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धान्यवर्गः। रक्तशालिवरस्तेषु बल्यो वर्ण्यस्त्रिदोषजित् । चक्षुष्यो मूत्रलः स्वर्यः शुक्रलस्तृड्ज्वरापहः ॥ १३ ॥ विषव्रणश्वासकासदाहनुदन्हिपुष्टिदः ।।
तस्मादल्पान्तरगुणाः शालयो महदादयः ॥ १४ ॥ टीका-कैदार अर्थात् जोतेहुवे खेतमें वोयेहुवे स्थलमें उत्पन्न हुवे मधुर पित्तकफकों हरते वातपित्तकों करनेवाले कुछ एक तिक्त और कसेले विपाकमेंभी कटु होतेहैं ॥ ९॥ स्थलज अर्थात् विनाजोतेहुवे जमीनमें हुवे स्वयं उत्पन्न हुवे वोये हुवे मधुर शुक्रकों करनेवाले बलकों देनेवाले पित्तहरतेहैं कफकों करनेवाले थोडे मलकों करनेवाले कसेले शीतल भारी होतेहैं ॥ १०॥ वोयेहुवे जोते खेतमें और बेजोते खेतमें वोये हुवोंसे कुछ गुणमेंही नयेवोयेहुवे कहेहैं जोतेहुवे खेतमें अथवा बेजोतेहुवे खेतमें वोयेहुवे नये शुक्रकों करनेवालेहैं और पुराने हलके कहहैं उनसे बेवोयेहुवे शीघ्रपाकवाले और गुणमें अधिक कहेहैं ॥ ११॥ कोमल कटेहुवे शीतल रूखे बलकों करनेवाले पित्त कफको हरते मलकों बांधनेवाले कसेले हलके थोडे तिक्त होतेहैं ॥ १२ ॥ उनमें लालधान श्रेष्ठहै बलकों और वर्णकों करनेवाले शुक्रकों करनेवाले तृषा ज्वरकों हरतेहैं ॥ १३ ॥ और विष व्रण श्वास कास दाह इनकों हरते अग्नि और पुष्टिकों देनेवाले हैं उससे अल्पान्तरगुण महाशालि आदिमें है लालधान इस्को लोकमें दाउदखानी इसप्रकार कहते हैं यह मगधदेशमें प्रसिद्धहै ॥११॥
अथ व्रीहिधान्यस्य लक्षणं गुणाश्च. वार्षिकाः कण्डिताः शुक्ला व्रीहयश्चिरपाकिनः । कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटाण्डक इत्यपि । शालामुखो जतुमुख इत्याद्या व्रीहयः स्मृताः ॥ १५ ॥ कृष्णव्रीहिः स विज्ञेयो यकृष्णतुषतण्डुलः। पाटलः पाटलापुष्पवर्णको व्रीहिरुच्यते ॥ १६ ॥ कुक्कुटाण्डारूतिर्कीहिः कुक्कुटाण्डक उच्यते । शलामुखः कृष्णशूकः कृष्णतण्डुल उच्यते ॥ १७ ॥ लाक्षावर्णं मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः।
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