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धातुरसरत्नविषवर्गः।
अथ कर्दम तथा बोलगुणाः. कर्दमो दाहपित्तातिशोथनः शीतलः सरः । बोलगन्धरसप्राणः पिण्डगोपरसाः समाः ॥ १५०॥ बोलं रक्तहरं शीतं मेध्यं दीपनपाचनम् । मधुरं कटु तिक्तं च दाहस्वेदत्रिदोषजित् ॥ १५१ ॥
ज्वरापस्मारकुष्टघ्नं गर्भाशयविशुद्धिकत् । टीका-कीचड दाह पित्त पीडा सूजन इनकों हरती शीतल सर है बोल गन्धरस प्राण पिण्डगोपरस यह बोलके नाम हैं ॥ १५० ॥ बोल रक्तहरता शीतल मेधाकों करनेवाला दीपन पाचन मधुर कटु तिक्त और दाह पसीना तथा त्रिदोष इनको हरनेवाला है ॥१५१॥ ओज ज्वर मिरगी कुष्ट इनकों हरता और गर्भाशयकों शुद्ध करनेवाला होताहै.
अथ कङ्गुष्ठोत्पत्तिलक्षणनामगुणाः. हिमवत्पादशिखरे ककुष्ठमुपजायते ॥ १५२ ॥ तत्रैकं रक्तकालं स्यात्तदन्यदण्डकं स्मृतम् । पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठं ककुष्ठमादिशेत् ॥ १५३ ॥ श्यामं पीतं लघु त्यक्तसत्वं नेष्ठं तथाण्डकम् । कष्ठं काककुष्टं च वराङ्ग कोलकाकुलम् ॥ १५४ ॥ कङ्गुष्ठं रेचनं तिक्तं कटूष्णं वर्णकारकम् ।
कमिशोथोदराध्मानगुल्मानाहकफापहम् ॥ १५५॥ टीका-कंकुष्ठ यह एक किस्मकी पहाडी मट्टीहै उस्की उत्पत्ति लक्षण नाम गुण कहतेहैं हिमाचलपर कंकुष्ठ होताहै ॥१५२॥ उस्में एक रक्त काला होताहै और उस्से दूसरा अंडक कहागया है पीला भारी चिकना ऐसेको श्रेष्ठ कंकुष्ठ कहते है ॥१५३॥ और काला पीला हलका और बेसत्त्व यह अच्छा नहीं इस्को अंडक कहतेहैं कंकुष्ठ काककुष्ठ वराङ्ग कोलकाकुल यह कंकुष्ठके नाम हैं ॥१५४॥ कंकुष्ठ रेचन तिक्त कटु उष्ण वर्णको करनेवाला और कृमि सूजन उदर आध्मान वायगोला अ. फारा कफ इनको हरताहै ॥ १५५ ॥
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