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धातुरसरबविषवर्गः।
१८१ बहुत अच्छा है और जो कठिन रूखा विवर्ण समदल दलवाला दाहमें और काटनेमें श्वेत हलका अलग होनेवाला है जो श्वेतहै वोह त्यागनेयोग्यहै ॥ ९॥ दलजोर इसप्रकार लोकमें कहतेहैं सोना शीतल शुक्रकों उत्पन्न करनेवाला बलकारी रसायन मधुर तिक्त कसेला और पाकमेंभी मधुर पिच्छिल ॥ १०॥ पवित्र पुष्ट करनेवाला नेत्रकों हित मेधा स्मृति बुद्धि इनको देनेवाला हृद्य अयुको करनेवाला कान्ति वाणीकी शुद्धि स्थिरता इनकों करनेवाला ॥ ११ ॥ संसर्ग विषकों हरनेवाला उन्माद त्रिदोष ज्वर शोष इनको हरनेवाला अशुद्ध स्वर्ण मनुष्योंका बल वीर्यके सहित हरता है और बहुतसे रोगोंकों करता है और कायाकों सुकाता है तथा क्लेशकों करनेवाला होता है तथा मरणकोंभी करता है ॥ १२ ॥ अच्छीतरह नफूकाहुवा सोना वलवीर्यकों हरताहै और रोगोंकों तथा मृत्युकोंभी करता है उसवास्ते यनसें फूके ॥ १३ ॥
अथ रूप्यस्योत्पत्तिनामलक्षणगुणाश्च. त्रिपुरस्य वधार्थाय निनिमिषैर्विलोचनैः। निरीक्षयामास शिवः क्रोधेन परिपूरितः ॥ १४ ॥
अग्निस्तत्कालमपतत्तस्यैकस्माद्विलोचनात् । ततो रुद्रः समभवद्वैश्वानर इव ज्वलन् ॥ १५॥ द्वितीयादपतन्नेत्रादश्रुबिन्दुस्तु वामकात् । तस्माद्रजतमुत्पन्नमुक्तकर्मसु योजयेत् ॥ १६ ॥ कृत्रिमं च भवेत्तद्धि वङ्गादिरसयोगतः। रूप्यं तु रजतं तारं चन्द्रकान्तिसितप्रभम् ॥ १७॥ गुरु स्निग्धं मृदु श्वेतं दाहे छेदे घनक्षमम् । वर्णाढयं चन्द्रवत्स्वच्छं रूप्यं नवगुणं शुभम् ॥ १८॥ कठिनं कृत्रिम रूक्षं रक्तं पीतदलं लघु।
दाहच्छेदधनैर्नष्टं रूप्यं दुष्टं प्रकीर्तितम् ॥ १९॥ टीका-चांदीकी उत्पत्ति नाम और लक्षण गुण त्रिपुरासुरके मारनेके अर्थ क्रोधसें भरेहुवे शिवजीने निमेषरहित नेत्रोंसें देखा ॥ १४ ॥ उसीकाल उनके एकनेत्रसें अग्नि निकाला अग्निके समान जाज्वल्यमान उस्सें रुद्र हुवा ॥ १५॥ दू
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