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दुग्धदधितक्रघृतमूत्रवर्गः। पाके लघ्वाविकं सर्पिः सर्वरोगविनाशनम् ॥ १०४॥ वृद्धिं करोति चास्थीनामश्मरीशर्करापहम् ।
चक्षुष्यमग्निकदृष्यं वातदोषनिवारणम् ॥ १०५॥ टीका-गायके घृतका गुण गायका घृत विशेषकरके नेत्रके हित शुक्रकों करनेवाला अग्निकों करनेवाला ॥ ९८ ॥ मधुर पाकको करनेवाला शीतल और वात पित्त कफ इनकों हरताहै और मेघा लावण्य कान्ति ओज तेज इनकी परमवृद्धिकों करनेवाला ॥ ९९ ॥ अलक्ष्मी पापराक्षस इनकों हरता वयका स्थापक भारी बलके हित पवित्र आयुके हित सुमंगल्य रसायन ॥ १०० ॥ सुगन्ध रोचन सुंदर सबतोंसें गुणमें अधिकहै अनन्तर भैसके घृतका गुण भैसका घृत मधुर पित्त रक्त वात इनकों हरता ॥ १०१ ॥ शीतल कफकों करनेवाला शुक्रकों करनेवाला भारी और पाकमें मधुर होताहै अनन्तर बकरीके घृतका गुण बकरीका घृत अग्निकों करताहै
और नेत्रके हित बलकों बढानेवाला ॥ १०२॥ कास श्वास क्षयमेंभी हितहै और पाकमेंभी कटुहै अनन्तर ऊंटनीका घृत ऊंटनीका घृत पाकमें कटु और शोष कृमि विष इनकों हरता ॥ १०३ ॥ दीपन कफ वातकों हरता कुष्ठ वायगोला उदररोग इनकों हरताहै भेडका घृत पाकमें हलका सब रोगकों हरता ॥ १०४॥ और हहियोंकी वृद्धिकों करता है तथा पथरी शर्करा इनकों हरताहै नेत्रके हित अग्निकों करनेवाला और वातदोषका निवारकहै ॥ १०५॥
__ अथ नारीअश्वदुग्धह्यस्तनदधिघृतगुणाः, कफेऽनिले योनिदोषे पित्ते रक्ते च तद्धितम् । चक्षुष्यमाज्यं स्त्रीणां वा सर्पिः स्यादमृतोपमम् ॥१०६॥ वृद्धिं करोति देहाग्नेर्लघु पाके विषापहम् । तर्पणं नेत्ररोगघ्नं दाहनुबडवाघृतम् ॥ १०७ ॥ घृतं दुग्धभवं ग्राहि शीतलं नेत्ररोगहृत् । निहन्ति पित्तदाहास्त्रमदमूर्छाभ्रमानिलान् ॥ १०८॥ हविस्तनदुग्धोत्थं तत्स्याद्वैयङ्गवीनकम् । हैयङ्गवीनं चक्षुष्यं दीपनं रुचिकृत्परम् ॥ १०९॥ बलकवृंहणं वृष्यं विशेषाज्ज्वरनाशनम् ।
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