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हरीतक्यादिनिघंटे ॥ १९० ॥ विष प्राणहर कहा है और व्यवायि तथा विकाशि और अग्निगुणवाला वातकफकों हरता योगवाही तथा मद करनेवाला है ॥ १९१ ॥
व्यवायि सकलकायगुणव्यापनपूर्वकं पाकगमनशीलं । विकाशि ओजःशोषणपूर्वकं सन्धिबन्धशिथिलीकरणशीलम् आग्नेयम् अधिकाम्यं योगवाहि सङ्गिगुणग्राहकं मदावहम् । तमोगुणाधिक्येन बुद्धिविध्वंसकम् ।
तदेव युक्तियुक्तं तु प्राणदायि रसायनम् । योगवाहि त्रिदोषघ्नं बृंहणं वीर्यवर्धनम् ॥ १९२ ॥ ये दुर्गुणा विषेऽशुद्धे ते स्युहीना विशोधनात् । तस्माद्विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत् ॥ १९३ ॥ अर्कक्षीरं स्नुहीक्षीरं लागली करवीरकः ।
गुञ्जाहिफेनो धत्तूरः सप्तोपविषजातयः ॥ १९४ ॥ इति श्रीहरतक्यादिनिघंटे धातूपधातुरसोपरसर
नोपरत्नविषोपविषवर्गः।। टीका-संपूर्ण शरीरगुण व्यापनपूर्वक होनेवाला व्यवायि है ओजका शोषणपूर्वक जोडोंके बन्धनकों शिथिल करनेवाला आग्नेय अर्थात् बहुत गरम योगवाही अर्थात् संगवालेके गुणको ग्रहण करनेवाला तमोगुणकी अधिकतासे बुद्धिकों हरता वोही युक्तिपूर्वक योजना कियाहुवा पाणदेनेवाला रसायन योगवाही त्रिदोष हरता बृंहण वीर्यकों बढानेवालाहै ।। १९२॥ जो दुर्गुण अशुद्ध विषमें है वोह यशोधनसें हीन हो जाता है ॥१९३॥ आकका दूध थूहरका दूध करिहारी कनेर चिरमिठी अफीम धतूरा यह सात जात उपविषकी हैं उपविष अर्थात् गौणविष इनका गुण वहां वहांपर देखलेना ॥ १९४ ॥ इति हरीतक्यादिनिघंटे धातु उपधातु रस उपरस रत्न उपरत्न विप
उपविषवर्गः समाप्तः
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