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वारिवर्गः ।
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षोंकों जाने || ३६ || अनन्तर औद्भिदका लक्षण और गुण भूमिकों ढालवां खahast धारसें जो जल गिरता है उस जलकों औद्भिद ऐसा महिर्षियोंने कहा है ॥ ३७ ॥ औद्भिदजल पित्तहरता अविदाहि अतिशीतल होता है और प्रीणन मधुर बलhहित थोडा वातकों करनेवाला हलका होता है ॥ ३८ ॥
अथ नैर्झरसारसताडागलक्षणं गुणाश्व. शैलसानुवन्वारि प्रवाहो निर्झरो झरः । स तु प्रणश्चापि तत्रत्यं नैर्झरं जलम् ॥ ३९॥ नैर्झरं रुचिकन्नीरं कफघ्नं दीपनं लघु । मधुरं कटुपाकं च वातलं स्यादपित्तलम् ॥ ४०॥ नयाः शैलादिरुद्धाया यत्र संस्रुत्य तिष्ठति । तत्सरो जलसंछन्नं तदम्भः सारसं स्मृतम् ॥ ४१ ॥ सारसं सलिलं बल्यं तृष्णानं मधुरं लघु । रोचनं तुवरं रूक्षं बद्धमूत्रमलं स्मृतम् ॥ ४२ ॥ प्रशस्त भूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः । जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तज्जलं स्मृतम् ॥ ४३ ॥ ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च । वातलं बद्धविण्मूलमसृक् पित्तकफापहम् ॥ ४४ ॥
टीका - पहाडी तराईसें झिरनेवाला जलप्रवाह जो आता है उसकों निर्झर और प्रस्रवणभी कहते हैं उसका पानी नैर्झर है || ३९ ॥ झरनेका पानी रुचिकों करनेवाला कफहरता दीपन हलका मधुर पाकमें कटु वात तथा पित्तकों करनेवालाहै ॥ ४० ॥ अब सारसका लक्षण पहाड आदिसें रुकी हुई नदीका जल जहांपर बहकर ठहरता है वोह आच्छादित सरोजल है उस्का पानी सारस कहाहै ॥ ४१ ॥ सारसजल बलकेहित तृषाकों हरता मधुर हलका रोचन कसेला रूखा मलमूत्रकों रोकनेवाला कहाहै ॥ ४२ ॥ प्रशस्त भूमिभागका बहुत वरसका पुराना जलाशय तालाव होता है उसका पानी ताडाग कहा है ॥ ४३ ॥ तालावका पानी मधुर कसेला पाकमें कटु वातल मलमूत्रकों बांधनेवाला और रक्त पित्त कफ इनकों हरताहै ॥ ४४ ॥
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