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दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः।
३१५ शरद्रीष्मवसन्तेषु प्रायशस्तद्विगर्हितम् । ज्वरामृपित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्डामयभ्रमान् ॥ ६६ ॥ प्राप्नुयात्कामलां चोयां विधिं हित्वा दधिप्रियः। दधस्तूपरि यो भागो घनः स्नेहसमन्वितः ॥ ६७ ॥ स लोके सर इत्युक्तो भदो मण्डस्तु मस्त्विति । सरः स्वादुर्गुरुर्वृष्यो वातवह्निप्रणाशनः ॥ ६८॥ साम्लो बस्तिप्रशमनः पित्तश्लेष्मविवर्धनः । मस्तु कमहरं बल्यं लघु भक्ताभिलाषकत् ॥ ६९॥ स्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णानिलापहम् ।
अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसंचयम् ॥ ७० ॥ टीका-शर्कराके सहित दही श्रेष्ठ तृषा रक्त पित्त दाह इनको जीतनेवाला है ॥६२॥ और गुडके सहित वातनाशक शुक्रकों करनेवाला पुष्ट तर्पण भारी होतीहै अब रातमें दधिभोजनका निषेध रातमें दही न खावै और शर्करा घृतकेभी विना न खावै ॥ ६३ ॥ तथा विनामुद्गकी दालके और विना मधुकेभी न खावै और न गरम आवलोंकेविना न खावै रातमें दही न खावै और खावै तो बेघी शक्कर मृगकी दाल मधु उष्ण विनाआंवलोंकेभी दही न खावै उस्से घृतशर्करादियुक्त दही रातमेंभी खावै यह अर्थ है ऐसे कहाहै रातमें दही प्रशस्त नहीं है और जल घृतसे युक्त प्रशस्तहै ॥ ६४॥ रक्त पित्त कफके विकारोंमें वोह प्रशस्त नहींहै हेमन्त शिशिर और वर्षामें दही प्रशस्त है ॥६५॥ और शरद ग्रीष्म वसन्तमें प्रायः वोह विदित है अब विनाविधिसें दधि सेवनमें दोष कहतेहैं ज्वर रक्तपित्त वीसर्प कुष्ठ पांडुरोग भ्रम ॥६६॥ और उग्रकामलारोग यह विधि छोडके दही सेवन करनेसे होतेहैं दहीके ऊपरका जो गाढा चिकनाईसें युक्त हिस्साहै ॥ ६७ ॥ उसकों लोकमें सर ऐसा कहतेहैं और दहीके पानीकों मस्तु ऐसा कहाहै सर मधुर भारी शुक्रकों करनेवाला वात अग्निकों हरता ॥ ६८॥ और खटाईके सहित बस्तिका शमन करनेवाला पित्त कफकों बढानेवालाहै दहीका पानी श्रमहरता बलके हित हलका भोजनमें रुचिकों करनेवाला ॥ ६९ ॥ सोतोंका शोधन करनेवाला ह्रादि कफ तृषा वात इनकों हरताहै अदृष्य प्रीणन और शीघ्र मलके संचयकों फोडताहै ॥ ७० ॥ इति दधिवर्गः।
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