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हरीतक्यादिनिघंटे
टीका - सैंधव १, शीतशिव २, माणिमंथ ३, सिंधुज ४, ये सेंधेनमकके नाम हैं ॥ २४९ ॥ ये स्वादु, दीपन, पाचन, तथा हलका, होता है. चिकना, और रुचिको बढानेवाला, शीतल, कामदेवको बढानेवाला, सूक्ष्म, नेत्रोंका हितकारक, और त्रिदोषकों हरनेवाला है ।। २४२ ॥
अथ क्षाकंभरी (सांभरनमक) नामगुणाः. शाकंभरीयं कथितं गुडाख्यं रोमकं तथा ।
गुडाख्यं लघु वातघ्नमत्युष्णं भेदि पित्तलम् ॥ २४३ ॥ तीक्ष्णोष्णं चापि सूक्ष्मं चाभिष्यन्दि कटुपाकि च ।
टीका - शाकंभरि १, गुडाख्य २, रोमक, ३, ये सांभरनमकके नाम हैं. ये हलका, वातनाशक, गरम, भेदी, तथा पित्तकों पैदा करता है || २४३ || और तीखा, गरम, सूक्ष्म, अभिष्यन्दी हैं, तथा पाकमें कडवा होता है.
अथ सामुद्र ( पाङ्गानमक) नामगुणाः.
सामुद्रं यत्तु लवणमक्षारं वसरं च तत् ॥ २४४॥ सामुद्रजं सागरजं लवणोदधिसम्भवम् । सामुद्रं मधुरं पाके सतितं मधुरं गुरु ॥ २४५ ॥ नात्युष्णं दीपनं भेदि सक्षारमविदाहि च ।
श्लेष्मलं वातनुत् तिक्तमरूक्षं नातिशीतलम् ॥ २४६ ॥ टीका --- समद्रलोन जो है सो क्षाररहित होता है. वाकों वसर कहे हैं ।। २४४॥ सामुद्रज ?, सागरज २, उदधिसंभव ३, ये पांगालवणके नाम हैं. ये पाकमें ममधुर, थोडा तिक्त, मधुर, और भारी हैं ॥ २४५ ॥ बहुत गरम, और दीपन है, भेदी, थोडा क्षार, और अविदाही होता है. और ये कफजतित वातका नाश क रनेवाला, तिक्त, स्निग्ध, और शीतल होता है ॥ २४६ ॥
अथ बिडनमकनामगुणाः.
विडं पाकं च कतकं तथा द्राविडमासुरम् । बिडं सक्षारमूर्छाधः कफवातानुलोमनम् ॥ २४७ ॥ (ऊर्ध्वं कफमधो वातं संचारयेदित्यर्थः । )
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