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हरीतक्यादिनिघंटे
सरी बांई आंख जो आंसू गिरी उस्सें चांदी उत्पन्न हई उस्कों कहे हुवे काममें योजना करे || १६ | और वोह रजत और पारा आदिकी योजनासें कृत्रिमभी होती है रूप्य रजत तार चंद्रकान्ति सितप्रभ ॥ १७ ॥ यह चांदी के नाम हैं चांदी भारी चिकनी मुलायम दाहमें और काटनेमें श्वेत और चोट सहनेवाली और चांदीके समान श्वेत स्वच्छ यह चांदी के तो गुण शुभ है || १८ || और कृत्रिम कठिन रूखी लालपीले परदोंसें युक्त हलकी दाहमें काटनेमें और चोटमें नष्ट होनेवाली इसप्रकारकी चांदी खराब होती है ॥ १९ ॥
रूप्यं शीतं कषायाहं स्वादुपाकरसं सरम् |
वयसः स्थापनं स्निग्धं लेखनं वातपित्तजित् ॥ २० ॥ प्रमेहादिकरोगांश्च नाशयत्यचिराद्भुवम् ।
तारं शरीरस्य करोति तापं विद्धं घनं यच्छति शुक्रनाशनम् २१ वीर्यं बलं हन्ति तनोश्च पुष्टिं महागदान शोषयति शुद्धम् ।
टीका - चांदी शीतल कसेली खट्टी और रसपाक में मधुर सर वयकों स्थापन करनेवाली चिकनी लेखन वातपित्तकों करनेवाली है || २० | और प्रमेह आदि रोगोंकों निश्चय नाश करती है विनाशोधी चांदी शरीर में ताप करती है और वधे हुए तथा गाढे शुक्रकों हरती है || २१ || और वीर्य बल तथा शरीरकी पुष्टिकों हरती है और बडेरोगोंकों सुखाती है ॥
अथ ताम्रस्य उत्पत्तिर्नामलक्षणगुणाश्च. शुक्रं यत्कार्तिकेयस्य पतितं धरणीतले । तस्मात्तात्रं समुत्पन्नमिदमाहुः पुराविदः ॥ २२ ॥ ताम्रमोदुंबरं शुल्बमुदुंबरमपि स्मृतम् । रविप्रियं म्लेच्छमुखं सूर्यपर्यायनामकम् ॥ २३ ॥ जपाकुसुमसङ्काशं स्निग्धं मृदु घनक्षमम् । लोहनागोज्झितं ताम्रं मारणाय प्रशस्यते ॥ २४ ॥ कृष्णं रुक्षमतिस्तब्धं श्वेतं चापि घनासहम् । लोहनागयुतं चेति शुल्वं दुष्टं प्रकीर्तितम् ॥ २५ ॥
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