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हरीतक्यादिनिघंटे ण्डभी उसीके समान गुणमेंहै कच्चा अनार्तव अजीर्ण व्याधित कीडोंने खायाहुवा ॥११५ ॥ ऐसा सब कन्द त्यागदेवै अथवा जो अग्नि आदिसें दूषित बहुत जीर्ण वे मौसमका रूखा सिद्धकिया अदेशज ॥११६ ॥ अतिकर्कश अतिकोमल और शीतल सर्पआदिसें दूषित वहुत सूखाहुवा सब शाकमूलीके विना न सेवन करै ११७
अथ स्वदेशजशाकानि तेषां नामानि गुणाश्च. उक्तं संस्वेदजं शाकं भूमिछन्नं शिलीन्ध्रकम् । क्षितिगोमयकाष्ठेषु वृक्षादिषु तदुद्भवेत् ॥ ११८ ॥ सर्वे संस्वेदजाः शीता दोषलाः पिच्छिलाश्च ते। गुरवश्छद्यतीसारज्वरश्लेष्मामयप्रदाः ॥ ११९ ॥ श्वेतशुभ्रस्थलीकाष्ठवंशगोव्रणसंभवाः । नातिदोषकरास्ते स्युः शेषास्तेभ्यो विगर्हिताः ॥ १२०॥
इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे शाकवर्गः समाप्तः । टीका-तेलआदिसें न सिद्धहुवा रूक्ष शुभस्थान हुवा अब संवेदज शाक उनके नाम और गुण कहतेहैं संस्वेदज शाक उसे कहतेहैं जो दवीपडीहुवी जमीनसें होताहै उसे शिलीन्ध्रक कहतेहैं पृथ्वी गोवर काष्ठ वृक्ष आदिमेंभी उत्पन्न होताहै उसे कुकुर मुसा कहतेहैं ॥११८ ।। सबसे स्वेदज शीतल दोषकों उत्पन्न करनेवाला पिच्छिल जो होतेहैं वे भारी होते हैं और वमन अतिसार ज्वर कफके रोग इनकों करनेवाले हैं ॥ ११९ ॥ श्वेत और शुभ्र बेवनी हुई जमीन काष्ठवास गोव्रण इनसे उत्पन्न अतिदोष करनेवाले नहींहैं बाकी उनसें निन्दितहैं संस्वेदज इस्कों छाता इसप्रकार लोकमें कहते हैं ॥ १२०॥
इति हरीतक्यादिनिघंटे शाकवर्गः समाप्तः ।
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