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हरितक्यादिवर्गः ।
समुद्रफेनश्चक्षुष्यो लेखनः शीतलश्च सः ॥ ११९ ॥ कषायो विषपित्तघ्नः कर्णरुक्कफहल्लघुः ।
टीका - समुद्रफेन १, फेन २, डिण्डीर २, अब्धिकफ ४, ये चार समुद्रफेनके नाम हैं, समुद्रफेन नेत्रनकों हित करनेवाला है, लेखन और शीतल होता है ॥ ११९ ॥ और कसेला है, विषका तथा पित्तका नाश करनेवाला है, और हलका है.
अथ अष्टवर्गस्य लक्षणगुणाः.
taarat मेदे काकोल्यो ऋद्धिवृद्धिके ॥ १२० ॥ अष्टवर्गोऽष्टभिर्द्रव्यैः कथितश्वरकादिभिः । अष्टवर्गों हिमः स्वादुबृंहणः शुक्रलो गुरुः ॥ १२१ ॥ भग्नसंधानकृत् कामबलासबलवर्धनः ।
वातपित्तास्रतृदाहज्वरमेहक्षयापहः ॥ १२२ ॥
टीका - जीवक १, ऋषभक २, मेदा ३, महामेदा ४, काकोली ५, क्षीरकाकोली ६, ऋद्धि ७, वृद्धि ८, ॥ १२० ॥ इन आठोंके मिलानेकों अष्टवर्ग कहते हैं, ये चरकादिमुनियोंका वाक्य है. अष्टवर्ग शीतल है, मधुर है, और धातुओंकी वृद्धि करनेवाला है, और वीर्यकों पैदा करनेवाला है, और भारी है ॥ १२१ ॥ टूटेहुए हाडको जोड़नेवाला है, कामदेवको बढानेवाला है, कफ और बल इनकी वृद्धि करनेवाला है. वात, पित्त, रक्त, प्यास, दाह, और ज्वर, प्रमेह तथा क्षय इaar हरनेवाला है ॥ १२२ ॥
अथ जीवकर्षभकोत्पत्तिलक्षणनामगुणाः. जीवकर्षभक ज्ञेयो हिमाद्रिशिखरोद्भवौ । रसोनकन्दवत्कन्दौ निःसारौ सूक्ष्मपत्रकौ ॥ १२३ ॥ जीवकः कूर्चकाकारो ऋषभो वृषशृंगवत् । जीवको मधुरः शृङ्गो ह्रस्वाङ्गः कूर्चशीर्षकः ॥ १२४ ॥ ऋषभो वृषभो धीरो विषाणी द्राक्ष इत्यपि ।
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