाव इति कीर्तितः ॥ ११२॥ घृताढ्यया समितया लाम्बं कृत्वा पुटं ततः । लवङ्गोल्बणकर्तरयुतंच सितयाऽन्वितम् ॥ ११३॥ पचेदाज्येन सिद्धे सा ज्ञेया करिनालिका । सम्पावसदृशी ज्ञेया गुणैः कर्पूरनालिका ॥ ११४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः । समिताया घृताढ्याया वार्तिं दीर्घा समाचरेत् । तास्तु सन्निहिता दीर्घाः पीठस्योपरि धारयेत् ॥ ११५ ॥ वेल्लल्लनेनैता यथैका पर्पटी भवेत् । ततश्छुरिया तां तु सलग्नामेव कर्तयेत् ॥ ११६ ॥ ततस्तु वेल्लद्रूप सहकेन च लेपयेत् । शालिचूर्णं घृतं तोयं मिश्रितं दशकं वदेत् ॥ ११७ ॥ ततः संवृत्य तल्लोत्रीं विदधीत पृथक्पृथक् । पुनस्तां वेल्लयेल्लोलीं यथा स्यान्मण्डलाकृतिः ॥ ११८ ॥ ततस्तां सुपचेदाज्ये भवेयुश्च पुटाः स्फुटाः । सुगन्धया शर्करया तदुद्धृलनमाचरेत् ॥ ११९ ॥ सिद्वैषा फेनिका नाम्नी मण्डकेन समा गुणैः । ततः किञ्चिल्लघुरियं विशेषोऽयमुदाहृतः ॥ १२० ॥ For Private and Personal Use Only २८१ टीका - उसके अनन्तर मैदेमें घी मिलाकर मोटी रोटी बनावै उसके अनन्तर उसके बीच में उसका पूरण देवे और दृढ मुद्र बुद्धिवान् करे ॥ १११ ॥ बुद्धिवान उसको बहुतसे घृतमें पकावै तरकीवके जाननेवालोंनें इसकों सम्पाव ऐसा कहा है ॥ ११२ ॥ बहुत घृत डालकर मैदेसें लम्बा पुटकरके अनन्तर लवंग अधिक कपूर के युक्त चीनीसें युक्तकों ॥ ११३ ॥ घृतमें पकावै यह सिद्धकर्पूर नालिका जाननी चाहिये संपावके समान गुणमें कर्पूरनालिका जाननी चाहिये ॥ ११४ ॥ घृतके सहित मैदे से लम्बी बत्ती करै वोह सन्निहित दीर्घपीडे के ऊपर रख्खे ॥ ११५ ॥ इनकों वेलनेसें वेलै जिसमें एक रोटी होजावै उसके अनन्तर उनकों छुरीसें लगी हुईकोही कठै ॥ ११६ ॥ फिर उसे बेलै और सट्टक अर्थात् चावलका आटा उस्सें लेपन करै चावलका चूर्ण घृत जल इन सब मिलेहुवेकों दशक कहते हैं ।। ११७ ॥ उस्सें लोई गोल करकै अलगअलग रख्खे फिर उस लोईकों वेलै जिसमें मंडलाकृति होजावै ॥ ११८ ॥ उसके अनन्तर उसकों घृतमें पकावै उसके पडते खिलजाते हैं सुगन्धचीनीकों उसके ऊपर बुरकावे ॥ ११९ ॥ सिद्ध येह फेनीनाम मंडकके समान गुणमें होती है उस्सें कुछ हलकी यह होती है यह विशेष कहा है ॥ १२० ॥ ३६ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८२. www.kobatirth.org हरीतक्यादिनिघंटे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ शष्कुली सेविकामोदकगुणाः. समिताया घृताक्ताया लोप्लीं कृत्वा च वेल्लयेत् । आज्ये तां भर्जयेत्सिद्धा शष्कुली फेनिकागुणा ॥ १२१ ॥ घृताढ्या समितया कृत्वा सूत्राणि तानि तु । निपुणो भर्जयेदाज्ये खण्डपाकेन योजयेत् ॥ १२२ ॥ युक्तेन मोदकान्कुर्यात्ते गुणैर्मण्डका यथा । मुद्रानां धूमसी सम्यग्घोलयेन्निर्मलाऽम्बुना ॥ १२३ ॥ कटाहस्य वृतेरूर्ध्व झर्झरं स्थापयेत्ततः । धूमसीं तु द्रवीभूतां प्रक्षिपेज्झर्झरोपरि ॥ १२४ ॥ पतन्ति बिन्दवस्तस्मात्तान् सुपक्कान् समुद्धरेत् । सितापाकेन संयोज्य कुर्याद्धस्तेन मोदकान् ॥ १२५॥ लघुग्रही त्रिदोषघ्नः स्वादुः शीतो रुचिप्रदः । चक्षुष्यो ज्वरहृद्वल्यस्तर्पणो मुद्गमोदकः ॥ १२६॥ टीका - ( क ) वेल वेलन रोटी लोई अनन्तर सोहरी घृतसहित मैदेकी लोई बनाकरवेले उस्को घृतमें पकावै वोह सिद्ध हुई फेनिके समान गुणमें होती है ॥ १२१ ॥ घृतके सहित मैदारों सूत्रकरके उनकों निपुण घृतमें पकावै अनन्तर खां - डके पाकमें उसकों डालै ॥ १२२ ॥ उनके लड्डु करै वे गुणमें मण्डकके समान होते हैं मूंगके आटेकों निर्मल जलमें घोलै ॥ १२३ ॥ कटाईके किनारेपर झारेकों रखे अनन्तर उस घोलेहुए मूंगके आटेकों झारेके ऊपर डाले ॥ १२४ ॥ उस्सें बुंद गिरते हैं उन पकेहुवकों निकाललेवे चीनीके पाक में मिलाकर हाथसें लड्डु बनावै || १२५ || यह हलका काविज त्रिदोषहरता मधुर शीतल रुचिकों करनेवाला नेत्रके हित ज्वर हरता बलकारी तर्पण मृद्गके लड्डु होते हैं ॥ १२६ ॥ अथ सेवनमोदक तथा जिलेबी गुणाः. एवमेव प्रकारेण कार्याः सेवनमोदकाः । ते बल्या लघवः शीताः किञ्चिद्वातकरास्तथा ॥ १२७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतानवर्गः। २८३ विष्टम्भिनो ज्वरनाश्च पित्तरक्तकफापहाः। तण्डुलचूर्णविमिश्रितनष्टक्षीरण सान्द्रपिष्टेन ॥ १२८॥ दृढकूपिकां विदध्यात्तां च पचेत्सर्पिषा सम्यक् । अथ तां केरितमध्यां धनपयसा पूर्णगर्भा च ॥ १२९ ॥ शट्टकमुद्रितवदनां सर्पिषि संपकवदनां च । अथ पाण्डुखण्डपाके स्नपयेत्कर्पूरवासिते कुशलः॥ १३०॥ दुग्धकूपी समाख्याता बल्या पित्तानिलापहा । वृष्या शीता गुर्वी शुक्रकरी बृंहणी तथा रुच्या ॥ १३१॥ विदधाति कायपुष्टिं दृष्टिं दूरप्रसारिणीं सुचिरम् । नूतनं घटमानीय तस्यान्तः कुशलो जनः ॥ १३२॥ प्रस्थापिरिमाणेन दग्धाऽम्लेन प्रलेपयेत् । द्विःप्रस्थां समितां तत्र दध्यम्लं प्रस्थसम्मितम् ॥ १३३॥ घृतमर्धशरावं च घोलयित्वा घृते क्षिपेत् । आतपे स्थापयेत्तावद्यावद्याति तदम्लताम् ॥ १३४॥ ततस्तत्प्रक्षिपेत्पात्रे सच्छिद्रे भाजने तु तत् । परिभ्राम्य यथास्वं च तत्तु तप्ते घृते क्षिपेत् ॥ १३५॥ पुनः पुनस्तदावृत्त्या विदध्यान्मण्डलाकृतिम् । तां सुपक्कां घृतान्नीत्वा सितापाके तनुद्रवे ॥ १३६ ॥ कर्पूरादिसुगन्धं च स्नापयित्वोद्धरेत्ततः। एषा कुण्डलिनी नाना पुष्टिकान्तिबलप्रदा ॥ १३७॥ धातुवृद्धिकरी वृष्या रुच्या च क्षिप्रतर्पणी। टीका-ऐसही सेवके लड्डु बनावै वे बलके हित हलके शीतल कुछ एक वातकों करनेवाले हैं ॥ १२७ ॥ और विष्टम्भ करनेवाला ज्वरहरता तथा रक्त पित्त कफ इसकों हरताहै अनन्तर दुग्धकूपिका चांवलके आटेकों मिलाकरके फटे दूधकों मसा करके ॥ १२८ ॥ उसे दृढकूपी करै उसको धीमें पकावै अनन्तर उसकों बी For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ हरीतक्यादिनिघंटे चमेंसें खाली करके उसमें खोया भरै ॥ १२९ ॥ और उस्का मुख चांवलके आटेसें बन्द करके धीमें पकावै अनन्तर सुफेद खांडके पाकमें डुबावै कपूरके वासितमें कुशल ॥ १३० ॥ अनन्तर दुग्धकूपी वो बलके हित पित्तवातकों हरती है शुक्रकों करनेवाली शीतल भारी पुष्ट रुचिको करनेवालीहै ॥ १३१॥ और शरीरकी पुष्टिकों करताहै तथा बहुतकालतक अच्छी दृष्टी करतीहै कुशल मनुष्य नयाघडाकर उस्के भीतर ॥१३२ ॥ आधसेर खट्टा दहीसे लेप करावे उसमें दोसेर मैदा और एकसेर खट्टा दही ॥ १३३ ॥ पावभर घृत इनकों घोलकर घृतमें डालै इसको धूपमें रख्खै तबतक जबतक खट्टापन इस्में न आवै ॥ १३४ ॥ अ. नन्तर छेकवाले वरतनमें उसको डालै उसको घुमारकर जलतेहुवे धीमें डालै १३५ फिर उसकी फेरसे मंडलाकृति करै उस पकीहुईको घृतसे निकालकर चीनीके पतले पाकमें डालै ॥ १३६ ॥ कपूर आदिसें युक्तमें डालकर निकाललेवै यह जिलेबी पुष्ट कान्ति बलकों देनेवालीहै ॥ १३७ ॥ और धातुको बढानेवाली शुक्रकों करनेवाली नेत्रकी तर्पणहै. __ अथ शिखरिणीगुणाः, आदौ माहिषमम्लमम्बुरहितं दध्याढकं शर्करां शुभ्रां प्रस्थयुगोन्मितां शुचिपटे किञ्चिच्च किञ्चिक्षिपेत् । दुग्धेनार्धघटेन मृण्मयनवस्थाल्यां दृढं स्रावयेदेलांबीजलवङ्गचन्द्रिमरिचैयौंग्यैश्च तद्योजयेत् ॥ १३८॥ भीमेन प्रियभोजनेन रचिता नाना रसाला स्वयं श्रीकृष्णेन पुरा पुनःपुनरियं प्रीत्या समास्वादिता । एषा येन वसन्तवर्जितदिने संसेव्यते नित्यशस्तस्य स्यादतिवीर्यवृद्धिरनिशं सर्वेन्द्रियाणां बलम् ॥ १३९ ॥ ग्रीष्मे तथा शरदि ये रविशोषिताङ्गाः ये च प्रमत्तवनितासुरतादिखिन्नाः । ये चापि मार्गपरिसर्पणशीर्णगात्रास्तेषामियं वपुषि पोषणमाशु कुर्यात् ॥ १४०॥ रसाला शुक्रला बल्या रोचनी वातपित्तजित् । दीपनी वृंहणी स्निग्धा मधुरा शिशिरा सरा ॥ १४१॥ For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कतान्नवर्गः । रक्तपित्ततृषादाहप्रतिश्यायान् विनाशयेत् । टीका - पहिले भैसकी जलरहित चारसेर दहीकों सफेद दोसेर शर्कराके सहित सुफेद कपडेपर थोडा थोडा डालै अर्ध घट दुग्धसें नई मिट्टीकी स्थालीमें छrait इलायची लोंग चन्दन मरिच और उचित उसमें डाले ॥ १३८ ॥ अच्छे भोजनकरनेवाले भीमसेननें रसालानाम स्वयं बनाई है पहिले श्रीकृष्णनें वारंवार इसकों प्रीतिसें आस्वादन किया है इसकों जो वसन्तसें रहित दिनों में नित्य सेवन करते हैं उसके अतिवीर्यवृद्धि और सब इन्द्रियोंका बल होता है ॥ १३९ ॥ ग्रीष्म में तथा शरदमें जो सूर्यसें शोषित अंगवाले हैं और जो प्रमत्तस्त्रीके मैथुनसें अतिखिन्न तथा जो मार्ग चलनेसें शीर्णगात्र है उनके शरीरमें यह पोषण शीघ्र करता है १४० रसाला शुक्रकों करनेवाली बलके हित रोचन वातपित्तकों हरनेवाली है और दी - पन पुष्ट चिकनी मधुर शीतल सरहै ॥ १४१ ॥ रक्त पित्त तृषा दाह. प्रतिश्याय इनकों हरती है ॥ For Private and Personal Use Only २८५ अथ सरबत जलेन शीतलेनैव घोलिता शुभ्रशर्करा ॥ १४२ ॥ एलालवङ्गकर्पूरमरिचैश्च समन्विता । शर्करोदकनाम्ना तत्प्रसिद्धं विदुषां मुदे ॥ १४३॥ शर्करोदकमाख्यातं शुक्रलं शिशिरं सरम् । बल्यं रुच्यं लघु स्वादु वातपित्तप्रणाशनम् ॥ १४४॥ मूर्च्छाछर्दितृषादाहज्वरशान्तिकरं परम् । आम्रमामं जले स्विन्नं मर्दितं दृढपाणिना ॥ १४५ ॥ सिताशीताम्बुसंयुक्तं कर्पूरमारिचान्वितम् । प्रपानकमिदं श्रेष्ठं भीमसेनेन निर्मितम् ॥ १४६॥ सद्योरुचिकरं बल्यं शीघ्रमिन्द्रियतर्पणम् । अम्लिकायाः फलं पक्कं मर्दितं वारिणा दृढम् ॥ १४७ ॥ शर्करामरिचैर्मिश्रं लवङ्गेन्दुसुवासितम् । अम्लिका फलसम्भूतं पानकं वातनाशनम् ॥ १४८ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ हरीतक्यादिनिघंटे पित्तश्लेष्मकरं किञ्चित्सुरुच्यं वह्निबोधनम् । भागैकं निम्बुजं तोयं षड्भागं शर्करोदकम् ॥ १४९॥ लवङ्गमरिचैमिश्रं पानं पानकमुत्तमम् । निम्बूफलभवं पानमत्यम्लं वातनाशनम् ॥ १५०॥ वह्रिदीप्तिकरं रुच्यं समस्ताहारपाचकम् । शिलायां साधु सम्पिष्टं धान्यकं वस्त्रगालितम् ॥ १५१॥ शर्करोदकसंयुक्तं कर्पूरादिसुसंस्कृतम् । नूतने मृण्मये पात्रे स्थितं पित्तहरं परम् ॥ १५२ ॥ टीका-शीतल जलसें घोलीहुई सुफेदचीनी ॥ १४२ ॥ और इलायची ल. वङ्ग कपूर मरिच इनसे युक्त शर्करोदक नामसें प्रसिद्ध पंडितोंके सुखमेंहै ॥ १४३ ॥ शर्करोदक प्रसिद्ध है शुक्रकों करनेवाला शीतल सरहै और बलके हित रुचिकों करनेवाला हलका मधुर वातपित्तकों हरता है ॥ १४४-॥ और मूर्छा वमन तृषा दाह ज्वरकी शान्तिकों करनेवाला है अथ पनेकी कृति उस्में आमका पना कच्चे आमको पानीमें उवालके हाथसें खूब मलै ॥ १४५ ॥ चीनी और शीतलजलसे युक्त और कपूर मरिचके साथ यह प्रपानक श्रेष्ठ भीमसेनका वनयाहुवा ॥ १४६ ॥ तकाल रुचिकों करनेवाला बलकेहित शीघ्र इन्द्रियका तर्पणहै पकी इमलीको पानीके साथ खूब मलै ॥ १४७ ॥ शक्कर और मरिचसे युक्त और लवङ्ग कपूरसे सुवासित यह इमलीका पना वातकों हरता है ॥ १४८ ॥ और पित्त कफकों करनेवाला किंचित् तथा रुचकर दीपन है निम्बूका पना एकभाग नीम्बूका रस छः भाग सरबत ॥ १४९ ॥ लोंग मिरचसे युक्त पना पनामें श्रेष्ठ है निंबूका पना बहुत खट्टा वातहरता ॥ १५०॥ अग्निदीपन रुचिकर सम्पूर्ण आहारकों पकानेवाला है धनियाका पना सिलपर अच्छीतरह पिसा हुवा धनिया कपडछान करकै ॥ १५१ ॥ सर्वतके सहित कपूर आदिसे युक्त नवीन मिट्टीके वरतनमें रख्खाहुआ परमपित्तकों हरता है ॥ १५२॥ अथ कांजिकजाली तथा तक्रगुणाः. काञ्जिविधिर्वटकावसरे लिखितः। कालिकं रोचनं रुच्यं पाचनं वह्निदीपनम् । For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतानवर्गः। २८७ शुलाजीर्णविबन्धनं कोष्ठशुद्धिकरं परम् ॥ १५३ ॥ न भवेत्काञ्जिकं यत्र तत्र कालिः प्रदीयते । आममाम्रफलं पिष्टं राजिका लवणान्वितम् ॥ १५४ ॥ भृष्टहिङ्गुसमायुतं घोलितं जालिरुच्यते। जालिहरति जिह्वायाः कुण्ठत्वं कण्ठशोधनी ॥ १५५॥ मन्दमन्दं तु पीता सा रोचनी वन्हिबोधिनी । तुर्याशेन जलेन संयुतमतिस्थूलं सदम्लं दधि ॥ १५६ ॥ प्रायो माहिषमम्बुकेन विमले मुद्भाजने मालयेत् । भृष्टं हिङ्गु च जीरकं च लवणं राजी च किञ्चिन्मिताम् । पिष्ट्वा तत्र विमिश्रयेद्भवति तत्तकं न कस्य प्रियम् ॥१५७॥ तकं रुचिकरं वह्निदीपनं पाचनं परम् । उदरे ये गदास्तेषां नाशनं तृप्तिकारकम् ॥ १५८ ॥ विदाहीन्यन्नपानानि यानि भुङ्क्ते हि मानवः । तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं भोजनान्ते पयः पिबेत् ॥ १५९ ॥ टीका-कांजीकी विधि वटकके अवसरमें कही है कांजी रोचन रुचिकों करनेवाली पाचन अग्निदीपनहै और शूल अजीर्ण विवन्धकों हरता तथा परम कोष्ठशुद्धिको करनेवाला है ॥१५३॥ जहांपर कांजी न हो वहांपर कालिः दो जाती है अ. नन्तर कांजी कच्चे आमके फलकों पीसकर राई और लवणसे युक्त ॥ १५४ ॥ भूनी हीङ्गके सहित घोली हुईकों जालि कहते हैं जीभकी कुंठताकों जालि हरती है और कण्ठकी शोधन है ॥ १५५ ॥ मन्दमन्ह पीहुई वोह रोचन अग्निकों जगानेवालीहै चौथाई जलसे युक्त अतिस्थूल अच्छा खट्टा दही ॥१५६ ॥ प्रायः भैसका जलसें विमल मिट्टीके वरतनमें रख्खे भूनाहुवा हींग जीरा लवण राईभी कुछ युक्त पीसके उसमें मिलावै वोह महा किसके प्रिय नहीं होता ॥ १५७ ॥ महा रुचिकर दीपन पाचन और उदरके जो रोग हैं उनको हरता तृप्तिकारक है ॥१५८॥ मनुष्य जिन विदाहि अन्नपानोंका भोजन करता है उसके विदाहप्रशान्तिके अर्थ भोजनके अन्तमें दुग्ध पीवै ॥ १५९ ।। दुग्धवर्गमें दुग्धके और गुण कहेहैं । For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ हरीतक्यादिनिघंटे अथ सक्तवः धान्यानि भ्राष्ट्रभृष्टानि यन्त्रपिष्टानि सक्तवः । यवजाः सक्तवः शीता दीपना लघवः सराः ॥ १६० ॥ कफपित्तहरा रूक्षा लेखनाच प्रकीर्तिताः । ते पीता बलदा वृष्या बृंहणा भेदनास्तथा ॥ १६१॥ तर्पणा मधुरा रुच्याः परिणामे बलापहाः। कफपित्तश्रमक्षुत्तृवृद्धि नेत्रामयापहाः ॥ १६२॥ प्रशस्ता धर्मे दाहाढयव्यायामार्तशरीरिणाम् । निस्तुषैश्चणकै ष्टैस्तुर्यांशैश्च यवैः कृताः॥ १६३॥ सक्तवः शर्करासर्पियुक्ता ग्रीष्मेतिपूजिताः। सक्तवः शालिसम्भूता वह्निदा लघवो हिमाः ॥ १६४॥ मधुरा ग्राहिणी रुच्या पथ्याश्च बलशुक्रदाः। न भुक्त्वा न रदैश्छित्वा न निशायां नवा बहून् ॥१६५॥ न जलान्तरितान् तद्धि सक्तनद्यान्न केवलान् । पृथक् पानं पुनर्दानं आमिषं पयसा निशि ॥ १६६ ॥ दन्तच्छेदनमुष्णां च सप्त सक्तुषु वर्जयेत् ।। यवास्तु निस्तुषा भृष्टाः स्मृता धाना इति स्त्रियाम् ॥१६७॥ धानाः स्युर्दुर्जरा रूक्षा स्तृप्रदा गुरवश्च ताः। तथा मेहकफच्छर्दिनाशिन्यः सम्प्रकीर्तिताः ॥ १६८॥ येषां स्युस्तण्डुलास्तानि धान्यानि सतुषाणि च भृष्टानि स्फुटितान्याहु जानिति मनीषिणः ॥ १६९॥ लाजाः स्युर्मधुराः शीता लघवो दीपनाश्च ते । स्वल्पमूत्रमला रूक्षा बल्या पित्तकफच्छिदः ॥ १७०॥ छर्यतीसारदाहास्त्रमेहमेदस्तृषापहाः। For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृतान्नवर्गः । २८९ टीका - अनन्तर सत्तू भांडमें धान्य भूने चकीसें पीसे हुवे सत्तू हैं जबका सत्तू शीतल दीपन हलका सर ॥ १६० ॥ कफपित्तकों हरता लेखन कहा है वे पीयेहुवे बलकों देनेवाले शुक्रकारक पुष्ट भेदन || १६१ ॥ तर्पण मधुर रुचिकों करनेवाले और परिणाममें बलकों हरतेहैं कफ पित्त भ्रम क्षुधा तृषावृद्धि नेत्ररोग इनकों हरते हैं ॥ १६२ ॥ घर्मदाहाढ्य कसरतपीडित शरीरवालोंकों हित हैं अथ चनेजवा सत्तू छिलकेसे रहित चनोंकों भूनकर और चौथाई जबसें बनायाहुवा १६३ सत्तू शर्कराघृतसें युक्त ग्रीष्म में अतिपूजित है अथ धानका सत्तू धानका सत्तू अग्निदीपन हलका शीतल ॥ १६४ ॥ मधुर काविज रुचिकों करनेवाला पथ्य बल शु hi देनेवाला है न भोजन करके न दांतोंसें काटकर न रात्रमें न बहुत ॥ १६५ ॥ न जलसें अन्तरित और उस सत्तूकों केवल न खावै अलग पान फिरसे दैनानां - सजल रात ॥ १६६ ॥ दन्तछेदन और गरम यह सात सत्तू में त्यागदेवै वेछिलकेके भूने जव स्त्रीलिंग में धाना इसप्रकार कहाते हैं ॥ १६७॥ धाना दुर्जर रूखे तृषा दाहकों देनेवाले भारी है तथा प्रमेह कफ वमन इनकों हरनेवाले हैं ॥ १६८ ॥ खीलां जिनके चावल होते हैं वोह छिलकेके सहित धान भुनेहुवोंकों विद्वानोंने लाजा इसप्रकार कहाहै ॥ १६९ ॥ खीला मधुर शीतल हलका दीपन होती है वे अल्प मलमूत्रकों करनेवाले रूखे बलकों करनेवाले हैं और पित्तकफकों काटनेवाले हैं ॥ १७० ॥ तथा वमन अतीसार दाह रक्त मेद मेह तृषा इनकों हरते हैं. अथ चिपिटऊचीकुल्माषगुणाः. शालयः सतुषा आर्द्रा भृष्टा अस्फुटिताश्च तत् ॥ १७१ ॥ कुट्टिताश्चिपिटाः प्रोक्तास्ते स्मृताः पृथुका अपि । पृथुका गुरवो वातनाशनाः श्लेष्मला अपि ॥ १७२ ॥ सक्षीरा बृंहणा वृष्या बल्या भिन्नमलाश्च ते । अर्धपक्कैः शमीधान्यैस्तृगामृष्टैश्च होलकः ॥ १७३ ॥ Front seपानिलो मेदः कफदोषत्रयापहः । भवेद्यो होलको यस्य स च ततद्गुणो भवेत् ॥ १७४ ॥ मञ्जरीत्वर्द्धपकाया यवगोधूमयोर्भवेत् । तृष्णानलेन संभृष्टा बुधैरूचीति सा स्मृता ॥ १७५ ॥ ३७ For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे ऊची कफप्रदा बल्या लघ्वी पित्तानिलापहा । अर्धस्विन्नास्तु गोधूमा अन्येऽपि चणकादयः ॥ १७६ ॥ कुल्माषा इति कथ्यन्ते शब्दशास्त्रेषु पण्डितैः । कुल्माषा गुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः ॥ १७७ ॥ पललं तु समाख्यातं सैक्षवं तिलपिष्टकम् | पललं मलकहृष्यं वातघ्नं कफपित्तकृत् ॥ १७८ ॥ बृंहणं च गुरु स्निग्धं मूत्राधिक्यनिवर्त्तकम् । तिलकि तु पिण्याकं तथा तिलखलिः स्मृता ॥ १७९ ॥ पिण्याको लेखनो रूक्षो विष्टम्भी दृष्टिदूषणः । तण्डुलो मेहजन्तुनः सनवस्त्वतिदुर्जरः ॥ १८० ॥ इति श्रीहरितक्यादिनिघंटे कृत्तान्नवर्गः समाप्तेः । टीका - अनन्तर चिडवा छिलकेवाले धानभी ले और भूनेहुवे अस्फुटित कूटेचिपिट हैं ॥ १७१ ॥ वे पृथुकभी कहें हैं चिडवा भारी वातरता भी कहा है और दूधके सहित पुष्ट शुक्रकों करनेवाले बल करनेवाले ॥ १७२ ॥ मलकों अलग करनेवाले हैं आधे पकेहुवे शिम्बीधान्य तृणसें भूनेहुवकों होल कहाहै ॥ १७३ ॥ होल अल्पवात मेद कफ त्रिदोष इनको हरता है जिसका होला होता है वोह उसके गुणवाला होताहै ॥ १७४ ॥ जब गेहूंकों जो अधपकीवाले होती हैं तृणानिसें भूनीहुई उसकों विद्वानोंनें ऊची ऐसा कहा है ॥ १७५ ॥ लोकमें उमिया इसप्रकार कहते हैं ऊची कफकों करनेवाली बलकेहित हलकी पित्तवातकों हरती है आधे पकायेहुवे गेहूं और चने आदिका ॥ १७६ ॥ व्याकरणके पंडितोंनें इसकों कुल्माष ऐसा कहा है कुल्माष भारी रूखे वातकों करनेवाले मलकों अलग करनेवाले हैं अनन्तर तिलकुट || १७७ ।। गुडके सहित तिलकी पिट्टीकों पलल कहाँ है पलल मलकारी शुक्रकों करनेवाला वातहरता कफपित्तकों करनेवाला है ॥ १७८ ॥ पुष्ट भारी चिकनी और मूत्राधिक्यकों दूर करनेवाला है अनन्तर खली || १७९ ॥ तिलकिहकों पिण्याक तथा तिलखली कही है खली लेखन रूक्ष विष्टंभी दृष्टिदूषण होती है चावल प्रमेह कृमिकों हरता और नया अतिदुर्जर होता है ॥ १८० ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे कृतान्नवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे अथ वारिवर्गः। तत्र पानीयनामानि गुणाश्च. पानीयं सलिलं नीरं कीलालं जलमम्बु च । आपो वार्वारिकं तोयं पयः पाथस्तथोदकम् ॥ १॥ जीवनं वनमम्भोऽर्णोऽमृतं घनरसोऽपि च । पानीयं श्रमनाशनं क्कमहरं मूर्छापिपासापहं तन्द्राछर्दिविबन्धहबलकरं निद्राहरं तर्पणम् । हृद्यं गुप्तरसं ह्यजीर्णशमकं नित्यं हितं शीतलं लघ्वच्छं रसकारणं तु निगते पीपूषवजीवनम् ॥२॥ पानीयं मुनिभिः प्रोक्तं दिव्यं भौममिति विधा। दिव्यं चतुर्विधं प्रेक्तं धाराजं करकाभवम् ॥३॥ तौषारं च तथा हैमन्तेषु धारं गुणाधिकम् । टीका-अब जलके नाम और गुण कहतेहै पानीय सलिल नीर कीलाल जल अमृत आप वारि वारक तोय पय पाथ तथा उदक ॥ १ ॥ जीवन अंभ अर्ण अमृत घनरस यह पानीके नाम हैं जल श्रमहरता क्लमहर मूर्छा पिपासाकों हरता निद्रा वमन विबन्ध इनकों हरता बलकर निद्राहरता तर्पण हृद्य गुप्तरस अजीर्णशमक नित्य हित शीतल होताहै हलका स्वच्छ रसकारण अमृतके समान जीवन कहाहै ॥ २॥ उसके भेद मुनियोंने जल दो प्रकारका कहाहै दिव्य और भौम दिव्य चारप्रकारका कहाहै धारका ओलोंका ॥ ३ ॥ तुषारका तथा हैमन्तमें धारका गुणमें अधिक होताहै। For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे तत्र धारस्य लक्षणं गुणाश्च. धाराभिः पतितं तोयं गृहीतं स्फीतवाससा ॥ ४ ॥ शिलायां वा सुधायां वा धौतानां पतितं च तत् । सौवर्णे राजते ताम्रे स्फाटिके काचनिर्मिते ॥ ५ ॥ भाजने मृण्मये वापि स्थापितं धारमुच्यते । धारं नीरं त्रिदोषन्नमनिर्देश्यरसं लघु ॥ ६ ॥ सौम्यं रसायनं बल्यं तर्पणं हादि जीवनम् । पाचनं मतिकृन्मूर्च्छातन्द्रादाहश्रमक्लमान् ॥ ७ ॥ तृष्णां हरति नात्यर्थं विशेषात्प्रावृषि स्थितम् । धाराजलं च द्विविधं गङ्गा सामुद्रभेदतः ॥ ८॥ टीका - धारासे गिराहुवा साफ कपडेमें लियाहुवा || ४ || शिलापर सुधापर धोतरपर गिराहुवा वोह सोनेके चांदीके ताम्बेके स्फटिकके काचके बनेहुवे वरतनमें ॥ ५ ॥ अथवा मिट्टिकेमें रख्खाहुवा जल धार कहा है धारजल त्रिदोषहरता अनिर्देश्य रस हलका ॥ ६ ॥ सौम्य रसायन बलके हित तर्पण ल्हादि जीवन पाचनमतिकों करनेवाला मूर्च्छा तन्द्रा दाह भ्रम क्लम ॥ ७ ॥ तृषा इनकों हरता है नअत्यन्त विशेषकरके प्रावृट्कालमें स्थित है धाराजल दो प्रकारका होता है गंगा और समुद्र ॥ ८ ॥ अथ गङ्गासामुद्रयोर्लक्षणं गुणाश्च. आकाशगङ्गासम्बन्धिजलमादाय दिग्गजाः । मेघैरन्तरिता वृष्टिं कुर्वन्तीति वचः सताम् ॥ ९॥ गाङ्गमाश्वयुजे मासि प्रायो वर्षति वारिदः । सर्वथा तज्जलं देयं तथैव चरके वचः ॥ १० ॥ स्थापितं हैमजे पात्रे राजते मृन्मयेऽपि वा । शाल्यन्नं येन संसिक्तं भवेदक्लेदि वर्णवत् ॥ ११ ॥ तद्भागं सर्वदोषघ्नं ज्ञेयं सामुद्रमन्यथा । For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः। २९३ तत्तु सक्षारलवणं शुक्रदृष्टिबलापहम् ॥ १२॥ विस्त्रं च दोषलं तीक्ष्णं सर्वकर्मसमाहितम् । सामुद्रं त्वाश्विने मासि गुणैर्गाङ्गवदादिशेत् ॥ १३॥ यतोऽगस्त्यस्य दिव्यर्षेरुदयात्सकलं जलम् । निर्मलं निर्विषं स्वादु शुक्रलं स्याददोषलम् ॥ १४॥ फूत्कारविषवातेन नागानां व्योमचारिणाम् । वर्षासु सविषं तोयं दिव्यमप्याश्विनं विना ॥ १५॥ टीका-उसके लक्षण कहतेहैं दिग्गज आकाशगंगासम्बन्धि जल लेकर मेघोंसें अन्तरित दृष्टिकों करते हैं इसप्रकार सत्पुरुषोंका वचनहै ॥ ९॥ मेघगंगाजलकों प्रायः आश्विनके महीनेमें बरसाते हैं सर्वथा वोह जल देनेयोग्यहै वैसेही चरकका वचनहै ॥ १० ॥ सोनेके वा चान्दीके अथवा मिट्टीके पात्रमें रख्खेहुवे मेघानभिजोये हुवे क्लेदरहित वर्णवाला होवे ॥ ११ ॥ वोह गङ्गाजल सवदोषोंकों हरता जानना चाहिये इस्से विपरीत सामुद्र वोह क्षारके सहित शुक्र दृष्टिबलकों हरताहै ॥ १२॥ दुर्गन्धियुक्त दोषको करनेवाला तीखा सर्व कर्म समाहितहै और सामुद्र आश्विनके महीने में गुणमें गंगाजलके समान होताहै ॥ १३ ॥ क्योंकी अगस्त्यऋषिके उदयसें सम्पूर्ण जल निर्मल और निर्विष मधुर शुक्रकों करनेवाला अदोषलहै इसीवास्ते कहाहै ॥ १४ ॥ व्योमचारी सांपोंके फूत्कार विषवातसें वर्षामें सविष जल दिव्यभी आश्विनके विना होताहै ॥ १५ ॥ अथानातवानां गुणाः. अनार्तवं प्रमुञ्चन्ति वारि वारिधरास्तु यत् । तत्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तितम् ॥ १६ ॥ अनार्त्तवं तु पौषादिचतुर्मासगतं भवेत् । दिव्यवाय्वग्निसंयोगात्संहताः खात्पतन्ति याः ॥ १७॥ पाषाणषण्डवच्चापस्ताः कारिक्योऽमृतोपमाः। कारिकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु च स्थिरम् ॥ १८॥ दारुणं शीतलं सान्द्रं पित्तहृत्कफवातरुत् । For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९४ हरीतक्यादिनिघंटे टीका - बेऋतुका जल मेघ छोडते हैं वोह सब देहियोंके त्रिदोषके अर्थ कहा है ॥ १६ ॥ बेऋतुका अर्थात् पौषादि मासचतुष्टयका विषय है अब ओलोंके जलका लक्षण और गुण ॥ १७ ॥ अन्तिरिक्षवायु अभिके संयोगसें संहत पत्थरके टुकडे के समान जल आकाशसें जो गिरते हैं वोह ओले अमृतके समान होते हैं ओलोंका पानी रूखा विशद भारी स्थिर है || १८ || दारुण शीतल सान्द्र पित्तहरता कफवातकों करनेवाला है. अथ तुषारहिमजललक्षणानि. अपि नद्याः समुद्रान्ते वह्निरापस्तदुद्भवाः ॥ १९॥ धूमावयवनिर्मुक्तास्तुषाराख्यास्तु ताः स्मृताः । अपथ्याः प्राणिनां प्रायो भूरुहाणां तु नोहिताः ॥ २० ॥ तुषाराम्बु हिमं रूक्षं स्याद्वातलमपित्तलम् । कफोरुस्तम्भकण्ठाग्निमेहकण्ठादिरोगनुत् ॥ २१ ॥ हिमवच्छिखरादिभ्यो द्रवीभूयाभिवर्षति । यत्तदेव हिमं हैमं जलमाहुर्मनीषिणः ॥ २२ ॥ हिमाम्बु शीतं पित्तघ्नं गुरु वातविवर्धनम् । हिमं तु शीतलं रूक्षं दारुणं सूक्ष्ममित्यपि ॥ २३॥ न तद्रूषयते वातं न च पित्तं न वा कफम् । टीका - नदीसें लेकर समुद्रपर्यन्त अग्नि होती है उस्सें उत्पन्न धूमांशरहित ॥१९॥ वोह जलतुषार नाम कहा है नदीसें लेकर समुद्रपर्यंत अग्नि होता है उस अनसें उत्पन्न धूमांशररित जल तुषारनाम है तुष और तुषार इसप्रकार भी लोकमें कहते हैं ये ह प्रायः प्राणियोंकों अहित है और वृक्षादियोंकों हित नहीं है || २० || तुषारजल शीतल रूखा होता है और वातकों करनेवाला तथा पित्तकों करनेवाला है और कफ ऊरुस्तंभ कण्ठरोग अग्निमान्ध प्रमेह कण्ड्डादिरोगकों हरताहै || २१ || हिमालयके शिखरादियोंसें निकलके जो बरसता है वोह हिमहै उसके जलकों हैमजल मुनियोंनें कहा है ॥२२॥ बरफका पानी शीतल पित्तकों हरता भारी वायुकीं बढानेवाला है वडवानल के धूमसे प्रेरित समुद्रका जल जो गाढाहुवा वायुसें लायाहुवा उत्तरमें उसकों हिम ऐसा For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्ग: । २९५ विद्वानोंनें कहा है लोकमें कुहेल ऐसा कहते हैं बरफ शीतल रूखा दारुण सूक्ष्मभी है ॥ २३ ॥ वोह न वातकों न पित्तकों न कफकों बिगाडता है. अथ भौमजललक्षणानि. भौममम्भो निगदितं प्रथमं त्रिविधं बुधैः ॥ २४॥ जाङ्गलं परमानूपं ततः साधारणं क्रमात् । अल्पोदकोऽल्पवृक्षश्च पित्तरक्तामयान्वितः ॥ २५ ॥ ज्ञातव्यो जाङ्गलो देशस्तत्रत्यं जाङ्गलं जलम् । बह्वम्बुर्बहुवृक्षश्च वातश्लेष्मामयान्वितः ॥ २६ ॥ देशोऽनूप इति ख्यात आनूपं तद्भवं जलम् । मिश्रचिह्नस्तु यो देशः स हि साधारणः स्मृतः ॥ २७ ॥ तस्मिन्देशे यदुदकं तत्तु साधारणं स्मृतम् । जाङ्गलं सलिलं रूक्षं लवणं लघु पित्तनुत् ॥ २८ ॥ वह्निरुत्कफकत्पथ्यं विकारान्हरते बहून् । आनूपं वार्यभिष्यन्दि स्वादु स्निग्धं घनं गुरु ॥ २९॥ वह्निरुत्करुहृद्यं विकारान् हरते बहून् । साधारणं तु मधुरं दीपनं शीतलं लघु ॥ ३० ॥ तर्पणं रोचनं तृष्णादाहदोषत्रयप्रणुत् । टीका - भूमिका जल और उसके भेद पंडितोंनें भूमिका जल तीनप्रकारका प्रथम कहाहै || २४ || क्रमसें जाङ्गल दूसरा आनूप और साधारण उसके लक्षण और गुण थोडा जल थोडे वृक्ष पित्तरक्तरोगयुक्त || २५ || ऐसा देश जङ्गल जानना उस्का जल जाङ्गल जानना चाहिये बहुत जल बहुत वृक्ष वातकफरोगसें युक्त ||२६|| ऐसा अनूपदेश मसिद्ध है वहांका जल आनूपहै और मिलेहुवे देशवाला जो लक्षण है वह साधारण कहा ॥ २७ ॥ उसदेशमें जो जल होता है वोह साधारण कहा है जाङ्गलजल रूखा नमकीन हलका पित्तहरता ॥ २८ ॥ अग्निकों करनेवाला कफकों करनेवाला हृय और बहुतसे विकारोंकों हरता है अनूपजल अभिष्यन्दि होता है और मधुर चिकना भारी होता है || २९ ॥ अग्निकों करनेवाला कफकारी हृय तथा ब For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९६ हरीतक्यादिनिघंटे हुत रोगोंकों हरता है साधारण जल मधुर दीपन शीतल हलका ॥ ३० ॥ तर्पण रोचन होता है और तृषा दाह तीनों दोष इनकों हरता है. अथ नादेयस्य औद्भिदस्य लक्षणं गुणाश्च. नद्या नदस्य वा नीरं नादेयमिति कीर्त्तितम् ॥ ३१ ॥ नादेयमुदकं रूक्षं वातलं लघु दीपनम् । अनभिष्यन्दि विशदं कटुकं कफपित्तनुत् ॥ ३२ ॥ नद्यः शीघ्रवहा लघ्व्यः सर्वाश्वाप्यमलोदकाः । गुर्व्यः शैवलसंछन्ना मन्दगाः कलुषाश्च याः ॥ ३३ ॥ हिमवत्प्रभवाः पथ्या नद्योऽश्माहतपाथसः । गङ्गाशतदूसरयूयमुनाद्या गुणोत्तमाः ॥ ३४ ॥ सद्यः शैलभवा नद्यो वेणा गोदारीमुखाः । कुर्वन्ति प्रायशः कुष्ठमीषद्वातकफावहाः ॥ ३५ ॥ नदीसरस्तडागस्थे कूपप्रस्त्रवणादिजे । उदके देशभेदेन गुणान् दोषांश्च लक्षयेत् ॥ ३६ ॥ विदार्य भूमिं निर्माय महत्या धारया स्त्रवेत् । ततोऽयमद्भिदं नाम वदन्तीति महर्षयः ॥ ३७ ॥ औद्भिदं वारि पित्तघ्नमविदाह्यतिशीतलम् । प्रीणनं मधुरं बल्यमीषद्वातकरं लघु ॥ ३८ ॥ टीका - नदका अथवा नदीका जो जल है उसकों नादेय ऐसा कहा हैं || ३१ ॥ नादेय जल रूखा वातकों करनेवाला हलका दीपन अनभिष्यन्दि विशद कटुक कफपित्तकों हरता कहाहै ॥ ३२ ॥ शीघ्र वहनेवाली और स्वच्छ उदकवाली सब नदियां हलकी होती हैं मेवार मेंढकी सन्द चलनेवाली और जो काली होती है वोह भारी ॥ ३३ ॥ हिमालयसें निकली और पाषाणसहित जलवाली नदियां हित हैं गङ्गा सतलुज सरयू यमुना आदि गुणमें उत्तम हैं ॥ ३४ ॥ सय पहाडसें निकली door गोदावरी प्रमुख प्रायः कुष्ठकों करती है और कुछ वातकफकोंभी करती है ३५ नदी सरोवर तालाव इनका और कुँवा झरना आदिके जलोंमें देशभेदसें गुणदो For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः । २९७ षोंकों जाने || ३६ || अनन्तर औद्भिदका लक्षण और गुण भूमिकों ढालवां खahast धारसें जो जल गिरता है उस जलकों औद्भिद ऐसा महिर्षियोंने कहा है ॥ ३७ ॥ औद्भिदजल पित्तहरता अविदाहि अतिशीतल होता है और प्रीणन मधुर बलhहित थोडा वातकों करनेवाला हलका होता है ॥ ३८ ॥ अथ नैर्झरसारसताडागलक्षणं गुणाश्व. शैलसानुवन्वारि प्रवाहो निर्झरो झरः । स तु प्रणश्चापि तत्रत्यं नैर्झरं जलम् ॥ ३९॥ नैर्झरं रुचिकन्नीरं कफघ्नं दीपनं लघु । मधुरं कटुपाकं च वातलं स्यादपित्तलम् ॥ ४०॥ नयाः शैलादिरुद्धाया यत्र संस्रुत्य तिष्ठति । तत्सरो जलसंछन्नं तदम्भः सारसं स्मृतम् ॥ ४१ ॥ सारसं सलिलं बल्यं तृष्णानं मधुरं लघु । रोचनं तुवरं रूक्षं बद्धमूत्रमलं स्मृतम् ॥ ४२ ॥ प्रशस्त भूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः । जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तज्जलं स्मृतम् ॥ ४३ ॥ ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च । वातलं बद्धविण्मूलमसृक् पित्तकफापहम् ॥ ४४ ॥ टीका - पहाडी तराईसें झिरनेवाला जलप्रवाह जो आता है उसकों निर्झर और प्रस्रवणभी कहते हैं उसका पानी नैर्झर है || ३९ ॥ झरनेका पानी रुचिकों करनेवाला कफहरता दीपन हलका मधुर पाकमें कटु वात तथा पित्तकों करनेवालाहै ॥ ४० ॥ अब सारसका लक्षण पहाड आदिसें रुकी हुई नदीका जल जहांपर बहकर ठहरता है वोह आच्छादित सरोजल है उस्का पानी सारस कहाहै ॥ ४१ ॥ सारसजल बलकेहित तृषाकों हरता मधुर हलका रोचन कसेला रूखा मलमूत्रकों रोकनेवाला कहाहै ॥ ४२ ॥ प्रशस्त भूमिभागका बहुत वरसका पुराना जलाशय तालाव होता है उसका पानी ताडाग कहा है ॥ ४३ ॥ तालावका पानी मधुर कसेला पाकमें कटु वातल मलमूत्रकों बांधनेवाला और रक्त पित्त कफ इनकों हरताहै ॥ ४४ ॥ ३८ For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ वाप्यकौपचौंजलक्षणं गुणाश्च. पाषाणैरिष्टकाभिर्वा बद्धः कूपो बृहत्तरः । ससोपाना भवेद्वापी तज्जलं वाप्यमुच्यते ॥ ४५ ॥ वाप्यं वारि यदि क्षारं पित्तकृत्कफवातहृत् । तदेव मिष्टं कफत् वातपित्तहरं भवेत् ॥ ४६ ॥ भूमौ खातोऽल्पविस्तारो गम्भीरो मण्डलाकृतिः । aaiseः स कूपः स्यात्तदम्भः कौपमुच्यते ॥ ४७ ॥ कौपं पयो यदि स्वादु त्रिदोषघ्नं हितं लघु । तत्क्षारं कफवातघ्नं दीपनं पित्तकृत्परम् ॥ ४८ ॥ शिलाकीर्ण स्वयं श्वभ्रं नीलाञ्जनसमोदकम् । लतावितानसंछन्नं चौंज्यमित्यभिधीयते ॥ ४९ ॥ अश्मादिभिरबद्धं यत्तच्चयमिति वापरे । तत्रत्यमुदकं चौथं मुनिभिस्तदुदाहृतम् ॥ ५० ॥ चौयं वह्निकरं नीरं रूक्षं कफहरं लघु । मधुरं पित्तदुच्यं पाचनं विशदं स्मृतम् ॥ ५१ ॥ अल्पं सरः पल्वलं स्याद्यत्र चन्द्रर्क्षगे रखौ । न तिष्ठति जलं किञ्चित्तत्रत्यं वारि पाल्वलम् ॥ ५२ ॥ पाल्वलं वार्यभिष्यन्दि गुरु स्वादु त्रिदोषत् । टीका --- पत्थर अथवा इटोंसें बहुत बनायाहुवा कूवा सीढियोंके सहित वोह arast है और उसके जलकों वाप्य कहते हैं ॥ ४५ ॥ बावडीका पानी यदि खारा होवे तो वोह पित्त करनेवाला कफवातकों हरता कहा है वोही मीठा कफकरनेवाला वातपित्तकों हरता है ॥ ४६ ॥ अनन्तर कूवेके जलका लक्षण और गुण भूमिमें थोडा चौडा गहरा गोल खोदाहुवा बन्धवावे बंधाहुवा वोह कूपहै उसका जल कौप कहा ॥ ४७ ॥ कूका पानी यदि मधुर हो तौ त्रिदोष हरता हलका हित होता है और वोह खारा कफवातकों हरता दीपन अत्यन्त पित्त करनेवाला है | ४८ ॥ अनन्तर चौञ्जका लक्षण और गुण शिलाओंसें आकीर्ण खुदा गढाहुवा नीला सुर For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः । २९९ मेके समान उदक लताओंके फैलावसें ढकाहुवा चौंज्य ऐसा कहा है ॥ ४९ ॥ और आचार्य पत्थर आदिसें बन्धेहुवेकों चौज्य ऐसा कहाहै उस्मेके जलकों चौंज्य ऐसा मुनियोंने कहाहै ॥ ५० ॥ चौंज्य जल अग्निकों करनेवाला रूखा कफहरता मधुर पित्तहरता रुचिकों करनेवाला पाचन विशद कहाहै ॥ ५१ ॥ अनन्तर पल्वलका लक्षण और गुण श्रावणमासमें छोटी गढई जो होती है उसकों पल्वल कहते हैं कर्क - राशिस्थ सूर्यमें अर्थात श्रावणमासमें चन्द्र अर्थात मृगशिर उसमें हुवा यह मुख्य पाठहै नहीं रहता जल कुछ उस्का पाल्वल है | ५२ || गढईका जल अभिष्यन्दि भारी मधुर त्रिदोष करनेवाला है. अथ कैदारकस्य वृष्टिजलस्य च लक्षणं. नद्यादिनिकटे भूमिर्या भवेद्वालुकामयी ॥ ५३ ॥ उद्भाव्यते ततो यत्तु तज्जलं चिकिरं विदुः । चिकिरं शीतलं स्वच्छं निर्दोषं लघु च स्मृतम् ॥ ५४ ॥ तुवरं स्वादु पित्तघ्नं क्षारं तत्पित्तलं मना । केदारं क्षेत्रमुद्दिष्टं कैदारं तज्जलं स्मृतम् ॥ ५५ ॥ कैदारं वार्यभिष्यन्दि मधुरं गुरु दोषकृत् । टीका - नदी आदिके निकट जो रेतीकी जमीन होती है ॥ ५३ ॥ उस्सें जो जल निकलता है उस जलकों चिकिर कहते हैं चिकिर शीतल स्वच्छ निर्दोष हलका कहाहै ॥ ५४ ॥ कसेला मधुर पित्तहरता भारी और वोह थोडा पित्तकों करनेवाला है केदार खेतकों कहते हैं और उसमेंके जलकों कैदार कहाहै ॥ ५५ ॥ कैदार जल अभिष्यन्दी मधुर भारी दोषकों करनेवाला है. अथ वार्षिक हैमंतलक्षणगुणाः. वार्षिकं तदहर्वृष्टं भूमिस्थमहितं जलम् ॥ ५६ ॥ त्रिरात्रमुषितं तत्तु प्रसन्नममृतोपमम् । हेमन्ते सारसं तोयं ताडागं वा हितं स्मृतम् ॥ ५७ ॥ हेमन्ते विहितं तोयं शिशिरेऽपि प्रशस्यते । वसन्तग्रीष्मयोः कौपं वाप्यं वा नैर्झरं जलम् ॥ ५८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे नादेयं वारि नाऽऽदेयं वसन्तग्रीष्म योर्बुधैः । विषवद्वनवृक्षाणां पत्राद्यैर्दूषितं च यत् ॥ ५९ ॥ औद्भिदं वान्तरिक्षं वा कौपं वा प्रावृषि स्मृतम् । शस्तं शरदि नादेयं नीरमंशूदकं परम् ॥ ६० ॥ दिवा रविकरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः । ज्ञेयमंशूदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम् ॥ ६१ ॥ अनभिष्यन्दि निर्दोषमान्तरिक्षं जलोपमम् । बल्यं रसायनं मेध्यं शीतं लघु सुधासमम् ॥ ६२ ॥ टीका - दिनका वरसाहुवा जमीनका जो जल वार्षिक है वोह अहित होता है ॥ ५६ ॥ और तीनदिनका रख्खा हुवा वोह स्वच्छ अमृत के समान होता है अनन्तर हेमन्तादिकालविरोधमें विहित जलविशेषकों कहते है ॥ ५७ ॥ हेमन्तमें सारसजल अथवा तालावका हित कहा है हेमन्तमें कहाहुवा जल शिशिरमेंभी प्रशस्त है वसन्तग्रीष्ममें कुवेका बावडीका झरनेका जल ॥ ५८ ॥ वसन्त और ग्रीष्मकामें नदीका जल न ग्राह्य है क्योंकी विषवाले वनवृक्षोंके पत्र आदिसें दूषित होता है ॥ ५९ ॥ औद्भिद आन्तरिक्ष कौप येह जल प्रावृट्कालमें कहे हैं शरदमें नदीका और अंशूदक जल परम प्रशस्त है ॥ ६० ॥ दिनमें सूर्य की किरणोंसें जुष्ट और रातमें चंकी किरणोंसें सेवितकों अंशूदक नाम जानना चाहिये वोह चिकना दोषत्रयकों हरता है ॥ ६१ ॥ और अनभिष्यन्दि दोषरहित आन्तरिक्ष जलके समान होता है बलके हित रसायन मेध्य शीतल हलका अमृतके समान होता है ।। ६२ ।। अथान्ये जलभेदा जलग्रहणकालो जलपानविधिश्च. रविकरैर्जुष्टमित्युक्ते दिवापदं समस्तदिवसप्राप्त्यर्थं शीतकरांशुभिर्जुष्टमित्युक्ते निशीतिपदं समस्त रात्रिप्राप्त्यर्थम् अन्यच्च शरदि स्वच्छमुदयादगस्त्यस्याखिलं हितम् । वृद्ध सुश्रुतस्तु | पौषे वारि सरोजातं माघे तत्तु तडागजम् । फाल्गुने कूपसम्भूतं चैत्रे चौंज्यं हितं मतम् ॥ ६३॥ वैशाखे नैर्झरं नीरं ज्येष्ठे शस्तं तथौद्धिदम् । For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः। आषाढे शस्यते कोपं श्रावणे दिव्यमेव च ॥६४॥ भाद्रे कौप्यं पयः शस्तमाश्विने चौंज्यमेवच । कार्तिके मार्गशीर्षे च जलमात्रं प्रशस्यते ॥६५॥ भौमानामम्भसा प्रायो ग्रहणं प्रातरिष्यते। शीतत्वं निर्मलत्वं च यतस्तेषां मता गुणाः ॥६६॥ अत्यम्बुपानान्न विपच्यतेऽन्नं निरम्बुपानाच्च स एव दोषः तस्मान्नरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारि पिबेदभूरि ॥ ६७॥ मूर्छापित्तोष्णदाहेषु विषे रक्ते मदात्यये । श्रमे भ्रमे विदग्धेऽन्ने तमके वमथौ तथा ॥ ६८॥ ऊर्ध्वगे रक्तपित्ते च शीतमम्बु प्रशस्यते । टीका-सूर्यकी किरणोंसें जुष्ट इसप्रकारके कहेनेसें दिवापद समस्त दिवसमाप्तिके अर्थ है चन्द्रकी किरणोंसें जुष्ट इसप्रकारके कहेनेसें रात्रिपद समस्त रात्रिमास्यर्थ है औरभी शरदमें स्वच्छ अगस्तिके उदयसे संपूर्ण जल वृद्धसुश्रुतने हित कहाहै पोषमें सरोवरका पानी माघमें तालावका पानी फल्गुनमें कुवेका पानी चैत्रमें जौहडका पानी हित कहाहै ॥ ६३ ॥ वैशाखमें झरनेका जल और ज्येष्ठमें औद्भिद प्रशस्त है आषाढमें कूवेका और श्रावणमें आन्तरिक्ष प्रशस्तहै ॥ ६४ ॥ भाद्रपदमें कुवेका जल प्रशस्त होताहै आश्विनमें चौंज्य कर्तिक और मार्गशीर्षमें जलमात्र प्रशस्तहै ॥ ६५ ॥ जलग्रहणका काल प्रायः भूमिके जलका ग्रहण प्रातःकालमें प्रशस्त है क्योंकी शीतलता और निर्मलता उनका गुणहै इसवास्ते ॥ ६६ ॥ अधिक जलके पीनेसें अन्नपरिपाक नहीं होता और जलके पीनेसे वोही दोष होताहै इसवास्ते मनुष्य अग्निद्धिके अर्थ जलकों वारंवार पावै ॥ ६७ ॥ अब शीतलजल पानका विषय मूर्छा पित्त उष्ण दाहमें और पित्तरक्त मदात्यय श्रम भ्रम विदग्ध अन्न तमकमें तथा वमनमें ॥ ६८ ॥ ऊर्ध्वग रक्तपित्तमेंभी शीतल जल प्रशस्तहै. अथ जलनिषेधः तस्यावश्यकता च. पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे ॥ ६९॥ आध्माने स्तिमिते कोष्ठे सद्यः शुद्धौ नवज्वरे । For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अरुचिग्रहणीगुल्मश्वासकासेषु विद्रधौ ॥ ७० ॥ हिकायां स्नेहपाने च शीताम्बु परिवर्जयेत् । अरोचके प्रतिश्याये मन्देऽग्नौ श्वयथौ क्षये ॥७१ ॥ मुखप्रसेके जठरे कुष्ठे नेत्रामये ज्वरे । व्रणे च मधुमेहे च पिबेत्पानीयमल्पकम् ॥७२॥ जीवानां जीवनं जीवो जगत्सर्वं तु तन्मयम् । अतोऽत्यन्तनिषेधेन कदाचिद्वारि वार्यते ॥७३॥ तृष्णा गरीयसी घोरा सद्यः प्राणविनाशिनी । तस्माद्देयं तृषार्ताय पानीयं प्राणधारणम् ॥७४॥ तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान् विमुञ्चति । अतः सर्वास्ववस्थासु न कचिद्वारि वर्जयेत् ॥७५ ॥ टीका-पार्थशूलमें प्रतिश्यायमें वातरोगमें गलग्रहमें ।। ६९ ॥ आध्मानमें स्तिमितकोष्ठमें सद्यःशुद्धिमें नवज्वरमें और अरुचि संग्रहणी वायगोला श्वास कास इनमें विद्रधि ॥ ७० ॥ हिचकीमें स्नेहपानमेंभी शीतलजल त्यागदेवै अरुचि प्रतिश्याय मन्दामि सूजन क्षय ॥ ७१ ॥ मुखप्रसेक उदररोग कुष्ठ नेत्ररोग ज्वर व्रणमें मधुर प्रमेहमेंभी थोडा जल पीवै ॥ ७२ ॥ जलपीनेकी अवश्यता जल प्राणियोंका पाणहै और सम्पूर्ण जगत तन्मयहै इसवास्ते अत्यन्त निषेधनमेंभी जल कदाचितभी मना नहींहै ॥ ७३ ॥ हारीतने कहाहै बडी तृषा घोर सद्यः प्राणकों हरनेवालीहै इसवास्ते तृषासें पीडितके अर्थ जल प्राणधारण है ॥ ७४ ॥ प्यास मोहकों प्राप्त होताहै मोहसें प्राणीको छोडदेतेहै इसवास्ते सब अवस्थामें कहींपर जलकों न त्यागदेवै ॥ ७॥ अथ प्रशस्तनिंदितजलविचारोनिंदितशुद्धीकरणंच. अगन्धमव्यक्तरसं सुशीतं तर्षनाशनम् । अछं लघु च हृद्यं च तोयं गुणवदुच्यते ॥७६ ॥ पिच्छिलं कृमिलं किन्नं पर्णशैवालकर्दमैः। विवर्णं विरसं सान्द्रं दुर्गन्धं निहितं जलम् ॥ ७७ ॥ For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारिवर्गः। कलुषं छन्नमम्भोजपर्णनीलीतृणादिभिः । दुःस्पर्शनमसंस्ष्टष्टं सौरचांद्रमरीचिभिः ॥ ७८ ॥ अनार्जवं वार्षिकं तु प्रथमं तच्च भूमिगम् । व्यापनं परिहर्त्तव्यं सर्वदोषप्रकोपनम् ॥ ७९ ॥ तत्कुर्यात्स्नानपानाभ्यां तृष्णाध्मानचिरज्वरान् । कासानिमान्द्याभिष्यन्दकण्डूगण्डादिकं तथा ॥ ८ ॥ निन्दितं चापि पानीयं कथितं सूर्यतापितम् । सुवर्ण रजतं लोहं पाषाणं सिकतामपि ॥ ८१ ॥ भृशं सन्ताप्य निर्वाप्य सप्तधा साधितं तथा। कर्पूरजातिपुन्नागपाटलादिसुवासितम् ॥ ८२ ॥ गालितं सांद्रवस्त्रेण क्षुद्रजन्तुविवर्जितम् । स्वच्छं कनकमुक्तायैः शुद्ध स्यादोषवर्जितम् ॥ ८३ ॥ पर्णमूलविषग्रंथिमुक्ताकनकशैवलैः। गोमेदेन च वस्त्रेण कुर्यादम्बुप्रसादनम् ॥ ८४ ॥ पीतं जलं जीर्यति यामयुग्माद्यामैकमात्राच्छृतशीतलं च । तदूर्ध्वमात्रेण शृतं कदुष्णपयःप्रपाके त्रय एव कालाः॥८५॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे वारिवर्गः समाप्तः ॥ टीका-अब प्रशस्त जल स्वच्छ हलका और हृद्य ऐसा जल स्वच्छ कहाहै गन्धरहित अव्यक्त रस अच्छा कहाहै ॥ ७६ ॥ पिच्छिल कृमियुक्त और पत्ता सेवाल कीचड इनसें सडाहुवा विवर्ण विरस गदला दुर्गन्धयुक्त रख्खाहुवा जल ॥ ७७॥ काला और कमलपत्ते नीलतृण आदियोंसें ढकाहुवा दुःस्पर्श और सूर्य तथा चांदकी किरणोंसे स्पर्श कियागया ॥ ७८ ॥ वेऋतुका वार्षिकका पहिला और वोह जमीनपरका व्यापन्नजल त्यागनेयोग्य सबदोषोंकों प्रकोपकरनेवाला है ॥ ७९ ॥ वोह स्नान और पानसें तृषा आध्मान पुरानावर इनकों करताहै और कास अग्निमांद्य अभिष्यन्दि कण्डू तथा गण्डादिक इनकों करताहै ॥ ८० ॥ अंनतर दुष्टज For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे लकों निर्दोष करनेका उपाय निंदितभी जल औटायाहुवा और सूर्यके द्वारा गरमहुआ तथा सोना चांदी लोहा पत्थर और सिकताभी इनकों ॥ ८१ ॥ खूब गरम करके सातवार बुझाकर तथा सिद्धकियाहुवा और कपूर चमेली सुफेदकमल और पाटला आदिसें मुवासित ।। ८२ ॥ पवित्र सान्द्र छनाहुवा क्षुद्रजन्तुसे रहित स्वच्छ सोना मोती आदिसें शुद्ध दोषवर्जित ॥ ८३ ॥ पत्ते मूल विष गांठ मोती सोना सेवाल इनसें और गोमेद तथा वस्त्रसें जलकों स्वच्छ करै ॥ ८४ ॥ अनन्तर पीयेहुवे जलकी पाकविधि पीयाहुवा जल दोपहरसें पकताहै और औंटाके शीतल कियाहुवा एकपहरमें पकताहै उस्के उपर औटेमात्रसें जल कटु उष्ण होताहै जलके पा. कमें तीनही कालहै ।। ८५ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे वारिवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धस्य नामगुणाः. दुग्धं क्षीरं पयः स्तन्यं बालजीवनमित्यपि । दुग्धं सुमधुरं स्निग्धं वातपित्तहरं सरम् ॥ १ ॥ सद्यः शुक्रकरं शीतं सात्म्यं सर्वशरीरिणाम् । जीवनं बृंहणं बल्यं मेध्यं वाजीकरं परम् ॥ २॥ वयःस्थापनमायुष्यं सन्धिकारि रसायनम् । विरेकवान्तिवस्तीनां तुल्यमोजोविवर्धनम् ॥ ३ ॥ जीर्णज्वरे मनोरोगे शोषमूर्च्छाभ्रमेषु च । ग्रहण्यां पाण्डुरोगे च दाहे तृषि हृदामये ॥ ४ ॥ शूलोदावर्त्तगुल्मेषु बस्तिरोगे गुदाङ्कुरे । रक्तपित्तेऽतिसारे च योनिरोगे श्रमे लमे ॥ ५ ॥ गर्भस्रावे च सततं हितं मुनिवरैः स्मृतम् । बालवृद्धक्षतक्षीणाः क्षुद्व्यवायकशाश्च ये ॥ ६ ॥ तेभ्यः सदातिशयितं हितमेतदुहाहृतम् । गव्यं दुग्धं विशेषेण मधुरं रसपाकयोः ॥ ७ ॥ शीतलं स्तन्यकुत्स्निग्धं वातपित्तास्त्रनाशनम् । दोषधातुमलस्रोतः किञ्चित्क्लेदकरं गुरु ॥ ८ ॥ ज्वरे समस्तरोगाणां शान्तिकृत्सेविनां सदा । ३९ For Private and Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे कृष्णाया गोर्भवेद्दुग्धं वातहारि गुणाधिकम् ॥ ९ ॥ पीताया हरते पित्तं तथा वातहरं भवेत् । श्लेष्मलं गुरु शुक्ला या रक्तचित्रा च वातहृत् ॥ १० ॥ टीका- -अब दुग्धके नाम और गुण कहते है दुग्ध क्षीर पय स्तन्य वालजीवन यह दूधके नाम हैं दूध मधुर चिकना वातपित्तकों हरता सर ॥ १ ॥ तत्काल शुaat करनेवाला शीतल सब प्राणियोंकों सत्म्य होता है जीवन पुष्ट बलकों करनेवाला परम वाजिकर ॥ २ ॥ वयस्थापन वायुकों करनेवाला सन्धिकारी रसायन है और विरेक वमन बस्ति इनकों तुल्य आजको बढानेवाला है || ३ || जीर्णज्वर मानसिकरोग शोष मूर्च्छा भ्रम इनमेंभी और संग्रहणी पाण्डुरोग दाह और तृषा इनमें तथा हृद्रोगमें ॥ ४ ॥ शूल उदावर्त्त गुल्म इनमें बस्तिरोग में गुदांकुर में रक्तपित्तमें अतीसार में योनिरोग में श्रममें ममें ॥ ५ ॥ गर्भस्राव में भी हित है ऐसा मुनिवरोनें कहा है बाल वृद्ध क्षतक्षीण क्षुधा मैथुन इनसें जो कृश || ६ || उनकों सदा अतिशयकरके यह हित कहा है गायका दूध विशेषकर के रसपाकर्मे मधुर कहा है ॥ ७ ॥ और शीतल दुग्धकों करनेवाला चिकना वात रक्त पित्त इनको हरता है दोष धातु मल शीत किञ्चित् क्लेदकों करनेवाला भारी ॥ ८ ॥ सदा सेवन करने वालोंके ज्वर और समस्त रोगोंकी शान्ति करनेवाला है अनन्तर वर्णविशेषसें गुणविशेषकों कहेते हैं ॥ ९ ॥ कालीगायका दूध वातहरता गुणमें अधिक है पीलीका दूध पित्तकों हरता है तथा वातहर भी है सुफेद गायका दूध कफकारी भारी और लाल चित्ररंगवालीकाभी बात हरता है ॥ १० ॥ अथ विवत्साया गोः माहिषछागादिदुग्धगुणाः. बालवत्सविवत्सानां गवां दुग्धं त्रिदोषकृत् । बष्कयिण्यास्त्रिदोषघ्नं तर्पणं बलकृत्पयः ॥ ११ ॥ जाङ्गलानूपशैलेषु चरन्तीनां यथोत्तरम् । पयो गुरुतरं स्नेहो यथाहारं प्रवर्तते ॥ १२ ॥ स्वल्पान्नभक्षणाज्जातं क्षीरं गुरु कफप्रदम् । तत्तु बल्यं परं वृष्यं स्वस्थानां गुणदायकम् ॥ १३॥ पलालतृणकार्पासबीजजातं गुणैर्हितम् For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। ३०७ माहिषं मधुरं गव्यात्स्निग्धं शुक्रकरं गुरु ॥ १४ ॥ निद्राकरमभिष्यन्दि क्षुधाधिक्यकरं हिमम् । छागं कषायं मधुरं शीतं ग्राहि तथा लघु ॥ १५॥ रक्तपित्तातिसारघ्नं क्षयकासज्वरापहम् । प्रजानामल्पकायत्वात्कटुतिक्तनिषेवणात् ॥ १६ ॥ स्तोकाम्बुपानाध्यामातसर्वरोगापहं पयः। मृगीनां जाङ्गलोत्थानामजाक्षीरगुणं पयः ॥ १७ ॥ आविकं लवणं स्वादु स्निग्धोष्णं चाश्मरीप्रणुत् । अहृद्यं तर्पणं वृष्यं शुक्रपित्तकफप्रदम् ॥ १८॥ गुरुकासेऽनिलोद्भुते केवले चानिले वरम् । टीका-वेवच्चेवाली गायके दूधका गुण छोटे बच्चेवाली और वेबच्चेवाली गायोंका दूध त्रिदोषकों करनेवालाहै वकेनीका दूध त्रिदोषकों हरता तर्पण बलकों करनेवाला होताहै अनन्तर देशविशेषकरके गुणविशेषकों कहतेहैं ॥ ११ ॥ जाङ्गल आनूप पहाड इनमें चरनेवालियोंका दूध यथोत्तर बहुतभारी होताहै और घृत आहारके अनुसार निकलता है ॥ १२॥ स्वल्प अन्न भक्षणसें हुवा क्षीण भारी कफकों करनेवाला होताहै वोह बलके हित अत्यन्त शुक्रकों करनेवाला और स्वस्थोंकों गुण देनेवाला है ॥ १३ ॥ खल घास कपासके बीज इनके खानेसें हुवा दूध गुणकरके हित होताहै अब भैसके दूधका गुण भैसका दूध मधुर चिकना शुक्रकों करनेवाला भारी ॥१४॥ निद्राकों करनेवाला अभिष्यन्दि अधिक क्षुधाकों करनेवाला शीतल है अब बकरीके दूधका गुण बकरीका दूध कसेला मधुर शीतल काविज तथा हलका होताहै ॥ १५ ॥ और रक्त पित्त अतीसार इनकों हरता क्षय कास ज्वर इनकों हरताहै बकरियोंका छोटा शरीर होनेसें और कटुतिक्तके सेवनसें ॥ १६ ॥ थोडा जल पीनेसें कसरत उसका दूध सर्वरोगकों हरताहै अब मृग आदियोंके दुग्धका गुण जंगलके मृगोंका दूध बकरीके दूधके समान होताहै ॥ १७॥ भेडीका दूध नमकीन मधुर चिकना गरम और पथरीकों हरताहै अहृद्य तर्पण पुष्ट शुक्र पित्त कफ इनकों करनेवाला ॥१८॥ भारी होताहै और वातके कासमें और केवल वातमें श्रेष्ठ है. For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथाश्वोष्ट्रहस्तिनीनारीदुग्धधारोष्णगुणाः. रूक्षोष्णं वडवाक्षीरं बल्यं शोषानिलापहम् ॥ १९॥ अम्लं पटु लघु स्वादु सर्वमेकशकं तथा । औष्ट्रं दुग्धं लघु स्वादु लवणं दीपनं तथा ॥ २० ॥ कृमिकुष्ठकफानाहशोथोदरहरं सरम् । बृंहणं हस्तिनीदुग्धं मधुरं तुवरं गुरु ॥ २१ ॥ वृष्यं बल्यं हिमं स्निग्धं चक्षुष्यं स्थिरताकरम् । नार्या लघु पयः शीतं दीपनं वातपित्तजित् ॥ २२ ॥ चक्षुः शूलाभिघातनं नस्यायोतनयोर्वरम् । धारोष्णं गोपयो बल्यं लघु शीतं सुधासमम् ॥ २३ ॥ दीपनं च त्रिदोषनं तद्वाराशिशिरं त्यजेत् । धारोष्णं शस्यते गव्यं धाराशीतं तु माहिषम् ॥ २४ ॥ शृतोष्णमाविकं पथ्यं शृतशीतमजापयः । आमं क्षीरमभिष्यन्दि गुरुश्लेष्मामवर्धनम् ॥ २५ ॥ ज्ञेयं सर्वमपथ्यं तु गव्यमाहिषवर्जितम् । नारीक्षीरं त्वाममेव हितं नतु शृतं हितम् ॥ २६ ॥ शृतोष्णं कफवातनं शृतं शीतं तु पित्तनुत् । अर्धोदकं क्षीरशिष्टमा माल्लघुतरं पयः ॥ २७ ॥ जलेन रहितं दुग्धमतिपक्कं यथा यथा । तथातथा गुरु स्निग्धं वृष्यं बलविवर्धनम् ॥ २८ ॥ टीका - घोडीका दूध रूखा गरम बलके हित शोष वातकों हरता ॥ १९ ॥ खट्टा लवण हलका मधुर वैसेही सब एकशफवालोंका होता है अब ऊंटनीका दूध ऊंटनी का दूध हलका मधुर लवण तथा दीपन || २० || और कृमि कुष्ठ कफ अफारा सूजन उदररोग इनकों हरता सर होता है अनंतर हथनीका दूध हथनीका दूध मधुर कसेला भारी ॥ २१ ॥ शुक्रकों करनेवाला बलके हित शीतल चिकना नेत्रके हित For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। ३०९ स्थिरताको करनेवाला होताहै अब स्त्रीदुग्धके गुण स्त्रीका दूध हलका शीतल दीपन वातपित्तको हरनेवाला ॥ २२॥ नेत्रशूल अभिघात इनकों हरता और नस्य आश्चोतनमें श्रेष्ठहै अब धारोष्णआदिका गुण धारोष्ण गायका दूध बलकेहित हलका शीतल अमृतके समान होताहै ॥ २३ ॥ और दीपन त्रिदोष हरता है और वोह धाराशिशिर सेवन करै धारोष्ण गायका हित होताहै और धाराशीत भैसका अच्छा होताहै ॥ २४ ॥ औटाया हुवा गरम भेडीका और औटायाहुवा शीतल बकरीका दूध हित होताहै कच्चा दूध अभिष्यन्दि भारी कफ आमको बढानेवाला होताहै ॥२५॥ गाय और भैंसका दूध छोडके सब अहितहै स्त्रिका दूध कच्चाही हितहै औटायाहुवा हितहै ॥ २६ ॥ औटा गरम कफवातकों हरता और औटा शीतल पित्त हरताहै आधा पानी मिलाके बाकी बचाहुवा दूध कच्चेसें बहुत हलका होताहै ॥ २७ ॥ जलसें रहित दूध जैसे जैसे बहुत औटायाहुवा वैसे वैसे भारी चिकना शुक्रकों करनेवाला बलकों बढानेवाला होताहै ॥२८॥ अथ पीयूषकिलाटक्षीरशाकः तक्रपिण्डमोरटानां लक्षणानि गुणाश्च. क्षीरं तत्कालसूताया धनपीयूषमुच्यते । नष्टदुग्धस्य पक्कस्य पिण्डः प्रोक्तः किलाटकः ॥२९॥ अपक्कमेव यन्नष्टं क्षीरशाकं हि तत्पयः। दना तक्रेण वा नष्टं दुग्धं बद्धं सुवाससा ॥ ३०॥ द्रवभावेन सहितं तक्रपिण्डः स उच्यते । नष्टदुग्धं भवन्नीरं मोरटं जेजटोऽब्रवीत् ॥३१॥ पीयूषं च किलाटश्च क्षीरशाकं तथैवच । तक्रपिण्ड इमे वृष्या बृंहणा बलवर्धनाः॥ ३२॥ गुरवः श्लेष्मला हृद्या वातपित्तविनाशनाः। दीप्ताग्नीनां विनिद्राणां विद्रधौ चाभिपूजिताः ॥ ३३ ॥ मुखशोषतृषादाहरक्तपित्तज्वरप्रणुत् । लघुर्बलकरो रुच्यो मोरटः स्यात्सितायुतः ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे सन्तानिका गुरुः शीता वृष्या पित्तास्त्रवातनुत् । तर्पणी बृंहणी स्निग्धा बलासबलशुक्रला ॥ ३५॥ टीका-अनन्तर पीयूष किलाट क्षीरशाक तक्रपिंड मोरट इनके लक्षण और गुण तत्काल कच्चा पीयाहुआ गायके दूधकों पीयूष लोकमे पिवस कहतेहैं दूधके पिण्डकों किलाट कहोहै ॥२९॥ किलाट गिजिरी इसमकार लोकमें कहतेहैं कच्चाही जो कटा दूध है उसकों क्षीरशाक कहेतेहैं इसको लोकमें तुषिभरा कहेतेहैं दही अथवा महेसें फटेहुवे दूधकों अच्छे कपडसें बांधकर ॥ ३० ॥ उस द्रवभावके सहितकों तक्रपिण्ड कहेतेहैं फटेहुवे दूधके पानीकों मोरट जेज्जटने कहाहै ॥ ३१ ॥ पीयूष किलाट क्षीरशाक और तक्रपिण्ड यह वृष्य पुष्ट बलकों बढानेवाले ॥३२॥ भारी कफकों करनेवाले हृद्य वातपित्तकों हरताहैं और दीप्ताग्नियोंकों बेनीदवालोंकों और विद्रधिमें श्रेष्ठ है ॥ ३३ ॥ और मुखशोष तृषा दाह रक्तपित्त ज्वर इनकों हरताहै चीनीके सहित मोरट हलका बलकर रुचिकों करनेवाला है ॥ ३४ ॥ मलाईके गुण मलाई भारी शीतल शुक्रकों करनेवाली रक्तपित्त वात इनको हरनेवाली तर्पण पुष्ट चिकनी और कफ बल शुक्र इनको करनेवाल्महै ॥ ३५ ॥ ___ अथ शर्करायुक्तादिदुग्धगुणाः. खण्डेन सहितं दुग्धं कफकत्पवनापहम् । सितासितोपलायुक्तं शुक्रलं त्रिमलापहम् ॥ ३६ ॥ सगुडं मूत्रकृच्छ्रघ्नं पित्तश्लेष्मकरं परम् । रात्रौ चन्द्रगुणाधिक्याझ्यायामाकरणात्तथा ॥ ३७॥ प्रभातिकं तदा प्रायः प्रदोषाद्गुरु शीतलम् । दिवाकरकराघातायायामानलसेवनात् ॥ ३८॥ प्राभातिकात्तु प्रादोषं लघु वातकफापहम् । वृष्यं बृंहणमग्निदीपनकरं पूर्वाह्नकाले पयो मध्यान्हे तु बलावहं कफहरं पित्तापहं दीपनम् । वाले वृद्धिकरं क्षये क्षयकरं वृद्धेषु रेतोवहं रात्रौ पथ्यमनेकदोषशमनं क्षीरं सदा सेव्यते ॥ ३९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। __३११ वदन्ति पेयं निशि केवलं पयो भोज्यं न तेनेह सहौदनादिकम् । भवत्यजीर्णे निशि पीतशर्करा क्षीराल्पपानस्य तु शेषमुत्सृजेत् ४० विदाहीन्यन्नपानानि दिवा भुंक्ते हि यन्नरः। तद्विदाहप्रशान्त्यर्थं रात्रौ क्षीरं सदा पिबेत् ॥४१॥ दीप्तानले कशे पुंसि वातवृद्धे पयःप्रिये । मतं हिततमं पथ्यं सद्यः शुक्रकरं यतः ॥ ४२॥ क्षीरं गव्यमथाजं वा कोष्णं दण्डाहतं पिबेत् । लघु वृष्यं ज्वरहरं वातपित्तकफापहम् ॥ ४३॥ गोदुग्धप्रभवं किंवा छागीदुग्धसमुद्भवम् । भवेदेतत्रिदोषघ्नं रोचनं बलवर्धनम् ॥४४॥ वह्नवृद्धि करं वृष्यं सद्यस्तृप्तिकरं लघु । अतीसारेऽग्निमान्ये च ज्वरे जीर्णे प्रशस्यते ॥४५॥ विवर्ण विरसं चाम्लं दुर्गन्धं ग्रथितं पयः। वर्जयेदम्ललवणयुक्तं दोषादिहृद्यतः ॥ ४६॥ टीका-अनन्तर खांडआदिसें युक्त दुग्धका गुण खांडके सहित दुग्ध कफकों करनेवाला वातहरता है चीनी और मिश्रीके युक्त शुक्रकों करनेवाला त्रिदोषकों हरताहै ॥ ३६ ॥ गुडके सहित मूत्रकृच्छ्रकों हरता और परम पित्तकफकों करनेवालाहै रात्रिमें चन्द्रगुणकी अधिकतासें तथा व्यायाम करनेसें ॥ ३७॥ सवेरेका दूध प्रायः सायंकालका भारी शीतल होताहै सूर्यके किरणोंके आघातसें और व्यायाम अग्नि इनके सेवनसें ॥ ३८ ॥ सवेरेका हलका वात कफको हरताहै अनन्तर दुग्धसेवन समयमें गुण विशेषकों कहतेहै पहिले पहरमें पीयाहुवा दूध शुक्रकों करनेवाला पुष्ट अग्निकों दीपन करनेवाला और मध्यान्हमें बल करनेवाला कफ हरता पित्त हरता दीपन होताहै बाल अवस्थामें वृद्धि करनेवाला क्षयकर वृद्ध अवस्थामें शुक्रकों करनेवाला और रातोंमें हित अनेक दोषोंकों शमन करनेवाला दूधहै इसवास्ते सदा सेवन किया जाताहै ॥ ३९॥ कहतेहैं की रातमें केवल दूध पीना चाहिये उसकेसाथ चावल आदिक न खाने चाहिये अजीर्णके होनेमें रातमें थोडा दूध शकर पीनेवालेके वाकी सब निकल जाता है ॥४०॥ जिससे मनुष्य वि For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१२ हरीतक्यादिनिघंटे दाही अन्नपान दिनमें भोजन करता है उस कारण विदाहप्रशान्तिके अर्थ रातमें दूधकों सदा पीवै ॥ ४१ ॥ दीप्ताग्नि कृश वातवृद्धि और दुग्धप्रिय ऐसे पुरुषकों बहुत हित और पथ्य है क्योंकी तत्काल शुक्रकों करता है ॥ ४२ ॥ गायका अथवा कुछ बकरीका गरम मथेहुबेकों पीवै और हलका शुक्रकों करनेवाला ज्वर हरता वात पित्त कफकों हरता है ॥ ४३ ॥ गोदुग्धसें उत्पन्न हुवा अथवा बकरीके दूधसें हुवा त्रिदोषहरता रोचन बलकों बढानेवाला ॥ ४४ ॥ अनिकों करनेवाला शुक्रकों क रनेवाला तत्काल तृप्तिकों करनेवाला हलका होता है और अतीसार अग्निमान्द्य तथा जीर्णज्वर इनमें प्रशस्त हैं ॥ ४५ ॥ विवर्ण विरस खट्टा दुर्गन्ध और गठील ऐसा दूध त्याग देवै क्योंकी अम्ल लवण युक्त वृद्धि आदिकों हरता कहा है || ४६ ॥ अथ दधिविषयविचारः. दध्युष्णं दीपनं स्निग्धं कषायानुरसं गुरु । पाकेऽम्लं श्वासपित्तास्त्रशोथमेदः कफप्रदम् ॥ ४७ ॥ मूत्रकृच्छ्रे प्रतिश्याये शीतगे विषमज्वरे । अतीसारेsaat कार्ये शस्यते बलशुक्रकत् ॥ ४८ ॥ आदौ मन्दं ततः स्वादु स्वाद्वम्लं च ततः परम् । अम्लं चतुर्थमत्यलं पञ्चमं दधि पञ्चधा ॥ ४९॥ मन्दं दुग्धं यदव्यक्तं रसं किञ्चिद्वनं भवेत् । मन्दं स्यात्सृष्टविण्मूत्रदोषत्रयविदाहकृत् ॥ ५० ॥ यत्सम्यग्घनतां यातं व्यक्तस्वादुरसं भवेत् । अव्यक्ताम्लरसं तत्तु स्वादु विज्ञैरुदाहृतम् ॥ ५१ ॥ स्वादु स्यादत्यभिष्यन्दि वृष्यं मेदःकफावहम् । वातघ्नं मधुरं पाके रक्तपित्तप्रसादनम् ॥ ५२ ॥ स्वाद्वम्लसान्द्रमधुरं कषायानुरसं भवेत् । स्वाद्वम्लस्य गुणा ज्ञेया सामान्यदधिवर्जनैः ॥ ५३॥ यत्तिरोहितमाधुर्यं व्यक्ताम्लत्वं तदम्लकम् । अम्लं तु दीपनं पित्तरक्तश्लेष्मविवर्धनम् ॥ ५४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। तदत्यम्लं दन्तरोमहर्षकण्ठादिदाहकत् । अत्यम्लं दीपनं रक्तवातपित्तकरं परम् ॥ ५५ ॥ टीका-उसमें दहीके गुण दही उष्ण दीपन चिकना पीछेसे कसेला भारी पाकमें अम्ल श्वास रक्त पित्त शोथ मेद कफ इनकों करनेवाला है ॥४७॥ मूत्रकच्छ्रमें प्रतिश्यायमें शीतवाले विषमज्वरमें अतीसारमें अरुचिमें कृशतामें प्रशस्त है बल शुक्रकों करनेवाला है ॥ ४८ ॥ अनन्तर दहीका भेद पहिले मन्द उसके अनन्तर मधुर और उसके बाद खट्टा मीठा चौथा खट्टा तथा पांचवा बहुत खट्टा ऐसे दही पांच प्रकारका होता है ॥४९॥ अनन्तर मन्दादियोंके गुण और लक्षण मन्द दुग्ध जो अव्यक्त रस और कुछ गाढा होता है मन्द मलमूत्रकों करनेवाला त्रिदोष तथा विदाहि इनकों करनेवाला है ॥ ५० ॥ जो अच्छीतरह गाढी होजाती है और व्यक्त खादुरस जिस्में होता है उसको बुद्धिवानोंने मधुर कहा है ॥५१॥ मधुर अति अभिष्यन्दी होता है शुक्रकों करनेवाला और मेद कफकों करनेवाला वातहरता पाकमें मधुर रक्तपित्तकों अच्छा करनेवाला होता है ॥५२॥ मीठा खट्टा सान्द्र मधुर पीछेसें कसेला होता है सामान्य दहीके त्यागकरके मीठे खट्टेका गुण जानना चाहिये ॥ ५३ ॥ जो मधुरता ढकी है और जिसमें अम्लता व्यक्त है वोह खट्टा है खट्टा दीपन रक्त पित्त कफ इनको बढानेवाला ॥ ५४॥ वोह बहुत खट्टा दांतहर्ष रोमहर्ष कण्ठ आदिका दाह करनेवाला है बहुत खट्टा दीपन रक्त वात पित्त इनकों करनेवाला है ॥ ५५॥ गोमहिष्यादिदधिगुणाः. गव्यं दधि विशेषेण स्वादम्लं च रुचिप्रदम् । पवित्रं दीपनं हृद्यं पुष्टिकत्पवनापहम् ॥ ५६ ॥ उक्तं दनामशेषाणां मध्ये गव्यं गुणाधिकम् । माहिषं दधि सुस्निग्धं श्लेष्मलं वातपित्तनुत् ॥ ५७ ॥ स्वादुपाकममिष्यन्दि वृष्यं गुर्वस्त्रदूषकम् । आज दध्युत्तमं ग्राहि लघु दोषत्रयापहम् ॥ ५८॥ शस्यते श्वासकासार्शःक्षयकाशेषु दीपनम्। पक्कं दुग्धभवं रुच्यं दधि स्निग्धगुणोत्तम् ॥ ५९॥ For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ हरीतक्यादिनिघंटे पित्तानिलापहं सर्वधात्वग्निबलवर्धनम् । असारं दधि संग्राहि शीतलं वातलं लघु ॥६०॥ विष्टम्भि दीपनं रुज्यं ग्रहणीरोगनाशनम् । गालितं दधि सुस्निग्धं वातघ्नं कफकद्गुरु ॥६१॥ बलपुष्टिकरं रुच्यं मधुरं नातिपित्तरुत् । टीका-गायके दहीका गुण गायका दही विशेषकरके मधुर अम्ल रुचिकों करनेवाला पवित्र दीपन हृद्य पुष्टिकों करनेवाला वातकों हरता है॥५६ । सब दहीयोंके बीचमें गायका दही गुणमें अधिक कहा है मैंसका दही बहुत चिकना कफकों करनेवाला वातपित्तकों हरता॥५७॥ पाकमें मधुर अभिष्यन्दी शुक्रकों करनेवाला भारी रक्तदूषक होता है बकरीके दहीका गुण बकरीका दही बहुत उत्तम काविन हलका तीनों दोषोंकों हरता है ॥५८॥ और श्वास कास ववासीर क्षय कार्श इनमें प्रशस्त है तथा दीपन होता है औटाये हुवे दूधके दहीका गुण पकेहुवे दूधका दही रुचिकों करनेवाला चिकना गुणमें अच्छा ॥ ५९॥ पित्त वातकों हरता और सब धातु अनि बल इनको बढानेवाला है असारदही काविज शीतल वातकों करनेवाला हलका ॥६० ॥ विष्टंभी दीपन रुचिको करनेवाला ग्रहणीरोगकों हरता है निचोडा हुई दहीका गुण निचोडी दही बहुत चिकना वातहरता कफको करनेवाला भारी ॥६१ ॥ बल पुष्टिको करनेवाला रुचिकर मधुर और अति पित्त करनेवाला है ॥ अथ शर्करायुक्तदधिगुणाः दध्नो रात्रोनिषेधश्च. सशर्करं दधि श्रेष्ठं तृष्णापित्तास्त्रदाहजित् ॥ ६२ ॥ सगुडं वातनुद्राही बृंहणं तर्पणं गुरु । न नक्तं दधि भुञ्जीत न चाप्यघृतशर्करम् ॥ ६३॥ नामुद्गसूपं नाक्षौद्रं नोष्णं नामलकैर्विना । शस्यते दधि नो रात्रौ शस्तं चाम्बु घृतान्वितम् ॥ ६४ ॥ रक्तपित्तकफोत्थेषु विकारेषु तु नैव तत् । हेमन्ते शिशिरे चापि वर्षासु दधि शस्यते ॥ ६५॥ For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। ३१५ शरद्रीष्मवसन्तेषु प्रायशस्तद्विगर्हितम् । ज्वरामृपित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्डामयभ्रमान् ॥ ६६ ॥ प्राप्नुयात्कामलां चोयां विधिं हित्वा दधिप्रियः। दधस्तूपरि यो भागो घनः स्नेहसमन्वितः ॥ ६७ ॥ स लोके सर इत्युक्तो भदो मण्डस्तु मस्त्विति । सरः स्वादुर्गुरुर्वृष्यो वातवह्निप्रणाशनः ॥ ६८॥ साम्लो बस्तिप्रशमनः पित्तश्लेष्मविवर्धनः । मस्तु कमहरं बल्यं लघु भक्ताभिलाषकत् ॥ ६९॥ स्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णानिलापहम् । अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसंचयम् ॥ ७० ॥ टीका-शर्कराके सहित दही श्रेष्ठ तृषा रक्त पित्त दाह इनको जीतनेवाला है ॥६२॥ और गुडके सहित वातनाशक शुक्रकों करनेवाला पुष्ट तर्पण भारी होतीहै अब रातमें दधिभोजनका निषेध रातमें दही न खावै और शर्करा घृतकेभी विना न खावै ॥ ६३ ॥ तथा विनामुद्गकी दालके और विना मधुकेभी न खावै और न गरम आवलोंकेविना न खावै रातमें दही न खावै और खावै तो बेघी शक्कर मृगकी दाल मधु उष्ण विनाआंवलोंकेभी दही न खावै उस्से घृतशर्करादियुक्त दही रातमेंभी खावै यह अर्थ है ऐसे कहाहै रातमें दही प्रशस्त नहीं है और जल घृतसे युक्त प्रशस्तहै ॥ ६४॥ रक्त पित्त कफके विकारोंमें वोह प्रशस्त नहींहै हेमन्त शिशिर और वर्षामें दही प्रशस्त है ॥६५॥ और शरद ग्रीष्म वसन्तमें प्रायः वोह विदित है अब विनाविधिसें दधि सेवनमें दोष कहतेहैं ज्वर रक्तपित्त वीसर्प कुष्ठ पांडुरोग भ्रम ॥६६॥ और उग्रकामलारोग यह विधि छोडके दही सेवन करनेसे होतेहैं दहीके ऊपरका जो गाढा चिकनाईसें युक्त हिस्साहै ॥ ६७ ॥ उसकों लोकमें सर ऐसा कहतेहैं और दहीके पानीकों मस्तु ऐसा कहाहै सर मधुर भारी शुक्रकों करनेवाला वात अग्निकों हरता ॥ ६८॥ और खटाईके सहित बस्तिका शमन करनेवाला पित्त कफकों बढानेवालाहै दहीका पानी श्रमहरता बलके हित हलका भोजनमें रुचिकों करनेवाला ॥ ६९ ॥ सोतोंका शोधन करनेवाला ह्रादि कफ तृषा वात इनकों हरताहै अदृष्य प्रीणन और शीघ्र मलके संचयकों फोडताहै ॥ ७० ॥ इति दधिवर्गः। For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३१६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे अथ तक्रस्य नामानि गुणाश्च. घोलं तु मथितं तत्रमुदश्विच्छच्छिकापि च । ससरं निर्जलं घोलं मथितं त्वसरोदकम् ॥ ७१ ॥ तक्रं पादजलं प्रोक्तमुदश्वित्त्वर्धवारिकम् । छच्छिका सारहीना स्यात्स्वच्छा प्रचुरवारिका ॥ ७२ ॥ घोलं तु शर्करायुक्तं गुणैर्ज्ञेयं रसालवत् । वातपित्तहरं ह्लादि मथितं कफपित्तनुत् ॥ ७३ ॥ तकं ग्राहि कषायाम्लं स्वादुपाकरसं लघु । वीर्योष्णं दीपनं वृष्यं प्रीणनं वातनाशनम् ॥ ७४ ॥ ग्रहण्यादिमतां पथ्यं भवेत्सङ्ग्राहि लाघवात् । किञ्चित्स्वादुविपाकित्वान्न च पित्तप्रकोपनम् ॥ ७५ ॥ कषायोष्णं दीपनं च प्रीणनं वातनाशनम् । कषायोष्णा विपाकित्वाद्रौक्ष्याच्चापि कफापहम् ॥ ७६ ॥ टीका - अब तवर्ग कहता हूं उसमें मट्ठेके अलग नाम औ लक्षण तथा गुण घोल मथित तक्र उदशिवत छच्छिका यह मट्ठेके नाम हैं पूर्वोक्त सरके सहित निर्जलकों घोल कहतेहैं और मथित जिसमें सर और जल नहो उसको कहते हैं ॥ ७१ ॥ जिसमें चौथाई जल होता है उसकों तक कहा है और जिसमें आधा जल होता है उसको उदश्वित् कहाहै तथा सर हीन स्वच्छ बहुत जलसें युक्तकों छछिका कहते हैं ॥ ७२ ॥ शर्करायुक्त घोल रसालके गुणमें जानना चाहिये महया इसप्रकार लोकमें कहते हैं छाछ इस प्रकार लोक में कहतेहैं ॥ ७३ ॥ मथित वातपित्तकों हरता हादीकफपित्तकों हरता है तक्र काविज कसेला खट्टा पाकरसमें मधुर हलका वीर्यमें उष्ण दीपन शुक्रकों करनेवाला प्रीणन वात हरता है ||७४ || और संग्रहणीवालेकों हित है महा काबिज होता है हलकेपनसें मधुर पाक होनेसें पित्तप्रकोपकरनेवाला नहीं है || ७५ || कसेला उष्ण दीपन वृष्य प्रीणन वातहरता है कसेला उष्ण विपाक नहोसें और तभी कफ हरता है ।। ७६ ।। For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। अथ सामान्यतक्राणां उद्धतादीना गुणाः. न तक्रसेवी व्यथते कदाचिन्न तकदग्धाः प्रभवन्ति रोगाः। यथा सुराणाममृतं सुखाय तथा नराणां भुवि तक्रमाहुः॥७७॥ उदश्वित्कफरुवल्यं आमघ्नं परमं मतम् । छच्छिका शीतला लध्वी पित्तश्रमतृषाहरी ॥ ७८॥ वातनुत्कफरुत्सा तु दीपनी लवणान्विता । समुद्धृतं घृतं तकं पथ्यं लघु विशेषतः ॥७९॥ स्तोकोद्धृतं घृतं तस्माद्गुरु वृष्यं कफावहम् । अनुद्धृतं घृतं सान्द्रं गुरु पुष्टिकफप्रद्रम् ॥ ८॥ वातेऽम्लं शस्यते तक्र शुण्ठी सैन्धवसंयुतम् । पित्ते स्वादु सितायुक्तं सव्योषमधिके कफे ॥ ८१॥ हिड जीरयुतं घोलं सैन्धवेन च संयुतम् । भवेदतीव वातघ्नमर्शोऽतीसारहृत्परम् ॥ ८२॥ रुचिदं पुष्टिदं बल्यं बस्तिशुलविनाशनम् । मूत्रकृच्छ्रे तु सगुडं पाण्डुरोगे सचित्रकम् ॥ ८३॥ टीका-तक्रका सेवन करनेवाला कदाचित् क्लेश नहीं पाता तक्रसें दग्धरोग उत्पन्न नहीं होते जैसे देवताओंकों सुखकेवास्ते अमृत होताहै वैसेही मनुष्योंकों भूलोकमें तक कहाहै ॥ ७७ ॥ उदश्चित् कफकों करनेवाला बलके हित परम आंबकों हरता कहाहै छच्छिका शीतल हलकी पित्त श्रम तृषाकों हरताहै ॥७८॥ वात हरता कफकों करनेवाला है और वोह लवणसेंयुक्त दीपन है अच्छीतरह घी निकालाहुवा तक पथ्य और विशेषकरके हलका होताहै ॥७९॥ थोडा घृत निकाला हुवा उस्सें भारी शुक्रकों करनेवाला और कफकों करनेवाला है वे निकालाहुवा सान्द्र भारी पुष्ट कफकों करनेवाला है ॥ ८० ॥ अनन्तर रोग विशेषों तक विशेषकों कहतेहैं वातमें अम्लतक सैन्धवसे युक्त पित्तमें मधुर चीनीकेसहित और कफमें त्रिकुटके सहित हितहै ॥ ८१ ॥ हींग जीरेकेसहित और सैन्धवकेसहित और घोल अतीव वातहरता और बवासीर अतीसारका परम हरताहै ॥ ८२ ॥ तथा For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१८ हरीतक्यादिनिघंटे रुचिकों करनेवाला पुष्टिकों देनेवाला बलके हित वस्तिशूलकों हरताहै मूत्रकृच्छ्रमें गुडकेसहित और पाण्डुरोगमें चित्रककेसहित हितहै ॥ ८३ ॥ अथामपक्कतक्रगुणाः सेवननिमित्तानिच. तक्रमामं कफं कोष्ठे हन्ति कण्ठे करोति च । पीनसश्वासकासादौ पक्कमेव प्रयुज्यते ॥ ८४ ॥ शीतकालेऽग्निमान्धे च तथा वातामयेषु च । अरुचौ स्रोतसां रोधे तक्रं स्यादमृतोपमम् ॥ ८५॥ तत्तु हन्ति गरच्छर्दि सेकविषमज्वरान् । पाण्डुमेदोग्रहण्यर्शो मूत्रग्रहभगन्दरान् ॥ ८६ ॥ मेहं गुल्ममतीसारं शूलप्लीहोदरारुचीः । श्वित्रकोष्ठगतव्याधीन्कुष्ठशोथतृषाकमीन् ॥ ८७ ॥ नैव तक्रं क्षते दद्यान्नोष्णकाले न दुर्बले । न मूर्च्छाभ्रमदाहेषु नरोगे रक्तपित्तजे । यान्युक्तानि दधीन्यष्टौ तद्गुणं तक्रमादिशेत् ॥ ८८ ॥ टीका - अनन्तर कच्चे और पके तक्रका गुण कच्चा महा कोष्ठमें कफकों हरता है और कण्ठमें कफकों करता है पीनस श्वास कासादिकमें पकाई योजना कियाजाता है || ८४ ॥ अनन्तर तक्र सेवनके कारण शीतल काल अग्निमान्द्य तथा वातरोगमेंभी अरुचिमें स्रोतोंके अवरोधमें तक अमृतके समान होता है || ८५ ॥ वोह विष वमन प्रसेक विषमज्वर इनकों और पाण्डुरोग मेद ग्रहणीरोग ववासीर मूत्र ग्रह भगन्दर इनकों ॥ ८६ ॥ तथा प्रमेह वायगोला अतीसार शूल लीहोदर अरुचि वित्र कोढगतरोग कुष्ठ शोथ तृषा कृमि इनकों हरता है || ८७ ॥ तत्रका अविषय तक्र क्षतमें न देवै न उष्ण कालमें न दुर्बलमें न मूर्च्छा भ्रम दाहमें न रक्त पित्तके रोगमें देवै अनन्तर गायआदिके तक्रोंका विशेष गुण जो आठ दहीयोंके गुण कहैं वह गुण तक्रमें जानलेवै ॥ ८८ ॥ इति तक्रवर्गः । अथ नवनीतगुणाः. तत्र नवनीतस्य नामानि गुणाश्च. मृक्षणं सरजं हैयङ्गवीनं नवनीतकम् । For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra thora www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kailassagarsun दुग्धदधितघृतमूत्रवर्गः। नवनीतं हितं गव्यं वृष्यं वर्णवलाग्निरुत् ॥ ८९॥ संग्राहि वातपित्तामृक् क्षयार्थोऽदितकासहृत् । तद्धितं बालके वृद्धे विशेषादमृतं शिशोः ॥ ९० ॥ नवनीतं महिष्यास्तु वातश्लेष्मकरं गुरु। दाहपित्तश्रमहरं मेदः शुक्रविवर्धनम् ॥ ९१ ॥ दुग्धोऽत्थं नवनीतं तु चक्षुष्यं रक्तपित्तनुत् । वृष्यं बल्यमतिस्निग्धं मधुरं ग्राहि शीतलम् ॥ ९२॥ नवनीतं तु सद्यस्कं स्वादु ग्राहि हिमं लघु । मेध्यं किञ्चित्कषायाम्लमीषत्तक्रांशसंक्रमात् ॥ ९३ ॥ सक्षारकटुकाम्लत्वाच्छद्यःकुष्टकारकम् । श्लेष्मलं गुरु मेदस्यं नवनीतं चिरन्तनम् ॥ ९४ ॥ टीका-अनन्तर माखनके गुण उसमें माखनके नाम और गुण मृक्षण सरज हैयङ्गवीन नवनीत यह माखनके नाम हैं गायका माखन पथ्य शुक्रकों करनेवाला वर्ण बल अग्निकों करनेवाला ॥८९ ॥ काविज वात पित्त रक्तक्षय बवासीर अदित कास इनकों हरताहै वोह बालक वृद्धको हितहै विशेषकरके वालककों अमृतके समान है ॥९०॥ भैसका माखन वात कफको करनेवाला भारी दाह पित्त श्रमकों हरता मेद शुक्रकों बढानेवाला है ॥ ९१॥ अनन्तर दूधके माखनका गुण दूधका माखन नेत्रके हित रक्तपित्तकों हरता शुक्रकों करनेवाला बलके हित बहुत चिकना मधुर काविज शीतलहै ॥ ९२॥ अनन्तर ताजे माखनका गुण ताजा माखन मधुर काविज शीतल हलका कान्तिकों करनेवाला कुछ एक कसेला थोडेमठेके अंश मिलनसें ॥ ९३ ।। अनन्तर पुराने माखनका गुण क्षारके सहित कटुक खट्टापन होनेसें वमन ववासीर कुष्ठ इनकों करनेवालाहै कफकों करनेवाला भारी मेदकों करनेवाला पुराना माखन है ॥ ९४ ॥ इति नवनीतवर्गः. अथ घृतस्य नामानि गुणाश्च. घृतमाज्यं हविः सर्पिः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ । घृतं रसायनं स्वादु चक्षुष्यं वह्निदीपनम् ॥ ९५॥ For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० हरीतक्यादिनिघंटे शीतवीर्यविषालक्ष्मीपापपित्तानिलापहम् । अल्पाभिष्यन्दिकान्त्योजस्तेजोलावण्यबुद्धिकत् ॥ ९६ ॥ स्वरस्मृतिकरं मेध्यमायुष्यं बलकद्गुर । उदावर्तज्वरोन्मादशूलानाव्रणान् हरेत् ॥ ९७॥ स्निग्धं कफकरं रक्षःक्षयवीसर्परक्तनुत् ।। टीका-अनन्तर घृतवर्गः उसमें घृतके नाम और गुण कहताहै घृत आज्य हवि सर्पि यह घृतके नाम हैं और रसायन मधुर नेत्रके हित अग्निदीपन ॥ ९५ ॥ शीतवीर्यहै और विष अलक्ष्मी पाप पित्त वात इनकों हरताहै थोडा अभिष्यन्दी कान्ति ओज तेज लावण्य बुद्धि इनकों करनेवाला ॥ ९६ ॥ स्वर स्मृतिको करनेवाला मेध्य आयुके हित बलकों करनेवाला भारी उदावर्त ज्वर उन्माद शूल अफरा व्रण इनकों हरताहै ॥ ९७ ॥ चिकना कफको करनेवाला रक्ष क्षय वीसर्प रक्त इनकों हरताहै ॥ ___ अथ माहिषछागोष्ट्रीघृतमुणाः. गव्यं घृतं विशेषेण चक्षुष्यं वृष्यमग्निरुत् ॥ ९८॥ स्वादु पाककरं शीतं वातपित्तकफापहम् । मेधालावण्यकान्त्योजस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥ ९९ ॥ अलक्ष्मीपापरक्षोघ्नं वायसः स्थापकं गुरु । बल्यं पवित्रमायुष्यं सुमङ्गल्यं रसायनम् ॥ १० ॥ सुगन्धं रोचकं चारु सर्वाज्येषु गुणाधिकम् । माहिषं तु घृतं स्वादु पित्तरतानिलापहम् ॥ १०१ ॥ शीतलं श्लेष्मलं वृष्यं गुरु स्वादु निपच्यते । आजमाज्यं करोत्यग्निं चक्षुष्यं बलवर्धनम् ॥ १०२ ॥ कासे श्वासे क्षये चापि हितं पाके भवेत्कटु । औष्ट्रं कटु घृतं पाके शोषक्रिमिविषापहम् ॥ १०३ ॥ दीपनं कफवातघ्नं कुष्टगुल्मोदरापहम् । For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२१ दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। पाके लघ्वाविकं सर्पिः सर्वरोगविनाशनम् ॥ १०४॥ वृद्धिं करोति चास्थीनामश्मरीशर्करापहम् । चक्षुष्यमग्निकदृष्यं वातदोषनिवारणम् ॥ १०५॥ टीका-गायके घृतका गुण गायका घृत विशेषकरके नेत्रके हित शुक्रकों करनेवाला अग्निकों करनेवाला ॥ ९८ ॥ मधुर पाकको करनेवाला शीतल और वात पित्त कफ इनकों हरताहै और मेघा लावण्य कान्ति ओज तेज इनकी परमवृद्धिकों करनेवाला ॥ ९९ ॥ अलक्ष्मी पापराक्षस इनकों हरता वयका स्थापक भारी बलके हित पवित्र आयुके हित सुमंगल्य रसायन ॥ १०० ॥ सुगन्ध रोचन सुंदर सबतोंसें गुणमें अधिकहै अनन्तर भैसके घृतका गुण भैसका घृत मधुर पित्त रक्त वात इनकों हरता ॥ १०१ ॥ शीतल कफकों करनेवाला शुक्रकों करनेवाला भारी और पाकमें मधुर होताहै अनन्तर बकरीके घृतका गुण बकरीका घृत अग्निकों करताहै और नेत्रके हित बलकों बढानेवाला ॥ १०२॥ कास श्वास क्षयमेंभी हितहै और पाकमेंभी कटुहै अनन्तर ऊंटनीका घृत ऊंटनीका घृत पाकमें कटु और शोष कृमि विष इनकों हरता ॥ १०३ ॥ दीपन कफ वातकों हरता कुष्ठ वायगोला उदररोग इनकों हरताहै भेडका घृत पाकमें हलका सब रोगकों हरता ॥ १०४॥ और हहियोंकी वृद्धिकों करता है तथा पथरी शर्करा इनकों हरताहै नेत्रके हित अग्निकों करनेवाला और वातदोषका निवारकहै ॥ १०५॥ __ अथ नारीअश्वदुग्धह्यस्तनदधिघृतगुणाः, कफेऽनिले योनिदोषे पित्ते रक्ते च तद्धितम् । चक्षुष्यमाज्यं स्त्रीणां वा सर्पिः स्यादमृतोपमम् ॥१०६॥ वृद्धिं करोति देहाग्नेर्लघु पाके विषापहम् । तर्पणं नेत्ररोगघ्नं दाहनुबडवाघृतम् ॥ १०७ ॥ घृतं दुग्धभवं ग्राहि शीतलं नेत्ररोगहृत् । निहन्ति पित्तदाहास्त्रमदमूर्छाभ्रमानिलान् ॥ १०८॥ हविस्तनदुग्धोत्थं तत्स्याद्वैयङ्गवीनकम् । हैयङ्गवीनं चक्षुष्यं दीपनं रुचिकृत्परम् ॥ १०९॥ बलकवृंहणं वृष्यं विशेषाज्ज्वरनाशनम् । For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे वर्षादूर्ध्वं भवेदाज्यं पुराणं तत्रिदोषनुत् ॥ ११०॥ मूर्छाकुष्ठविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् । यथा यथाऽखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत् ॥ १११॥ तथा तथा गुणैः स्वैः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् । योजयेनवमेवाज्यं भोजने तर्पणे श्रमे ॥ ११२॥ बलक्षये पाण्डुरोगे कामलानेत्ररोगयोः । राजयक्ष्मणि बाले च वृद्धे श्लेष्मकते गदे ॥ ११३॥ रोगे साम विषूच्यां च विबन्धे च मदात्यये । ज्वरे च दहने मन्दे न सर्पिर्बहु मन्यते ॥ ११४ ॥ टीका-कफ वात योनिदोष पित्तरक्तमें वोह हितहै स्त्रीका घृत नेत्रने हित और अमृतके समान होताहै ॥ १०६ ॥ घोडीका घृत देहाग्निकी वृद्धिकों करताहै और पाकमें हलका विष हरता तर्पण नेत्ररोगकों हरता दाहहरता घोडीका घृत होताहै ॥ १०७ ॥ दूधका घृत काविज शीतल नेत्ररोगकों हरता और पित्त दाह रक्त मद मूर्छा भ्रम वात इनकों हरताहै ॥१०८॥ पूर्वदिन किये दहीके घृतकों हैयङ्गवीन कहेतेहैं हथनीका घृत नेत्रके हित दीपन परमरुचिकों करनेवाला है ॥१०९ ॥ और बलकों करनेवाला पुष्ट शुक्रकों करनेवाला और विशेषकरके ज्वर हरता कहाहै बरषके ऊपर घी पुराना होताहै वो त्रिदोष हरताहै ॥ ११० ॥ और मूर्छा कुष्ठ विष उन्माद अपस्मार तिमिर इनकों हरताहै सब घृत जैसे जैसे पुराना होताहै ॥१११॥ वैसे वैसे अपने गुणोंकरके अधिक कहाहै राजरोगमें बालक और दृद्धकों कफके रोगमें ॥ ११२ ॥ आमके रोगमें विषूचिकामें विवन्धमें मदात्ययमें और ज्वरमें मन्दाग्निमें बहुत घृत अच्छा नहींहै ॥ ११३ ॥ ११४ ॥ इति घृतवर्गः ॥ __अथ मूत्रवर्गे गोमूत्रगुणाः. गोमूत्रं कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तकषायकम् । लघ्वग्निदीपनं मेध्यं पित्तरुत्कफवातहृत् ॥ ११५॥ शूलगुल्मोदरानाहकण्ड्डक्षिमुखरोगजित् । किलासगदवातामबस्तिरुक्कुष्ठनाशनम् ॥ ११६ ॥ कासश्वासापहं शोथकामलापाण्डुरोगहृत् । For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। कण्डूकिलासगदशूलमुखाक्षिरोगान् गुल्मातिसारमरुदामयमूत्ररोधान् । कासं सकुष्ठजठरक्रिमिपाण्डुरोगान् गोमूत्रमेकमपि पीतमपाकरोति ॥ ११७॥ सर्वेष्वपि च मूत्रेषु गोमूत्रं गुणतोऽधिकम् ॥ ११८॥ अतोऽविशेषात्कथने मूत्रं गोमूत्रमुच्यते । प्लीहोदरश्वासकासशोथव!ग्रहापहम् ॥ ११९॥ शूलगुल्मरुजानाहकामलापाण्डुरोगहृत् । कषायं तितं तीक्ष्णं च पूरणात्कर्णशूलनुत् ॥ १२० ॥ नरमूत्रं गरं हन्ति सेवितं तद्रसायनम् । रक्तपामाहरं तीक्ष्णं सक्षारलवणं स्मृतम् ॥ १२१॥ गोजाविमहिषीणां तु स्त्रीणां मूत्रं प्रशस्यते । खरोष्ट्रेभनराश्वानां पुंसां मूत्रं हितं स्मृतम् ॥ १२२ ॥ टीका-अथ गोमूत्रका गुण गोमूत्र कटु तीखा उष्ण क्षार तिक्त कषाय हलका अग्निदीपन मेध्य पित्तको करनेवाला कफवातकों हरता ॥ ११५ ॥ शूल वायगोला उदर आनाह कंडू नेत्ररोग मुखरोग इनको हरनेवालाहै किलासरोग आमवात बस्तिपीडा कुष्ठरोग इनकों हरताहै ॥ ११६ ॥ कास श्वास इनको हरता सूजन कामला पाण्डुरोग इनको हरताहै खुजली किलासरोग शूल मुखरोग नेत्ररोग गुल्म अतिसार वातरोग मूत्ररोध ॥ ११७ ॥ कास कुष्टके सहित उदररोग क्रिमि पाण्डुरोग इनको एक गोमूत्र पियाहुवा हरता है सब मूत्रोंमें गोमूत्र गुणमें अधिकहै ११८ इसवास्ते विशेषकरके कहनेमें मूत्र गोमूत्रकों कहतेहैं प्लीह उदर श्वास कास सूजन मल ग्रह इनकों हरताहै ॥ ११९ ॥ शूल वायगोला पीडा अफारा कामला पाण्डुरोग इनकों हरता कसेला तिक्त तीखा डालनेसें कर्णशूलकों हरताहै ॥ १२० ॥ मनुष्यका मूत्र विषकों हरताहै और सेवन कियाहुवा वोह रसायनहै और रक्त पामाकों हरता तीखा क्षार लवणयुक्त कहाहै ॥१२१॥ गाय बकरी भैंस इनस्त्रियोंका मूत्र प्रशस्तहै और गद्धा ऊंट हाथी मनुष्य घोडा इनमें नरोंका मूत्र हित कहाहै ॥१२२॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीः। हरीतक्यादिनिघंटे तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः: अथ तैलस्य स्वरूपनिरूपणम्, तिलादिस्निग्धवस्तूनां स्नेहस्तैलमुदाहृतम् । तत्तु वातहरं सर्वं विशेषात्तिलसम्भवम् ॥ १॥ तिलतैलं गुरु स्थैर्य बलवर्णकरं सरम् । वृष्यं विकाशि विशदं मधुरं रसपाकयोः ॥ २ ॥ सूक्ष्मं कषायानुरसं तिक्तं वातकफापहम् । वीर्येणोष्णं हिमं स्पर्शे बृंहणं रक्तपित्तहत् ॥ ३॥ लेखनं बद्दविण्मूत्रं गर्भाशयविशोधनम् । दीपनं बुद्धिदं मेध्यं व्यवायि व्रणमेहनुत् ॥ ४ ॥ श्रोत्रयोनिशिरः शूलनाशनं लघु ताकरम् । त्वच्यं केश्यं च चक्षुष्यमभ्यङ्गे भोजनेऽन्यथा ॥ ५॥ छिन्नभिन्नच्युतोपिष्टमथितक्षतपिच्चिते । भन्नस्फुटितविद्धाग्निदग्धविश्लिष्टदारिते ॥६॥ तथाभिहतनिर्भुग्नमृगव्याधादिविक्षते । बस्तौपानेऽन्नसंस्कारे नस्ये कर्णाक्षिपूरणे ॥७॥ सेकाभ्यङ्गावगाहेषु तिलतैलं प्रशस्यते। टीका-अब तैल आदिवर्गकों कहतेहै उस्में तेलका निरूपण तिलादि स्निग्ध पदार्थोंकों चिकनाईको तेल कहाहै वह सब वात हरताहै विशेषकरके यह ॥ १ ॥ तिलका तैल भारी स्थैर्य बल वर्ण इनकों करनेवाला सर शुक्रकों करनेवाला वि For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२५ तैलसंधानमधमधुइक्षुवर्गः। काशि विशद रसपाकमें मधुर ॥२॥ सूक्ष्म पीछेसें कसेला तिक्त वातकफकों हरता वीर्यमें उष्ण शीतल स्पर्शमें पुष्ट रक्तपित्तकों करनेवाला ॥ ३ ॥ लेखन मलमूत्रकों बांधनेवाला गर्भाशयका शोधन दीपन बुद्धिकों देनेवाला मेध्यके हित व्यवायि व्रण प्रमेहकों हरता ॥४॥ कर्ण योनि शिर इनके शूलकों हरता और हलकापन करनेवाला त्वचाके हित केशके हित नेत्रके हित अभ्यङ्गमें यह गुण हैं और भोजनमें इसके विपरीतगुणहैं ॥ ५॥ छिन्न भिन्न च्युत उत्पिष्ट मथित क्षत पिच्चित भन्न स्फुटित विद्ध अग्निदग्ध विश्लिष्ट दारित ॥ ६॥ तथा अभिहत निर्भुग्न मृग व्याघ्र आदि विक्षत इनका विशेष भग्ननिदानमें कियाहै इनमें वस्तिमें पीनेमें अन्नके संस्कारमें नस्यमें कर्णनेत्रमें भरनेमें ॥७॥ सेक अभ्यङ्ग अवगाह इनमें तिलका तेल प्रशस्तहै. ननु वृंहणालेखनयोः कथं सामानाधिकरण्यमित्याह । रुक्षादिदुष्टः पवनः स्रोतः सङ्कोचयेद्यदा ॥८॥ रसो सम्याग्वहन कार्यं कुर्याद्रक्ताद्यवर्धयन् । तेषु प्रवेष्टुं सरते सौम्यस्निग्धत्वमार्दवैः ॥ ९॥ तैलं क्षमं रसं नेतुं कशानां तेन बृंहणम् । व्यवायि सूक्ष्मतीक्ष्णोष्णसरत्वैर्मेदसः क्षयम् ॥ १०॥ शनैः प्रकुरुते तैलं तेन लेखनमीरितम् । द्रुतं पुरुषं बनाति स्खलितं तत्प्रवर्तयेत् ॥ ११ ॥ ग्राहकं सारकं चापि तेन तैलमुदीरितम् । घृतमब्दात्परं पक्कं हीनवीर्यं प्रजायते ॥ १२॥ तैलं पक्कमपक्कं वा चिरस्थायि गुणाधिकम् । दीपनं सार्षपं तैलं कटु पाकरसं लघु ॥ १३॥ लेखनं स्पर्शवीर्योष्णं तीक्ष्णपित्तास्त्रदूषकम् । कफमेदोऽनिलार्शोघ्नं शिरःकर्णामयापहम् ॥ १४ ॥ कण्डकुष्ठळमिश्वित्रकोठदुष्टकमिप्रणुत् । तद्राजिकयोस्तैलं विशेषान्मूत्रकृच्छ्रकृत् ॥ १५॥ तीक्ष्णोष्णं तुवरीतैलं लघु ग्राहि कफास्त्रजित् । For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२६ हरीतक्यादिनिघंटे वह्निरूद्विषहत्कण्डूकुष्ठकोठकमिप्रणुत् ॥ १६ ॥ मेदोदोषापहं चापि व्रणशोथहरं परम् । टीका-शंका बृंहण और लेखनका कैसे सामानाधिकरण्य है सो कहतेहैं रूक्षा दिकरके दुष्टहुवा पवन जब संकोच करताहै ॥ ८ ॥ रस अच्छीतरह वहता हुवा रक्तादियोंकों न बढाता हुवा कृशताकों करताहै सौम्य स्निग्धता और मृदुता इनकरके रससे उनमें प्रवेश करनेकों ॥ ९॥ तैलही समर्थहै रसमें लेजानेकों इसवास्ते कृशोंका पुष्ट करनेवालाहै व्यवायि सूक्ष्म तीक्ष्ण उष्ण और सरख इनसें मेदका क्षय ॥१०॥ धीरेधीरे करताहै इसवास्ते तेल लेखन कहाहै पतले मलकों बांधताहै और उस स्खलितकों निकालताहै ॥ ११ ॥ उस्से तेल काविज और सारक कहाहै पकाहुवा घृत वरसभरके ऊपर हीनवीर्य होताहै ॥ १२ ॥ और तेल कच्चा वा पकाहुवा चिरस्थायी गुणमें अधिकहै सरसोंका तेल दीपन पाक और रसमें कटु हलका ॥१३॥ लेखन स्पर्श और वीर्यमें उष्ण तीखा रक्तपित्तका दूषक कफ मेद वात ववासीर शिरोरोग कर्णरोग इनकों हरता ॥ १४॥ और कंडू कुष्ठ कृमि श्वित्र कोठ दुष्ट कृमि इनकों हरता वैसेही राइयोंका तेलहै विशेषकरके मल-मूत्रकृच्छ्रकों करनेवालाहै राई काली और लाल दोनोंका तुवरीतैल ॥१५॥ तुवरीतैलके गुण तीखा उष्ण हलका काविज कफरक्तको हरनेवाला अग्निकों करनेवाला विषहरता और खुजली कुष्ठ कोठ कृमि इनको हरता ॥ १६ ॥ मेददोषको हरता और परमत्रण शोथका हरता. अथातसीवराखसतैलगुणाः, अतसीतैलमाग्नेयं स्निग्धोष्णं फकपित्तकत् ॥ १७ ॥ कटुपाकमचक्षुष्यं बल्यं वातहरं गुरु । मलरुद्रसतः स्वादु ग्राहि त्वग्दोषहद्वनम् ॥ १८॥ बस्तौ पाने तथाभ्यने नस्य कर्णस्य पूरणे । अनुपानविधौ चापि प्रयोज्यं वातशान्तये ॥ १९॥ कुसुम्भतैलमम्लं स्यादुष्णं गुरु विदाहि च।। चतुामहितं बल्यं रक्तपित्तकफप्रदम् ॥ २० ॥ तैलं तु खसबीजानां बल्यं वृष्यं गुरु स्मृतम् । वातहृत्कफहच्छीतं स्वादुपाकरसं च तत् ॥ २१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः। ३२७ टीका-अलसीका तेल आग्नेय चिकना उष्ण कफपित्तकों करनेवाला ॥ १७॥ पाकमें कटु नेत्रके अहित बलके हित वातहरता भारी होताहै मलकों करनेवाला रसमें मधुर काविज खचाके दोषकों हरता गाढा होताहै ॥ १८ ॥ बस्तिमें पीनेमें तथा अभ्यङ्गमें नासमें कानके डालनेमें अनुपानविधिमेंभी वातशान्तिके अर्थ योजना करनी चाहिये ॥ १९ ॥ कुसुम्भके तेलका गुण कुसुम्भका तेल खट्टा होताहै और उष्ण भारी विदाही नेत्रोंकों अहित बलके हित रक्त पित्त कफ इनकों करनेवालाहै ॥२०॥ अथ खसखसके तेलका गुण खसखसका तेल बलके हित शुक्रकों करनेवाला भारी कहाहै वातहरता और कफहरता शीतल रसपाकमें मधुर होताहै ॥२१॥ अथ एरण्डरालतैलगुणाः. एरण्डतैलं तीक्ष्णोष्णं दीपनं पिच्छिलं गुरु । वृष्यं त्वयं वयःस्थापि मेधाकान्तिबलप्रदम् ॥ २२ ॥ कषायानुरसं सूक्ष्मं योनिशुक्रविशोधनम् । वित्रं स्वादु रसे पाके सतिक्तं कटुकं सरम् ॥ २३ ॥ विषमज्वरहृद्रोगप्टष्टगुह्यादिशुलनुत् । हन्ति वातोदरानाहगुल्माष्ठीलाकटिग्रहान् ॥ २४ ॥ वातशोणितविड्बन्धबध्मशोथामविद्रधीन् । आमवातगजेन्द्रस्य शरीरवनचारिणः ॥ २५॥ एक एव निहन्तायमेरण्डस्नेहकेसरी । तैलं सर्जरसोद्भूतं विस्फोटवणनाशनम् ॥ २६ ॥ कुष्ठपामाकमिहरं वातश्लेष्मामयापहम् । तैलं स्वयोनिगुणकदाग्भटेनाखिलं मतम् ॥ २७ ॥ अतः शेषस्य तैलस्य गुणा ज्ञेया स्वयोनिवत् । टीका-अथ अंडीका तेल अंडीका तेल तीखा गरम दीपन पिच्छिल भारी शुक्रकों करनेवाला बचाके हित वयको स्थापन करनेवाला मेधा कान्ति बल इनकों करनेवालाहै ॥ २२ ॥ पीछेसे कसेला सूक्ष्म योनि शुक्रका शोधन दुर्गधियुक्त रसमें मधुर और पाकमें कुछ तिक्त कटुक सर ॥ २३ ॥ विषमज्वर हरोग पीठ गुदा आदिके शूलकों हरताहै वातोदर अफरा वायगोला अष्ठीला अटिग्रह ॥ २४ ॥ वातरक्त For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ . हरीतक्यादिनिघंटे बद्धमल मद सूजन आमविद्रधि इनकों हरता शरीररूपी वनमें विचरनेवाले आमवातरूपी गजेन्द्रकों ॥ २५ ॥ एकही हरनेवाला अंडीरूप सिंहहै अब रालके तेलका गुण रालका तेल विस्फोट व्रण इनकों हरताहै ॥ २६ ॥ और कुष्ठ पामा कृमि इनकों हरता तथा वात कफके रोगकों हरताहै सब तेलके गुण जिसका तेल होताहै उसीके समान गुणमें होताहै ऐसा वाग्भटनें सब तेलोंका मानाहै ॥ २७ ॥ इसवास्ते बाकी तेलके गुण अपने कारणके समान जानना चाहिये. इति तैलवर्गः अथ सन्धानवर्गे काञ्जिकस्य लक्षणं गुणाश्च. सन्धितं धान्यमण्डादि काञ्जिकं कथ्यते जनैः ॥ २८॥ काञ्जिकं भेदि तीक्ष्णोष्णं रोचनं पाचनं लघु । दाहज्वरहरं स्पर्शात्पानादातकफापहम् ॥ २९ ॥ माषादिवटकैर्यत्तु क्रियते तद्गुणाधिकम् । लघु वातहरं तत्तु रोचनं पाचनं परम् ॥ ३० ॥ शूलाजीर्णविबन्धामनाशनं बस्तिशोधनम् । शोषमूर्छाभ्रमार्तानां मदकण्डूविशोषिणाम् ॥ ३१ ॥ कुष्ठिनां रक्तपित्तानां काञ्जिकं न प्रशस्यते । पाण्डुरोगे यक्ष्मणि च तथा शोथातुरेषु च ॥ ३२॥ क्षतक्षीणे तथा श्रान्ते मन्दज्वरनिपीडिते। एतेषां तु हितं प्रोक्तं काञ्जिकं दोषकारकम् ॥ ३३ ॥ टीका-अनन्तर सन्धानवर्ग उसमें काञ्जीका लक्षण और गुण कहतेहै सन्धान कियाहुवा धान्य मण्डादिककों जन कांजी कहते हैं ॥ २८ ॥ कांजी मेद करनेवाला तीखी उष्ण रोचन पाचन हलकी होतीहै स्पर्शसें दाह ज्वरकों हरती और पीनेसे वातकफकों हरतीहै ॥२९॥ उडद आदिके वडे डालके जो कियीजातीहै वोह गुणमें अधिक होतीहै हलकी वातहरती रोचन परम पाचन होतीहै ॥ ३० ॥शूल अजीर्ण विबन्ध आम इनकों हरता बस्तिशोधन शोष मूर्छा भ्रम नसे पीडितकों और मद कण्डू विशोषवालोंकों ॥ ३१ ॥ कुष्ठवालोंकों रक्तपित्तवालोंकों कांजी अच्छी नहींहै पाण्डुरोग राजयक्ष्मा तथा शोषसें पीडित ॥ ३२ ॥ क्षतक्षीण तथा श्रान्त मन्द ज्वरसे पीडित इनकों कांजी और दोषकारक कहींहै ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः । अथ तुषोदकसौवीरआरनालधान्याम्लगुणाः तुषोदकं यवैरामैः सतुषैः शकलैः कृतैः । तुषाम्बु दीपनं हृद्यं पाण्डुकमिगदापहम् ॥ ३४ ॥ तीक्ष्णोष्णं पाचनं पित्तरक्तकद्वस्तिशूलनुत् । सौवीरं तु यवैरामैः पक्कैर्वा निस्तुषैः कृतम् ॥ ३५ ॥ गोधूमैरपि सौवीरमाचार्याः केचिदूचिरे । सौवीरं तु ग्रहण्यर्शः कफघ्नं भेदि दीपनम् ॥ ३६ ॥ उदावर्ताङ्गमर्दास्थिशुलानाहेषु शस्यते । आरनालं तु गोधूमैरामैः स्यान्निस्तुषीकृतैः ॥ ३७ ॥ पक्कैर्वा सन्धितैस्तत्तु सौवीरसदृशं गुणैः । धान्याम्लं शालिचूर्णं च कोद्रवादिकृतं भवेत् ॥ ३८ ॥ धान्याम्लं धान्ययोनित्वात्प्रीणनं लघु दीपनम् । अरुचीवातरोगेषु सर्वेष्वास्थापने हितम् ॥ ३९ ॥ टीका - मयछिलकेतक कचे टुकडे किये हुवे जवोंसें तुपोदक होता है उदकमें यवोंसें क्योंकी सन्धानवर्गमें कहनेसें तुषोदक दीपन हृद्य पाण्डुरोग कृमिरोग इनकों हरता ॥ ३४ ॥ तीखा उष्ण पाचन पित्तरक्तकों करनेवाला वस्तिशूलकों हरता है कच्चे जव अथवा पकेहुवे वे छिलकोंकेसे कियाहुवा सौवीरहै ॥ ३५ ॥ कोई आचार्य गेहूं भी सौवीर होता है ऐसा कहते हैं सौवीर संग्रहणी ववासीर कफ इनकों हरता भेदी दीपन है || ३६ || उदावर्त्त अङ्गमर्द अस्थिशुल अफरा इनमें प्रशस्त है अनन्तर आरनालका लक्षण और गुण वे छिलकेके कच्चे गेहूंओसें आरनाल होता है || ३७ ॥ अथवा पके सन्धान किये उनसें वोह सौवीरके सदृश गु में होता है अनन्तर धान्याम्लका लक्षण गुण चावलका चूर्ण और कोदों आदिसें बनाया हुवा धान्याम्ल होता है ॥ ३८ ॥ धान्य से होनें सें धान्याम्ल होता है वोह प्रीन हलका दीप है अरुचिमें वातरोगमें और सब आस्थापनमें हित है || ३९ ॥ अथ शण्डाकीशुक्तसंधानमद्यगुणाः. शण्डाकी राजिकायुक्तैः स्यान्मूलकदलद्रवैः । ४२ For Private and Personal Use Only ३२९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे सर्षपस्वरसैर्वापि शालिपिष्टकसंयुतैः ॥ ४० ॥ शण्डाकी रोचनी गु: पित्तश्लेष्मकरी स्मृता । कन्दमूलफलादीनि सस्नेहलवणानि च ॥ ४१ ॥ पत्रद्रव्येऽभिषूयन्ते तच्छुक्तमभिधीयते । शुक्तं कफनं तीक्ष्णोष्णं रोचनं पाचनं लघु ॥४२॥ पाण्डुक्रिमिहरं रूक्षं भेदनं रक्तपित्तकृत् । कन्दमूलफलाढयं यत्तत्तु विज्ञेयमासुतम् ॥ ४३ ॥ तद्रुच्यं पाचनं वातहरं लघु विशेषतः। मयं तु सीधुमैरेयमिरा च मदिरासुरा ॥४४॥ कादम्बरी वारुणी च हालापि बलवल्लभा । पेयं यन्मादकं लोके तन्मद्यमभिधीयते ॥ ४५ ॥ यथारिष्टं सुरा सीधुरासवाद्यमनेकधा । मयं सर्वं भवेदुष्णं पित्तकद्वातनाशनम् ॥ ४६ ॥ भेदनं शीघ्रपाकं च रूक्षं कफहरं परम् । अम्लं च दीपनं रुच्यं पाचनं चाशुकारि च ॥ ४७ ॥ तीक्ष्णं सूक्ष्मं च विशदं व्यवायि च विकाशि च । टीका-अनन्तर शण्डाकीका लक्षण और गुण राईसे युक्त मूलीके पत्तोंका रस और सरसोंके स्वरसमेंभी चावलकी पिठीसे युक्त इनसे शण्डाकी होतीहै ॥४०॥ शण्डाकी रोचन भारी पित्तकफकों करनेवाली कहींहै अब शुक्तका लक्षण और गुण कन्द मूल फल आदि और चिकनाई लवण ॥ ४१ ॥ येह जिस द्रव्यमें पड़ते हैं उसको शुक्त कहतेहैं शुक्त कफहरता तीखा उष्ण रोधन पाचन हलका ॥४२॥ पाण्डु क्रिमिकों हरता रूखा भेदन रक्तपित्तकों करनेवालाहै अब सन्धानका लक्षण और गुण कन्द मूल फलसें जो युक्त होताहै उसको आसुत जानना चाहिये ॥४३॥ वोह रुचिकों करनेवाला पाचन वातहरता विशेषकरके हलका होताहै मद्य सीधू मैरेय इरा मदिरा मुरा ॥ ४४ ॥ कादंबरी वारुणी हाला बलवल्लभा यह मदिराके नाम, जो पानीहरनेवाला है उसकों लोक मद्य कहतेहैं ॥ ४५ ॥ जैसे अरिष्ट सुरा सीधु और आसव आदि अनेक प्रकारकेहैं सब मद्य उष्ण पित्तकों करनेवाले वातहरते॥४६॥ For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुक्षुवर्गः । ३३१ भेदन शीघ्र पाक रूखे परम कफ हरते है और खट्टे दीपन रुचिकों करनेवाले पाचन आशुकारी ॥ ४७ ॥ तीक्ष्ण सूक्ष्म विशद व्यवायी और विकाश होते हैं. अथारिष्टस्य सुरायाश्च गुणाः. । पौषधाम्बुसिद्धं यन्मयं तत्स्यादरिष्टकम् ॥ ४८ ॥ अरिष्टं लघु पाकेन सर्वतश्च गुणाधिकम् । अरिष्टस्य गुणा ज्ञेया बीजद्रव्यगुणैः समाः ॥ ४९ ॥ शालिषष्टिकपिष्टादि कृतं मद्यं सुरा स्मृता । सुरा गुर्वी बलस्तन्यपुष्टिमेदः कफप्रदा ॥ ५० ॥ ग्राहिशोथं च गुल्माशग्रहणीमूत्रकृच्छ्रनुत् । पुनर्नवा शिलापिष्टैर्वारुणी विहिता स्मृता ॥ ५१ ॥ संहितैस्तालखर्जूररसैर्या सापि वारुणी । सुरावद्वारुणी लघ्वी पीनसाध्मानशूलनुत् ॥ ५२ ॥ इक्षोः पक्करसैः सिद्धः सीधुः पक्करसश्च सः । आमैस्तैरेव यः सीधुः स च शीतरसः स्मृतः ॥ ५३ ॥ सीधुः परसैः श्रेष्ठः स्वराग्निबलवर्णकृत् । वातपित्तकरः सद्यः स्नेहनो रोचनो हरेत् ॥ ५४ ॥ विबन्धमेदः शोफार्शः शोफोदरकफामयान् । तस्मादल्पगुणः शीतः रसः संलेखनः स्मृतः ॥ ५५ ॥ टीका - पक औषधका जो सिद्ध जल है उसकों मद्य कहते हैं और वोह अरिष्ट कहै ॥ ४८ ॥ लोक मद्य कहतेहैं जैसे द्राक्षारिष्ट दशमूलारिष्ट बबूलारिष्ट इसप्रकार अष्ट पाक करके हलका और सबसें गुणमें अधिक होता है बीजद्रव्यगुणके समान अरिटका गुण जानना चाहिये ॥ ४९ ॥ सांठी चावलकी पिट्ठी आदिसें बनायाहुवा मद्यकों सुरा कहीहै सुरा भारी बल दुग्ध पुष्टि मेद कफकों करनेवाली ॥ ५० ॥ काविज सूजन वायगोला ववासीर संग्रहणी मूत्रकृच्छ्र इनकों हरती है अब मुराका भेद वारुणी उसका लक्षण और गुण पुनर्नवा शिलापिष्ट विहित वारुणी कहीं है ॥ ५१ ॥ और ताड खजूर इनके सन्धानसें जो होती है वोभी वारुणी है सुराके For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ हरीतक्यादिनिघंटे समान वारुणी हलकी और पीनस आध्मान शूल इनकों हरतीहै सुरासें मेदार्थ हलकी ऐसा कहाहै अब दोनों सीधृका लक्षण और गुण ॥५२॥ ईखके पक रसमें सिद्ध सीधु और पक्क रस वोहै तथा उसी कच्चे रससे जो सीधु होतीहै उसको शीतरस कहाहै ॥ ५३॥ पकरस सीधु श्रेष्ठ है वोह अग्नि बल वर्ण इनकों करनेवाला और वातपित्तकों करनेवाला तत्काल स्नेहन रोचन होताहै ॥ ५४॥ और विबन्ध मेद शोफ बवासीर शोफोदर कफरोग इनकों हरताहै उस्से अल्पगुण शीतरस कहाहै और लेखन कहाहै ॥ ५५ ॥ अथ आसवानां नूतनानूतनमद्याना च गुणाः. यदपकौषधाम्बुभ्यां सिद्धं मद्यं स आसवः । आसवस्य गुणा ज्ञेया बीजद्रव्यगुणैः समाः ॥ ५६ ॥ मद्यं नवमभिष्यन्दि त्रिदोष जनकं सरम् । अहृद्यं बृंहणं दाहि दुर्गंधं विशदं गुरु ॥ ५७ ॥ जीर्णं तदेव रोचिष्णुकमिश्लेष्मानिलापहम् । हृद्यं सुगन्धि गुणवल्लघु स्त्रोतोविशोधनम् ॥ ५८ ॥ सात्विके गीतहास्यादि राजसे साहसादिकम् । तामसे निन्द्यकर्माणि निद्रां च मदिराचरेत् ॥ ५९ ॥ विधिना मात्रया काले हितैरन्नैर्यथाबलम् । प्रहृष्टो यः पिबेन्मद्यं तस्य स्यादमृतं यथा ॥ ६० ॥ किन्तु मद्यं स्वभावेन यथैवान्नं तथा स्मृतम् । अयुक्तियुक्तं रोगाय युक्तियुक्तं यथामृतम् ॥ ६१॥ मुस्तैलवालगदजीरकधान्यकैला यश्चर्वयन्सदसि वाचमभिव्यनक्ति ॥ स्वाभाविकं मुखजमुज्झति पूतिगन्धान्गन्धं च मद्यलशुनादिभवं च नूनम् ॥ ६२॥ टीका-अब आसवका लक्षण और गुण कहतेहैं जो अपक औषधके जलसें सिद्ध मय वोह आसवहै जैसे लोहासव आदि आसक्के गुण बिन द्रव्यके गुणके समान जानना चाहिये अनन्तर नया और पुराने मद्यका गुण ॥ ९६ ॥ नवीन For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः। मद्य अभिष्यन्दि त्रिदोषको करनेवाला सर अहृद्य पुष्ट दाहकों करनेवाला दुर्गन्ध विशद भारी ॥ ५७ ॥ और वोही जीर्ण पुराना रुचिकों करनेवाला कृमि कफ वात इनको हरता हृद्य सुगन्धि गुणयुक्त हलका शोथोंका शोधन करनेवालाहै ॥ ५८॥ मद्य पीनेवाले सात्विकादियोंके चेष्टाविशेष साविकके गीत हास्य आदि राजसमें साहसादिक ॥५९॥ तामसमें निन्द्य कर्म और निद्रा इनको मदिरा करतीहै विधि और मात्रासें समयपर हित अन्तके साथ बलानुसार हर्षयुक्त हुवा जो पीताहै उसको मद्य अमृतके समान जानना चाहिये ।। ६० ॥ मद्य स्वभावसें जैसे अन्न वैसे कहाहै लेकिन वेतरकीसे पीयाहुवा रोगकों करताहै और तरकीवके साथ पीयाहुवा अमृतके समान होताहै ॥ ६१ ॥ अनन्तर मद्योंका गन्धनाशन उपाय नागरमोथा एलालुक कुट जीरा धीनयां इलायची इनकों चवाकर जो सभामें बोले उसकी स्वाभाविक मुखकी गन्धि होतीहै और दुर्गन्ध तथा मद्य लसुन आदिकी गन्ध निश्चय दूर होतीहै ॥ ६२॥ इति संधानवर्गः। अथ मधुवर्गे मधुनो नामानि गुणाश्च. मधुमाक्षीकमाध्वीकक्षौद्रसारघ्यमीरितम् । मक्षिका वरटी भृङ्गवान्तपुष्परसोद्भवम् ॥ ६३ ॥ मधु शीतं लघु स्वादु रूक्षं ग्राहि विलेखनम् । चक्षुष्यं दीपनं स्वयं व्रणशोधनरोपणम् ॥ ६४ ॥ सौकुमार्यकरं सूक्ष्म परं स्रोतोविशोधनम् । कषायानुरसं ह्रादि प्रसादजनकं परम् ॥ ६५॥ वयें मेधाकरं वृष्यं विशदं रोचनं हरेत् । कुष्ठार्शःकासपित्तास्त्रकफमेहक्कमकमीन ॥ ६६ ॥ मेदस्तृष्णा वमिश्वासहिकातीसारविडग्रहान् । दाहक्षतक्षयांस्तत्तु योगवाह्यल्पवातलम् ॥ ६७ ॥ माक्षिकं भ्रामरं क्षौद्रं पैत्तिकं छात्रमित्यपि । आय॑मौहालकं दालमित्यष्टौ मधुजातयः ६८ ॥ टीका-अथ मधुवर्गः उसमें मधुके नाम और गुण कहतेहै मधु माक्षीक माध्वीक क्षौद्र सारघ्य यह मधुके नामहैं ॥६३॥ मख्खी बरटा भँवरा इनके गेराहुवा पुष्परससे For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ हरीतक्यादिनिघंटे उत्पन्न है मधु शीतल हलका मधुर रूखा काविज लेखन नेत्रके हित दीपन स्वरकों अच्छा करनेवाला व्रणशोधन रोपण ॥ ६४ ॥ सुकुमारताकों करनेवाला सूक्ष्म अत्यन्त सोतोंका शोधन पीछेसें कसेला हर्षकों देनेवाला और परम स्वच्छताकों करनेवाला || ६५ ॥ वर्णके हित कान्तिको करनेवाला शुक्रकों करनेवाला विशद रोचहै और कुष्ठ बवासीर कास रक्तपित्त कफ प्रमेह क्रम कृमि इनकों ॥ ६६ ॥ और मेद तृषा वमन श्वास हिचकी अतीसार मलग्रह इनकों तथा दाह क्षत क्षय इनकोंभी दूर करता है और योगवाही अल्प वातकों करनेवाला है || ६७ || अब मधुके भेदों कहते है माक्षिक भ्रामर क्षौद्र पैत्तिक छात्र आर्घ्य औद्दालक और दाल इसप्रकार आठ मधुकी जाती है ॥ ६८ ॥ अथ माक्षिक भ्रामरक्षौद्रगुणाः, माक्षिकाः पङ्गवर्णास्तु महत्यो मधुमक्षिकाः । ताभिः कृतं तैलवर्णं माक्षिकं परिकीर्त्तितम् ॥ ६९ ॥ माक्षिकं मधुषु श्रेष्ठं नेत्रामयहरं लघु । कामलार्शःक्षतश्वासकासक्षयविनाशनम् ॥ ७० ॥ किञ्चित्सूक्ष्मैः प्रसिद्धेभ्यः षट्पदेभ्योलिभिश्चितम् । निर्मलं स्फटिकाभं यत्तन्मधु भ्रामरं स्मृतम् ॥ ७१ ॥ भ्रामरं रक्तपित्तघ्नं मूत्रजाड्यकरं गुरु । स्वादुपाकमभिष्यन्दी विशेषात्पिच्छिलं हिमम् ॥ ७२ ॥ मक्षिकाः कपिलाः सूक्ष्माः क्षुद्राख्यास्तत्कृतं मधु । मुनिभिः क्षौद्रमित्युक्तं तद्वर्णात्कपिलं भवेत् । गुणैर्माक्षिकवत्क्षौद्रं विशेषान्मेहनाशनम् ॥ ७३ ॥ टीका - उस्में माक्षिकका लक्षण माक्षिक पिङ्गवर्ण बडी मधु मख्खी होती है उनसें कियाहुवा वा तेलके समान वर्ण ऐसेकों माक्षिक कहा है ॥ ६९ ॥ माक्षिक मधु श्रेष्ठ नेत्ररोगों हरता हलका होता है और कामला ववासीर क्षत श्वास कास क्षय इनकों हरता है ॥ ७० ॥ अनन्तर भ्रामरका लक्षण और गुण किंचित सूक्ष्म प्रसि षट्पद भँवरा संग्रह कियाहुवा निर्मल स्फटिकके समान जो होता है उसकों भ्रामर कहते हैं || ७१ || भ्रामर रक्तपित्तकों हरता मूत्र जडता इनको करनेवाला भारी For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमयमधुइक्षुवर्गः । ३३५ पाक मधुर अभिष्यदी विशेषकरके पिच्छिल शीतल होता है ॥ ७२ ॥ अब क्षौ - द्रका लक्षण और गुण कहते है सूक्ष्म कपिल क्षुद्र नाम जो माक्षिक होती है उनका कियाहुवा जो मधु है उसकों मुनियोंने क्षौद्र ऐसा कहा है और वोह - वर्ण में कपिल होता है गुणमें माक्षिक समान क्षौद्र होता है विशेषकरके प्रमेह हरता है ॥ ७३ ॥ अथ पौतिकछात्र अर्ध्यागुणाः. कृष्णाया मशकोपमा लघुतरा प्रायो महापीडिका वृद्धानां तरुकोटरान्तरगताः पुष्पासवं कुर्वते ॥ तत्तज्ज्ञैरिह पूतिका निगदितास्ताभिः कृतं सर्पिषा तुल्यं यन्मधु तद्वनेचरजनैः संकीर्त्तितं पौतिकम् ॥ ७४ ॥ पौतिकं मधु रूक्षोष्णं पित्तदाहास्त्रवातकृत् । विदाहि मेहरुच्छ्रनं ग्रन्ध्यादिक्षतशोषि च ॥ ७५ ॥ वरटाः कपिलाः पीताः प्रायो हिमवतो वने । कुर्वन्ति छत्रकाकारं तज्जं छात्रं मधु स्मृतम् ॥ ७६ ॥ छात्रं कपिलपीतं स्यात्पिच्छिलं शीतलं गुरु । स्वादुपाकं मिश्वित्ररक्तपित्तप्रमेहजित् ॥ ७७ ॥ भ्रमतृण्मोहविषहत्तर्पणं च गुणाधिकम् । मधूकवृक्षनिर्यासजरत्कार्वाभ्रमोद्भवम् ॥ ७८ ॥ स्रवन्त्यार्घ्यं तदाख्यातं श्वेतकं मालवे पुनः । तीक्ष्णतुण्डास्तु या पीता मक्षिकाः षट्पदोपमाः ॥ ७९ ॥ आर्यास्तास्तत्कृतं यत्तदार्घ्यमित्यपरे जगुः । आर्घ्यं मध्वतिचक्षुष्यं कफपित्तहरं परम् ॥ ८० ॥ कषायं कटुकं पाके तिक्तं च बलपुष्टिकृत् । प्रायो वल्लीकमध्यस्थाः कपिलाः स्वल्पकीटकाः ॥ ८१ ॥ कुर्वन्ति कपिलं स्वल्पं तत्स्यादौद्दालकं मधु । औद्दालकं रुचिकरं स्वर्यं कुष्ठविषापहम् ॥ ८२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ हरीतक्यादिनिघंटे ___ कषायमुष्णमम्लं च कटुपाकं च पित्तकत् । टीका-अब पैत्तिकका लक्षण और गुण जो काली मच्छरके समान बहुतछोटी प्रायः वडी पीडिका पुराने वृक्षके खोडमें रहनेवाली पुष्पके आसवकों करतीहै उनकों उनके जाननेवाले मनुष्योंने यहांपर पूतिका ऐसा कहाहै उनका बनायाहुवा घृतके समान जो मधु होताहै उसकों वनके विचरनेवाले जनोंने पौतिक कहाहै ॥ ७४ ॥ पौतिक मधु रूखा उष्ण पित्त दाह रक्त वात इनकों करनेवाला विदाहि और प्रमेह मूत्रकृच्छ्र इनकों हरता तथा गांठ आदि शोषिभीहै । ७५ ॥ छात्रका लक्षण और गुण वर कपिल पीली प्रायः हिमालयके वनमें होतीहै वोह छातेके आकारको बनातीहै उसका मधु छात्रक होताहै ।। ७६ ॥ छात्र कपिल पीला होताहै और पिछिल शीतल भारी पाकमें मधुर होतीहै और कृमि श्वित्र रक्त पित्त प्रमेह इनको हरनेवाला ॥ ७७ ॥ तथा भ्रम तृषा मोह विष इनकों हरता तर्पण गुणमें अधिक होताहै महुवेके वृक्षका गोंद जरत्कारुके आश्रममें उत्पन्न ॥ ७८ ॥ झिरतेहैं सफेद उसकों आर्ध्य ऐसा कहाहै और मालवेमेंभी होताहै जो भौरेके समान मक्खिया तीक्ष्णमुखवाली पीली होतीहै ।। ७९ ॥ वोह आय॑है उनका कियाहुवा जो मधुहै उसकों और आचार्य आर्घ्य कहतेहैं आय॑मधु अतिनेत्रहित और अत्यन्त कफपित्तकों हरताहै ॥८०॥ और कसेला पाक कटु तिक्त बल पुष्टिकों करनेवालाहै प्रायः लताओंके वीच रहनेवाली कपिल छोटे कीडे होतेहैं ॥ ८१॥ वोह थोडा कपिलवर्ण मधु करतीहै उस्कों औदालक मधु कहतेहैं औद्दालक रुचिकों करनेवाला स्वरके हित कुष्ठ विषकों हरता ॥ ८२ ॥ कसेला उष्ण खट्टा पाकमें कटु पित्तकों करनेवाला होताहै. अथ दलस्य लक्षणं गुणाः. संस्तुत्य पतितं पुष्पाद्यत्तु पत्रोपरि स्थितम् ॥ ८३ ॥ मधुराम्लकषायं च तद्दालं मधु कीर्तितम् । दालं मधु लघु प्रोक्तं दीपनीयं कफापहम् ॥ ८४ ॥ कषायानुरसं रूक्षं रुच्यं छर्दिप्रमेहजित् । अधिकं मधुरं स्निग्धं बृंहणं गुरु भारिकम् ॥ ८५ ॥ नवं मधु भवेत्पुष्ट्यै नातिश्लेष्महरं सरम् । पुराणं ग्राहकं रूक्षं मेदोनमतिलेखनम् ॥ ८६ ॥ मधुनः शर्करायाश्च गुडस्यापि विशेषतः । For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः । एक संवत्सरेऽतीते पुराणत्वं स्मृतं बुधैः ॥ ८७ ॥ विषपुष्पादपि रसं सविषा भ्रमरादयः । गृहीत्वा मधु कुर्वन्ति तच्छीतं गुणवन्मधु ॥ ८८ ॥ विषान्वयात्तदण्डंतु द्रव्येणोष्णेन वा सह । उष्णार्तस्योष्णकाले च स्मृतं विषसमं मधु ॥ ८९॥ मयनं तु मधूच्छिष्टं मधुशेषं च सिक्थकम् । मध्वाधारो मदनकं मधूषितमपि स्मृतम् ॥ ९० ॥ मदनं मृदु सुस्निग्धं भूतघ्नं व्रणरोपणम् । भग्नसन्धानरुद्वातकुष्ठवीसर्परक्तजित् ॥ ९१ ॥ टीका - जो पुष्पसें चूकर पत्तेपर गिरा ठहरा रहता है || ८३ || मीठा खट्टा कसेला उसको दालमधु कहतेहैं दालमधु हलका दीपन कफहरता कहाहै ॥ ८४ ॥ और पीछे कसेला रूखा रुचिकों करनेवाला और वमन तथा प्रमेहकों हरनेवाला है बहुत मीठा चिकना पुष्ट करनेवाला पाकमें हलका और तोलमें भारी होता है ॥ ८५ ॥ नया मधु पुष्ट होता है बहुत कफ हरता नहीं होता तथा सर होता है पुराना काविज रूखा मेदहरता अतिलेखन होता है || ८६ ॥ मधुकी शर्करा और विशेषकरके एडकीभी शर्करा एकवरसके वाद पुरानी पंडितोंनें कही है ॥ ८७ ॥ अनन्तर शीतमधुका गुणाधिक्य और उष्णतामें निषेध कहते हैं विषपुष्पसेंभी रसकों विषवाले भ्रमरादिक लेकर मधु करते हैं तिस्सें शीतगुणवाला मधु होता है ॥ ८८ ॥ विषसें उत्पन्न होनेसें वोह मधु उष्ण द्रव्यके साथ उष्ण पीडितकों उष्णकालमें विषके समान मधु कहा है || ८९ ॥ मयन मधूच्छिष्ट मधुशेष सिक्थक मध्वाधार मदनक मधूषित यह मोंमके नाम कहें हैं ॥ ९० ॥ मोंम मृदु चिकना भूतकों हरता व्रणरोपण टूटे हाडकों जोडनेवाला वात कुष्ठ वीसर्प रक्त इनकों हरनेवाला है ॥९१॥ इति मधुवर्गः । अक्षुवर्गे इक्षोर्नामानि गुणाश्च. इक्षुर्दीर्घच्छदः प्रोक्तस्तथा भूमिरसोऽपिच । गूढमूलोऽसिपत्रश्च तथा मधुतृणः स्मृतः ॥ ९२ ॥ इक्षवो रक्तपित्तघ्ना बल्या वृष्या कफप्रदाः । ૪૨ For Private and Personal Use Only ३३७ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे स्वादुपाकरसाः स्निग्धा गुरवो मूत्रला हिमाः ॥ ९३ ॥ पौण्डूको भीरुकश्चापि वंशकः शतपोनकः। कान्तारस्तापसेक्षुश्च काण्डेक्षुः सूचिपत्रकः ॥ ९४॥ नैपालो दीर्घपत्रश्च नीलपोरोऽथ कोशकः। इत्येता जातयस्तेषां कथयामि गुणानपि ॥९५॥ वातपित्तादिशमनो मधुरो रसपाकयोः । सुशीतो बृंहणो बल्यः पौण्ड्रको भीरुकस्तथा ॥ ९६ ॥ टीका-आनन्तर इक्षुका वर्ग उसमें पहले ईखके नाम और गुण इक्षु दीर्घछद तथा भूमिरस गूढमूल असिपत्र तथा मधुतृण यह ईखके नामहैं ॥ ९२ ॥ ईख रक्तपित्तकों हरती बलके हित शुक्रको करनेवाले कफकों करनेवाले पाक और रसमें मधुर चिकने भारी मूत्रकों करनेवाले शीतल हैं ॥ ९३ ॥ पौण्ड्रक भीरुक वंशक शतपोनक कान्तार तापसेक्षु काण्डेक्षु सूचित्रक ॥ ९४ ॥ नैपाल दीर्घपत्र नीलपोर और कोशक इसप्रकार ये जाति उनकी हैं और उसके गुणोंकों कहतेहैं ॥९५॥ वातपित्तका शमन मधुर रस और पाकमें सुशीत पुष्ट बलके हित पौंडा और भौररी होतेहैं।।९६॥ अथानेकविधेक्षुगुणाः. कोशकारो गुरुः शीतो रक्तपित्तक्षयापहः । कान्तारेक्षुर्गुरवष्यः श्लेष्मलो बृहणः सरः। दीर्घपोरः सुकठिनः संक्षारो वंशकः स्मृतः॥ ९७॥ शतपर्वा भवेत्किंचित्कोशकारगुणान्वितः। विशेषात्किञ्चिदुष्णश्च सक्षारः पवनापहः ॥९८॥ तापसेक्षुर्भवेन्मृद्दी मधुरा श्लेष्मकोपनी। तर्पणी रुचिकच्चापि वृष्या च बलकारिणी ॥ ९९ ॥ एवं गुणैस्तु काण्डेक्षुः स तु वातप्रकोपनः । सूचीपत्रो नीलपोरो नैपालो दीर्घपत्रकः ॥१०॥ वातलाः कफपित्तनाः सकषाया विदाहिनः। For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः। मनोगुप्ता वातहरी तृष्णामयविनाशिनी। सुशीता मधुरातीव रक्तपित्तप्रणाशिनी ॥ १०१॥ बालइक्षुः कर्फ कुर्यान्मेदोमेहकरश्च सः । युवा तु वातहृत्स्वादुरीषतीक्ष्णश्च पित्तनुत् ॥ १०२॥ रक्तपित्तहरो वृद्धः क्षतहबलवीर्यरुत् । टीका-अनन्तर काले गन्नेके गुण काला गन्ना भारी शीतल रक्तपित्त क्षय इनको हरताहै कान्तार ईखके गुण कान्तार ईख भारी शुक्रकों करनेवाला कफकों करनेवाला पुष्ट सर होताहै ॥ ९७ ॥ अनन्तर लंबी पौरका ईख बहुत कठिन क्षारके सहित वंशक कहागयाहै अनंतर शतपोनका गुण शतपोन कुछ कोशकारके समान गुणमें होताहै विशेषकरके कुछ गरम क्षारके सहित वात हरताहै ॥ ९८ ॥ अनन्तर तापसेक्षुके गुण तापसेक्षु मुलायम मधुर कोपकों करनेवाला तर्पण रुचिकों करनेवाला शुक्रकों करनेवाला बलकों करनेवालाहै ॥ ९९॥ काण्डेक्षुका गुण ऐसेही गुणवाला काण्डेन होताहै और वोह वातकों करनेवालाहै अनन्तर सूचीपत्र नेपाली दीर्घपत्र नीलपोर इनके गुण सूचीपत्र नीलपोर नैपाल दीर्घपत्रक ॥१०॥ यह वातकों करनेवाले कफपित्तकों हरते कषायके सहित विदाही होतेहैं मनोगुप्ताके गुण मनोगुप्ता वातहरती तृषा रोगकों हरती शीतल मधुर अतीव रक्तपित्तको हरतीहै ॥ १०१॥ अनन्तर बाल युवा वृद्ध ऐसे ईखके गुण बालईख कफकों करताहै और मेदमेहकों करनेवाला वोहहै युवा वातहरता मधुर थोढा तीखा पित्तहरताहै ॥ १०२ ॥ वृद्ध रक्तपित्तकों हरता क्षतहरता और बलवीर्यकों करनेवालाहै. अथ दंतयंत्रादिपीडितेक्षुरसस्य गुणाः. मूले तु मधुरोऽत्यर्थं मध्येऽपि मधुरः स्मृतः ॥ १०३॥ अये ग्रंथिषु विज्ञेय इक्षुः पटुरसो जनैः । दन्तनिष्पीडितस्येक्षो रसः पित्तास्त्रनाशनः॥ १०४॥ शर्करासमवीर्यः स्यादविदाही कफप्रदः । मूलाग्रजंतु ग्रन्थ्यादि पीडनान्मलसङ्करात् ॥ १०५॥ किंचित्कालविधृत्या च विकृति याति यान्त्रिकः । तस्माद्विदाही विष्टम्भी गुरुः स्याद्यान्त्रिको रसः॥ १०६॥ For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे रसः पर्युषितो नेटो ह्यम्लो वातापहो गुरुः। कफपित्तकरः शोषी भेदनश्चातिमूत्रलः ॥ १०७॥ पक्को रसो गुरुः स्निग्धः सुतीक्ष्णः कफवातनुत् । गुल्मानाहप्रशमनः किंचित्पित्तकरः स्मृतः ॥१०८॥ इक्षोर्विकारास्तृड्दाहमूर्छापित्तास्त्रनाशनाः। गुरुवो मधुरा बल्याः स्निग्धा वातहराः सराः॥ १०९॥ वृष्या मोहहराः शीता बृंहणा विषहारिणः। टीका-अव अंगभेदसें भेद मूलमें अत्यन्त मधुर मध्यमेंभी मधुर कहाहै १०३ अग्रमें और ग्रन्थिमें ईख लवणरस जन जानते हैं अब दन्तपीडित ईखके रसका गुण दन्तपीडित ईखका रस रक्तपित्तकों हरताहै ।। १०४ ॥ शर्कराके समवीर्य होताहै और अविदाही कफकों करनेवालाहै अनन्तर कोल्हूमें पेरेहुवे ईखके रसका गुण मूल अग्र गांठ आदिके पीडनसें मलसंकरसें ॥ १०५ ॥ कुछ देरखनेसें कोल्हूका रस बिघड जाताहै इसवास्ते विदाही विष्टंभी भारी कोल्हूका रस होताहै ॥१०६ ॥ अनन्तर वासी ईखके रसका गुण वासी रस अछा नहीं होता और खट्टा वातहरता भारी कफपित्तको करनेवाला है ॥ १०७ ॥ अनन्तर पकेहुवे ईखके रसका गुण पकेका रस भारी चिकना तीखा कफवातकों हरता और वायगोला अफारा इनका शमन करनेवाला कुछ पित्तकों करनेवाला कहाहै ॥१०८॥ अब ईखके रसके विकारोंका गुण ईखके विकार तृषा दाह मूर्छा रक्तपित्त इनकों हरतेहैं भारी मधुर बलके हित चिकने वातहरते सरहैं ॥ १०९ ॥ शुक्रकों करने. वाला मोह हरता शीतल पुष्ट विष हरताहै । अथान्यइक्षोर्विकाराणां गुणाः. इक्षो रसस्तु यः पक्कः किंचिद्गाढो बहुद्रवः ॥ ११०॥ स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंज्ञया । फाणितं गुर्वभिष्यन्दि बृंहणं कफशुक्रवत् ॥ १११ ॥ वातपित्तश्रमान् हन्ति मूत्रबस्तिविशोधनम् । इक्षो रसो यः सम्पको धनः किञ्चिद्रवान्वितः ॥ ११२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः। मन्दं यत्स्पन्दते तस्मात्तन्मत्स्यण्डी निगद्यते। मत्स्यण्डी भेदिनी बल्या लघ्वी पित्तानिलापहा ॥ ११३॥ मधुरा बृहणी वृष्या रक्तदोषापहा स्मृता। इक्षो रसो यः सम्पक्को जायते लोष्टवदृढः ॥ ११४ ॥ सगुडो गौडदेशे तु मत्स्यण्डीव गुडो मतः । गुडो वृष्यो गुरुः स्निग्धो वातघ्नो मूत्रशोधनः ॥ ११५॥ नातिपित्तहरो मेदःकफरुमिबलप्रदः। गुडो जीर्णो लघुः पथ्योऽनभिष्यन्यग्निपुष्टिकत् ॥ ११६ ॥ पित्तनो मधुरो वृष्यो वातघ्नोऽसृक्प्रसादनः। टीका-अनन्तर राब उसका लक्षण और गुण ईखका रस पकाहुवा कुछ गाढा बहुत पतला ॥ ११० ॥ वोही ईखके विकारोंमें फाणित नामसे प्रसिद्धहै राव भारी अभिष्यन्दी पुष्ट कफ शुक्रकों करनेवाली ॥ १११॥ वातपित्तश्रमोंको हरती है और मूत्र बस्तिशोधनहै ईखका रस जो पकाहुवा गाढा कुछ पतला ॥ ११२॥ जो थोढा टिघलताहै इसवास्ते उस्कों मत्स्यंडी कहतेहैं मत्स्यडी भेदन वलके हित हलकी पित्तवातकों हरती ॥ ११३ ॥ मधुर पुष्ट शुक्रकों करनेवाली रक्तदोषकों हरती कहींहै ईखका रस जो पकाहुवा ढेलेके माफिक दृढ होताहै ॥११४॥ वोह गुड गौडदेशमें मत्स्यंडीकों गुड कहतेहैं गुड शुक्रकों करनेवाला भारी चिकना वातहरता मूत्रका शोधन करनेवाला ॥ ११५ ॥ न अति पित्तकों हरता भेद कफ कृमि बल इनकों करनेवालाहै अनन्तर पुराने गुडका गुण पुराना गुड हलका पथ्य अनभिष्यन्दी अग्नि पुष्टिको करनेवाला ॥११६ ॥ पित्तहरता मधुर शुक्रकों करनेवाला वातहरता रुधिरको स्वच्छ करनेवालाहै ॥ । अथ नवीनगुडस्य शर्करायाश्च गुणाः. गुडो नवः कफश्वासकासमिकरोऽग्निरुत् ॥ ११७॥ श्लेष्माणमाशु विनिहन्ति सदाकेण पित्तं निहन्ति च तदेव हरीतकीभिः ॥शुण्ठ्या समं हरति वातमशेषमित्थं दोषत्रयक्षयकराय नमो गुडाय ॥ ११८॥ For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे खण्डं तु मधुरं वृष्यं चक्षुष्यं बृंहणं हिमम् । वातपित्तहरं स्निग्धं बल्यं वान्तिहरं परम् ॥ ११९ ॥ खण्डं तु सिकतारूपं सुश्वेतं शर्करा सिता । सिता सुमधुरा रुच्या वातपित्तास्रदाहहृत् ॥ १२० ॥ मूर्च्छाछर्दिज्वरान् हन्ति सुशीता शुक्रकारिणी । भवेत्पुष्पासिता शीता रक्तपित्तहरी लघुः ॥ १२१ ॥ सितोपला सरा लघ्वी वातपित्तहरी हिमा । मधुजा शर्करा रूक्षा कफपित्तहरी गुरुः ॥ १२२ ॥ छतीसारनृड्दाहरतत्तुवरा हिमाः । यथायथैषां नैर्मल्यं मधुरत्वं तथातथा ॥ १२३ ॥ स्नेहलाघवशैत्यादि सरत्वं च तथातथा । इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे इक्षुवर्गः समाप्तः ॥ टीका - नया गुड कफ कास श्वास कृमिकों करनेवाला अग्निदीपन है ।। ११७॥ गुड अद्रक के साथ शीघ्र कफकों हरता है हरड के साथ पित्तकों हरता सोंठके साथ अशेष arrai हरता है ऐसे त्रिदोष हरता गुडकों नमस्कार है ॥ ११८ ॥ खांड मधुर शुक्रकों करनेवाली नेत्रके हित पुष्ट शीतल वातपित्तकों हरती चिकनी बलके हित परम वमनकों हरती है ॥ ११९ ॥ खांड अतिप्रसिद्ध है अनन्तर चीनी इसप्रकार लोकमें प्रसिद्ध है उस्का लक्षण और गुण खांड तो वालूसरीखी होती है और बहुत सुफेद शर्कराकों चीनी कहते हैं चीनी बहुत मधुर रुचिकों करनेवाली और वात रक्त पित्त दाह इनको हरनेवाली है ॥ १२० ॥ और मूर्च्छा ज्वर वमन इनकों हरती है बहुत शीतल शुक्रकों करनेवाली है अब गुड शर्करामिश्री दोनोंके गुण गुडशर्करा शीतल रक्तपित्तकों हरती हलकी होती है || २२१ || और मिश्री सर हलकी वातपितक हरती शीतल है अनन्तर मधुखण्डके गुण मधुकी शर्करा रूखी कफ पित्तकों हरती भारी ॥ १२२ ॥ वमन अतीसार तृषा दाह रक्त इनकों हरती कसेली शीतल होती है जैसी जैसी सफाई होती है वैसी वैसी मधुरता और चिकनाई ॥ १२३॥ tearer शैत्य आदि और सरस होता है. इति हरीतक्यादिनिघंटे तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । हरीतक्यादिनिघंटे अनेकार्थनामवर्गः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I तत्र यर्थानि नामानि । यथा । अश्मन्तकः अम्ललोणिका कोविदारश्च । कठिल्लकः कारवेल्लो रक्तपुनर्नवा च । कुलकः पटोल: कुपीलुश्च कुचिला इति लोके प्रसिद्धः । कोशातकी महाकोशातकी राजकोशातकी च । दीप्यकः यवान्यजमोदा च । मरुचकः फणिजकः पिण्डीतकः । मरुवकः मरुषा इति लोके । पिण्डीतकः मयनफर इति लोके । मधूलिकः । मूर्वा जलयष्टी च ॥ टीका - अब अनेकार्थनामवर्गमें दो अर्थके नाम कहते हैं जैसे अश्मन्तक लोनिया - साग और लाल कचनार दोनोंका येह एक नाम है कठिल्लक लाल गदह पूरना और करेला कुलक पटोल कुचिला कोशातकी दोनों तुरई दीप्यक अजमोदा अजमाइन मरुचक मरसा मयनफल मधूलिक मरोडफली जलयष्टी. रुचकं सौवर्चलं बीजपूरकं च । लोणिका लोणिशाकं चाङ्गेरीशाकं च । वसुकः क्षारलवणश्च । बाह्लीकम् कुङ्कुमं हिङ्गु च । वित्तुन्नकं धान्यकं तुत्थं च । स्वादुकण्टकः गोक्षुरो वि। कङ्कतश्च । अग्निमुखी भल्लातकी लाङ्गली च । अग्निशिखम् कुङ्कुमं कुसुम्भश्च । अजशृङ्गी मेषशृंगी च । प्रियङ्गुः फलिनी कडूश्च । भृङ्गः भृङ्गराजस्त्वक्च । समङ्गा । मञ्जिष्ठा लजालूश्च । अमोघा विडङ्गं पाटला च । मोचा कदली शाल्मलिश्व ॥ टीका - रुचक सौचल विजोरा लोनियाचूक वसुक लाल आंक खारीनमक बा For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ हरीतक्यादिनिघंटे हीक केसर हीङ्ग वितुनक धनिया लीलाथोथा स्वादुकंटक गोखरू विकंकत अग्निमुखी मिलावा करिहारी अग्निशिख केसर कुसुम अजशृंगी काकडासीङ्गी प्रियङ्गु कङ्गनीफूल प्रियङ्गु भृङ्ग भाङ्गरा दालचिनी समङ्गा मजीठ छईमुईका दरखत अमोघा वायविडंग पाटला मोचा केला सेलम. कुटन्नटः । स्योनाकः कैवर्ती मुस्तं च । कुनटी धनिका मनःशिला च । घोण्टा पूगो बदरी च । त्रिपुटा त्रिवृत्सूक्ष्मैला च । शटी क—रो गन्धपलाशी च । दन्तशठः जम्बीरः कपित्थं च । दन्तशठा अम्लिका चाङ्गेरी च । अरुणम् मञ्जिष्ठा अतिविषा च । कणा पिप्पली जीरकं च। तालपर्णी मुशली मुरा च ॥ टीका- कुटंनट सोनापाठा जलमोघा कुनटी धनिया मैनसिल घोण्टा सुपारी वेर त्रिपुटा निसोथ छोटी इलायची शटी कचूर गन्धपलाशी दन्तशठ जंबीरी कैथ दन्तशठा इमली चूक अरुण मजीठ अतीस कणा पीपल जीरा तालपर्णी मुसली मुरा. पीलुपी मूर्वा बिम्बी च । ब्राह्मणी भाी स्टक्का च । अपराजिता विष्णुकान्ता शालिपी च । आस्फीता अपराजिता सारिवा च । पारावतपदी ज्योतिष्मती काकजड़ा च । शारदी सारिवा जलपिप्पली च । उपगन्धा वचा यवानी च । परिव्याधः कर्णिकारी जलवेतसश्च । अञ्जनम् स्रोतोञ्जनं सौवीरं च । अग्निश्चित्रको भल्लातश्च । कृमिघ्नः विडङ्गो हरिद्रा च । तेजनः शरो वेणुश्च । तेजनी तेजवती मूर्वा च । रोचनः कम्पिल्लः रोचना च । रोचना गोरोचना । राजादनम् क्षीरिका प्रियालश्च । शकुलादनी कटुका जलपिप्पली च । गोलोमी श्वेतदूर्वा वचा । पद्मा पद्मचारिणी भागीं च ॥ टीका-पीलपर्णी मरोडफली कुन्दरू ब्राह्मणी भारंगी स्पृक्का अपराजिता विष्णुक्रन्ता सालपर्णी आस्फोता कुरंट सारिवा पारावतपदी मालकङ्गनी काकजंघा शारदी For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकार्थनामवर्गः। ३४५ सारिवा नल पीपल उग्रगन्धा वच अजमायन परिव्याध अमलतास जलवेत अंजन रसोत सुरमा अमि चित्रक भिलावा कृमिघ्न वायविडंग हलदी तेजन शरपत वांस तेजनी मरोडफली मालकंगनी रोचन खूपकला गोरोचन रोचना राजादन खिरनी चिरोंजी शकुलादनी कुटकी जलपीपल गोलोमी सफेददूव वच पद्मा कमलिनी भारंगी श्यामा. श्यामा सारिवा प्रियङ्गुश्च । धान्यम् धान्याकं शाल्यादि च। सहस्रवीर्या नीलदूर्वा महाशतावरी च । सेव्यम् उशीरं लामजकं च । उदुम्बरः जन्तुफलं तानं च । ऐन्द्री इन्द्रवारुणी इन्द्राणी च । कटम्भरा कटुका स्योनाकं च । क्षारः यवक्षारः स्वर्जिका च । गण्डीरः शाकविशेषो गण्डिनीति लोके । गण्डारी मञ्जिष्ठा च । गन्धारी दुरालभा गन्धपलाशी च । चित्रा इन्द्रवारुणी बृहद्दन्ती च। तुण्डिकेरी कार्यासी बिम्बी च । धारा गुड़ची क्षीरकाकोली च । वालपत्रः खदिरो यवासश्च । वारि वालकम् उदकं च । अङ्गारवल्ली भांर्गी मुञ्जा च । अमृणालम् लामजकम् उशीरं च । कुण्डली गुडूची कोविदारश्च । गन्धफली प्रियङ्गुश्चम्पककलिका च । दीर्घमूलः यवासः शालिपर्णी च ॥ टीका-श्यामा सारिवा प्रियंगु धान्य धनिया धान सहस्रवीर्या नीली दूव बडी सतावर सेव्य खस पीलीख उदुंबर गूलर ताम्बा ऐन्द्री इन्द्रायन इन्द्राणी कटंभरा कुटकी सोनापठा क्षार जवाखार सज्जीखार गण्डीर गांडर मजीठ गन्धारी जवासा गन्धपलाशी चित्रा इन्द्रायन बडीदन्ती तुंडिकेरी कपासी कुन्दुरू धारा गिलोय क्षीरकाकोलीवालपत्र खैरका वासा वारि सुगंधवाला जल अंगारवल्ली भारंगीमूल अमृणाल पीली खस कुण्डली गिलोय लाल कचनार गन्धफली प्रियंगु चंपककलिका दीर्घमूल जवासा शालिपर्णी. पिच्छिला शाल्मली शिशिपा च । पुष्पफलः कपित्थः कूप्माण्डश्च । पोटगलः नलः काशश्च । यवफलः कुटजो For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४६ हरीतक्यादिनिघंटे वंशश्च । देवी मूर्वा स्टक्का च । विश्वा शुण्ठी अतिविषा च । शीतशिवम् सैन्धवं मिश्रेया च । कर्कशः काम्पिल्लः कासमर्दश्च । चर्मकषा शातला मांसरोहिणी च । नन्दिवृक्षः अश्वत्थभेदो गोमुखपत्रशाखः वेलिया पीपर इति लोके । तुणिश्च । पयः क्षीरमुदकं च । रुहा दूर्वा मांसरोहिणी च । सिंही बृहती वासा च ॥ टीका-पिच्छिला सेमल सीसम पुष्पफला कैठपेठा पोटगल नलकास यवफल कुरैया वांस देवी मरोडफली स्पृक्का विश्वा सोंठ अतीस शीतशिव सेंधामिश्रेया कर्कश कवीला कसौंदी चर्मकषा सीकाकाई मांसरोहिणी नन्दिक्ष पीपलका भेद नून पयः दूध पानी रुहा दूर्वा मांसरोहिणी सिंही कटेली वासा. अथ व्यर्थानि नामानि । क्रमुकः पूगसूदः पट्टिका लोभ्रश्च । क्षुरकः कोकिलाक्षो गोक्षुरस्तिलकनामपुष्पविशेषश्च । प्रियकः प्रियङ्गुः कदम्बोऽसनश्च । पृथ्वीका कालाजाजी बृहदेला हिङ्गु च । भूतीकम् भूनिम्बं कत्तृणं भूस्तृणं च । सोमवल्कः कालः श्वेतखदिरो घृतपूर्णकरञ्जश्च । सौगन्धिकं कहारं कत्तृणं गन्धकं च । भृङ्गः भृङ्गराजस्त्वग्भ्रमरश्च । अरिष्टः निम्बो रसोनं मद्यं च । मर्कटी कपिकछरपामार्गः करञ्जी च । अम्बष्ठा पाठा चांगेरी माचिका च । कृष्णपिप्पली कालाजाजी नीली च । क्षीरि. णी दुग्धिका क्षीरकाकोली श्वेतसारिवा च । मधुपर्णी गुडूची गम्भारी नीला च । मण्डूकपर्णः स्योनाकः सः स्त्रियां तु मञ्जिष्ठा ब्रह्ममाण्डकी च । श्रीपर्णी गम्भारी गणिकारिका कट्फलं च । अमृता गुडूची हरीतकी धात्री च । अनन्ता। दुरालभा नीलदूर्वा लागली च । ऋष्यप्रोक्ता अतिबला महाशतावरी कपिकच्छ्रश्च । कृष्णवृन्ता पाटली For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकार्थनामवर्गः । गम्भारी माषपर्णी च । जीवन्ती गुडूची शाकविशेषो वन्दा च । सारिवा प्रियङ्गुज्र्ज्योतिष्मती च ॥ ३४७ टीका - अब तीन अर्थवाले नाम क्रमुक सुपारी ब्रह्मदारु पठानी लोध क्षुरक मखाना गोखरू तिलकनाम पुष्पविशेष प्रियंगु कदंब असन पृथ्वीका स्याहजीरा वडी इलायची हिंगुपत्री भूतिक चिरायता कत्तृण भूतृण सोमवल्क कुल सफेदकत्था घृतपूर्ण करंज सौगन्धक कहारक तृणगन्धक भृङ्ग भांगरालक् भौरा अरिष्ट नीम लहसन मद्य मर्कट किमाच अपामार्ग करंजी अम्बष्ठा पाटला चौक किमाच कृष्णपीपल काला जीरा नील क्षीरिणी दुग्धी क्षीरकाकोली श्वेतसारिवा मधुमर्णी गिलोय कुर नील मडूकपर्णी सोनापाठा मजीठ ब्राह्मी श्रीपर्णी कुर अरनी कायफल अमृता गिलोय हरड आंवला अनन्ता जवासा नीलदूर्वा लाङ्गली ऋष्यप्रोक्ता अतिबला बडी सतावर किमाच कृष्णवृन्ता पाटली कुधेर माषपर्णी जीवन्ती गिलोय शाकविशेष वन्दा लता सारिवा प्रियंगु मालकंगनी. समुद्रान्ता दुरालभा कार्पासी स्टक्का च । हैमवती हरीतकी श्वेतवचा पीतदुग्धः सेहुण्डः यस्य मूलं चोक इति प्रसिद्धम् । अव्यथा हरीतकी महाश्रावणी पद्मचारिणी च । षड्ग्रन्था वचा गन्धपलाशी करंजीच । वरदा सुवर्चला हुरहुर इति लोके । अश्वगन्धा वाराही गेठीति लोके । इक्षुगन्धा काशः कोकिलाक्षो गोक्षुरः क्षीरविदारी च । कालस्कन्धः तमालस्तिन्दुकं कालखदिरश्च । महौषधम् शुण्ठी रसोनो विषं च । मधु क्षौद्रं पुष्परसो मद्यं च । कपीतनः आम्रातकः शिरीषी गर्दभाण्डश्च । मदनः पिण्डीतको धत्तूरः सिक्थकं च । शतपर्वा वंशो दूर्वा वचा च ॥ For Private and Personal Use Only टीका - समुद्रान्ता जवासा कार्पासी स्पृक्का हैमवती हरीतकी श्वेतवचा पीतदुग्ध सेहुण्ड अन्यथा हरीतकी बडी मुंडी पद्मचारिणी षट्ग्रन्था वच गन्धपलाशी करंज वरदा हुरहुर असगन्ध सुथनी इक्षुगन्धा काश तालमखाना गोखरू क्षीरविदारी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ हरीतक्यादिनिघंटे कालस्कन्ध तमाल तेन्दुकाल खदिर महौषध सोंठ लहसन विष मधु क्षौद्र पुष्परस मद्य कपीतन अम्बाडी सिरीस पिलषन मदन मैनफल धतूरा मोम शतपर्वा वांस दूव वच. सहस्रवेधी अम्लवेतसो मृगमदा हिङ्गु च । ताम्रपुष्पी धातकी पाटला श्यामा विवृच्च । सदापुष्पः श्वेतार्को रक्तार्कः कुन्दश्च । मुरभी मल्लकी मुरैलवालुकम् । लक्ष्मीः ऋद्धिवृद्धिः शमी च । कालानुसार्यम् कालीयकं तगरं शैलेयं च । चाम्पेयः चंपको नागकेसरः पद्मकेसरश्च । नादेयी गणिकारिका जलजम्बूर्जलवेतसी च। पाक्यं बिडं सौवर्चलं यवक्षारश्च । विशल्या लागली गुडूची लघुदन्ती च । इन्द्रद्रुः । ककुभो देवदारुः कुटजश्च । काश्मीरं कुङ्कुमं पुकरमूलं काश्मीरी गम्भारी च । गुन्द्रः पठेरकः शरश्च । गुन्द्रा प्रियंगुर्भद्रमुस्तकश्च । चुकं चुक्रमम्लवेतसं वृक्षाम्लश्च । पारिभद्रो निम्बः पारिजातो देवदारुश्च । पीतदारुर्हरिद्रा देवदारुः सरलश्च । वीरः ककुभो वीरणं काकोली च । वीरतरुः ककुभो वीरणं शरश्च । मयूरः अपामार्गोऽजमोदा तुत्थं च । रक्तसारः रक्तचन्दनं पतङ्गं खदिरश्च ॥ टीका-सहस्रवेधी अमलवेत कस्तूरी हींग ताम्रपुष्पी धव पाटला काली निसोथ सदापुष्प सफेद आंक लाल आंक कुन्द सुरभी सलई मरोडफली वालुका लक्ष्मी ऋद्धि वृद्धि शमी कालानुसार्य पीतचन्दन तगर शिलारस चाम्पेय चम्पा नागकेसर पद्मकेसर नादेयी अरनीजल जामुन जलवेत पाक्य बिड सोंचल जवाखार विशल्या करिहारी गिलोय छोटी दन्ती इन्द्रद्रु अर्जुन देवदार कुरैय्या काश्मीर केसर पुष्करमूल कुटेर गुन्द्र पटेरक शर गुन्द्रा प्रियंगु बडामोथा चुक्र अमलवेत चूक वृक्षाम्ल पारिभद्र नीम पारिजात देवदार पीतदारु हल्दी देवदारु सरई वीर अर्जुन वीररसा काकोली वीरतरु अर्जुन वीरण सरपत मयूर अपामार्ग अजमोद तूतिया रक्तसार रक्तचन्दन पतंगखैर. For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकार्थनामवर्गः। बदरा सुवर्चला अश्वगन्धा वाराही च । वशिरः रक्तापामार्गो गजपिप्पली सामुद्रलवणं च । सौवीरम् अञ्जनभेदो बदरं संधानभेदश्च । वञ्जुलः अशोको वेतसस्तिनिशश्च । शिला मनःशिला जतुगैरिकं च । सोमवल्ली बाकुची गुड़ची ब्राह्मी च । अक्षीवः सोभाञ्जनो महानिम्बः सामुद्रलवणं च । कारवी कालाजाजी शताहाजमोदा च । धामार्गवः रक्तापामार्गों राजकोशातकी महाकोशातकी च । दुःस्पर्शः यवासः कपिकच्छूः कण्टकारी च ॥ टीका-बदरा सुवर्चला असगन्ध वाराही वसिर लाल अपामार्ग गजपीपल खारी नमक सौवीर अंजनभेद वेर सन्धानभेद वंजुल अशोकवेत तिनिश शिला मैनसिल शिलाजीत गेरू सोमवल्ली बावची गिलोय ब्राह्मी अक्षीव सहिजन महानिम्ब सामुद्रलवण कारवी कालाजीरा सौंफ अजमोदा धामार्गव लाल अपामार्ग दोनों तुरई दुःस्पर्श जवासा किमाच. पलाशः किंशुको गन्धपलाशीपत्रं च । कालमेषी मञ्जिष्ठा बाकुची श्यामा त्रिवृच्च । पलंकषा गुग्गुलुर्गोक्षुरो लाक्षा च । मधुरसा द्राक्षा मूर्वा गम्भारी च । रसा रास्ना शल्लकी पाठा च । श्रेयसी हरीतकी रास्ना गजपिप्पली च । लोहमयः कांस्यमगरु च । सहा मुद्गपर्णी बलाभेदः ककही इति लोके । शतपत्री सेवंती गुलाब इति लोके । राना नाकुली नीलपुष्पः सिन्दुवारः॥ टीका-कटेली पलाश गन्धपलाशी पत्रज कालमेषी मजीठ बावची काली निसोथ पलंकषा मूगल गोखरू लाक्षा मोचरसा दाख मरोडफली कुटेर रसा रास्ना सलई पाठा श्रेयसी हुड रास्ना गजपीपल लोह लोहा कासा अगर सहा मुद्गपर्णी ककही सेवनी रास्ता नाकुली नीलपुष्प सिन्दुवार. अथ बह्वर्थानि नामानि । अक्षशब्दः स्मृतोऽष्टासु सौव For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरीतक्यादिनिघंटे चलविभीतके ॥ इंद्रियं कर्षपद्माक्षशकटेन्द्रियपाशके ॥१॥ काकारख्यः काकमाची च काकोली काकणन्तिका ॥ काकजङ्गा काकनासा काकोदुम्बरिकापि च ॥ २॥ सप्तस्वर्थेषु कथितः काकशब्दो विचक्षणैः ॥ सर्पद्विरदमेषेषु सीसके नागकेसरे ॥३॥ नागवल्यां नागदन्त्यां नागशब्दः प्रयुज्यते ॥ मांसे द्रवे चक्षुरसे पारदे मधुरादिषु ॥ बालरोगे विषे नीरे रसो नवसु वर्तते ॥ ४॥ इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटः समाप्तः॥ टीका-अनन्तर बहुत अर्थवाले नाम अक्षशब्द आठमें कहाहै सौचल बहेडा इन्द्रिय वासा और ककास काकामाची काकोली गुञ्जा काकजंघा कौव्वा ठोठी कठिया गूलर सात अर्थों में काशशब्द बुद्धिवानोंने कहेहैं साप गज मेंढा सीसा नागकेसर नागवला नागदन्ती इनमें नागशब्द कहाहै मांसमें द्रव वस्तु ईखके रसमें पारेमें मधुरादिकमें बालरोगमें जलमें इन नवोंमें रसशब्दहै. इति हरीतक्यादिनिघंटकी भाषाटीका समाप्ता । से समाप्तोयं ग्रंथः - - - - - समाजामाजमाछालामाल MPTIPPINIYA For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेचनेकू तैयार हैं. नाडीज्ञानतरंगिणी. भाषाटीकासह छपके तैयार है. यह वैद्योंकों बहुतही उपयोगी है. कीमत रु. १ (८.४ आ.) लोलिंबराज. भाषाटीकासह छपके तयार है. इसमें श्रृंगाररसयुक्त वैद्यक है. कीमत रु. । (ट. ४ आ.) माधवनिदान. आतंकदर्पण टीकानुसारी भाषाटीकासह. अतिउत्तम कागजपर, अक्षर बहुत अच्छा है. कीमत रु. ३ (ट. ६ आ.) शाइधर. भाषाटीकासह सुंदर टाइपसें अतिउत्तम कागजपर छापा है. कीमत रु. ३ (ट. ६ आ.) अमृतसागर. भाषाग्रंथ कीमत रु. ३ (ट. ८ आ.) योगचिंतामणि. भाषाटीकासह वैद्यकग्रंथ अति उत्तम कागजपर __सुंदर टाइपसे छपके तैयार है. कीमत रु. १॥ (ट. ४ आ.) भावप्रकाश. वैद्यकग्रंथ. कीमत रु. ७ (ट. ६ आ.) वाग्भट सटीक. (अष्टांगहृदय.) कीमत रु. ८ (ट. १०. आ.) श्रीमद्भागवतम्. (सुललितसरलहिंदुस्थानी) भाषाटीकयासमेतम् कि० रु०१३ ट० ख० रु०२ For Private and Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुभसागर. अर्थात् श्रीमद्भागवतका हिंदुस्थानी भाषांतर. कि. रु. ६८.ख. १रु. श्रीमद्भागवत. विजयध्वजीटीकासह तैयार है. यह टीका अतिउत्तम है. जो विद्वान देखेंगे सो अवश्य प्रसन्न होवेंगे. तिसमें भी मध्वसंप्रदायीको परम लाभ है. कीमत रु० १०, ८०रु०२ ग्रंथसंख्या अंदाज से ८०००० तुलसीकृत रामायण अष्टम लवकुशकांडसहित. दो. तातखर्ग अपवर्गसुख, धरीतुलाइकअंग ऊपर लिखेहुवे नमूने के बड़े अक्षरोंकी रामायण आठ कांडोंकी हमारे पास अतिउत्तम कागजपर उत्तम छपाईकी तय्यार है. उसमें विषय - माहात्म्य, क्षेपक संख्या १०६, श्री रघुनाथदासजीकृत विश्रामअंग, तुलसीदासजीका जीवनचरित्र, श्लोकार्थ, छंदार्थ, गूढार्थदीपिका वा गूढार्थचिंतामणि, इतिहास, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका, चित्रबंध और अष्टम लवकुशकांडसहित छपी है. की. रु.५८. रु. १ लावण्यवतीसुदर्शननाटक. यह नाटक अत्युत्तम है, उत्तम विद्वान कृत है, सो हमारे यहां छपके तैयार है. कीमत रु. १ ( ८. ४ आना. ) पुस्तक मिलनेका ठिकाणा हरिप्रसाद भगीरथजी, काळकादेवीरोड, रामवाडी, मुंबई. For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving JinShasan 045916 gvan mandir@kcbatirth org For Private and Personal Use Only