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हरीतक्यादिवर्गः ।
स्थूलग्रन्थिसमा ऋद्धिर्वामावर्तफला च सा ॥ १३९॥ वृद्धिस्तु दक्षिणावर्तफला प्रोक्ता महर्षिभिः । ऋद्धिर्युग्मं सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धेरप्याह्वया इमे ॥ १४० ॥ ऋद्धिर्मत्स्या त्रिदोषघ्नी शुक्रला मधुरा गुरुः । प्राणैश्वर्यकरी मूर्छारक्तपित्तविनाशिनी ॥ १४१ ॥ वृद्धिर्भप्रदा शीता बृंहणी मधुरा स्मृता । वृष्या पित्तास्त्रशमनी क्षतकासक्षयापहा ॥ १४२ ॥ राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः ।
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तस्मादस्य प्रतिनिधिगृह्णीयात्तगुणं भिषक् ॥ १४३ ॥ टीका- अब ऋद्धिवृद्धिकी उत्पत्ति और नाम तथा गुण कहते हैं. ऋद्धि और वृद्धि ये दोनों कंद हैं, और यामलदशेमें पैदा होते हैं. सफेद लोमकरिके युक्त क न्द छिद्रसहित लतानमें उत्पन्न होता है ॥ १३८ ॥ उसीकों वैद्यलोग ऋद्धिवृद्धी क हते हैं. अब उनके भेद लिखते हैं. जैसी सेमरकी गांठ होती है, तैसी वामावर्तफलवालीकों ऋद्धि कहते हैं ॥ १३९ ॥ और महर्षियोंनें दक्षिणावर्त फलवालीकों वृद्धि नाम करके कही हैं. दोनोंवृद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी ये ऋद्धीके नाम हैं ॥१४०॥ अब इनके गुण कहते हैं. ऋद्धि त्रिदोषकों नाश करनेवाली है, और वीर्यकों पैदा करनेवाली मधुर तथा भारी होती है, और प्राण तथा ऐश्वर्यकी करनेवाली है, और मूर्छा, रक्तपित्त, इनको हरनेवाली है ॥ १४१ ॥ और वृद्धि गर्भकों धारण करनेवाली है, शीतल तथा पुष्टि करनेवाली, और मधुर हैं. पुरुषोंकी शक्तीकों बढानेवाली है. रक्तपित्तको नाश करनेवाली है. क्षत, कास, और क्षय, इनकों हरनेवाली है ॥ १४२ ॥ यह अष्टवर्ग राजाओंकोंभी दुर्लभ हैं, तिसकारणसें इनकी प्रतिनिधि आर्थात इन्ही समान गुणवाली औषधोंकों वैद्य ग्रहण करे || १४३ ॥ एतस्य प्रतिनिधिमाह.
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मेदा जीव काकोली ऋद्धिवृद्धयपि चासती ।
वरी विदार्यश्वगन्धा वाराही च क्रमात्क्षिपेत् ॥ १४४ ॥ मेदामहामेदास्थाने शतावरीमूलं, जीवकर्षभकस्थाने विदारीमूलं,