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हरीतक्यादिनिघंटे
अथ वाप्यकौपचौंजलक्षणं गुणाश्च.
पाषाणैरिष्टकाभिर्वा बद्धः कूपो बृहत्तरः । ससोपाना भवेद्वापी तज्जलं वाप्यमुच्यते ॥ ४५ ॥ वाप्यं वारि यदि क्षारं पित्तकृत्कफवातहृत् । तदेव मिष्टं कफत् वातपित्तहरं भवेत् ॥ ४६ ॥ भूमौ खातोऽल्पविस्तारो गम्भीरो मण्डलाकृतिः । aaiseः स कूपः स्यात्तदम्भः कौपमुच्यते ॥ ४७ ॥ कौपं पयो यदि स्वादु त्रिदोषघ्नं हितं लघु । तत्क्षारं कफवातघ्नं दीपनं पित्तकृत्परम् ॥ ४८ ॥ शिलाकीर्ण स्वयं श्वभ्रं नीलाञ्जनसमोदकम् । लतावितानसंछन्नं चौंज्यमित्यभिधीयते ॥ ४९ ॥ अश्मादिभिरबद्धं यत्तच्चयमिति वापरे । तत्रत्यमुदकं चौथं मुनिभिस्तदुदाहृतम् ॥ ५० ॥ चौयं वह्निकरं नीरं रूक्षं कफहरं लघु । मधुरं पित्तदुच्यं पाचनं विशदं स्मृतम् ॥ ५१ ॥ अल्पं सरः पल्वलं स्याद्यत्र चन्द्रर्क्षगे रखौ ।
न तिष्ठति जलं किञ्चित्तत्रत्यं वारि पाल्वलम् ॥ ५२ ॥ पाल्वलं वार्यभिष्यन्दि गुरु स्वादु त्रिदोषत् ।
टीका --- पत्थर अथवा इटोंसें बहुत बनायाहुवा कूवा सीढियोंके सहित वोह arast है और उसके जलकों वाप्य कहते हैं ॥ ४५ ॥ बावडीका पानी यदि खारा होवे तो वोह पित्त करनेवाला कफवातकों हरता कहा है वोही मीठा कफकरनेवाला वातपित्तकों हरता है ॥ ४६ ॥ अनन्तर कूवेके जलका लक्षण और गुण भूमिमें थोडा चौडा गहरा गोल खोदाहुवा बन्धवावे बंधाहुवा वोह कूपहै उसका जल कौप कहा ॥ ४७ ॥ कूका पानी यदि मधुर हो तौ त्रिदोष हरता हलका हित होता है और वोह खारा कफवातकों हरता दीपन अत्यन्त पित्त करनेवाला है | ४८ ॥ अनन्तर चौञ्जका लक्षण और गुण शिलाओंसें आकीर्ण खुदा गढाहुवा नीला सुर
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