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हरीतक्यादिनिघंटे ____टीका-मुखपूर्वक योगमें देनेयोग्य होती है और सुलभ सबरोगोंमें प्रशस्त होती है. हरीतकी पांच रसोंसे युक्त और लवणसे रहित तथा बहुत कसेली होती है ॥१८॥
रूक्षोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाका रसायनी । चक्षुष्या लघुराशिष्या बृहणी चानुलोमनी ॥ १९॥ श्वासकाशप्रमेहार्श कुष्ठशोथोदरकृमीन् ।
वैस्वर्यग्रहणीरोगविबन्धविषमज्वरान् ॥ २०॥ टीका-रूखी, गरम, अग्निको दीपनकरनेवाली, पवित्र, मधुरपाकवाली, रसायनी होती है, नेत्रोंकों हित करनेवाली और हलकी तथा आयुको हितकारक बृंहणी तथा वायु और मलकों नीचे करनेवाली होती है ॥ १९ ॥ स्वास, कास, प्रमेह, ववासीर, कोढ, सूजन, उदररोग, कृमि, स्वरभंग, ग्रहणी, विबंध अर्थात् कवजियत और विषमज्वर ॥ २०॥
गुल्माध्मानतृषाच्छर्दिहिकाकंडूहदामयान् । कामलां शूलमानाहं प्लीहानं च यत्तथा ॥ २१ ॥ अश्मरी मूत्रकृच्छंच मूत्राघातं च नाशयेत् ।
स्वादुतिक्तकषायत्वात्पित्तहत्कफहत्तु सा ॥ २२ ॥ टीका–चायुगोला, आध्मान, तृषा, वमन, हुचकी, खाज, हृदयरोग, कामला, शूल, अफरा, तापतिल्ली, ॥२१॥ पथरी, मूत्रकृच्छ्र, और मूत्राघात इतने रोगोंकों हरीतकी नाश करती है. मीठापनसें और तीखापनसें तथा कसेलेपनसे ये पित्तका नाश करती है और कफकाभी नाश करती है ॥ २२॥ ।
कटुतिक्तकषायत्वादम्लत्वादातहच्छिवा । पित्तकृत्कटुकाम्लत्वाहातकन्न कथं शिवा ॥ २३ ॥ प्रभावाद्दोषहन्तृत्वं सिद्धं यत्तत्प्रकाश्यते । हेतुभिः शिष्यबोधार्थं न पूर्वं कथ्यतेऽधुना ॥ २४ ॥ कर्मान्यत्वं गुणैः साम्यं दृष्टमाश्रयभेदतः।
यतस्ततो नेति चिन्त्यं धात्रीलकुचयोर्यथा ॥ २५॥ टीका-कटुपनेसें और तिक्तपनेसें तथा कसेलेपनेसें और खट्टेपनेसें हरीतकी वातका नाश करती है. कडवे और खट्टेपनसें हरीतकी पित्तकों करनेवाली है. तब वा
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